प्रकार जीवको दुःख देनेवाले अनेक कषाय हैं; व जब क्रोध नहीं होता तब मानादिक हो
जाते हैं, जब मान न हो तब क्रोधादिक हो जाते हैं। इस प्रकार कषायका सद्भाव बना
ही रहता है, कोई एक समय भी कषाय रहित नहीं होता। इसलिये किसी कषायका कोई
कार्य सिद्ध होने पर भी दुःख कैसे दूर हो? और इसका अभिप्राय तो सर्व कषायोंका सर्व
प्रयोजन सिद्ध करनेका है, वह हो तो यह सुखी हो; परन्तु वह कदापि नहीं हो सकता,
इसलिये अभिप्रायमें सर्वदा दुःखी ही रहता है। इसलिये कषायोंके प्रयोजनको साधकर दुःख
दूर करके सुखी होना चाहता है; सो यह उपाय झूठा ही है।
कषायोंका अभाव हो, तब उनकी पीड़ा दूर हो और तब प्रयोजन भी कुछ नहीं रहे, निराकुल
होनेसे महा सुखी हो। इसलिये सम्यग्दर्शनादिक ही यह दुःख मेटनेका सच्चा उपाय है।
है ही।
विघ्न होता देखा जाता है। अन्तरायका क्षयोपशम होने पर बिना उपाय भी विघ्न नहीं होता।
इसलिये विघ्नोंका मूल कारण अन्तराय है।
द्रव्यों द्वारा विघ्न हुए, यह जीव उन बाह्य द्रव्योंसे वृथा द्वेष करता है। अन्य द्रव्य इसे
विघ्न करना चाहें और इसके न हो; तथा अन्य द्रव्य विघ्न करना न चाहें और इसके हो
जाये। इसलिये जाना जाता है कि अन्य द्रव्यका कुछ वश नहीं है। जिनका वश नहीं
है उनसे किसलिये लड़े? इसलिये यह उपाय झूठा है।