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पहला अधिकार ][ १९
है कि हम मोक्षमार्ग प्रगट करें, परन्तु सहज ही वैसे ही अघातिकर्मोके उदय से उनका शरीररूप
पुद्गल दिव्यध्वनिरूप परिणमित होता है, उसके द्वारा मोक्षमार्गका प्रकाशन होता है।
पुनश्च, गणधरदेवोंको यह विचार आया कि जब केवलीसूर्यका अस्तपना होगा तब
जीव मोक्षमार्गको कैसे प्राप्त करेंगे ? और मोक्षमार्ग प्राप्त किये बिना जीव दुःख सहेंगे; ऐसी
करुणाबुद्धिसे अंगप्रकीर्णकादिरूप ग्रन्थ वे ही हुए महान् दीपक उनका उद्योत किया।
पुनश्च, जिस प्रकार दीपकसे दीपक जलानेसे दीपकों की परम्परा प्रवर्तती है, उसी
प्रकार किन्हीं आचार्यादिकोंने उन ग्रन्थोंसे अन्य ग्रन्थ बनाये और फि र उन परसे किन्हींने
अन्य ग्रन्थ बनाये। इस प्रकार ग्रन्थ होनेसे ग्रन्थों की परम्परा प्रवर्तती है। मैं भी पूर्व ग्रन्थोंसे
यह ग्रन्थ बनाता हूँ।
पुनश्च, जिस प्रकार सूर्य तथा सर्व दीपक हैं वे मार्ग को एकरूप ही प्रकाशित करते
हैं, उसी प्रकार दिव्यध्वनि तथा सर्व ग्रन्थ हैं वे मोक्षमार्गको एकरूप ही प्रकाशित करते हैं;
सो यह भी ग्रन्थ मोक्षमार्गको प्रकाशित करता है। तथा जिस प्रकार प्रकाशित करने पर
भी जो नेत्ररहित अथवा नेत्रविकार सहित पुरुष हैं उनको मार्ग नहीं सूझता, तो दीपकके
तो मार्गप्रकाशकपनेका अभाव हुआ नहीं है; उसी प्रकार प्रगट करने पर भी जो मनुष्य ज्ञानरहित
हैं अथवा मिथ्यात्वादि विकार सहित हैं उन्हें मोक्षमार्ग नहीं सूझता, तो ग्रंथके तो
मोक्षमार्गप्रकाशकपनेका अभाव हुआ नहीं है।
इस प्रकार इस ग्रंथका मोक्षमार्गप्रकाशक ऐसा नाम सार्थक जानना।
प्रश्न : — मोक्षमार्गके प्रकाशक ग्रन्थ पहले तो थे ही, तुम नवीन ग्रन्थ किसलिये बनाते
हो ?
समाधान : — जिस प्रकार बड़े दीपकोंका तो उद्योत बहुत तेलादिकके साधनसे रहता है,
जिनके बहुत तेलादिककी शक्ति न हो उनको छोटा दीपक जला दें तो वे उसका साधन रखकर
उसके उद्योतसे अपना कार्य करें; उसी प्रकार बड़े ग्रन्थोंका तो प्रकाश बहुत ज्ञानादिकके साधनसे
रहता है, जिनके बहुत ज्ञानादिककी शक्ति नहीं है उनको छोटा ग्रन्थ बना दें तो वे उसका
साधन रखकर उसके प्रकाशसे अपना कार्य करें; इसलिये यह छोटा सुगम ग्रन्थ बनाते हैं।
पुनश्च, यहाँ जो मैं यह ग्रन्थ बनाता हूँ सो कषायोंसे अपना मान बढ़ानेके लिये अथवा
लोभ साधनेके लिये अथवा यश प्राप्त करनेके लिये अथवा अपनी पद्धति रखनेके लिये नहीं
बनाता हूँ। जिनको व्याकरण-न्यायादिका, नय-प्रमाणादिकका तथा विशेष अर्थोंका ज्ञान नहीं