जाने या यथार्थ जाने, तथा जैसा जानता है वैसा ही माने तो उससे उसका कुछ भी बिगाड़-
सुधार नहीं है, उससे वह पागल या चतुर नाम नहीं पाता; तथा जिनसे प्रयोजन पाया जाता
है उन्हें यदि अन्यथा जाने और वैसा ही माने तो बिगाड़ होता है, इसलिए उसे पागल
कहते हैं; तथा उनको यदि यथार्थ जाने और वैसा ही माने तो सुधार होता है, इसलिये
उसे चतुर कहते हैं। उसी प्रकार जीव है वह जिनसे प्रयोजन नहीं है उन्हें अन्यथा जाने
या यथार्थ जाने, तथा जैसा जाने वैसा श्रद्धान करे, तो इसका कुछ भी बिगाड़-सुधार नहीं
है, उससे मिथ्यादृष्टि या सम्यग्दृष्टि नाम प्राप्त नहीं करता; तथा जिससे प्रयोजन पाया जाता
है उन्हें यदि अन्यथा जाने और वैसा ही श्रद्धान करे तो बिगाड़ होता है, इसलिये उसे
मिथ्यादृष्टि कहते हैं; तथा यदि उन्हें यथार्थ जाने और वैसा ही श्रद्धान करे तो सुधार होता
है, इसलिये उसे सम्यदृष्टि कहते हैं।
और उसका निमित्त तो ज्ञानावरण कर्म है, परन्तु वहाँ प्रयोजनभूत पदार्थोंका अन्यथा या
यथार्थ श्रद्धान करनेसे जीवका कुछ और भी बिगाड़-सुधार होता है, इसलिये उसका निमित्त
दर्शनमोह नामक कर्म है।
देव अवधिज्ञानादियुक्त हैं, उनके ज्ञानावरणका क्षयोपशम बहुत होने पर भी प्रयोजनभूत
जीवादिकका श्रद्धान नहीं होता; और तिर्यंचादिकको ज्ञानावरणका क्षयोपशम थोड़ा होने पर भी
प्रयोजनभूत जीवादिकका श्रद्धान होता है। इसलिये जाना जाता है कि ज्ञानावरणके ही अनुसार
श्रद्धान नहीं होता; कोई अन्य कर्म है और वह दर्शनमोह है। उसके उदयसे जीवके मिथ्यादर्शन
होता है तब प्रयोजनभूत जीवादि तत्त्वोंका अन्यथा श्रद्धान करता है।