Moksha-Marg Prakashak (Hindi).

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२९८ ] [ मोक्षमार्गप्रकाशक
तथा जैसे कहीं कुछ प्रमाणादिक कहे हों, वहाँ वही नहीं मान लेना, परन्तु प्रयोजन
हो वह जानना। ज्ञानार्णव में ऐसा कहा है‘इस कालमें दो-तीन सत्पुरुष हैं’; सो नियमसे
इतने ही नहीं हैं, परन्तु यहाँ ‘थोड़े हैं’ ऐसा प्रयोजन जानना। इसी प्रकार अन्यत्र जानना।
इसी रीति सहित और भी अनेक प्रकार शब्दोंके अर्थ होते हैं, उनको यथासम्भव
जानना, विपरीत अर्थ नहीं जानना।
तथा जो उपदेश हो, उसे यथार्थ पहिचानकर जो अपने योग्य उपदेश हो उसे अंगीकार
करना। जैसेवैद्यक शास्त्रोंमें अनेक औषधियाँ कही हैं, उनको जाने; परन्तु ग्रहण उन्हींका
करे जिनसे अपना रोग दूर हो। अपनेको शीतका रोग हो तो उष्ण औषधिका ही ग्रहण
करे, शीतल औषधिका ग्रहण न करे; यह औषधि औरोंको कार्यकारी है, ऐसा जाने।
उसीप्रकार जैनशास्त्रोंमें अनेक उपदेश हैं, उन्हें जाने; परन्तु ग्रहण उसीका करे जिससे अपना
विकार दूर हो जाये। अपनेको जो विकार हो उसका निषेध करनेवाले उपदेशको ग्रहण करे,
उसके पोषक उपदेशको ग्रहण न करे; यह उपदेश औरोंको कार्यकारी है, ऐसा जाने।
यहाँ उदाहरण कहते हैंजैसे शास्त्रोंमें कहीं निश्चयपोषक उपदेश है, कहीं व्यवहारपोषक
उपदेश है। वहाँ अपनेको व्यवहारका आधिक्य हो तो निश्चयपोषक उपदेशका ग्रहण करके
यथावत् प्रवर्ते और अपनेको निश्चयका आधिक्य हो तो व्यवहारपोषक उपदेशका ग्रहण करके
यथावत् प्रवर्ते। तथा पहले तो व्यवहारश्रद्धानके कारण आत्मज्ञानसे भ्रष्ट हो रहा था, पश्चात्
व्यवहार उपदेशकी ही मुख्यता करके आत्मज्ञानका उद्यम न करे; अथवा पहले तो निश्चयश्रद्धानके
कारण वैराग्यसे भ्रष्ट होकर स्वच्छन्दी हो रहा था, पश्चात् निश्चय उपदेशकी ही मुख्यता करके
विषय-कषायका पोषण करता है। इसप्रकार विपरीत उपदेश ग्रहण करनेसे बुरा ही होता है।
तथा जैसे आत्मानुशासन में ऐसा कहा है कि ‘‘तू गुणवान होकर दोष क्यों लगाता
है? दोषवान होना था तो दोषमय ही क्यों नहीं हुआ?’’ सो यदि जीव आप तो गुणवान
हो और कोई दोष लगता हो वहाँ वह दोष दूर करनेके लिये उस उपदेशको अंगीकार करना।
तथा आप तो दोषवान है और इस उपदेशका ग्रहण करके गुणवान पुरुषोंको नीचा दिखलाये
१. दुःप्रज्ञाबललुप्तवस्तुनिचया विज्ञानशून्याशयाः।
विद्यन्ते प्रतिमन्दिरं निजनिजस्वार्थोद्यता देहिनः।।
आनन्दामृतसिन्धुशीकरचयैर्निर्वाप्य जन्मज्वरं।
ये मुक्तेर्वदनेन्दुवीक्षणपरास्ते सन्ति द्वित्रा यदि।।२४।।
२. हे चन्द्रमः किमिति लाञ्छनवानभूस्त्वं। तद्वान् भवेः किमिति तन्मय एव नाभूः।
किं ज्योत्स्नया मलमलं तव घोषयन्त्या। स्वर्भावन्ननु तथा सति नाऽसि लक्ष्यः।।१४०।।