Moksha-Marg Prakashak (Hindi) (Original language).

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Shri Digambar Jain Swadhyay Mandir Trust, Songadh
શ્રી દિગંબર જૈન સ્વાધ્યાયમંદિર ટ્રસ્ટ, સોનગઢશ્રી દિગંબર જૈન સ્વાધ્યાયમંદિર ટ્રસ્ટ, સોનગઢ - - ૩૬૪૨૫૦
३१८ ] [ मोक्षमार्गप्रक ाशक
श्रद्धान प्रतीतिमात्र; इनके एकार्थपना किस प्रकार सम्भव है?
उत्तरःप्रकरणके वशसे धातुका अर्थ अन्यथा होता है। सो यहाँ प्रकरण मोक्षमार्गका
है। उसमें ‘दर्शन’ शब्दका अर्थ सामान्य अवलोकनमात्र नहीं ग्रहण करना, क्योंकि चक्षु-
अचक्षुदर्शनसे सामान्य अवलोकन तो सम्यग्दृष्टि-मिथ्यादृष्टिके समान होता है, कुछ इससे
मोक्षमार्गकी प्रवृत्ति-अप्रवृत्ति नहीं होती। तथा श्रद्धान होता है सो सम्यग्दृष्टिके ही होता है,
इससे मोक्षमार्गकी प्रवृत्ति होती है। इसलिये ‘दर्शन’ शब्दका अर्थ भी यहाँ श्रद्धानमात्र ही
ग्रहण करना।
फि र प्रश्नःयहाँ विपरीताभिनिवेशरहित श्रद्धान करना कहा, सो प्रयोजन क्या?
समाधानःअभिनिवेश नाम अभिप्रायका है। सो जैसा तत्त्वार्थश्रद्धानका अभिप्राय है
वैसा न हो, अन्यथा अभिप्राय हो, उसका नाम विपरीताभिनिवेश है। तत्त्वार्थश्रद्धान करनेका
अभिप्राय केवल उनका निश्चय करना मात्र ही नहीं है; वहाँ अभिप्राय ऐसा है कि जीव-
अजीवको पहिचानकर अपनेको तथा परको जैसाका तैसा माने, तथा आस्रवको पहिचानकर
उसे हेय माने, तथा बन्धको पहिचानकर उसे अहित माने, तथा संवरको पहिचानकर उसे
उपादेय माने, तथा निर्जराको पहिचानकर उसे हितका कारण माने, तथा मोक्षको पहिचानकर
उसको अपना परमहित माने
ऐसा तत्त्वार्थश्रद्धानका अभिप्राय है; उससे उलटे अभिप्रायका नाम
विपरीताभिनिवेश है। सच्चा तत्त्वार्थश्रद्धान होने पर इसका अभाव होता है। इसलिये
तत्त्वार्थश्रद्धान है सो विपरीताभिनिवेशरहित है
ऐसा यहाँ कहा है।
अथवा किसीके आभासमात्र तत्त्वार्थश्रद्धान होता है; परन्तु अभिप्रायमें विपरीतपना नहीं
छूटता। किसी प्रकारसे पूर्वोक्त अभिप्रायसे अन्यथा अभिप्राय अन्तरंगमें पाया जाता है तो उसके
सम्यग्दर्शन नहीं होता। जैसे
द्रव्यलिंगी मुनि जिनवचनोंसे तत्त्वोंकी प्रतीति करे, परन्तु शरीराश्रित
क्रियाओंमें अहंकार तथा पुण्यास्रवमें उपादेयपना इत्यादि विपरीत अभिप्रायसे मिथ्यादृष्टि ही रहता
है। इसलिये जो तत्त्वार्थश्रद्धान विपरीताभिनिवेश रहित है, वही सम्यग्दर्शन है।
इसप्रकार विपरीताभिनिवेशरहित जीवादि तत्त्वार्थोंका श्रद्धानपना सो सम्यग्दर्शनका लक्षण
है, सम्यग्दर्शन लक्ष्य है।
वही तत्त्वार्थसूत्रमें कहा हैः
‘‘तत्त्वार्थश्रद्धानं सम्यग्दर्शनम्’’।।१-२।।
तत्त्वार्थोंका श्रद्धान वही सम्यग्दर्शन है।
तथा सर्वार्थसिद्धि नामक सूत्रोंकी टीका है
उसमें तत्त्वादिक पदोंका अर्थ प्रगट लिखा