Moksha-Marg Prakashak (Hindi).

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आठवाँ अधिकार ][ २९३
उनसे कहते हैंजिनमतमें यह परिपाटी है कि पहले सम्यक्त्व होता है फि र व्रत
होते हैं; वह सम्यक्त्व स्व-परका श्रद्धान होने पर होता है और वह श्रद्धान द्रव्यानुयोगका
अभ्यास करने पर होता है; इसलिये प्रथम द्रव्यानुयोगके अनुसार श्रद्धान करके सम्यग्दृष्टि हो,
पश्चात् चरणानुयोगके अनुसार व्रतादिक धारण करके व्रती हो।
इसप्रकार मुख्यरूपसे तो
निचली दशामें ही द्रव्यानुयोग कार्यकारी है; गौणरूपसे जिसे मोक्षमार्गकी प्राप्ति होती न जाने
उसे पहले किसी व्रतादिकका उपदेश देते हैं; इसलिये ऊँची दशावालोंको अध्यात्म-अभ्यास योग्य
है
ऐसा जानकर निचली दशावालोंको वहाँसे पराङ्मुख होना योग्य नहीं है।
तथा यदि कहोगे कि ऊँचे उपदेशका स्वरूप निचली दशावालोंको भासित नहीं होता।
उसका उत्तर यह है
और तो अनेक प्रकार की चतुराई जानें और यहाँ मूर्खपना
प्रगट करें, वह योग्य नहीं है। अभ्यास करनेसे स्वरूप भली-भाँति भासित होता है, अपनी
बुद्धि अनुसार थोड़ा-बहुत भासित हो; परन्तु सर्वथा निरुद्यमी होनेका पोषण करें वह तो
जिनमार्गका द्वेषी होना है।
तथा यदि कहोगे कि यह काल निकृष्ट है, इसलिये उत्कृष्ट अध्यात्म-उपदेशकी मुख्यता
नहीं करना।
तो उनसे कहते हैंयह काल साक्षात् मोक्ष न होनेकी अपेक्षा निकृष्ट है,
आत्मानुभवनादिक द्वारा सम्यक्त्वादिक होना इस कालमें मना नहीं है; इसलिये आत्मानुभवनादिकके
अर्थ द्रव्यानुयोगका अवश्य अभ्यास करना।
वही षट्पाहुड़में (मोक्षपाहुड़में) कहा हैः
अज्ज वि तिरयणसुद्धा अप्पा झाऊण जंति सुरलोए
लोयंतियदेवत्तं तत्थ चुआ णिव्वुदिं जंति।।७७।।
अर्थःआज भी त्रिरत्नसे शुद्ध जीव आत्माको ध्याकर स्वर्गलोकको प्राप्त होते हैं व
लौकान्तिकमें देवपना प्राप्त करते हैं; वहाँ से च्युत होकर मोक्ष जाते हैं। बहुरि...। इसलिये
इस कालमें भी द्रव्यानुयोगका उपदेश मुख्य चाहिये।
कोई कहता हैद्रव्यानुयोगमें अध्यात्म-शास्त्र हैं; वहाँ स्व-पर भेदविज्ञानादिकका उपदेश
दिया वह तो कार्यकारी भी बहुत है और समझमें भी शीघ्र आता है; परन्तु द्रव्य-गुण-
पर्यायादिकका व प्रमाण-नयादिकका व अन्यमतके कहे तत्त्वादिकके निराकरणका कथन किया,
१. यहाँ ‘बहुरि’ के आगे ३-४ पंक्तियोंका स्थान हस्तलिखित मूल प्रतिमें छोड़ा गया है, जिससे ज्ञात होता
है कि पण्डितप्रवर श्री टोडरमलजी यहाँ कुछ और भी लिखना चाहते थे, किन्तु लिख नहीं सके।