Moksha-Marg Prakashak (Hindi).

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१८ ] [ मोक्षमार्गप्रकाशक
श्रोताओंके विशेष लक्षण ऐसे हैंयदि उसे कुछ व्याकरण-न्यायादिकका तथा बड़े
जैनशास्त्रोंका ज्ञान हो तो श्रोतापना विशेष शोभा देता है। तथा ऐसा भी श्रोता हो, किन्तु
उसे आत्मज्ञान न हुआ हो तो उपदेशका मर्म नहीं समझ सके; इसलिये जो आत्मज्ञान द्वारा
स्वरूपका आस्वादी हुआ है, वह जिनधर्मके रहस्यका श्रोता है। तथा जो अतिशयवन्त बुद्धिसे
अथवा अवधि
मनःपर्ययसे संयुक्त हो तो उसे महान श्रोता जानना। ऐसे श्रोताओंके विशेष
गुण हैं। ऐसे जिनशास्त्रोंके श्रोता होना चाहिये।
पुनश्च, शास्त्र सुननेसे हमारा भला होगाऐसी बुद्धिसे जो शास्त्र सुनते हैं, परन्तु
ज्ञानकी मंदतासे विशेष समझ नहीं पाते उनको पुण्यबन्ध होता है; विशेष कार्य सिद्ध नहीं
होता। तथा जो कुल प्रवृत्तिसे अथवा पद्धतिबुद्धिसे अथवा सहज योग बननेसे शास्त्र सुनते
हैं, अथवा सुनते तो हैं परन्तु कुछ अवधारण नहीं करते; उनके परिणाम अनुसार कदाचित्
पुण्यबन्ध होता है, कदाचित् पापबन्ध होता है। तथा जो मद-मत्सर- भावसे शास्त्र सुनते
हैं अथवा तर्क करनेका ही जिनका अभिप्राय है, तथा जो महंतताके हेतु अथवा किसी
लोभादिक प्रयोजनके हेतुसे शास्त्र सुनते हैं, तथा जो शास्त्र तो सुनते हैं, परन्तु सुहाता नहीं
है
ऐसे श्रोताओंको केवल पापबन्ध ही होता है।
ऐसा श्रोताओंका स्वरूप जानना। इसी प्रकार यथासम्भव सीखना, सिखाना आदि
जिनके पाया जाये उनका भी स्वरूप जानना।
इस प्रकार शास्त्रका तथा वक्ता-श्रोताका स्वरूप कहा। सो उचित शास्त्रको उचित
वक्ता होकर पढ़ना, उचित श्रोता होकर सुनना योग्य है।
मोक्षमार्गप्रकाशक ग्रन्थकी सार्थकता
अब, यह मोक्षमार्गप्रकाशक नामक शास्त्र रचते हैं, उसकी सार्थकता दिखाते हैंः
इस संसार-अटवीमें समस्त जीव हैं वे कर्मनिमित्तसे उत्पन्न जो नाना प्रकारके दुःख
उनसे पीड़ित हो रहे हैं; तथा वहाँ मिथ्या-अंधकार व्याप्त हो रहा है, उस कारण वहाँसे मुक्त
होनेका मार्ग नहीं पाते, तड़प-तड़पकर वहाँ ही दुःख को सहते हैं।
ऐसे जीवोंका भला होनेके कारणभूत तीर्थंकर केवली भगवानरूपी सूर्यका उदय हुआ;
उनकी दिव्यध्वनिरूपी किरणों द्वारा वहाँसे मुक्त होनेका मार्ग प्रकाशित किया। जिस प्रकार सूर्यको
ऐसी इच्छा नहीं है कि मैं मार्ग प्रकाशित करूँ, परन्तु सहज ही उसकी किरणें फै लती हैं, उनके
द्वारा मार्गका प्रकाशन होता है; उसी प्रकार केवली वीतराग हैं, इसलिये उनको ऐसी इच्छा नहीं