-
आठवाँ अधिकार ][ २९९
तो बुरा ही होगा। सर्वदोषमय होनेसे तो किंचित् दोषरूप होना बुरा नहीं है, इसलिये तुझसे
तो वह भला है। तथा यहाँ यह कहा है कि ‘‘तू दोषमय ही क्यों नहीं हुआ?’’ सो
यह तो तर्क किया है, कहीं सर्वदोषमय होनेके अर्थ यह उपदेश नहीं है। तथा यदि गुणवानकी
किंचित् दोष होने पर निन्दा है तो सर्व दोषरहित तो सिद्ध हैं; निचली दशामें तो कोई गुण
होता ही है।
यहाँ कोई कहे — ऐसा है तो ‘‘मुनिलिंग धारण करके किंचित् परिग्रह रखे वह भी
निगोद जाता है’’ — ऐसा षट्पाहुड़१ में कैसे कहा है?
उत्तरः – ऊँची पदवी धारण करके उस पदमें सम्भवित नहीं हैं ऐसे नीचे कार्य करे
तो प्रतिज्ञाभंगादि होनेसे महादोष लगता है और नीची पदवीमें वहाँ सम्भवित ऐसे गुण-दोष
हों, वहाँ उसका दोष ग्रहण करना योग्य नहीं है — ऐसा जानना।
तथा उपदेशसिद्धान्तरत्नमाला२ में कहा है — ‘आज्ञानुसार उपदेश देनेवालेका क्रोध भी
क्षमाका भंडार है’; परन्तु यह उपदेश वक्ताको ग्रहण करने योग्य नहीं है। इस उपदेशसे
वक्ता क्रोध करता रहे तो उसका बुरा ही होगा। यह उपदेश श्रोताओंके ग्रहण करने योग्य
है। कदाचित् वक्ता क्रोध करके भी सच्चा उपदेश दे तो श्रोता गुण ही मानेंगे। इसीप्रकार
अन्यत्र जानना।
तथा जैसे किसीको अति शीतांग रोग हो, उसके अर्थ अति उष्ण रसादिक औषधियाँ
कही हैं; उन औषधियोंको जिसके दाह हो व तुच्छ शीत हो वह ग्रहण करे तो दुःख ही
पायेगा। इसीप्रकार किसीके किसी कार्यकी अति मुख्यता हो उसके अर्थ उसके निषेधका अति
खींचकर उपदेश दिया हो; उसे जिसके उस कार्यकी मुख्यता न हो व थोड़ी मुख्यता हो
वह ग्रहण करे तो बुरा ही होगा।
यहाँ उदाहरण — जैसे किसीके शास्त्राभ्यासकी अति मुख्यता है और आत्मानुभवका उद्यम
ही नहीं है, उसके अर्थ बहुत शास्त्राभ्यासका निषेध किया है। तथा जिसके शास्त्राभ्यास
नहीं है व थोड़ा शास्त्राभ्यास है, वह जीव उस उपदेशसे शास्त्राभ्यास छोड़ दे और आत्मानुभवमें
उपयोग न रहे तब उसका तो बुरा ही होगा।
१जहजायरूवसरिसो तिलतुसमेत्तं ण गिहदि हत्थेसु।
जइ लेइ अप्पबहुयं तत्तो पुण जाइ णिग्गोदम्।।१८।। (सूत्रपाहुड़)
२. रोसोवि खमाकोसो सुत्तं भासंत जस्सणधणस्य।
उस्सुत्तेण खमाविय दोस महामोह आवासो।।१४।।