युगपत् होता है। वहाँ चारोंके उत्कृष्ट स्पर्द्धक समान कहे हैं।
उदय हो, वैसा उसके जाने पर नहीं होता। तथा जैसा प्रत्याख्यानके संज्वलनका उदय हो,
वैसा केवल संज्वलनका उदय नहीं होता। इसलिये अनन्तानुबन्धीके जाने पर कुछ कषायोंकी
मन्दता तो होती है, परन्तु ऐसी मन्दता नहीं होती जिसमें कोई चारित्र नाम प्राप्त करे। क्योंकि
कषायोंके असंख्यात लोकप्रमाण स्थान हैं; उनमें सर्वत्र पूर्वस्थानसे उत्तरस्थानमें मन्दता पायी
जाती है; परन्तु व्यवहारसे उन स्थानोंमें तीन मर्यादाएँ कीं। आदिके बहुत स्थान तो असंयमरूप
कहे, फि र कितने ही देशसंयमरूप कहे, फि र कितने ही सकलसंयमरूप कहे। उनमें प्रथम
गुणस्थानसे लेकर चतुर्थ गुणस्थान पर्यन्त जो कषायके स्थान होते हैं वे सर्व असंयमके ही
होते हैं। इसलिये कषायोंकी मन्दता होने पर भी चारित्र नाम नहीं पाते हैं।
है। सो असंयतमें ऐसे कषाय घटती नहीं हैं, इसलिये यहाँ असंयम कहा है। कषायोंका
अधिक
असंयमकी समानता नहीं जानना।
वह तो रोग अवस्थामें नहीं हुई। यहाँ मनुष्यका ही आयु है। उसी प्रकार सम्यक्त्वीके
सम्यक्त्वके नाशका कारण अनन्तानुबन्धीका उदय प्रगट हुआ, उसे सम्यक्त्वका विरोधक सासादन
कहा। तथा सम्यक्त्वका अभाव होने पर मिथ्यात्व होता है, वह तो सासादनमें नहीं हुआ।
यहाँ उपशमसम्यक्त्वका ही काल है