Moksha-Marg Prakashak (Hindi).

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३२८ ] [ मोक्षमार्गप्रकाशक
है, या आपापरका भेदविज्ञान करता है, या आत्मस्वरूपका ही स्मरण करता है, या देवादिकका
स्वरूप विचारता है। इस प्रकार ज्ञानमें तो नानाप्रकार विचार होते हैं, परन्तु श्रद्धानमें सर्वत्र
परस्पर सापेक्षपना पाया जाता है। तत्त्वविचार करता है तो भेदविज्ञानके अभिप्राय सहित
करता है और भेदविज्ञान करता है तो तत्त्वविचारादिके अभिप्राय सहित करता है। इसी
प्रकार अन्यत्र भी परस्पर सापेक्षपना है; इसलिये सम्यग्दृष्टिके श्रद्धानमें चारों ही लक्षणोंका
अंगीकार है।
तथा जिसके मिथ्यात्वका उदय है, उसके विपरीताभिनिवेश पाया जाता है; उसके यह
लक्षण आभासमात्र होते हैं, सच्चे नहीं होते। जिनमतके जीवादिक तत्त्वोंको मानता है, अन्यको
नहीं मानता, उनके नाम-भेदादिकको सीखता है
ऐसा तत्त्वश्रद्धान होता है; परन्तु उनके यथार्थ-
भावका श्रद्धान नहीं होता। तथा आपापरके भिन्नपनेकी बातें करे, चिंतवन करे; परन्तु जैसे
पर्यायमें अहंबुद्धि है और वस्त्रादिकमें परबुद्धि है, वैसे आत्मामें अहंबुद्धि और शरीरादिमें परबुद्धि
नहीं होती। तथा आत्माका जिनवचनानुसार चिंतवन करे; परन्तु प्रतीतिरूप आपका आपरूप
श्रद्धान नहीं करता है। तथा अरहन्तदेवादिकके सिवा अन्य कुदेवादिकको नहीं मानता; परन्तु
उनके स्वरूपको यथार्थ पहिचानकर श्रद्धान नहीं करता
इसप्रकार यह लक्षणाभास मिथ्यादृष्टिके होते
हैं। इनमें कोई होता है, कोई नहीं होता; वहाँ इनके भिन्नपना भी सम्भवित है।
तथा इन लक्षणाभासोंमें इतना विशेष है कि पहले तो देवादिकका श्रद्धान हो, फि र
तत्त्वोंका विचार हो, फि र आपापरका चिंतवन करे, फि र केवल आत्माका चिंतवन करेइस
अनुक्रमसे साधन करे तो परम्परा सच्चे मोक्षमार्गको पाकर कोई जीव सिद्धपदको भी प्राप्त कर
ले। तथा इस अनुक्रमका उल्लंघन करके
जिसके देवादिककी मान्यताका तो कुछ ठिकाना
नहीं है और बुद्धिकी तीव्रतासे तत्त्वविचारादिमें प्रवर्तता है, इसलिये अपनेको ज्ञानी जानता
है; अथवा तत्त्वविचारमें भी उपयोग नहीं लगाता, आपापरका भेदविज्ञानी हुआ रहता है; अथवा
आपापरका भी ठीक निर्णय नहीं करता और अपनेको आत्मज्ञानी मानता है। सो सब चतुराईकी
बातें हैं, मानादिक कषायके साधन हैं, कुछ भी कार्यकारी नहीं हैं। इसलिये जो जीव अपना
भला करना चाहे, उसे जब तक सच्चे सम्यग्दर्शनकी प्राप्ति न हो, तब तक इनको भी अनुक्रमसे
ही अंगीकार करना।
वही कहते हैंःपहले तो आज्ञादिसे व किसी परीक्षासे कुदेवादिककी मान्यता छोड़कर
अरहन्तदेवादिकका श्रद्धान करना; क्योंकि यह श्रद्धान होने पर गृहीतमिथ्यात्वका तो अभाव
होता है, तथा मोक्षमार्गके विघ्न करनेवाले कुदेवादिकका निमित्त दूर होता है, मोक्षमार्गका सहायक
अरहन्तदेवादिकका निमित्त मिलता है; इसलिये पहले देवादिकका श्रद्धान करना। फि र जिनमतमें