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आठवाँ अधिकार ][ ३०१
उसे सर्वथा नहीं जान लेना। उपदेशके अर्थको जानकर वहाँ इतना विचार करना कि यह
उपदेश किस प्रकार है, किस प्रयोजन सहित है, किस जीवको कार्यकारी है? इत्यादि विचार
करके उसका यथार्थ अर्थ ग्रहण करे। पश्चात् अपनी दशा देखे। जो उपदेश जिसप्रकार
अपनेको कार्यकारी हो उसे उसी प्रकार आप अंगीकार करे; और जो उपदेश जानने योग्य
ही हो तो उसे यथार्थ जान ले। इसप्रकार उपदेशके फलको प्राप्त करे।
यहाँ कोई कहे – जो तुच्छबुद्धि इतना विचार न कर सके वह क्या करे?
उत्तरः – जैसे व्यापारी अपनी बुद्धिके अनुसार जिसमें समझे सो थोड़ा या बहुत व्यापार करे,
परन्तु नफा-नुकसानका ज्ञान तो अवश्य होना चाहिये। उसीप्रकार विवेकी अपनी बुद्धिके अनुसार
जिसमें समझे सो थोड़ा या बहुत उपदेशको ग्रहण करे, परन्तु मुझे यह कार्यकारी है, यह कार्यकारी
नहीं है – इतना तो ज्ञान अवश्य होना चाहिये। सो कार्य तो इतना है कि यथार्थ श्रद्धान-ज्ञान करके
रागादि घटाना। सो यह कार्य अपना सिद्ध हो उसी उपदेशका प्रयोजन ग्रहण करे; विशेष ज्ञान
न हो तो प्रयोजनको तो नहीं भूले; इतनी सावधानी अवश्य होना चाहिये। जिसमें अपने हितकी
हानि हो, उसप्रकार उपदेशका अर्थ समझना योग्य नहीं है।
इसप्रकार स्याद्वाददृष्टि सहित जैनशास्त्रोंका अभ्यास करनेसे अपना कल्याण होता है।
यहाँ कोई प्रश्न करे – जहाँ अन्य-अन्य प्रकार सम्भवित हों वहाँ तो स्याद्वाद सम्भव
है; परन्तु एक ही प्रकारसे शास्त्रमें परस्पर विरोध भासित हो वहाँ क्या करें? जैसे –
प्रथमानुयोगमें एक तीर्थंकरके साथ हजारों मोक्ष गये बतलाये हैं; करणानुयोगमें छह महिना
आठ समयमें छह सौ आठ जीव मोक्ष जाते हैं – ऐसा नियम कहा है। प्रथमानुयोगमें ऐसा
कथन किया है कि देव-देवांगना उत्पन्न होकर फि र मरकर साथ ही मनुष्यादि पर्यायमें उत्पन्न
होते हैं। करणानुयोगमें देवकी आयु सागरोंप्रमाण और देवांगनाकी आयु पल्योंप्रमाण कही
है। — इत्यादि विधि कैसे मिलती है?
उत्तरः – करणानुयोगमें जो कथन है वह तो तारतम्य सहित है और अन्य अनुयोगमें
कथन प्रयोजनानुसार है; इसलिये करणानुयोगका कथन तो जिस प्रकार किया है उसी प्रकार
है; औरोंके कथनकी जैसे विधि मिले वैसे मिला लेना। हजारों मुनि तीर्थंकरके साथ मोक्ष
गये बतलाये, वहाँ यह जानना कि एक ही कालमें इतने मोक्ष नहीं गये हैं, परन्तु जहाँ
तीर्थंकर गमनादि क्रिया मिटाकर स्थिर हुए, वहाँ उनके साथ इतने मुनि तिष्ठे, फि र आगे-
पीछे मोक्ष गये। इसप्रकार प्रथमानुयोग और करणानुयोगका विरोध दूर होता है। तथा देव-
देवांगना साथ उत्पन्न हुए, फि र देवांगनाने चयकर बीचमें अन्य पर्यायें धारण कीं, उनका प्रयोजन