Moksha-Marg Prakashak (Hindi).

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पहला अधिकार ][ १३
साक्षात् केवलीका दिव्यध्वनि-उपदेश सुनते हैं, उसके अतिशयसे सत्यार्थ ही भासित होता है
और उसहीके अनुसार ग्रन्थ बनाते हैं; इसलिये उन ग्रन्थोंमें तो असत्यार्थ पद कैसे गूँथे जायें ?
तथा जो अन्य आचार्यादिक ग्रन्थ बनाते हैं, वे भी यथायोग्य सम्यग्ज्ञानके धारक हैं और
वे मूल ग्रन्थोंकी परम्परासे ग्रन्थ बनाते हैं। दूसरी बात यह है कि
जिन पदोंका स्वयंको
ज्ञान न हो उनकी तो वे रचना करते नहीं, और जिन पदोंका ज्ञान हो उन्हें सम्यग्ज्ञान-
प्रमाणसे ठीक गूँथते हैं। इसलिये प्रथम तो ऐसी सावधानीमें असत्यार्थ पद गूँथे जाते नहीं,
और कदाचित् स्वयंको पूर्व ग्रन्थोंके पदोंका अर्थ अन्यथा ही भासित हो तथा अपनी प्रमाणतामें
भी उसी प्रकार आ जाये तो उसका कुछ सारा (वश) नहीं है; परन्तु ऐसा किसीको ही
भासित होता है सब ही को तो नहीं, इसलिये जिन्हें सत्यार्थ भासित हुआ हो वे उसका
निषेध करके परम्परा नहीं चलते देते।
पुनश्च, इतना जानना किजिनको अन्यथा जाननेसे जीवका बुरा हो ऐसे देव-गुरु-
धर्मादिक तथा जीव-अजीवादिक तत्त्वोंको तो श्रद्धानी जैनी अन्यथा जानते ही नहीं; इनका
तो जैनशास्त्रोंमें प्रसिद्ध कथन है। और जिनको भ्रमसे अन्यथा जानने पर भी जिन-आज्ञा
माननेसे जीवका बुरा न हो, ऐसे कोई सूक्ष्म अर्थ हैं; उनमेंसे किसीको कोई अन्यथा प्रमाणतामें
लाये तो भी उसका विशेष दोष नहीं है।
वही गोम्मटसारमें कहा हैः
सम्माइट्ठी जीवो उवइट्ठं पवयणं तु सद्दहदि
सद्दहदि असब्भावं अजाणमाणो गुरुणियोगा।। (गाथा २७ जीवकाण्ड)
अर्थःसम्यग्दृष्टि जीव उपदेशित सत्य वचनका श्रद्धान करता है और अजानमान गुरुके
नियोगसे असत्यका भी श्रद्धान करता हैऐसा कहा है।
पुनश्च, हमें भी विशेष ज्ञान नहीं है और जिन-आज्ञा भंग करनेका बहुत भय है,
परन्तु इसी विचारके बलसे ग्रन्थ करनेका साहस करते हैं। इसलिये इस ग्रन्थमें जैसा पूर्व
ग्रन्थोंमें वर्णन है वैसा ही वर्णन करेंगे। अथवा कहीं पूर्व ग्रन्थोंमें सामान्य गूढ वर्णन था,
उसका विशेष प्रगट करके वर्णन यहाँ करेंगे। सो इसप्रकार वर्णन करनेमें मैं तो बहुत सावधानी
रखूँगा। सावधानी करने पर भी कहीं सूक्ष्म अर्थका अन्यथा वर्णन हो जाय तो विशेष बुद्धिमान
हों, वे उसे सँवारकर शुद्ध करें
ऐसी मेरी प्रार्थना है।
इसप्रकार शास्त्र करनेका निश्चय किया है।