उत्पन्न होता है। बादमें वहाँ क्रमशः ज्ञानादिककी तथा शरीरकी वृद्धि होती है। गर्भका दुःख
बहुत है। संकुचित रूपसे औंधे मुँह क्षुधा-तृषादि सहित वहाँ काल पूर्ण करता है। जब
बाहर निकलता है तब बाल्यावस्थामें महा दुःख होता है। कोई कहते हैं कि बाल्यावस्थामें
दुःख थोड़ा है; सो ऐसा नहीं है, किन्तु शक्ति थोड़ी होनेसे व्यक्त नहीं हो सकता। बादमें
व्यापारादिक तथा विषय-इच्छा आदि दुःखोंकी प्रगटता होती है। इष्ट-अनिष्ट जनित आकुलता
बनी ही रहती है। पश्चात् जब वृद्ध हो तब शक्तिहीन हो जाता है और तब परम दुःखी
होता है। ये दुःख प्रत्यक्ष होते देखे जाते हैं।
प्राप्त किये बिना होते नहीं हैं।
पोरें कानी होनेसे वे भी नहीं चूसी जातीं; कोई स्वादका लोभी उन्हें बिगाड़े तो बिगाड़ो;
परन्तु यदि उन्हें बो दे तो उनसे बहुतसे गन्ने हों, और उनका स्वाद बहुत मीठा आये।
उसी प्रकार मनुष्य-पर्यायका बालक-वृद्धपना तो सुखयोग्य नहीं है, और बीचकी अवस्था रोग-
क्लेशादिसे युक्त है, वहाँ सुख हो नहीं सकता; कोई विषयसुखका लोभी उसे बिगाड़े तो बिगाड़ो;
परन्तु यदि उसे धर्म साधनमें लगाये तो बहुत उच्चपदको पाये, वहाँ सुख बहुत निराकुल
पाया जाता है। इसलिये यहाँ अपना हित साधना, सुख होनेके भ्रमसे वृथा नहीं खोना।
कषाय बहुत मंद नहीं हैं और उनका उपयोग चंचल बहुत है तथा कुछ शक्ति भी है सो
कषायोंके कार्योंमें प्रवर्तते हैं; कौतूहल, विषयादि कार्योंमें लग रहे हैं और उस आकुलतासे
दुःखी ही हैं। तथा वैमानिकोंके ऊपर-ऊपर विशेष मन्दकषाय है और शक्ति विशेष है, इसलिये
आकुलता घटनेसे दुःख भी घटता है।