Moksha-Marg Prakashak (Hindi).

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तीसरा अधिकार ][ ५७
इच्छा पूर्ण तो होती नहीं है, इसलिये कोई कार्य सिद्ध होने पर भी दुःख दूर नहीं
होता। अथवा कोई कषाय मिटे तो उसीसमय अन्य कषाय हो जाती है। जैसेकिसीको
मारनेवाले बहुत हों तो कोई एक जब नहीं मारता तब अन्य मारने लग जाता है। उसी
प्रकार जीवको दुःख देनेवाले अनेक कषाय हैं; व जब क्रोध नहीं होता तब मानादिक हो
जाते हैं, जब मान न हो तब क्रोधादिक हो जाते हैं। इस प्रकार कषायका सद्भाव बना
ही रहता है, कोई एक समय भी कषाय रहित नहीं होता। इसलिये किसी कषायका कोई
कार्य सिद्ध होने पर भी दुःख कैसे दूर हो? और इसका अभिप्राय तो सर्व कषायोंका सर्व
प्रयोजन सिद्ध करनेका है, वह हो तो यह सुखी हो; परन्तु वह कदापि नहीं हो सकता,
इसलिये अभिप्रायमें सर्वदा दुःखी ही रहता है। इसलिये कषायोंके प्रयोजनको साधकर दुःख
दूर करके सुखी होना चाहता है; सो यह उपाय झूठा ही है।
तब सच्चा उपाय क्या है? सम्यग्दर्शनज्ञानसे यथावत् श्रद्धान और जानना हो तब
इष्ट-अनिष्ट बुद्धि मिटे, तथा उन्हींके बलसे चारित्रमोहका अनुभाग हीन हो। ऐसा होने पर
कषायोंका अभाव हो, तब उनकी पीड़ा दूर हो और तब प्रयोजन भी कुछ नहीं रहे, निराकुल
होनेसे महा सुखी हो। इसलिये सम्यग्दर्शनादिक ही यह दुःख मेटनेका सच्चा उपाय है।
अन्तरायकर्मके उदयसे होनेवाले दुःख और उससे निवृत्ति
तथा जीवके मोह द्वारा दान, लाभ, भोग, उपभोग, वीर्यशक्तिका उत्साह उत्पन्न होता
है; परन्तु अन्तरायके उदयसे हो नहीं सकता, तब परम आकुलता होती है। सो यह दुःखरूप
है ही।
इसका उपाय यह करता है कि जो विघ्नके बाह्य कारण सूझते हैं उन्हें दूर करनेका
उद्यम करता है, परन्तु वह उपाय झूठा है। उपाय करने पर भी अन्तरायका उदय होनेसे
विघ्न होता देखा जाता है। अन्तरायका क्षयोपशम होने पर बिना उपाय भी विघ्न नहीं होता।
इसलिये विघ्नोंका मूल कारण अन्तराय है।
तथा जैसे कुत्तेको पुरुष द्वारा मारी हुई लाठी लगी, वहाँ वह कुत्ता लाठीसे वृथा
ही द्वेष करता है; उसी प्रकार जीवको अन्तरायसे निमित्तभूत किये गये बाह्य चेतन-अचेतन
द्रव्यों द्वारा विघ्न हुए, यह जीव उन बाह्य द्रव्योंसे वृथा द्वेष करता है। अन्य द्रव्य इसे
विघ्न करना चाहें और इसके न हो; तथा अन्य द्रव्य विघ्न करना न चाहें और इसके हो
जाये। इसलिये जाना जाता है कि अन्य द्रव्यका कुछ वश नहीं है। जिनका वश नहीं
है उनसे किसलिये लड़े? इसलिये यह उपाय झूठा है।