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नौवाँ अधिकार ][ ३३९
व जिनधर्ममें व धर्मात्मा जीवोंमें अति प्रीतिभाव, सो वात्सल्य है। ऐसे यह आठ अंग जानना।
जैसे मनुष्य-शरीरके हस्त-पादादिक अंग हैं, उसी प्रकार यह सम्यक्त्वके अंग हैं।
यहाँ प्रश्न है कि कितने ही सम्यक्त्वी जीवोंके भी भय, इच्छा, ग्लानि आदि पाये
जाते हैं और कितने ही मिथ्यादृष्टियोंके नहीं पाये जाते; इसलिये निःशंकितादिक अंग सम्यक्त्वके
कैसे कहते हो?
समाधानः – जैसे मनुष्य-शरीरके हस्त-पादादिक अंग कहे जाते हैं; वहाँ कोई मनुष्य ऐसा
भी हो जिसके हस्त-पादादिमें कोई अंग न हो; वहाँ उसके मनुष्य-शरीर तो कहा जाता है,
परन्तु उन अंगों बिना वह शोभायमान सकल कार्यकारी नहीं होता। उसी प्रकार सम्यक्त्वके
निःशंकितादि अंग कहे जाते हैं; वहाँ कोई सम्यक्त्वी ऐसा भी हो जिसके निःशंकितत्वादिमें
कोई अंग न हो; वहाँ उसके सम्यक्त्व तो कहा जाता है, परन्तु इन अंगोंके बिना वह निर्मल
सकल कार्यकारी नहीं होता। तथा जिसप्रकार बन्दरके भी हस्त-पादादि अंग होते हैं, परन्तु
जैसे मनुष्यके होते हैं वैसे नहीं होते; उसीप्रकार मिथ्यादृष्टियोंके भी व्यवहाररूप निःशंकितादिक
अंग होते हैं, परन्तु जैसे निश्चयकी सापेक्षता-सहित सम्यक्त्वीके होते हैं वैसे नहीं होते।
सम्यग्दर्शनके पच्चीस दोष
तथा सम्यक्त्वमें पच्चीस मल कहे हैंः – आठ शंकादिक, आठ मद, तीन मूढ़ता, षट्
अनायतन, सो यह सम्यक्त्वीके नहीं होते। कदाचित् किसीको कोई मल लगे, परन्तु सम्यक्त्वका
सर्वथा नाश नहीं होता, वहाँ सम्यक्त्व मलिन ही होता है – ऐसा जानना। बहु...........
– इति श्री मोक्षमार्गप्रकाशक नामक शास्त्रमें ‘मोक्षमार्गका स्वरूप’ प्रतिपादक
नौवाँ अधिकार पूर्ण हुआ।।९।।
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