श्रद्धानकी प्राप्ति होती है। फि र आपापरका भिन्नपना जैसे भासित हो वैसे विचार करता रहे;
क्योंकि इस अभ्याससे भेदविज्ञान होता है। फि र आपमें अपनत्व माननेके अर्थ स्वरूपका विचार
करता रहे; क्योंकि इस अभ्याससे आत्मानुभवकी प्राप्ति होती है।
दर्शनमोह मन्द होता जाये तब कदाचित् सच्चे सम्यग्दर्शनकी प्राप्ति होती है। परन्तु ऐसा नियम
तो है नहीं; किसी जीवके कोई प्रबल विपरीत कारण बीचमें हो जाये तो सम्यग्दर्शनकी प्राप्ति
नहीं होती; परन्तु मुख्यरूपसे बहुत जीवोंके तो इस अनुक्रमसे कार्यसिद्धि होती है; इसलिये इनको
इसप्रकार अंगीकार करना। जैसे
सम्यक्त्वका अर्थी इन कारणोंको मिलाये, पश्चात् बहुत जीवोंके तो सम्यक्त्वकी प्राप्ति होती ही
है; किसीको न हो तो नहीं भी हो। परन्तु इसे तो अपनेसे बने वह उपाय करना।
यहाँ प्रश्न है कि सम्यक्त्वके लक्षण तो अनेक प्रकार कहे, उनमें तुमने तत्त्वार्थ-श्रद्धान
होता, इसलिये लक्षणको मुख्य किया है। वही बतलाते हैंः
स्वरूप भासित न हो, तब मोक्षमार्ग प्रयोजनकी सिद्धि न हो; व जीवादिकका श्रद्धान हुए
बिना इसी श्रद्धानमें सन्तुष्ट होकर अपनेको सम्यक्त्वी माने; एक कुदेवादिकसे द्वेष तो रखे,
अन्य रागादि छोड़नेका उद्यम न करे;
प्रयोजनकी सिद्धि न हो; व आस्रवादिकका श्रद्धान हुए बिना इतना ही जाननेमें सन्तुष्ट होकर
अपनेको सम्यक्त्वी माने, स्वच्छन्द होकर रागादि छोड़नेका उद्यम न करे;