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३३२ ] [ मोक्षमार्गप्रकाशक
निमित्तसे जो विपरीताभिनिवेशरहित श्रद्धान हुआ सो निश्चयसम्यक्त्व है – ऐसा जानना।
फि र प्रश्नः – कितने ही शास्त्रोंमें लिखा है कि आत्मा है वही निश्चयसम्यक्त्व है और
सर्व व्यवहार है सो किस प्रकार है?
समाधानः – विपरीताभिनिवेशरहित श्रद्धान हुआ सो आत्माका ही स्वरूप है, वहाँ
अभेदबुद्धिसे आत्मा और सम्यक्त्वमें भिन्नता नहीं है; इसलिये निश्चयसे आत्माको ही सम्यक्त्व
कहा। अन्य सर्व सम्यक्त्वको निमित्तमात्र हैं व भेद-कल्पना करने पर आत्मा और सम्यक्त्वके
भिन्नता कही जाती है; इसलिये अन्य सर्व व्यवहार कहे हैं – ऐसा जानना।
इस प्रकार निश्चयसम्यक्त्व और व्यवहारसम्यक्त्वसे सम्यक्त्वके दो भेद हैं।
तथा अन्य निमित्तादि अपेक्षा आज्ञासम्यक्त्वादि सम्यक्त्वके दस भेद किये हैं।
वह आत्मानुशासनमें कहा हैः –
आज्ञामार्गसमुद्भवमुपदेशात्सूत्रबीजसंक्षेपात्।
विस्तारार्थाभ्यां भवमवगाढपरमावागाढे च।।११।।
अर्थ : – जिन आज्ञासे तत्त्वश्रद्धान हुआ हो सो आज्ञासम्यक्त्व है।
यहाँ इतना जानना – ‘मुझको जिनआज्ञा प्रमाण है’, इतना ही श्रद्धान सम्यक्त्व नहीं
है। आज्ञा मानना तो कारणभूत है। इसीसे यहाँ आज्ञासे उत्पन्न कहा है। इसलिये पहले
जिनाज्ञा माननेसे पश्चात् जो तत्त्वश्रद्धान हुआ सो आज्ञासम्यक्त्व है। इसी प्रकार निर्ग्रन्थमार्गके
अवलोकनमें तत्त्वश्रद्धान हो सो मार्गसम्यक्त्व है१.........
इसप्रकार आठ भेद तो कारण-अपेक्षा किये। तथा श्रुतकेवलीको जो तत्त्वश्रद्धान है,
१ मार्गसम्यक्त्वके बाद यहाँ पंडितजीकी हस्तलिखित प्रतिमें छह सम्यक्त्वका वर्णन करनेके लिये तीन
पंक्तियोंका स्थान छोड़ा गया है, किन्तु वे लिख नहीं पाये। यह वर्णन अन्य ग्रन्थोंके अनुसार दिया जाता हैः —
[तथा उत्कृष्ट पुरुष तीर्थङ्करादिक उनके पुराणोंके उपदेशसे उत्पन्न जो सम्यग्ज्ञान उससे उत्पन्न आगम-
समुद्रमें प्रवीण पुरुषोंके उपदेशादिसे हुई जो उपदेशदृष्टि सो उपदेशसम्यक्त्व है। मुनिके आचरणके विधानको
प्रतिपादन करनेवाला जो आचारसूत्र, उसे सुनकर जो श्रद्धान करना हो उसे भले प्रकार सूत्रदृष्टि कही है, यह
सूत्रसम्यक्त्व है। तथा बीज जो गणितज्ञानके कारण उनके द्वारा दर्शनमोहके अनुपम उपशमके बलसे, दुष्कर
है जाननेकी गति जिसकी ऐसा पदार्थोंका समूह, उसकी हुई है उपलब्धि अर्थात् श्रद्धानरूप परिणति जिसके,
ऐसा जो करणानुयोगका ज्ञानी भव्य, उसके बीजदृष्टि होती है, यह बीजसम्यक्त्व जानना। तथा पदार्थोंको
संक्षेपपनेसे जानकर जो श्रद्धान हुआ सो भली संक्षेपदृष्टि है, यह संक्षेपसम्यक्त्व जानना। द्वादशांगवाणीको
सुनकर की गई जो रुचि
– श्रद्धान उसे हे भव्य, तू विस्तारदृष्टि जान, यह विस्तारसम्यक्त्व है। तथा जैनशास्त्रके
वचनके सिवा किसी अर्थके निमित्तसे हुई सो अर्थदृष्टि है, यह अर्थसम्यक्त्व जानना। ]