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२९२ ] [ मोक्षमार्गप्रकाशक
तथा यदि बाह्यसंयमसे कुछ सिद्धि न हो तो सर्वार्थसिद्धिवासी देव सम्यग्दृष्टि बहुत
ज्ञानी हैं उनके तो चौथा गुणस्थान होता है और गृहस्थ श्रावक मनुष्योंके पंचम गुणस्थान
होता है, सो क्या कारण है? तथा तीर्थंकरादिक गृहस्थपद छोड़कर किसलिये संयम ग्रहण
करें? इसलिये यह नियम है कि बाह्य संयम साधन बिना परिणाम निर्मल नहीं हो सकते।
इसलिये बाह्य साधनका विधान जाननेके लिये चरणानुयोगका अभ्यास अवश्य करना चाहिये।
द्रव्यानुयोगमें दोष-कल्पनाका निराकरण
तथा कितने ही जीव कहते हैं कि द्रव्यानुयोगमें व्रत-संयमादि व्यवहारधर्मका हीनपना प्रगट
किया है। सम्यग्दृष्टिके विषय-भोगादिकको निर्जराका कारण कहा है — इत्यादि कथन सुनकर जीव
स्वच्छन्द होकर पुण्य छोड़कर पापमें प्रवर्तेंगे, इसलिये इनका पढ़ना – सुनना योग्य नहीं है।
उससे कहते हैं — जैसे गधा मिश्री खाकर मर जाये तो मनुष्य तो मिश्री खाना नहीं
छोड़ेंगे; उसी प्रकार विपरीतबुद्धि अध्यात्मग्रन्थ सुनकर स्वच्छन्द हो जाये तो विवेकी तो
अध्यात्मग्रन्थोंका अभ्यास नहीं छोड़ेंगे। इतना करे कि जिसे स्वच्छन्द होता जाने, उसे जिसप्रकार
वह स्वच्छन्द न हो उसप्रकार उपदेश दे। तथा अध्यात्मग्रन्थोंमें भी स्वच्छन्द होनेका जहाँ-
तहाँ निषेध करते हैं, इसलिये जो भली-भाँति उनको सुने वह तो स्वच्छन्द होता नहीं; परन्तु
एक बात सुनकर अपने अभिप्रायसे कोई स्वच्छन्द हो तो ग्रन्थका तो दोष है नहीं, उस
जीवका ही दोष है।
तथा यदि झूठे दोषकी कल्पना करके अध्यात्मशास्त्रोंको पढ़ने-सुननेका निषेध करें तो
मोक्षमार्गका मूल उपदेश तो वहाँ है; उसका निषेध करने से तो मोक्षमार्गका निषेध होता है।
जैसे — मेघवर्षा होने पर बहुतसे जीवोंका कल्याण होता है और किसीको उल्टा नुकसान हो,
तो उसकी मुख्यता करके मेघका तो निषेध नहीं करना; उसी प्रकार सभामें अध्यात्म-उपदेश
होने पर बहुतसे जीवोंको मोक्षमार्गकी प्राप्ति होती है, परन्तु कोई उल्टा पापमें प्रवर्ते, तो उसकी
मुख्यता करके अध्यात्मशास्त्रोंका तो निषेध नहीं करना।
तथा अध्यात्मग्रंथोंसे कोई स्वच्छन्द हो; सो वह तो पहले भी मिथ्यादृष्टि था, अब
भी मिथ्यादृष्टि ही रहा। इतना ही नुकसान होगा कि सुगति न होकर कुगति होगी। परन्तु
अध्यात्म-उपदेश न होने पर बहुत जीवोंके मोक्षमार्गकी प्राप्तिका अभाव होता है और इसमें
बहुत जीवोंका बहुत बुरा होता है; इसलिये अध्यात्म-उपदेशका निषेध नहीं करना।
तथा कितने ही जीव कहते हैं कि द्रव्यानुयोगरूप अध्यात्म-उपदेश है वह उत्कृष्ट है;
सो उच्चदशाको प्राप्त हों उनको कार्यकारी है; निचली दशावालोंको व्रत – संयमादिकका ही उपदेश
देना योग्य है।