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३०० ] [ मोक्षमार्गप्रकाशक
तथा जैसे किसीके यज्ञ – स्नानादि द्वारा हिंसासे धर्म माननेकी मुख्यता है, उसके अर्थ —
‘यदि पृथ्वी उलट जाये तब भी हिंसा करनेसे पुण्यफल नहीं होता’ — ऐसा उपदेश दिया है।
तथा जो जीव पूजनादि कार्यों द्वारा किंचित् हिंसा लगाता है और बहुत पुण्य उपजाता है,
वह जीव इस उपदेशसे पूजनादि कार्य छोड़ दे और हिंसारहित सामायिकादि धर्ममें लगे नहीं
तब उसका तो बुरा ही होगा। इसीप्रकार अन्यत्र जानना।
तथा जैसे कोई औषधि गुणकारी है; परन्तु अपनेको जब तक उस औषधिसे हित
हो तब तक उसका ग्रहण करे; यदि शीत मिटाने पर भी उष्ण औषधिका सेवन करता ही
रहे तो उल्टा रोग होगा। उसीप्रकार कोई धर्मकार्य है; परन्तु अपनेको जब तक उस धर्मकार्यसे
हित हो तब तक उसका ग्रहण करे; यदि उच्च दशा होने पर निचली दशा सम्बन्धी धर्मके
सेवनमें लगे तो उल्टा विकार ही होगा।
यहाँ उदाहरण — जैसे पाप मिटानेके अर्थ प्रतिक्रमणादि धर्मकार्य कहे हैं; परन्तु
आत्मानुभव होने पर प्रतिक्रमणादिका विकल्प करे तो उल्टा विकार बढ़ेगा; इसीसे समयसारमें
प्रतिक्रमणादिकको विष कहा है। तथा जैसे अव्रतीको करने योग्य प्रभावनादि धर्मकार्य कहे
हैं, उन्हें व्रती होकर करे तो पाप ही बाँधेगा। व्यापारादि आरम्भ छोड़कर चैत्यालयादि कार्योंका
अधिकारी हो यह कैसे बनेगा? इसीप्रकार अन्यत्र भी जानना।
तथा जैसे पाकादिक औषधियाँ पुष्टकारी हैं, परन्तु ज्वरवान् उन्हें ग्रहण करे तो महादोष
उत्पन्न हो; उसीप्रकार ऊँचा धर्म बहुत भला है, परन्तु अपने विकारभाव दूर न हों और
ऊँचे धर्मका ग्रहण करे तो महान दोष उत्पन्न होगा। यहाँ उदाहरण — जैसे अपना अशुभ
विकार भी नहीं छूटा हो और निर्विकल्प दशाको अंगीकार करे तो उल्टा विकार बढ़ेगा;
तथा भोजनादि विषयोंमें आसक्त हो और आरम्भत्यागादि धर्मको अंगीकार करे तो दोष ही
उत्पन्न होगा। तथा जैसे व्यापारादि करनेका विकार तो छूटे नहीं और त्यागके भेषरूप धर्म
अंगीकार करे तो महान दोष उत्पन्न होगा। इसीप्रकार अन्यत्र जानना।
इसी प्रकार और भी सच्चे विचारसे उपदेशको यथार्थ जानकर अंगीकार करना। बहुत
विस्तार कहाँ तक कहें; अपनेको सम्यग्ज्ञान होने पर स्वयं ही को यथार्थ भासित होता है।
उपदेश तो वचनात्मक है तथा वचन द्वारा अनेक अर्थ युगपत् नहीं कहे जाते; इसलिये उपदेश
तो एक ही अर्थकी मुख्यतासहित होता है।
तथा जिस अर्थका जहाँ वर्णन है, वहाँ उसीकी मुख्यता है, दूसरे अर्थकी वहीं मुख्यता
करे तो दोनों उपदेश दृढ़ नहीं होंगे; इसलिये उपदेशमें एक अर्थको दृढ़ करे; परन्तु सर्व
जिनमतका चिह्न स्याद्वाद है और ‘स्यात्’ पदका अर्थ ‘कथंचित्’ है; इसलिये जो उपदेश हो