Moksha-Marg Prakashak (Hindi).

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५४ ] [ मोक्षमार्गप्रकाशक
है, बहुत कष्ट सहता है, सेवा करता है, विदेशगमन करता है। जिसमें मरण होना जाने
वह कार्य भी करता है। जिनमें बहुत दुःख उत्पन्न हो ऐसे प्रारम्भ करता है। तथा लोभ
होने पर पूज्य व इष्टका भी कार्य हो वहाँ भी अपना प्रयोजन साधता है, कुछ विचार नहीं
रहता। तथा जिस इष्ट वस्तुकी प्राप्त हुई है उसकी अनेक प्रकारसे रक्षा करता है। यदि
इष्ट वस्तुकी प्राप्ति न हो या इष्टका वियोग हो तो स्वयं संतापवान होता है, अपने अंगोंका
घात करता है तथा विष आदिसे मर जाता है।
ऐसी अवस्था लोभ होने पर होती है।
इस प्रकार कषायोंसे पीड़ित हुआ इन अवस्थाओंमें प्रवर्तता है।
तथा इन कषायोंके साथ नोकषाय होती हैं। वहाँ जब हास्य कषाय होती है तब
स्वयं विकसित प्रफु ल्लित होता है; वह ऐसा जानना जैसे सन्निपातके रोगीका हँसना; नाना
रोगोंसे स्वयं पीड़ित है तो भी कोई कल्पना करके हँसने लग जाता है। इसी प्रकार यह
जीव अनेक पीड़ा सहित है; तथापि कोई झूठी कल्पना करके अपनेको सुहाता कार्य मानकर
हर्ष मानता है, परमार्थतः दुःखी होता है। सुखी तो कषाय-रोग मिटने पर होगा।
तथा जब रति उत्पन्न होती है तब इष्ट वस्तुमें अति आसक्त होता है। जैसे बिल्ली
चूहेको पकड़कर आसक्त होती है, कोई मारे तो भी नहीं छोड़ती; सो यहाँ कठिनतासे प्राप्त
होनेके कारण तथा वियोग होनेके अभिप्रायसे आसक्तता होती है, इसलिये दुःख ही है।
तथा जब अरति उत्पन्न होती है तब अनिष्ट वस्तुका संयोग पाकर महा व्याकुल होता
है। अनिष्टका संयोग हुआ वह स्वयंको सुहाता नहीं है, वह पीड़ा सही नहीं जाती, इसलिये
उसका वियोग करनेको तड़पता है; वह दुःख ही है।
तथा जब शोक उत्पन्न होता है तब इष्टका वियोग और अनिष्टका संयोग होनेसे अति
व्याकुल होकर संताप पैदा करता है, रोता है, पुकार करता है, असावधान हो जाता है,
अपने अंगका घात करके मर जाता है; कुछ सिद्धि नहीं है तथापि स्वयं ही महा दुःखी
होता है।
तथा जब भय उत्पन्न होता है तब किसीको इष्ट-वियोग व अनिष्ट-संयोगका कारण
जानकर डरता है, अतिविह्वल होता है, भागता है, छिपता है, शिथिल हो जाता है, कष्ट
होनेके स्थान पर पहुँच जाता है व मर जाता है; सो यह दुःखरूप ही है।
तथा जब जुगुप्सा उत्पन्न होती है तब अनिष्ट वस्तुसे घृणा करता है। उसका तो
संयोग हुआ और यह घृणा करके भागना चाहता है या उसे दूर करना चाहता है और
खेदखिन्न होकर महा दुःख पाता है।