Moksha-Marg Prakashak (Hindi).

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२२ ] [ मोक्षमार्गप्रकाशक
कर्मबन्धनका निदान
सो यहाँ प्रथम ही कर्मबन्धनका निदान बतलाते हैंः
कर्मबन्धन होनेसे नाना औपाधिक भावोंमें परिभ्रमणपना पाया जाता है, एकरूप रहना
नहीं होता; इसलिये कर्मबन्धन सहित अवस्थाका नाम संसार-अवस्था है। इस संसार- अवस्थामें
अनन्तान्त जीवद्रव्य हैं वे अनादि ही से कर्मबन्धन सहित हैं। ऐसा नहीं है कि पहले जीव
न्यारा था और कर्म न्यारा था, बादमें इनका संयोग हुआ। तो कैसे हैं?
जैसे मेरुगिरि
आदि अकृत्रिम स्कन्धोंमें अनन्त पुद्गलपरमाणु अनादिसे एकबन्धनरूप हैं, फि र उनमेंसे कितने
परमाणु भिन्न होते हैं, कितने ही नये मिलते हैं, इस प्रकार मिलना
बिछुड़ना होता है। उसी
प्रकार इस संसार में एक जीवद्रव्य और अनन्त कर्मरूप पुद्गलपरमाणु उनका अनादिसे
एकबन्धनरूप है, फि र उनमें कितने ही कर्मपरमाणु भिन्न होते हैं, कितने ही नये मिलते हैं।
इस प्रकार मिलना - बिछुड़ना होता रहता है।
कर्मोंके अनादिपनेकी सिद्धि
यहाँ प्रश्न है किपुद्गलपरमाणु तो रागादिकके निमित्तसे कर्मरूप होते हैं, अनादि
कर्मरूप कैसे हैं? समाधानःनिमित्त तो नवीन कार्य हो उसमें ही सम्भव है, अनादि अवस्थामें
निमित्तका कुछ प्रयोजन नहीं है। जैसेनवीन पुद्गलपरमाणुओंका बंधान तो स्निग्ध-रूक्ष गुणके
अंशों ही से होता है और मेरुगिरि आदि स्कन्धोंमें अनादि पुद्गलपरमाणुओंका बंधान है,
वहाँ निमित्तका क्या प्रयोजन है? उसी प्रकार नवीन परमाणुओंका कर्मरूप होना तो रागादिक
ही से होता है और अनादि पद्गलपरमाणुओंकी कर्मरूप ही अवस्था है, वहाँ निमित्तका क्या
प्रयोजन है? तथा यदि अनादिमें भी निमित्त मानें तो अनादिपना रहता नहीं; इसलिये कर्मका
बन्ध अनादि मानना। सो तत्त्वप्रदीपिका प्रवचनसार शास्त्रकी व्याख्यामें जो सामान्यज्ञेयाधिकार
है वहाँ कहा हैः
रागादिकका कारण तो द्रव्यकर्म है और द्रव्यकर्मका कारण रागादिक हैं।
तब वहाँ तर्क किया है किऐसे तो इतरेतराश्रयदोष लगता हैवह उसके आश्रित, वह
उसके आश्रित, कहीं रुकाव नहीं है। तब उत्तर ऐसा दिया हैः
नैवं अनादिप्रसिद्धद्रव्यकर्म्मसम्बन्धस्य तत्र हेतुत्वेनोपादानात्
अर्थःइस प्रकार इतरेतराश्रयदोष नहीं है; क्योंकि अनादिका स्वयंसिद्ध द्रव्यकर्मका
सम्बन्ध है उसका वहाँ कारणपनेसे ग्रहण किया है।
न हि अनादिप्रसिद्धद्रव्यकर्माभिसम्बद्धस्यात्मनः प्राक्तनद्रव्यकर्मणस्तत्र हेतुत्वेनोपादानात्।प्रवचनसार टीका, गाथा १२१