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१४ ] [ मोक्षमार्गप्रकाशक
अब, यहाँ, कैसे शास्त्र पढ़ने — सुनने योग्य हैं तथा उन शास्त्रोंके वक्ता — श्रोता कैसे
होने चाहिये, उसका वर्णन करते हैं।
पढ़ने – सुनने योग्य शास्त्र
जो शास्त्र मोक्षमार्गका प्रकाश करें वही शास्त्र पढ़ने — सुनने योग्य हैं; क्योंकि जीव
संसारमें नाना दुःखोंसे पीड़ित हैं। यदि शास्त्ररूपी दीपक द्वारा मोक्षमार्गको प्राप्त कर लें
तो उस मार्गमें स्वयं गमन कर उन दुःखोंसे मुक्त हों। सो मोक्षमार्ग एक वीतरागभाव है;
इसलिये जिन शास्त्रोंमें किसी प्रकार राग-द्वेष-मोहभावोंका निषेध करके वीतरागभावका प्रयोजन
प्रगट किया हो उन्हीं शास्त्रोंका पढ़ने – सुनना उचित है। तथा जिन शास्त्रोंमें श्रृंगार – भोग –
कुतूहलादिकका पोषण करके रागभावका; हिंसा – युद्धादिकका पोषण करके द्वेषभावका; और
अतत्त्वश्रद्धानका पोषण करके मोहभाव का प्रयोजन प्रगट किया हो वे शास्त्र नहीं, शस्त्र
हैं; क्योंकि जिन राग-द्वेष-मोह भावोंसे जीव अनादिसे दुःखी हुआ उनकी वासना जीवको
बिना सिखलाये ही थी और इन शास्त्रों द्वारा उन्हींका पोषण किया, भला होनेकी क्या
शिक्षा दी ? जीवका स्वभाव घात ही किया। इसलिये ऐसे शास्त्रोंका पढ़ने – सुनना उचित
नहीं है।
यहाँ पढ़ने – सुनना जिस प्रकार कहा; उसी प्रकार जोड़ना, सीखना, सिखाना, विचारना,
लिखाना आदि कार्य भी उपलक्षणसे जान लेना।
इसप्रकार जो साक्षात् अथवा परम्परासे वीतरागभावका पोषण करे — ऐसे शास्त्र ही
का अभ्यास करने योग्य है।
वक्ताका स्वरूप
अब इनके वक्ताका स्वरूप कहते हैंः — प्रथम तो वक्ता कैसा होना चाहिये कि जो
जैनश्रद्धानमें दृढ़ हो; क्योंकि यदि स्वयं अश्रद्धानी हो तो औरोंको श्रद्धानी कैसे करे? श्रोता
तो स्वयं ही से हीनबुद्धिके धारक हैं, उन्हें किसी युक्ति द्वारा श्रद्धानी कैसे करे? और श्रद्धान
ही सर्व धर्मका मूल है✽
, पुनश्च, वक्ता कैसा होना चाहिये कि जिसे विद्याभ्यास करनेसे शास्त्र-
पढ़नेयोग्य बुद्धि प्रगट हुई हो; क्योंकि ऐसी शक्तिके बिना वक्तापनेका अधिकारी कैसे हो ?
पुनश्च, वक्ता कैसा होना चाहिये कि जो सम्यग्ज्ञान द्वारा सर्व प्रकारके व्यवहार-निश्चयादिरूप
व्याख्यानका अभिप्राय पहिचानता हो; क्योंकि यदि ऐसा न हो तो कहीं अन्य प्रयोजनसहित
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दंसणमूलो धम्मो (दर्शनप्राभृत, गाथा-२)