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२० ] [ मोक्षमार्गप्रकाशक
है, उनके इस कारण बड़े ग्रन्थोंका अभ्यास तो बन नहीं सकता; तथा किन्हीं छोटे ग्रन्थोंका
अभ्यास बने तो भी यथार्थ अर्थ भासित नहीं होता। — इस प्रकार इस समयमें मंदज्ञानवान्
जीव बहुत दिखाई देते हैं, उनका भला होनेके हेतु धर्मबुद्धिसे यह भाषामय ग्रन्थ
बनाता हूँ।
पुनश्च, जिस प्रकार बड़े दरिद्रीको अवलोकनमात्र चिन्तामणिकी प्राप्ति हो और वह
अवलोकन न करे, तथा जैसे कोढ़ीको अमृत-पान कराये और वह न करे; उसी प्रकार संसार-
पीड़ित जीवको सुगम मोक्षमार्गके उपदेशका निमित्त बने और वह अभ्यास न करे तो उसके
अभाग्यकी महिमा हमसे तो नहीं हो सकती। उसकी होनहार ही का विचार करने पर अपनेको
समता आती है। कहा है किः —
साहीणे गुरुजोगे जे ण सुणंतीह धम्मवयणाइ।
ते धिट्ठदुट्ठचित्ता अह सुहडा भवभयविहुणा।।
स्वाधीन उपदेशदाता गुरुका योग मिलने पर भी जो जीव धर्मवचनोंको नहीं सुनते
वे धीठ हैं और उनका दुष्ट चित्त है। अथवा जिस संसारभयसे तीर्थंकरादि डरे उस संसारभयसे
रहित हैं वे बड़े सुभट हैं।
पुनश्च, प्रवचनसारमें भी मोक्षमार्गका अधिकार किया है, वहाँ प्रथम आगमज्ञान ही
उपादेय कहा है। सो इस जीवका तो मुख्य कर्त्तव्य आगमज्ञान है। उसके होने से तत्त्वों
का श्रद्धान होता है, तत्त्वों का श्रद्धान होने से संयमभाव होता है, और उस आगमसे
आत्मज्ञानकी भी प्राप्ति होती है; तब सहज ही मोक्षकी प्राप्ति होती है।
पुनश्च, धर्मके अनेक अंङ्ग हैं उनमें एक ध्यान बिना उससे ऊँचा और धर्मका अंग
नहीं है; इसलिये जिस-तिस प्रकार आगम-अभ्यास करना योग्य है।
पुनश्च, इस ग्रन्थका तो वाँचना, सुनना, विचारना बहुत सुगम है — कोई
व्याकरणादिकका भी साधन नहीं चाहिये; इसलिये अवश्य इसके अभ्यास में प्रवर्तो। तुम्हारा
कल्याण होगा।
— इति श्री मोक्षमार्गप्रकाशक नामक शास्त्रमें पीठबन्ध प्ररूपक
प्रथम अधिकार समाप्त हुआ।।१।।
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