केवल जाननेसे ही मानको बढ़ाता है; रागादिक नहीं छोड़ता, तब उसका कार्य कैसे सिद्ध
होगा? तथा नवतत्त्व संततिका छोड़ना कहा है; सो पूर्वमें नवतत्त्वके विचारसे सम्यग्दर्शन हुआ,
पश्चात् निर्विकल्प दशा होनेके अर्थ नवतत्त्वोंके भी विकल्प छोड़नेकी चाह की। तथा जिसके
पहले ही नवतत्त्वोंका विचार नहीं है, उसको वह विकल्प छोड़नेका क्या प्रयोजन है? अन्य
अनेक विकल्प आपके पाये जाते हैं उन्हींका त्याग करो।
लक्षण यह नहीं है; क्योंकि द्रव्यलिंगी मुनि आदि व्यवहारधर्मके धारक मिथ्यादृष्टियोंके भी ऐसा
श्रद्धान होता है।
व्रतोंको अन्वयरूप कारण जानकर कारणमें कार्यका उपचार करके इनको चारित्र कहा है।
उसी प्रकार अरहन्त देवादिकका श्रद्धान होने पर तो सम्यक्त्व हो या न हो; परन्तु
अरहन्तादिकका श्रद्धान हुए बिना तत्त्वार्थश्रद्धानरूप सम्यक्त्व कदाचित् नहीं होता; इसलिये
अरहन्तादिकके श्रद्धानको अन्वयरूप कारण जानकर कारणमें कार्यका उपचार करके इस
श्रद्धानको सम्यक्त्व कहा है। इसीसे इसका नाम व्यवहार-सम्यक्त्व है।
पहिचान सहित श्रद्धान नहीं होता। तथा जिसके सच्चे अरहन्तादिकके स्वरूपका श्रद्धान हो,
उसके तत्त्वश्रद्धान होता ही होता है; क्योंकि अरहन्तादिकका स्वरूप पहिचाननेसे जीव-अजीव-
आस्रवादिककी पहिचान होती है।