-
दूसरा अधिकार ][ २३
ऐसा आगममें कहा है तथा युक्तिसे भी ऐसा ही संभव है कि — कर्मके निमित्त बिना
पहले जीवको रागादिक कहे जायें तो रागादिक जीवका एक स्वभाव हो जायें; क्योंकि
परनिमित्तके बिना हो उसीका नाम स्वभाव है।
इसलिये कर्मका सम्बन्ध अनादि ही मानना।
यहाँ प्रश्न है कि — न्यारे-न्यारे द्रव्य और अनादिसे उनका सम्बन्ध — ऐसा कैसे संभव है?
समाधान : — जैसे मूल ही से जल — दूधका, सोना — किट्टिकका, तुष — कणका तथा
तेल — तिलका सम्बन्ध देखा जाता है, नवीन इनका मिलाप हुआ नहीं है; वैसे ही अनादिसे
जीवकर्मका सम्बन्ध जानना, नवीन इनका मिलाप हुआ नहीं है। फि र तुमने कहा — ‘कैसे
संभव है?’ अनादिसे जिस प्रकार कई भिन्न द्रव्य हैं, वैसे ही कई मिले द्रव्य हैं; इस प्रकार
संभव होनेमें कुछ विरोध तो भासित नहीं होता।
फि र प्रश्न है कि — सम्बन्ध अथवा संयोग कहना तो तब संभव है जब पहले भिन्न
हों और फि र मिलें। यहाँ अनादिसे मिले जीव-कर्मोंका सम्बन्ध कैसे कहा है?
समाधान : — अनादिसे तो मिले थे; परन्तु बादमें भिन्न हुए तब जाना कि भिन्न थे
तो भिन्न हुए, इसलिये पहले भी भिन्न ही थे — इस प्रकार अनुमानसे तथा केवलज्ञानसे प्रत्यक्ष
भिन्न भासित होते हैं। इससे, उनका बन्धन होने पर भी भिन्नपना पाया जाता है। तथा
उस भिन्नताकी अपेक्षा उनका सम्बन्ध अथवा संयोग कहा है; क्योंकि नये मिले, या मिले
ही हों, भिन्न द्रव्योंके मिलापमें ऐसे ही कहना संभव है।
इस प्रकार इन जीव-कर्मका अनादि सम्बन्ध है।
जीव और कर्मों की भिन्नता
वहाँ जीवद्रव्य तो देखने-जाननेरूप चेतनागुणका धारक है तथा इन्द्रियगम्य न होने
योग्य अमूर्त्तिक है, संकोच-विस्तार शक्तिसहित असंख्यातप्रदेशी एकद्रव्य है। तथा कर्म है वह
चेतनागुणरहित जड़ है और मूर्त्तिक है, अनन्त पुद्गलपरमाणुओंका पिण्ड है, इसलिए एकद्रव्य
नहीं है। इस प्रकार ये जीव और कर्म हैं — इनका अनादिसम्बन्ध है, तो भी जीवका कोई
प्रदेश कर्मरूप नहीं होता और कर्मका कोई परमाणु जीवरूप नहीं होता; अपने-अपने लक्षणको
धारण किये भिन्न-भिन्न ही रहते हैं। जैसे सोने-चाँदीका एक स्कंध हो, तथापि पीतादि गुणोंको
धारण किए सोना भिन्न रहता है और श्वेतादि गुणोंको धारण किये चाँदी भिन्न रहती है —
वैसे भिन्न जानना।