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दूसरा अधिकार ][ २१
दूसरा अधिकार
संसार-अवस्थाका स्वरूप
दोहा — मिथ्याभाव अभावतैं, जो प्रगट निजभाव,
सो जयवंत रहौ सदा, यह ही मोक्ष उपाव।
अब इस शास्त्रमें मोक्षमार्गका प्रकाश करते हैं। वहाँ बन्धसे छूटनेका नाम मोक्ष है।
इस आत्माको कर्मका बन्धन है और उस बन्धनसे आत्मा दुःखी हो रहा है, तथा इसके
दुःख दूर करने ही का निरन्तर उपाय भी रहता है, परन्तु सच्चा उपाय प्राप्त किये
बिना दुःख दूर नहीं होता और दुःख सहा भी नहीं जाता; इसलिये यह जीव व्याकुल हो
रहा है।
इस प्रकार जीवको समस्त दुःखका मूलकारण कर्मबन्धन है। उसके अभावरूप मोक्ष
है वही परमहित है, तथा उसका सच्चा उपाय करना वही कर्तव्य है; इसलिये इस ही का
इसे उपदेश देते हैं। वहाँ जैसे वैद्य है सो रोग सहित मनुष्यको प्रथम तो रोगका निदान
बतलाता है कि इस प्रकार यह रोग हुआ है; तथा उस रोगके निमित्तसे उसके जो-जो
अवस्था होती हो वह बतलाता है। उससे निश्चय होता है कि मुझे ऐसा ही रोग है।
फि र उस रोगको दूर करनेका उपाय अनेक प्रकारसे बतलाता है और उस उपायकी उसे
प्रतीति कराता है — इतना तो वैद्यका बतलाना है। तथा यदि वह रोगी उसका साधन
करे तो रोगसे मुक्त होकर अपने स्वभावरूप प्रवर्ते, यह रोगीका कर्त्तव्य है।
उसी प्रकार यहाँ कर्मबन्धनयुक्त जीवको प्रथम तो कर्मबन्धनका निदान बतलाते हैं
कि ऐसे यह कर्मबन्धन हुआ है; तथा उस कर्मबन्धनके निमित्तसे इसके जो-जो अवस्था होती
है वह बतलाते हैं। उससे जीवको निश्चय होता है कि मुझे ऐसा ही कर्मबन्धन है। तथा
उस कर्मबन्धनके दूर होनेका उपाय अनेक प्रकारसे बतलाते हैं और उस उपायकी इसे प्रतीत
कराते हैं — इतना तो शास्त्रका उपदेश है। यदि यह जीव उसका साधन करे तो कर्मबन्धनसे
मुक्त होकर अपने स्वभावरूप प्रवर्ते, यह जीवका कर्त्तव्य है।