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३२४ ] [ मोक्षमार्गप्रकाशक
उसके पूर्ववत् आस्रवादिकका भी श्रद्धान होता ही होता है, इसलिये यहाँ भी सातों तत्त्वोंके
ही श्रद्धानका नियम जानना।
तथा आस्रवादिकके श्रद्धान बिना आपापरका श्रद्धान व केवल आत्माका श्रद्धान सच्चा
नहीं होता; क्योंकि आत्मा द्रव्य है, सो तो शुद्ध-अशुद्ध पर्यायसहित है। जैसे – तन्तु अवलोकन
बिना पटका अवलोकन नहीं होता, उसी प्रकार शुद्ध-अशुद्ध पर्याय पहिचाने बिना आत्मद्रव्यका
श्रद्धान नहीं होता; उस शुद्ध-अशुद्ध अवस्थाकी पहिचान आस्रवादिककी पहिचानसे होती है।
तथा आस्रवादिकके श्रद्धान बिना आपापरका श्रद्धान व केवल आत्माका श्रद्धान कार्यकारी भी
नहीं है; क्योंकि श्रद्धान करो या न करो, आप है सो आप है ही, पर है सो पर है। तथा
आस्रवादिकका श्रद्धान हो तो आस्रव-बन्धका अभाव करके संवर – निर्जरारूप उपायसे मोक्षपदको
प्राप्त करे। तथा जो आपापरका भी श्रद्धान कराते हैं, सो उसी प्रयोजनके अर्थ कराते हैं;
इसलिये आस्रवादिकके श्रद्धानसहित आपापरका जानना व आपका जानना कार्यकारी है।
यहाँ प्रश्न है कि ऐसा है तो शास्त्रोंमें आपापरके श्रद्धानको व केवल आत्माके श्रद्धानको
ही सम्यक्त्व कहा व कार्यकारी कहा; तथा नवतत्त्वकी संतति छोड़कर हमारे एक आत्माही
होओ – ऐसा कहा, सो किस प्रकार कहा?
समाधानः – जिसके सच्चा आपापरका श्रद्धान व आत्माका श्रद्धान हो, उसके सातों
तत्त्वोंका श्रद्धान होता ही होता है। तथा जिसके सच्चा सात तत्त्वोंका श्रद्धान हो उसके
आपापरका व आत्माका श्रद्धान होता ही होता है – ऐसा परस्पर अविनाभावीपना जानकर
आपापरके श्रद्धानको या आत्मश्रद्धानको ही सम्यक्त्व कहा है।
तथा इस छलसे कोई सामान्यरूपसे आपापरको जानकर व आत्माको जानकर
कृतकृत्यपना माने, तो उसके भ्रम है; क्योंकि ऐसा कहा है : –
‘‘निर्विशेषं हि सामान्यं भवेत्खरविषाणवत्’’।१
इसका अर्थ यह हैः – विशेषरहित सामान्य है सो गधेके सींग समान है।
इसलिये प्रयोजनभूत आस्रवादिक विशेषों सहित आपापरका व आत्माका श्रद्धान करना
योग्य है। अथवा सातों तत्त्वार्थोंके श्रद्धानसे रागादिक मिटानेके अर्थ परद्रव्योंको भिन्न भाता
है व अपने आत्माको ही भाता है, उसके प्रयोजनकी सिद्धि होती है; इसलिये मुख्यतासे
भेदविज्ञानको व आत्मज्ञानको कार्यकारी कहा है।
१. आलापपद्धति, श्लोक ९