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२४ ] [ मोक्षमार्गप्रकाशक
अमूर्तिक आत्मासे मूर्तिक कर्मोंका बंधान किस प्रकार होता है?
यहाँ प्रश्न है कि — मूर्तिक-मूर्तिकका तो बंधान होना बने, अमूर्तिक-मूर्तिकका बंधान
कैसे बने?
समाधानः — जिस प्रकार व्यक्त – इन्द्रियगम्य नहीं हैं, ऐसे सूक्ष्म पुद्गल तथा व्यक्त-
इन्द्रियगम्य हैं, ऐसे स्थूल पुद्गल — उनका बंधान होना मानते हैं; उसी प्रकार जो इन्द्रियगम्य
होने योग्य नहीं है, ऐसा अमूर्तिक आत्मा और इन्द्रियगम्य होने योग्य मूर्तिक कर्म — इनका
भी बंधान होना मानना। तथा इस बंधानमें कोई किसीको करता तो है नहीं। जब तक
बंधान रहे तब तक साथ रहें — बिछुड़ें नहीं और कारण-कार्यपना उनके बना रहे; इतना ही
यहाँ बंधान जानना। सो मूर्तिक-अमूर्तिकके इस प्रकार बंधान होनेमें कुछ विरोध है नहीं।
इस प्रकार जैसे एक जीवको अनादि कर्मसम्बन्ध कहा उसी प्रकार भिन्न-भिन्न अनंत
जीवों के जानना।
घाति-अघाति कर्म और उनका कार्य
तथा वे कर्म ज्ञानावरणादि भेदोंसे आठ प्रकारके हैं। वहाँ चार घातिया कर्मोंके निमित्तसे
तो जीवके स्वभावका घात होता है। ज्ञानावरण-दर्शनावरणसे तो जीवके स्वभाव जो ज्ञान-
दर्शन उनकी व्यक्त्तता नहीं होती; उन कर्मोंके क्षयोपशमके अनुसार किंचित् ज्ञान-दर्शनकी
व्यक्त्तता रहती है। तथा मोहनीयसे जो जीवके स्वभाव नहीं हैं ऐसे मिथ्याश्रद्धान व क्रोध,
मान, माया, लोभादिक कषाय उनकी व्यक्त्तता होती है। तथा अन्तरायसे जीवका स्वभाव,
दीक्षा लेने की सामर्थ्यरूप वीर्य उसकी व्यक्त्तता नहीं होती; उसके क्षयोपशमके अनुसार किंचित्
शक्ति होती है।
इस प्रकार घातिया कर्मोके निमित्तसे जीवके स्वभावका घात अनादि ही से हुआ है।
ऐसा नहीं है कि पहले तो स्वभावरूप शुद्ध आत्मा था, पश्चात् कर्म-निमित्तसे स्वभावघात होनेसे
अशुद्ध हुआ।
यहाँ तर्क है कि — घात नाम तो अभावका है; सो जिसका पहले सद्भाव हो उसका
अभाव कहना बनता है। यहाँ स्वभावका तो सद्भाव है ही नहीं, घात किसका किया?
समाधान : — जीवमें अनादि ही से ऐसी शक्ति पायी जाती है कि कर्मका निमित्त न
हो तो केवलज्ञानादि अपने स्वभावरूप प्रवर्तें; परन्तु अनादि ही से कर्मका सम्बन्ध पाया जाता
है, इसलिये उस शक्तिकी व्यक्तता नहीं हुई। अतः शक्ति-अपेक्षा स्वभाव है, उसका व्यक्त्त
न होने देनेकी अपेक्षा घात किया कहते हैं।