Moksha-Marg Prakashak (Hindi).

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३३६ ] [ मोक्षमार्गप्रकाशक
सो अनन्तानुबन्धीका प्रशस्त उपशम तो होता ही नहीं, अन्य मोहकी प्रकृतियोंका होता
है। तथा इसका अप्रशस्त उपशम होता है।
तथा जो तीन करण द्वारा अनन्तानुबन्धीके परमाणुओंको अन्य चारित्रमोहकी प्रकृतिरूप
परिणमित करके उनकी सत्ता नाश करे, उसका नाम विसंयोजन है।
सो इनमें प्रथमोपशमसम्यक्त्वमें तो अनन्तानुबन्धीका अप्रशस्त उपशम ही है। तथा
द्वितीयोपशमसम्यक्त्वकी प्राप्ति पहले अनन्तानुबन्धीका विसंयोजन होने पर ही होती हैऐसा
नियम कोई आचार्य लिखते हैं, कोई नियम नहीं लिखते। तथा क्षयोपशमसम्यक्त्वमें किसी
जीवके अप्रशस्त उपशम होता है व किसीके विसंयोजन होता है। तथा क्षायिकसम्यक्त्व है
सो पहले अनन्तानुबन्धीका विसंयोजन होने पर ही होता है।
ऐसा जानना।
यहाँ यह विशेष है कि उपशम तथा क्षयोपशमसम्यक्त्वीके अनन्तानुबन्धीके विसंयोजनसे
सत्ताका नाश हुआ था, वह फि र मिथ्यात्वमें आये तो अनन्तानुबन्धीका बन्ध करे, वहाँ फि र
उसकी सत्ताका सद्भाव होता है और क्षायिकसम्यग्दृष्टि मिथ्यात्वमें आता नहीं है, इसलिये उसके
अनन्तानुबन्धीकी सत्ता कदाचित् नहीं होती।
यहाँ प्रश्न है कि अनन्तानुबन्धी तो चारित्रमोहकी प्रकृति है, सो चारित्रका घात करे,
इससे सम्यक्त्वका घात किस प्रकार सम्भव है?
समाधानःअनन्तानुबन्धीके उदयसे क्रोधादिरूप परिणाम होते हैं, कुछ अतत्त्वश्रद्धान
नहीं होता; इसलिये अनन्तानुबन्धी चारित्रका ही घात करती है, सम्यक्त्वका घात नहीं करती।
सो परमार्थसे है तो ऐसा ही, परन्तु अनन्तानुबन्धीके उदयसे जैसे क्रोधादिक होते हैं वैसे
क्रोधादिक सम्यक्त्व होने पर नहीं होते
ऐसा निमित्त-नैमित्तिकपना पाया जाता है। जैसे
त्रसपनेकी घातक तो स्थावरप्रकृति ही है, परन्तु त्रसपना होने पर एकेन्द्रियजातिप्रकृतिका भी
उदय नहीं होता, इसलिये उपचारसे एकेन्द्रियप्रकृतिको भी त्रसपनेका घातकपना कहा जाये
तो दोष नहीं है। उसी प्रकार सम्यक्त्वका घातक तो दर्शनमोह है, परन्तु सम्यक्त्व होने पर
अनन्तानुबन्धी कषायोंका भी उदय नहीं होता, इसलिये उपचारसे अनन्तानुबंधीके भी सम्यक्त्वका
घातकपना कहा जाये तो दोष नहीं है।
यहाँ फि र प्रश्न है कि अनन्तानुबंधी भी चारित्रका ही घात करती है, तो इसके जानेपर
कुछ चारित्र हुआ कहो। असंयत गुणस्थानमें असंयम किसलिये कहते हो?
समाधानःअनन्तानुबन्धी आदि भेद हैं वे तीव्रमन्द कषायकी अपेक्षा नहीं हैं; क्योंकि