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१६ ] [ मोक्षमार्गप्रकाशक
ऐसा ही आत्मानुशासनमें कहा हैः —
प्राज्ञः प्राप्तसमस्तशास्त्रहृदयः प्रव्यक्तलोकस्थितिः,
प्रास्ताशः प्रतिभापरः प्रशमवान् प्रागेव दृष्टोत्तरः।
प्रायः प्रश्नसहः प्रभु परमनोहारी परानिन्दया,
ब्रूयाद्धर्मकथां गणी गुणनिधिः प्रस्पष्टमिष्टाक्षरः।।५।।
अर्थः — जो बुद्धिमान हो, जिसने समस्त शास्त्रोंका रहस्य प्राप्त किया हो, लोक मर्यादा
जिसके प्रगट हुई हो, आशा जिसके अस्त हो गई हो, कांतिमान हो, उपशमी हो, प्रश्न करनेसे
पहले ही जिसने उत्तर देखा हो, बाहुल्यतासे प्रश्नोंको सहनेवाला हो, प्रभु हो, परकी तथा
परके द्वारा अपनी निन्दारहितपनेसे परके मनको हरनेवाला हो, गुणनिधान हो, स्पष्ट मिष्ट जिसके
वचन हों — ऐसा सभाका नायक धर्मकथा कहे।
पुनश्च, वक्ताका विशेष लक्षण ऐसा है कि यदि उसके व्याकरण-न्यायादिक तथा बड़े-
बड़े जैन शास्त्रोंका विशेष ज्ञान हो तो विशेषरूपसे उसको वक्तापना शोभित हो। पुनश्च,
ऐसा भी हो; परन्तु अध्यात्मरस द्वारा यथार्थ अपने स्वरूपका अनुभव जिसको न हुआ हो
वह जिनधर्मका मर्म नहीं जानता, पद्धतिहीसे वक्ता होता है। अध्यात्मरसमय सच्चे जिनधर्मका
स्वरूप उसके द्वारा कैसे प्रगट किया जाये ? इसलिये आत्मज्ञानी हो तो सच्चा वक्तापना होता
है, क्योंकि प्रवचनसारमें ऐसा कहा है कि — आगमज्ञान, तत्त्वार्थश्रद्धान, संयमभाव — यह तीनों
आत्मज्ञानसे शून्य कार्यकारी नहीं है।
पुनश्च, दोहापाहुड़में ऐसा कहा हैः —
पंडिय पंडिय पंडिय कण छोडि वि तुस कंडिया।
पय अत्थं तुट्ठोसि परमत्थ ण जाणइ मूढोसि।।
अर्थः — हे पांडे ! हे पांडे ! ! हे पांडे ! ! ! तू कणको छोड़कर तुस (भूसी) ही कूट रहा
है; तू अर्थ और शब्दमें सन्तुष्ट है, परमार्थ नहीं जानता; इसलिए मूर्ख ही है — ऐसा कहा है।
तथा चौदह विद्याओंमें भी पहले अध्यात्मविद्या प्रधान कही है। इसलिये जो
अध्यात्मरसका रसिया वक्ता है, उसे जिनधर्मके रहस्यका वक्ता जानना। पुनश्च, जो बुद्धिऋद्धिके
धारक हैं तथा अवधि, मनःपर्यय, केवलज्ञानके धनी वक्ता हैं, उन्हें महान वक्ता जानना। —
ऐसे वक्ताओंके विशेष गुण जानना।
सो इन विशेष गुणोंके धारी वक्ताका संयोग मिले तो बहुत भला है ही, और न