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७८ ] [ मोक्षमार्गप्रकाशक
प्रयोजनभूत-अप्रयोजनभूत पदार्थ
यहाँ कोई पूछे कि — प्रयोजनभूत और अप्रयोजनभूत पदार्थ कौन हैं?
समाधानः — इस जीवको प्रयोजन तो एक यही है कि दुःख न हो और सुख हो।
किसी जीवके अन्य कुछ भी प्रयोजन नहीं है। तथा दुःखका न होना, सुखका होना एक
ही है; क्योंकि दुःखका अभाव वही सुख है और इस प्रयोजनकी सिद्धि जीवादिकका सत्य
श्रद्धान करनेसे होती है। कैसे?
सो कहते हैंः — प्रथम तो दुःख दूर करनेमें आपापरका ज्ञान अवश्य होना चाहिये।
यदि आपापरका ज्ञान नहीं हो तो अपनेको पहिचाने बिना अपना दुःख कैसे दूर करे? अथवा
आपापरको एक जानकर अपना दुःख दूर करनेके अर्थ परका उपचार करे तो अपना दुःख
दूर कैसे हो? अथवा अपनेसे पर भिन्न हैं, परन्तु यह परमें अहंकार-ममकार करे तो उससे दुःख
ही होता है। आपापरका ज्ञान होने पर ही दुःख दूर होता है। तथा आपापरका ज्ञान जीव-
अजीवका ज्ञान होने पर ही होता है; क्योंकि आप स्वयं जीव है, शरीरादिक अजीव हैं।
यदि लक्षणादि द्वारा जीव-अजीवकी पहिचान हो तो अपनी और परकी भिन्नता भासित
हो; इसलिये जीव-अजीवको जानना। अथवा जीव-अजीवका ज्ञान होने पर, जिन पदार्थोंके
अन्यथा श्रद्धानसे दुःख होता था उनका यथार्थ ज्ञान होनेसे दुःख दूर होता है; इसलिये जीव-
अजीवको जानना।
तथा दुःखका कारण तो कर्म-बन्धन है और उसका कारण मिथ्यात्वादिक आस्रव हैं।
यदि इनको न पहिचाने, इनको दुःखका मूल कारण न जाने तो इनका अभाव कैसे करे?
और इनका अभाव नहीं करे तो कर्म बन्धन कैसे नहीं हो? इसलिये दुःख ही होता है।
अथवा मिथ्यात्वादिक भाव हैं सो दुःखमय हैं। यदि उन्हें ज्योंका त्यों नहीं जाने तो उनका
अभाव नहीं करे, तब दुःखी ही रहे; इसलिये आस्रवको जानना।
तथा समस्त दुःखका कारण कर्म-बन्धन है। यदि उसे न जाने तो उससे मुक्त होनेका
उपाय नहीं करे, तब उसके निमित्तसे दुःखी हो; इसलिये बन्धको जानना।
तथा आस्रवका अभाव करना सो संवर है। उसका स्वरूप न जाने तो उसमें प्रवर्तन नहीं
करे, तब आस्रव ही रहे, उससे वर्त्तमान तथा आगामी दुःख ही होता है; इसलिये संवरको जानना।
तथा कथंचित् किंचित् कर्मबन्धका अभाव करना उसका नाम निर्जरा है। यदि उसे
न जाने तो उसकी प्रवृत्तिका उद्यमी नहीं हो, तब सर्वथा बन्ध ही रहे, जिससे दुःख ही
होता है; इसलिये निर्जराको जानना।