पूर्ण करनेके कारण बनें तो युगपत् उनका साधन नहीं होता। सो एकका साधन जब तक
न हो तब तक उसकी आकुलता रहती है; और उसका साधन होने पर उस ही समय अन्यके
साधनकी इच्छा होती है तब उसकी आकुलता होती है। एक समय भी निराकुल नहीं रहता,
इसलिये दुःख ही है। अथवा तीन प्रकारकी इच्छारूपी रोगको मिटानेका किंचित् उपाय करता
है, इसलिये किंचित् दुःख कम होता है, सर्व दुःखका तो नाश नहीं होता, इसलिये दुःख
ही है।
धर्मानुरागमें जीव कम लगता है, जीव तो बहुत पाप-क्रियाओंमें ही प्रवर्तता है। इसलिये
चौथी इच्छा किसी जीवके किसी कालमें ही होती है।
चौथी इच्छा होने पर भी दुःखी होता है। किसीके बहुत विभूति है और उसके इच्छा बहुत
है तो बहुत आकुलतावान है और जिसके थोड़ी विभूति है तथा उसके इच्छा भी थोड़ी है तो
वह थोड़ा आकुलतावान है। अथवा किसीको अनिष्ट सामग्री मिली है और उसे उसको दूर
करनेकी इच्छा थोड़ी है तो वह थोड़ा आकुलतावान है। तथा किसीको इष्ट सामग्री मिली है,
परन्तु उसे उसको भोगनेकी तथा अन्य सामग्रीकी इच्छा बहुत है तो वह जीव बहुत आकुलतावान
है। इसलिये सुखी-दुःखी होना इच्छाके अनुसार जानना, बाह्य कारणके आधीन नहीं है।
तथा मनुष्य, तिर्यंचोंको भी सुखी-दुःखी, इच्छा ही की अपेक्षा जानना। तीव्र कषायसे जिसके
इच्छा बहुत है उसे दुःखी कहते हैं, मन्द कषायसे जिसके इच्छा थोड़ी है उसे सुखी कहते
हैं। परमार्थसे दुःख ही बहुत या थोड़ा है, सुख नहीं है। देवादिकोंको भी सुखी मानते
हैं वह भ्रम ही है। उनके चौथी इच्छाकी मुख्यता है, इसलिये आकुलित हैं।
दुःखोंसे पीड़ित ही हो रहे हैं।