स्वरूप विचारता है। इस प्रकार ज्ञानमें तो नानाप्रकार विचार होते हैं, परन्तु श्रद्धानमें सर्वत्र
परस्पर सापेक्षपना पाया जाता है। तत्त्वविचार करता है तो भेदविज्ञानके अभिप्राय सहित
करता है और भेदविज्ञान करता है तो तत्त्वविचारादिके अभिप्राय सहित करता है। इसी
प्रकार अन्यत्र भी परस्पर सापेक्षपना है; इसलिये सम्यग्दृष्टिके श्रद्धानमें चारों ही लक्षणोंका
अंगीकार है।
नहीं मानता, उनके नाम-भेदादिकको सीखता है
पर्यायमें अहंबुद्धि है और वस्त्रादिकमें परबुद्धि है, वैसे आत्मामें अहंबुद्धि और शरीरादिमें परबुद्धि
नहीं होती। तथा आत्माका जिनवचनानुसार चिंतवन करे; परन्तु प्रतीतिरूप आपका आपरूप
श्रद्धान नहीं करता है। तथा अरहन्तदेवादिकके सिवा अन्य कुदेवादिकको नहीं मानता; परन्तु
उनके स्वरूपको यथार्थ पहिचानकर श्रद्धान नहीं करता
ले। तथा इस अनुक्रमका उल्लंघन करके
है; अथवा तत्त्वविचारमें भी उपयोग नहीं लगाता, आपापरका भेदविज्ञानी हुआ रहता है; अथवा
आपापरका भी ठीक निर्णय नहीं करता और अपनेको आत्मज्ञानी मानता है। सो सब चतुराईकी
बातें हैं, मानादिक कषायके साधन हैं, कुछ भी कार्यकारी नहीं हैं। इसलिये जो जीव अपना
भला करना चाहे, उसे जब तक सच्चे सम्यग्दर्शनकी प्राप्ति न हो, तब तक इनको भी अनुक्रमसे
ही अंगीकार करना।
होता है, तथा मोक्षमार्गके विघ्न करनेवाले कुदेवादिकका निमित्त दूर होता है, मोक्षमार्गका सहायक
अरहन्तदेवादिकका निमित्त मिलता है; इसलिये पहले देवादिकका श्रद्धान करना। फि र जिनमतमें