Moksha-Marg Prakashak (Hindi).

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नौवाँ अधिकार ][ ३२९
कहे जीवादिक तत्त्वोंका विचार करना, नाम-लक्षणादि सीखना; क्योंकि इस अभ्याससे तत्त्वार्थ-
श्रद्धानकी प्राप्ति होती है। फि र आपापरका भिन्नपना जैसे भासित हो वैसे विचार करता रहे;
क्योंकि इस अभ्याससे भेदविज्ञान होता है। फि र आपमें अपनत्व माननेके अर्थ स्वरूपका विचार
करता रहे; क्योंकि इस अभ्याससे आत्मानुभवकी प्राप्ति होती है।
इसप्रकार अनुक्रमसे इनको अंगीकार करके फि र इन्हींमें कभी देवादिकके विचारमें, कभी
तत्त्वविचारमें, कभी आपापरके विचारमें, कभी आत्मविचारमें उपयोग लगाये। ऐसे अभ्याससे
दर्शनमोह मन्द होता जाये तब कदाचित् सच्चे सम्यग्दर्शनकी प्राप्ति होती है। परन्तु ऐसा नियम
तो है नहीं; किसी जीवके कोई प्रबल विपरीत कारण बीचमें हो जाये तो सम्यग्दर्शनकी प्राप्ति
नहीं होती; परन्तु मुख्यरूपसे बहुत जीवोंके तो इस अनुक्रमसे कार्यसिद्धि होती है; इसलिये इनको
इसप्रकार अंगीकार करना। जैसे
पुत्रका अर्थी विवाहादि कारणोंको मिलाये, पश्चात् बहुत पुरुषोंके
तो पुत्रकी प्राप्ति होती ही है; किसीको न हो तो न हो। इसे तो उपाय करना। उसी प्रकार
सम्यक्त्वका अर्थी इन कारणोंको मिलाये, पश्चात् बहुत जीवोंके तो सम्यक्त्वकी प्राप्ति होती ही
है; किसीको न हो तो नहीं भी हो। परन्तु इसे तो अपनेसे बने वह उपाय करना।
इस प्रकार सम्यक्त्वका लक्षणनिर्देश किया।
यहाँ प्रश्न है कि सम्यक्त्वके लक्षण तो अनेक प्रकार कहे, उनमें तुमने तत्त्वार्थ-श्रद्धान
लक्षणको मुख्य किया सो कारण क्या?
समाधानःतुच्छबुद्धियोंको अन्य लक्षणमें प्रयोजन भासित नहीं होता व भ्रम उत्पन्न होता
है। और इस तत्त्वार्थश्रद्धान लक्षणमें प्रगट प्रयोजन भासित होता है, कुछ भ्रम उत्पन्न नहीं
होता, इसलिये लक्षणको मुख्य किया है। वही बतलाते हैंः
देव-गुरु-धर्मके श्रद्धानमें तुच्छबुद्धियोंको यह भासित हो कि अरहन्तदेवादिकको मानना
औरको नहीं मानना, इतना ही सम्यक्त्व है। वहाँ जीव-अजीवका व बन्ध-मोक्षके कारण-कार्यका
स्वरूप भासित न हो, तब मोक्षमार्ग प्रयोजनकी सिद्धि न हो; व जीवादिकका श्रद्धान हुए
बिना इसी श्रद्धानमें सन्तुष्ट होकर अपनेको सम्यक्त्वी माने; एक कुदेवादिकसे द्वेष तो रखे,
अन्य रागादि छोड़नेका उद्यम न करे;
ऐसा भ्रम उत्पन्न हो।
तथा आपापरके श्रद्धानमें तुच्छबुद्धियोंको यह भासित हो कि आपापरका ही जानना
कार्यकारी है, इसीसे सम्यक्त्व होता है। वहाँ आस्रवादिकका स्वरूप भासित न हो, तब मोक्षमार्ग
प्रयोजनकी सिद्धि न हो; व आस्रवादिकका श्रद्धान हुए बिना इतना ही जाननेमें सन्तुष्ट होकर
अपनेको सम्यक्त्वी माने, स्वच्छन्द होकर रागादि छोड़नेका उद्यम न करे;
ऐसा भ्रम उत्पन्न हो।