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उपादान-निमित्तका चिठ्ठी ][ ३५९
और सुन, जहाँ मोक्षमार्ग साधा वहाँ कहा कि – ‘‘सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः’’
और ऐसा भी कहा कि – ‘‘ज्ञानक्रियाभ्यां मोक्षः’’।
उसका विचार – चतुर्थ गुणस्थानसे लेकर चौदहवें गुणस्थानपर्यंत मोक्षमार्ग कहा; उसका
विवरण – सम्यक्रूप ज्ञानधारा, विशुद्धरूप चारित्रधारा – दोनों धाराएँ मोक्षमार्गको चलीं, वहाँ
ज्ञानसे ज्ञानकी शुद्धता, क्रियासे क्रियाकी शुद्धता है। यदि विशुद्धतामें शुद्धता है तो
यथाख्यातरूप होती है। यदि विशुद्धतामें वह नहीं होती तो केवलीमें ज्ञानगुण शुद्ध होता,
क्रिया अशुद्ध रहती; परन्तु ऐसा तो नहीं है। उसमें शुद्धता थी, उससे विशुद्धता हुई है।
यहाँ कोई कहे कि ज्ञानकी शुद्धतासे क्रिया शुद्ध हुई सो ऐसा नहीं है। कोई गुण
किसी गुणके सहारे नहीं है, सब असहायरूप हैं।
और भी सुन – यदि क्रियापद्धति सर्वथा अशुद्ध होती तो अशुद्धताकी इतनी शक्ति नहीं
है कि मोक्षमार्गको चले, इसलिये विशुद्धतामें यथाख्यातका अंश है, इसलिये वह अंश क्रम-
क्रमसे पूर्ण हुआ।
हे भाई प्रश्नवाले, तूने विशुद्धतामें शुद्धता मानी या नहीं? यदि तूने वह मानी, तो
कुछ और कहनेका काम नहीं है; यदि तूने नहीं मानी तो तेरा द्रव्य इसीप्रकार परिणत हुआ
है हम क्या करें? यदि मानी तो शाबाश!
यह द्रव्यार्थिककी चौभंगी पूर्ण हुई।
निमित्त-उपादान शुद्धाशुद्धरूप विचारः –
अब पर्यायार्थिककी चौभंगी सुनो – एक तो वक्ता अज्ञानी, श्रोता भी अज्ञानी; वहाँ तो
निमित्त भी अशुद्ध, उपादान भी अशुद्ध। दूसरा वक्ता अज्ञानी, श्रोता ज्ञानी; वहाँ निमित्त
अशुद्ध और उपादान शुद्ध। तीसरा वक्ता ज्ञानी, श्रोता अज्ञानी; वहाँ निमित्त शुद्ध और उपादान
अशुद्ध। चौथा वक्ता ज्ञानी, श्रोता भी ज्ञानी; वहाँ तो निमित्त भी शुद्ध, उपादान भी शुद्ध।
यह पर्यायार्थिककी चौभंगी सिद्ध की।
इति निमित्त-उपादान शुद्धाशुद्धरूप विचार वचनिका।
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