Moksha-Marg Prakashak (Hindi).

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नौवाँ अधिकार ][ ३३७
मिथ्यादृष्टिके तीव्र कषाय होने पर व मन्दकषाय होने पर अनन्तानुबंधी आदि चारोंका उदय
युगपत् होता है। वहाँ चारोंके उत्कृष्ट स्पर्द्धक समान कहे हैं।
इतना विशेष है कि अनन्तानुबन्धीके साथ जैसा तीव्र उदय अप्रत्याख्यानादिकका हो,
वैसा उसके जाने पर नहीं होता। इसी प्रकार अप्रत्याख्यानके साथ जैसा प्रत्याख्यान संज्वलनका
उदय हो, वैसा उसके जाने पर नहीं होता। तथा जैसा प्रत्याख्यानके संज्वलनका उदय हो,
वैसा केवल संज्वलनका उदय नहीं होता। इसलिये अनन्तानुबन्धीके जाने पर कुछ कषायोंकी
मन्दता तो होती है, परन्तु ऐसी मन्दता नहीं होती जिसमें कोई चारित्र नाम प्राप्त करे। क्योंकि
कषायोंके असंख्यात लोकप्रमाण स्थान हैं; उनमें सर्वत्र पूर्वस्थानसे उत्तरस्थानमें मन्दता पायी
जाती है; परन्तु व्यवहारसे उन स्थानोंमें तीन मर्यादाएँ कीं। आदिके बहुत स्थान तो असंयमरूप
कहे, फि र कितने ही देशसंयमरूप कहे, फि र कितने ही सकलसंयमरूप कहे। उनमें प्रथम
गुणस्थानसे लेकर चतुर्थ गुणस्थान पर्यन्त जो कषायके स्थान होते हैं वे सर्व असंयमके ही
होते हैं। इसलिये कषायोंकी मन्दता होने पर भी चारित्र नाम नहीं पाते हैं।
यद्यपि परमार्थसे कषायका घटना चारित्रका अंश है, तथापि व्यवहारसे जहाँ ऐसा
कषायोंका घटना हो जिससे श्रावकधर्म या मुनिधर्मका अंगीकार हो, वही चारित्र नाम पाता
है। सो असंयतमें ऐसे कषाय घटती नहीं हैं, इसलिये यहाँ असंयम कहा है। कषायोंका
अधिक
हीनपना होने पर भी, जिस प्रकार प्रमत्तादि गुणस्थानोंमें सर्वत्र सकलसंयम ही नाम
पाता है, उसी प्रकार मिथ्यात्वादि असंयत पर्यन्त गुणस्थानोंमें असंयम नाम पाता है। सर्वत्र
असंयमकी समानता नहीं जानना।
यहाँ फि र प्रश्न है कि अनन्तानुबंधी सम्यक्त्वका घात नहीं करती है तो इसका उदय
होने पर सम्यक्त्वसे भ्रष्ट होकर सासादन गुणस्थानको कैसे प्राप्त करता है?
समाधानःजैसे किसी मनुष्यके मनुष्यपर्याय नाशका कारण तीव्र रोग प्रगट हुआ हो,
उसको मनुष्यपर्यायका छोड़नेवाला कहते हैं। तथा मनुष्यपना दूर होने पर देवादिपर्याय हो,
वह तो रोग अवस्थामें नहीं हुई। यहाँ मनुष्यका ही आयु है। उसी प्रकार सम्यक्त्वीके
सम्यक्त्वके नाशका कारण अनन्तानुबन्धीका उदय प्रगट हुआ, उसे सम्यक्त्वका विरोधक सासादन
कहा। तथा सम्यक्त्वका अभाव होने पर मिथ्यात्व होता है, वह तो सासादनमें नहीं हुआ।
यहाँ उपशमसम्यक्त्वका ही काल है
ऐसा जानना।
इस प्रकार अनन्तानुबन्धी चतुष्टयकी सम्यक्त्व होने पर अवस्था होती नहीं, इसलिये
सात प्रकृतियोंके उपशमादिकसे भी सम्यक्त्वकी प्राप्ति कही जाती है।