होने योग्य अनन्त परमाणुओं का ग्रहण होता है। वहाँ अल्पयोग हो तो थोड़े परमाणुओंका
ग्रहण होता है और बहुत योग हो तो बहुत परमाणुओंका ग्रहण होता है। तथा एक समयमें
जो पुद्गलपरमाणु ग्रहण करे उनमें ज्ञानावरणादि मूलप्रकृतियोंका और उनकी उत्तरप्रकृतियोंका
जैसे सिद्धान्तमें कहा वैसे बटवारा होता है। उस बटवारेके अनुसार परमाणु उन प्रकृतियोंरूप
स्वयं ही परिणमित होते हैं।
होने पर अशुभयोग होता है। वहाँ शुभयोग हो या अशुभयोग हो, सम्यक्त्व प्राप्त किये
बिना घातियाकर्मोंकी तो सर्व प्रकृतियोंका निरन्तर बन्ध होता ही रहता है। किसी समय किसी
भी प्रकृतिका बन्ध हुए बिना नहीं रहता। इतना विशेष है कि मोहनीयके हास्य-शोक युगलमें,
रति-अरति युगलमें, तीनों वेदोंमें एक कालमें एक-एक ही प्रकृतिका बन्ध होता है।
होने पर कितनी ही पुण्यप्रकृतियोंका तथा कितनी ही पापप्रकृतियोंका बन्ध होता है।
उनमें मूल-उत्तर प्रकृतियोंका विभाग हुआ; इसलिये योगों द्वारा प्रदेशबन्ध तथा प्रकृतिबन्धका
होना जानना।
आबाधाकालको छोड़कर पश्चात् जब तक बँधी स्थिति पूर्ण हो तब तक प्रति समय उस
प्रकृति का उदय आता ही रहता है। वहाँ देव-मनुष्य-तिर्यंचायुके बिना अन्य सर्व घातिया-
अघातिया प्रकृतियोंका, अल्प कषाय होने पर थोड़ा स्थितिबन्ध होता है, बहुत कषाय होने
पर बहुत स्थितिबन्ध होता है। इन तीन आयुका अल्प कषायसे बहुत और बहुत कषायसे
अल्प स्थितिबन्ध जानना।