Moksha-Marg Prakashak (Hindi).

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नौवाँ अधिकार ][ ३२७
महिमा जानता है, सो यह पराश्रितभाव है। तथा आत्माश्रित भावोंसे अरहन्तादिकका स्वरूप
तत्त्वश्रद्धान होने पर ही जाना जाता है; इसलिये जिसके सच्चा अरहन्तादिकका श्रद्धान हो
उसके तत्त्वश्रद्धान होता ही होता है
ऐसा नियम जानना।
इस प्रकार सम्यक्त्वका लक्षणनिर्देश किया।
यहाँ प्रश्न है कि सच्चा तत्त्वार्थश्रद्धान व आपापरका श्रद्धान व आत्मश्रद्धान व देव-
गुरु-धर्मका श्रद्धान सम्यक्त्वका लक्षण कहा। तथा इन सर्व लक्षणोंकी परस्पर एकता भी दिखाई
सो जानी; परन्तु अन्य-अन्य प्रकार लक्षण कहनेका प्रयोजन क्या?
उत्तरःयह चार लक्षण कहे, उनमें सच्ची दृष्टिसे एक लक्षण ग्रहण करने पर चारों लक्षणोंका
ग्रहण होता है। तथापि मुख्य प्रयोजन भिन्न-भिन्न विचारकर अन्य-अन्य प्रकार लक्षण कहे हैं।
जहाँ तत्त्वार्थश्रद्धान लक्षण कहा है, वहाँ तो यह प्रयोजन है कि इन तत्त्वोंको पहिचाने
तो यथार्थ वस्तुके स्वरूपका व अपने हित-अहितका श्रद्धान करे तब मोक्षमार्गमें प्रवर्ते।
तथा जहाँ आपापरका भिन्न श्रद्धान कहा है, वहाँ तत्त्वार्थश्रद्धानका प्रयोजन जिससे सिद्ध
हो, उस श्रद्धानको मुख्य लक्षण कहा है। जीव-अजीव श्रद्धानका प्रयोजन आपापरका भिन्न
श्रद्धान करना है। तथा आस्रवादिकके श्रद्धानका प्रयोजन रागादिक छोड़ना है, सो आपापरका
भिन्न श्रद्धान होने पर परद्रव्यमें रागादि न करनेका श्रद्धान होता है। इसप्रकार तत्त्वार्थश्रद्धानका
प्रयोजन आपापरके भिन्न श्रद्धानसे सिद्ध होता जानकर इस लक्षणको कहा है।
तथा जहाँ आत्मश्रद्धान लक्षण कहा है, वहाँ आपापरके भिन्न श्रद्धानका प्रयोजन इतना
ही है किआपको आप जानना। आपको आप जानने पर परका भी विकल्प कार्यकारी
नहीं है। ऐसे मूलभूत प्रयोजनकी प्रधानता जानकर आत्मश्रद्धानको मुख्य लक्षण कहा है।
तथा जहाँ देव-गुरु-धर्मका श्रद्धान कहा है, वहाँ बाह्य साधनकी प्रधानता की है; क्योंकि
अरहन्तदेवादिकका श्रद्धान सच्चे तत्त्वार्थश्रद्धानका कारण है और कुदेवादिकका श्रद्धान कल्पित
तत्त्वश्रद्धानका कारण है। सो बाह्य कारणकी प्रधानतासे कुदेवादिकका श्रद्धान छुड़ाकर
सुदेवादिकका श्रद्धान करानेके अर्थ देव-गुरु-धर्मके श्रद्धानको मुख्य लक्षण कहा है।
इस प्रकार भिन्न-भिन्न प्रयोजनोंकी मुख्यतासे भिन्न-भिन्न लक्षण कहे हैं।
यहाँ प्रश्न है कि यह चार लक्षण कहे, उनमें यह जीव किस लक्षणको अंगीकार करे?
समाधानः
मिथ्यात्वकर्मके उपशमादि होने पर विपरीताभिनिवेशका अभाव होता है; वहाँ
चारों लक्षण युगपत् पाये जाते हैं। तथा विचार-अपेक्षा मुख्यरूपसे तत्त्वार्थोंका विचार करता