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नौवाँ अधिकार ][ ३३५
इतना विशेष है कि क्षायिकसम्यक्त्वके सन्मुख होने पर अन्तर्मुहूर्तकालमात्र जहाँ
मिथ्यात्वकी प्रकृतिका क्षय करता है, वहाँ दो ही प्रकृतियोंकी सत्ता रहती है। पश्चात्
मिश्रमोहनीयका भी क्षय करता है वहाँ सम्यक्त्वमोहनीयकी ही सत्ता रहती है। पश्चात्
सम्यक्त्वमोहनीयकी काण्डकघातादि क्रिया नहीं करता, वहाँ कृतकृत्यवेदकसम्यग्दृष्टि नाम पाता
है – ऐसा जानना।
तथा इस क्षयोपशमसम्यक्त्वका ही नाम वेदकसम्यक्त्व है। जहाँ मिथ्यात्वमिश्रमोहनीयकी
मुख्यतासे कहा जाये, वहाँ क्षयोपशम नाम पाता है। सम्यक्त्वमोहनीयकी मुख्यतासे कहा जाये,
वहाँ वेदक नाम पाता है। सो कथनमात्र दो नाम हैं, स्वरूपमें भेद नहीं है। तथा यह
क्षयोपशमसम्यक्त्व चतुर्थादि सप्तमगुणस्थान पर्यन्त पाया जाता है।
इसप्रकार क्षयोपशमसम्यक्त्वका स्वरूप कहा।
तथा तीनों प्रकृतियोंके सर्वथा सर्व निषेकोंका नाश होने पर अत्यन्त निर्मल
तत्त्वार्थश्रद्धान हो सो क्षायिकसम्यक्त्व है। सो चतुर्थादि चार गुणस्थानोंमें कहीं क्षयोपशम-
सम्यग्दृष्टिको इसकी प्राप्ति होती है।
कैसे होती है? सो कहते हैंः – प्रथम तीन करण द्वारा वहाँ मिथ्यात्वके परमाणुओंको
मिश्रमोहनीय व सम्यक्त्वमोहनीयरूप परिणमित करे व निर्जरा करे; — इसप्रकार मिथ्यात्वकी सत्ता
नाश करे। तथा मिश्रमोहनीयके परमाणुओंको सम्यक्त्वमोहनीयरूप परिणमित करे व निर्जरा
करे; — इसप्रकार मिश्रमोहनीयका नाश करे। तथा सम्यक्त्वमोहनीयके निषेक उदयमें आकर खिरें,
उसकी बहुत स्थिति आदि हो तो उसे स्थितिकाण्डकादि द्वारा घटाये। जहाँ अन्तर्मुहूर्त स्थिति
रहे तब कृतकृत्यवेदकसम्यग्दृष्टि हो। तथा अनुक्रमसे इन निषेकोंका नाश करके क्षायिकसम्यग्दृष्टि
होता है।
सो यह प्रतिपक्षी कर्मके अभावसे निर्मल है व मिथ्यात्वरूप रंजनाके अभावसे वीतराग है;
इसका नाश नहीं होता। जबसे उत्पन्न हो तबसे सिद्ध अवस्था पर्यन्त इसका सद्भाव है।
इसप्रकार क्षायिकसम्यक्त्वका स्वरूप कहा।
ऐसे तीन भेद सम्यक्त्वके हैं।
तथा अनन्तानुबन्धी कषायकी सम्यक्त्व होने पर दो अवस्थाएँ होती हैं। या तो
अप्रशस्त उपशम होता है या विसंयोजन होता है।
वहाँ जो करण द्वारा उपशमविधानसे उपशम हो, उसका नाम प्रशस्त उपशम है।
उदयका अभाव उसका नाम अप्रशस्त उपशम है।