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दूसरा अधिकार ][ २५
तथा चार अघातिया कर्म हैं, उनके निमित्तसे इस आतमाको बाह्य सामग्रीका सम्बन्ध
बनता है। वहाँ वेदनीयसे तो शरीरमें अथवा शरीरसे बाह्य नानाप्रकार सुख-दुःखके कारण
परद्रव्योंका संयोग जुड़ता है; आयुसे अपनी स्थिति-पर्यन्त प्राप्त शरीरका सम्बन्ध नहीं छूट
सकता; नामसे गति, जाति, शरीरादिक उत्पन्न होते हैं; और गोत्रसे उच्च-नीच कुलकी प्राप्ति
होती है।
इस प्रकार अघाति कर्मोंसे बाह्य सामग्री एकत्रित होती है, उसके द्वारा मोहउदयका
सहकार होने पर जीव सुखी-दुःखी होता है। और शरीरादिकके सम्बन्धसे जीवके
अमूर्त्तत्वादिस्वभाव अपने स्व-अर्थको नहीं करते — जैसे कोई शरीरको पकड़े तो आत्मा भी
पकड़ा जाये। तथा जब तक कर्मका उदय रहता है तब तक बाह्य सामग्री वैसी ही बनी
रहे, अन्यथा नहीं हो सके — ऐसा इन अघाति कर्मोंका निमित्त जानना।
निर्बल जड़ कर्मों द्वारा जीवके स्वभावका घात तथा बाह्य सामग्री मिलना
यहाँ कोई प्रश्न करे कि — कर्म तो जड़ हैं, कुछ बलवान नहीं हैं; उनसे जीवके
स्वभावका घात होना व बाह्य सामग्रीका मिलना कैसे संभव है?
समाधानः — यदि कर्म स्वयं कर्त्ता होकर उद्यमसे जीवके स्वभावका घात करे, बाह्य
सामग्रीको मिलावे तब तो कर्मके चेतनापना भी चाहिये और बलवानपना भी चाहिये; सो तो
है नहीं, सहज ही निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्ध है। जब उन कर्मोंका उदयकाल हो; उसकालमें
स्वयं ही आत्मा स्वभावरूप परिणमन नहीं करता, विभावरूप परिणमन करता है, तथा जो
अन्य द्रव्य हैं वै वैसे ही सम्बन्धरूप होकर परिणमित होते हैं।
जैसे — किसी पुरुषके सिर पर मोहनधूल पड़ी है उससे वह पुरुष पागल हुआ; वहाँ
उस मोहनधूलको ज्ञान भी नहीं था और बलवानपना भी नहीं था, परन्तु पागलपना उस
मोहनधूल ही से हुआ देखते हैं। वहाँ मोहनधूलका तो निमित्त है और पुरुष स्वयं ही पागल
हुआ परिणमित होता है — ऐसा ही निमित्त-नैमित्तिक बन रहा है।
तथा जिस प्रकार सूर्यके उदयके कालमें चकवा-चकवियोंका संयोग होता है; वहाँ रात्रिमें
किसीने द्वेषबुद्धिसे बलजबरी करके अलग नहीं किये हैं, दिनमें किसीने करुणाबुद्धिसे लाकर
मिलाये नहीं हैं, सूर्योदयका निमित्त पाकर स्वयं ही मिलते हैं। ऐसा निमित्त-नैमित्तिक बन
रहा है। उस ही प्रकार कर्मका भी निमित्त-नैमित्तिक भाव जानना। — इस प्रकार कर्मके उदयसे
अवस्था है।