Moksha-Marg Prakashak (Hindi).

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दूसरा अधिकार ][ २७
बन्धान होनेकी शक्ति होती है, उसका नाम योग है। उसके निमित्तसे प्रति समय कर्मरूप
होने योग्य अनन्त परमाणुओं का ग्रहण होता है। वहाँ अल्पयोग हो तो थोड़े परमाणुओंका
ग्रहण होता है और बहुत योग हो तो बहुत परमाणुओंका ग्रहण होता है। तथा एक समयमें
जो पुद्गलपरमाणु ग्रहण करे उनमें ज्ञानावरणादि मूलप्रकृतियोंका और उनकी उत्तरप्रकृतियोंका
जैसे सिद्धान्तमें कहा वैसे बटवारा होता है। उस बटवारेके अनुसार परमाणु उन प्रकृतियोंरूप
स्वयं ही परिणमित होते हैं।
विशेष इतना कि योग दो प्रकारका हैशुभयोग, अशुभयोग। वहाँ धर्मके अंगोंमें
मन-वचन-कायकी प्रवृत्ति होने पर तो शुभयोग होता है और अधर्मके अंगोंमें उनकी प्रवृत्ति
होने पर अशुभयोग होता है। वहाँ शुभयोग हो या अशुभयोग हो, सम्यक्त्व प्राप्त किये
बिना घातियाकर्मोंकी तो सर्व प्रकृतियोंका निरन्तर बन्ध होता ही रहता है। किसी समय किसी
भी प्रकृतिका बन्ध हुए बिना नहीं रहता। इतना विशेष है कि मोहनीयके हास्य-शोक युगलमें,
रति-अरति युगलमें, तीनों वेदोंमें एक कालमें एक-एक ही प्रकृतिका बन्ध होता है।
तथा अघातियाकर्मोंकी प्रकृतियोंमें शुभयोग होने पर सातावेदनीय आदि पुण्यप्रकृतियोंका
बन्ध होता है, अशुभयोग होने पर असातावेदनीय आदि पापप्रकृतियोंका बन्ध होता है, मिश्रयोग
होने पर कितनी ही पुण्यप्रकृतियोंका तथा कितनी ही पापप्रकृतियोंका बन्ध होता है।
इस प्रकार योगके निमित्तसे कर्मोंका आगमन होता है। इसलिये योग है वह आस्रव
है। तथा उसके द्वारा ग्रहण हुए कर्मपरमाणुओंका नाम प्रदेश है, उनका बन्ध हुआ और
उनमें मूल-उत्तर प्रकृतियोंका विभाग हुआ; इसलिये योगों द्वारा प्रदेशबन्ध तथा प्रकृतिबन्धका
होना जानना।
कषायसे स्थिति और अनुभाग बन्ध
तथा मोहके उदयसे मिथ्यात्व क्रोधादिक भाव होते हैं, उन सबका नाम सामान्यतः
कषाय है। उससे उन कर्मप्रकृतियों की स्थिति बँधती है। वहाँ जितनी स्थिति बँधे उसमें
आबाधाकालको छोड़कर पश्चात् जब तक बँधी स्थिति पूर्ण हो तब तक प्रति समय उस
प्रकृति का उदय आता ही रहता है। वहाँ देव-मनुष्य-तिर्यंचायुके बिना अन्य सर्व घातिया-
अघातिया प्रकृतियोंका, अल्प कषाय होने पर थोड़ा स्थितिबन्ध होता है, बहुत कषाय होने
पर बहुत स्थितिबन्ध होता है। इन तीन आयुका अल्प कषायसे बहुत और बहुत कषायसे
अल्प स्थितिबन्ध जानना।