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पहला अधिकार ][ १५
व्याख्यान हो उसका अन्य प्रयोजन प्रगट करके विपरीत प्रवृत्ति कराये। पुनश्च, वक्ता कैसा
होना चाहिये कि जिसे जिनआज्ञा भंग करनेका भय बहुत हो; क्योंकि यदि ऐसा नहीं हो
तो कोई अभिप्राय विचार कर सूत्रविरुद्ध उपदेश देकर जीवोंका बुरा करे। सो ही कहा
हैः —
बहुगुणविज्जाणिलयो असुत्तभासी तहावि मुत्तव्वो।
जह वरमणिजुत्तो वि हु विग्घयरो विसहरो लोए।।
अर्थः — जो अनेक क्षमादिकगुण तथा व्याकरणादि विद्याका स्थान है, तथापि उत्सूत्रभाषी
है तो छोड़नेयोग्य ही है। जैसे कि — उत्कृष्ट मणिसंयुक्त होने पर भी सर्प है सो लोकमें
विघ्न ही का करनेवाला है।
पुनश्च, वक्ता कैसा होना चाहिये कि जिसको शास्त्र पढ़कर आजीविका आदि लौकिक-
कार्य साधनेकी इच्छा न हो; क्योंकि यदि आशावान हो तो यथार्थ उपदेश नहीं दे सकता,
उसे तो कुछ श्रोताओंके अभिप्रायके अनुसार व्याख्यान करके अपना प्रयोजन साधनेका ही
साधन रहे। तथा श्रोताओंसे वक्ताका पद उच्च है; परन्तु यदि वक्ता लोभी हो तो वक्ता
स्वयं हीन हो जाय और श्रोता उच्च हो।
पुनश्च, वक्ता कैसा होना चाहिये कि जिसके तीव्र क्रोध - मान नहीं हो; क्योंकि
तीव्र क्रोधी-मानीकी निन्दा होगी, श्रोता उससे डरते रहेंगे, तब उससे अपना हित कैसे करेंगे ?
पुनश्च, वक्ता कैसा होना चाहिये कि जो स्वयं ही नाना प्रश्न उठाकर स्वयं ही उत्तर दे;
अथवा अन्य जीव अनेक प्रकारसे बहुत बार प्रश्न करें तो मिष्ट वचन द्वारा जिस प्रकार
उनका संदेह दूर हो उसी प्रकार समाधान करे। यदि स्वयंमें उत्तर देनेकी सामर्थ्य न हो
तो ऐसा कहे कि इसका मुझे ज्ञान नहीं है; क्योंकि यदि ऐसा न हो तो श्रोताओंका
संदेह दूर नहीं होगा, तब कल्याण कैसे होगा ? और जिनमतकी प्रभावना भी नहीं हो
सकेगी।
पुनश्च, वक्ता कैसा होना चाहिये कि जिसके अनीतिरूप लोकनिंद्य कार्योंकी प्रवृत्ति न
हो; क्योंकि लोकनिंद्य कार्योंसे वह हास्यका स्थान हो जाये, तब उसका वचन कौन प्रमाण
करे ? वह जिनधर्मको लजाये। पुनश्च, वक्ता कैसा होना चाहिये कि जिसका कुल हीन न
हो, अंग हीन न हो, स्वर भंग न हो, मिष्ट वचन हो, प्रभुत्व हो; जिससे लोकमें मान्य
हो — क्योंकि यदि ऐसा न हो तो उसे वक्तापनेकी महंतता शोभे नहीं — ऐसा वक्ता हो।
वक्तामें ये गुण तो अवश्य चाहिये।