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२९४ ] [ मोक्षमार्गप्रकाशक
सो उनके अभ्याससे विकल्प विशेष होते हैं और वे बहुत प्रयास करने पर जाननेमें आते
हैं; इसलिये उनका अभ्यास नहीं करना।
उनसे कहते हैं — सामान्य जाननेसे विशेष जानना बलवान है। ज्यों-ज्यों विशेष जानता
है त्यों-त्यों वस्तुस्वभाव निर्मल भासित होता है, श्रद्धान दृढ़ होता है, रागादि घटते हैं; इसलिये
उस अभ्यासमें प्रवर्तना योग्य है।
इस प्रकार चारों अनुयोगोंमें दोष-कल्पना करके अभ्याससे पराङ्मुख होना योग्य नहीं है।
व्याकरण-न्यायादि शास्त्रोंकी उपयोगिता
तथा व्याकरण-न्यायादिक शास्त्र हैं, उनका थोड़ा-बहुत अभ्यास करना; क्योंकि उनके
ज्ञान बिना बड़े शास्त्रोंका अर्थ भासित नहीं होता। तथा वस्तुका स्वरूप भी इनकी पद्धति
जानने पर जैसा भासित होता है वैसा भाषादिक द्वारा भासित नहीं होता; इसलिये परम्परा
कार्यकारी जानकर इनका भी अभ्यास करना; परन्तु इन्हींमें फँस नहीं जाना। इनका कुछ
अभ्यास करके प्रयोजनभूत शास्त्रोंके अभ्यासमें प्रवर्तना।
तथा वैद्यकादि शास्त्र हैं उनसे मोक्षमार्गमें कुछ प्रयोजन ही नहीं है; इसलिये किसी
व्यवहारधर्मके अभिप्रायसे बिना खेदके इनका अभ्यास हो जाये तो उपकारादि करना, पापरूप
नहीं प्रवर्तना; और इनका अभ्यास न हो तो मत होओ, कुछ बिगाड़ नहीं है।
इसप्रकार जिनमतके शास्त्र निर्दोष जानकर उपदेश मानना।
अनुयोगोंमें दिखाई देनेवाले परस्पर विरोधका निराकरण
अब, शास्त्रोंमें अपेक्षादिकको न जाननेसे परस्पर विरोध भासित होता है, उसका
निराकरण करते हैं।
प्रथमादि अनुयोगोंकी आम्नायके अनुसार यहाँ जिसप्रकार कथन किया हो, वहाँ
उसप्रकार जान लेना; अन्य अनुयोगके कथनको अन्य अनुयोगके कथनसे अन्यथा जानकर
सन्देह नहीं करना। जैसे — कहीं तो निर्मल सम्यग्दृष्टिके ही शंका, कांक्षा, विचिकित्साका अभाव
कहा; कहीं भयका आठवें गुणस्थान पर्यन्त, लोभका दसवें पर्यन्त, जुगुप्साका आठवें पर्यन्त
उदय कहा; वहाँ विरुद्ध नहीं जानना। सम्यग्दृष्टिके श्रद्धानपूर्वक तीव्र शंकादिकका अभाव
हुआ है अथवा मुख्यतः सम्यग्दृष्टि शंकादि नहीं करता, उस अपेक्षा चरणानुयोगमें सम्यग्दृष्टिके
शंकादिकका अभाव कहा है; परन्तु सूक्ष्मशक्तिकी अपेक्षा भयादिकका उदय अष्टमादि गुणस्थान
पर्यन्त पाया जाता है, इसलिये करणानुयोगमें वहाँ तक उनका सद्भाव कहा है। इसीप्रकार
अन्यत्र जानना।