Moksha Shastra-Gujarati (Devanagari transliteration). Introduction; Edition Information; Thanks & Our Request; Version History; Shree KanjiSwami; Arpan; Publisher's Note; About Translator; Method of understanding shastras; Prastavna (gujarati tika); Prastavna (3rd edition-gujarati); Moksh Shastra.

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श्रीमद्भगवत्कुंदकुंदाचार्यदेवाय नमः
भगवान् श्री उमास्वामी आचार्यविरचित
मोक्षशास्त्र अर्थात् तत्त्वार्थसूत्र
(गुजराती टीका)
ःटीका संग्राहकः
रामजी माणेकचंद दोशी
(एडवोकेट)

ः प्रकाशकः

पू. श्री कानजीस्वामी स्मारक ट्रस्ट
लाम रोड देवलाली (महाराष्ट्र)

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प्राप्तिस्थानः (१) पू. श्री कानजीस्वामी स्मारक ट्रस्ट,

लाम रोड, देवलाली (२) श्री दिगंबर जैन स्वाध्यायमंदिर ट्रस्ट

सोनगढ-३६४२प० (३) श्री दिगंबर जैन स्वाध्यायमंदिर ट्रस्ट,

प, पंचनाथ प्लोट, राजकोट ३६०००१ (४) श्री सीमंधर जिनालय,

१७३/ १७प मुंबादेवी रोड, मुंबई-२
वीर संवत २प१७ पांचमी आवृत्ति
विक्रम संवत २०४७प्रतः २०००
भादरवा सुद प

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Blackburn, UK, who has paid for it to be "electronised" and made
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Dr Arvindbhai D Shah, Bhogilalbhai D Shah and Shardaben B Shah.

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Version History

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00116 Sept 2002First electronic version.

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परम पूज्य श्री कानजीस्वामी

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अर्पण

कल्याणमूर्तिश्रीसद्गुरुदेवने
जेमणे आ पामर पर अपार उपकार कर्यो छे, जेओ
स्वयं मोक्षमार्गे विचरी रह्या छे अने पोतानी
दिव्य-श्रुतधारा वडे भरतभूमिना जीवोने सतत्पणे
मोक्षमार्ग दर्शावी रह्या छे, जेमनी पवित्र
सम्यग्दर्शननुं माहात्म्य निरंतर वरसी रह्युं
छे, अने जेमनी परम कृपावडे आ ग्रंथ
तैयार थयो छे एवा, कल्याणमूर्ति
सम्ग्दर्शननुं स्वरूप समजावनार,
कल्याणमूर्ति श्री सद्गुरुदेवने
आ गं्रथ अत्यंत भक्तिभावे
अर्पण करीए छीए.
पू. श्री कानजीस्वामी स्मारक ट्रस्ट देवलाली
–ट्रस्टीगण–

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चोथी आवृत्ति संबंधमां
प्रकाशकीय निवेदन

आ शास्त्रनी गुजराती टीकानी छेल्ली अने बीजी आवृत्ति आजथी बावीश वर्ष पूर्वे श्री दि. जैन स्व. मंदिर ट्रस्ट सोनगढ तरफथी संवत २०१९ एटले के ई. स. १९६३ मां छपाएल. त्यारबाद तेनी मांग होवा छतां आ पुस्तक ई. स. १९७३ थी लगभग अलभ्य हतुं. फंडना अभावे तेम ज अन्य प्रकाशनोनी वधारे लाभदायक जरूरीआत होवाना अंगे आ शास्त्रनो गुजराती टीका संग्रह श्री रामजीभाई रचित आज सुधी पुनर्जन्म न पामी शकयो.

आपणा सारा नसीबे श्री रामजीभाईनी जन्मशताब्दी उजवणी वखते जुदी- जुदी संस्थाओ तरफथी भंडोळ उभु करवामां आवेल अने तेमांथी “मोक्षशास्त्र” नुं प्रकाशन तुरत ज करवुं तेम नक्की थयेल छतां त्यारबाद त्रण वर्ष प्रसार थई गया. परंतु कोई ने कोई काणोसर “मोक्षशास्त्र” प्रकाशित थई शकयुं नहीं.

दिन प्रतिदिन तत्त्व समजवानी रुचिवाळो दरेक फिरकानो आबालवृद्ध वर्ग वधतो ज जाय छे अने तेमने खरेखर जैनसिद्धांत सुगमताथी समजवा माटे मातृभाषा (गुजराती) मां आवो ग्रंथ उपलब्ध होय तो घरमां वसावी पोताने त्यां पोताना परिवारने लाभनुं कारण समजे.

आ ध्येयने लक्षमां राखी नीचेना नवा ट्रस्टनी रचना करवामां आवी छे अने जेमनुं प्रथम कार्य भगवान श्री उमास्वामी विरचित मोक्षशास्त्र (तत्त्वार्थसूत्र) नुं रामजीभाई माणेकचंद दोशीनी गुजराती टीका सहित प्रकाशन करवुं एम नक्की करेल छे अने त्यारबाद पण बीजा अप्राप्य पुस्तको अनुक्रमे प्रसिद्ध करवा.

श्री सुमति प्रिन्टिंग प्रेसे आ शास्त्र सावधानी पूर्वक शीध्र छापी आपेल छे ते बदल तेमनो आभार मानवामां आवे छे.

श्री रामजीभाई वकील शताब्दी सत्–साहित्य ट्रस्ट वती
चीमनलाल कसळचंद मावाणी
सुमनभाई रामजीभाई दोशी
मथुरभाई गोकुलदास संघवी
-ट्रस्टीओ

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पांचमी आवृत्ति सबंधमां
प्रकाशकीय निवेदन

आ शास्त्रनी गुजराती टीकानी चोथी आवृत्ति १२०० प्रत लगभग छ वर्ष पहेलां श्री रामजीभाई वकील शताब्दी सत्-साहित्य ट्रस्ट तरफथी छपायेल जे थोडा ज वखतमां खलास थई गई. जैन धर्मना चारेय फीरकाओ ने मान्य एवुं आ “ तत्त्वार्थ सुत्रनी टीका” पुस्तक नी एक पण प्रत उपलब्ध न होवाथी अने धणी ज मांग होवाथी पू. श्री कानजीस्वामी स्मारक ट्रस्ट देवलालीना ट्रस्टीओए आ पुस्तक छपाववानुं नक्की कर्युं अने मु. श्री नेमचंदकाका तथा श्री रमेश भाईए सभामां आ पुस्तकनी उपयोगीता विषेनी वात करी अने लोकोए ए ज वखते पूस्तकनी किंमत घटाडवा माटे सुंदर प्रतिसाद आप्यो. डाॉ. भारील्ल जेओ ते वखते देवलाली हता तेमणे सुचन कर्युं के जयपुर छपावशो तो धणुं सस्तु पडशे. तेथी आ पुस्तकनी छपाववानी जवाबदारी भाईश्री अखील बंसलने सोंपी अने तेमणे सहर्ष स्वीकारी आ पूस्तक थोडा समयमां छपावी आप्युं ते बदल संस्था तेमनी आभारी छे जे जे भाई-बहेनोए आ पुस्तकनी किमत घटाडवा माटे आर्थिक सहयोग कर्यो छे. तेमनो संस्था अत्यंत आभार माने छे. तेमना सहयोग वगर आटलुं जल्दी काम थात नहि. श्री रामजीभाई वकिल शताब्दी सत् साहित्य ट्रस्टनो पण पुरो सहकार मळ्‌यो छे जे बदल ट्रस्ट तेमनो पण आभार माने छे. जयपुरना प्रेसे जल्दीथी काम सुंदररीते करी आप्युं ते बदल तेमनो पण आभार मानीए छीए

ली. ट्रस्टीगण
पू. श्री कानजीस्वामी स्मारक ट्रस्ट देवलाली

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मुरब्बी श्री रामजीभाई माणेकचंद दोशी वकीलनुं संक्षिप्त
जीवन–वृत्तांत

आपणे तेमने “बापुजी” तरीखे ओळखीये छीए. पू. गुरुदेवनी बापुजी प्रत्ये अमीभरी कृपाद्रष्टि हती.

पू. गुरुदेव बापुजीने वात्सल्य झरतां मधुर शब्दोमां “भाई” तरीके संबोधता.

बापुजीनुं सांसारिक जीवन प्रतिभाशाळी, उत्तमनीतिवाळुं, प्रमाणिक अने नीडर हतुं. ए ब्रीटीश जमानाना अंग्रेजी न्यायाधीशोने “धोळे दिवसे तारा” देखाडनारा वकील तरीके प्रख्यात हता.

तेमनुं धार्मिक जीवन सत्धर्म प्रत्ये अतिरुचिवंत अने असीम गुरुभक्तिवाळुं छे. सोनगढनी सर्व प्रवृत्तिओना जन्मदाता, पोषक अने वर्धक पिता तरीके बापुजीनुं नाम सुवर्णपुरीना इतिहासमां सुवर्ण अक्षरे अंकित रहेशे.

पू. बापुजी अनेक वर्षोथी सर्वार्पणपणे गुरुभक्तिथी सूक्ष्मपणे शास्त्रअवगाहन करीने अने सहृदयपणे निःस्वार्थ सेवा पू. गुरुदेवनी तपोभूमि सोनगढमां आपी रह्या छे. तेओए नीतिमत्ता, उदारता, सादाई, नीडरता, सज्जनता, आत्मार्थिता, उद्यम परायणता, धर्मश्रद्धा, विद्वता, गुरुचरण उपासना, पितातुल्य वात्सल्यता एवा अनेक गुणोेथी मुमुक्षुजनोनां हृदयो जीती लीधांछे.

आजे तेओ १०३ मां जन्म दिवसमां प्रवेश करे छे. तेमणे “मोक्षशास्त्र” अथाग महेनत लईने घणा वरसो पहेलां बनावेलुं, तेनी चोथी आवृत्तिनुं प्रकाशन आजे करतां अमने अति आनंद थायछे. पू. बापुजी आपणी वच्चे घणा वरसो सुधी रहे अने धार्मिक उन्नत्तिना उत्तम उदाहरण तरीके आपणने सौने प्रोत्साहन आपता रहे ते ज अमारी प्रार्थना छे.

श्री रामजीभाई वकील शताब्दी सत्–साहित्य ट्रस्ट वती
-ट्रस्टीओ

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जैनशास्त्रनी कथनपद्धति समजीने
साची श्रद्धा करवानी रीत

निश्चयनय वडे जे निरूपण कर्युं होय तेने तो सत्यार्थ मानी तेनुं श्रद्धान अंगीकार करवुं, तथा व्यवहारनय वडे जे निरूपण कर्युं होय तेने असत्यार्थ मानी तेनुं श्रद्धान छोडवुं. श्री समयसार कलश १७३ मां पण ए ज कह्युं छे के-‘जेथी बधाय हिंसादि वा अहिंसादिमां अध्यवसाय छे ते बधाय छोडवा एवुं श्री जिनदेवे कह्युं छे, तेथी हुं (-आचार्यदेव) एम मानुं छुं के-जे पराश्रित व्यवहार ते सघळोय छोडाव्यो छे; तो सत्पुरुष एक निश्चयने ज भला प्रकारे निश्चयपणे अंगीकार करी शुद्धज्ञानघनरूप पोताना महिमामां स्थिति केम करता नथी? (भावार्थ-) अहीं व्यवहारनो तो त्याग कराव्यो छे, माटे निश्चयने अंगीकार करी निजमहिमारूप प्रवर्तवुं युक्त छे. वळी अष्टप्राभृतमां मोक्षप्राभृतनी ३१ मी गाथामां कह्युं छे के ‘जे व्यवहारमां सूता छे ते योगी पोताना कार्यमां जागे छे तथा जे व्यवहारमां जागे छे ते पोताना कार्यमां सूता छे, माटे व्यवहारनयनुं श्रद्धान छोडी निश्चयनयनुं श्रद्धान करवुं योग्य छे. व्यवहारनय स्वद्रव्य-परद्रव्यने वा तेना भावोने वा कारण-कार्यादिकने कोईना कोईमां मेळवी निरूपण करे छे माटे एवा ज श्रद्धानथी मिथ्यात्व छे, तेथी तेनो त्याग करवो, वळी निश्चयनय तेने ज यथावत् निरूपण करे छे तथा कोईने कोईमां मेळवतो नथी, तेथी एवा ज श्रद्धानथी सम्यक्त्व थाय छे, माटे तेनुं श्रद्धान करवुं.

प्रश्नः– जिनमार्गमां बन्ने नयोनुं ग्रहण करवुं कह्युं छे, तेनुं शुं कारण? उत्तरः– जिनमार्गमां कोई ठेकाणे तो निश्चयनयनी मुख्यता सहित व्याख्यान छे, तेने तो “सत्यार्थ एम ज छे” एम जाणवुं, तथा कोई ठेकाणे व्यवहारनयनी मुख्यता सहित व्याख्यान छे तेने “एम नथी पण निमित्तादिनी अपेक्षाए आ उपचार कर्यो छे” एम जाणवुं; अने ए प्रमाणे जाणवानुं नाम ज बन्ने नयोनुं ग्रहण छे, पण बन्ने नयोना व्याख्यानने समान सत्यार्थ जाणी “आ प्रमाणे पण छे तथा आ प्रमाणे पण छे” एवा भ्रमरूप प्रवर्तवाथी तो बन्ने नयो ग्रहण करवा कह्यां नथी.


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मोक्षशास्त्र–गुजराती टीका
प्रस्तावना
(१) शास्त्रना कर्ता तथा शास्त्रनी टीकाओ

आ मोक्षशास्त्रना कर्ता भगवान श्री उमास्वामी आचार्य छे. भगवान श्री कुंदकुंदाचार्यदेवना तेओ मुख्य शिष्य हता अने तेओ ‘श्री उमास्वाति’ नामथी पण ओळखाय छे. भगवान श्री कुंदकुंदाचार्य पछी तेओश्री आचार्यपदे बिराजमान थया हता. तेओश्री विक्रम संवतना बीजा सैकामां थई गया छे.

जैन समाजमां आ शास्त्र अत्यंत प्रसिद्ध छे. आनी एक ए विशेषता छे के जैन आगमोमां संस्कृत भाषामां सर्व प्रथम आ शास्त्र रचायुं छे; आ शास्त्र उपर श्री पूज्यपादस्वामी, श्री अकलंकस्वामी अने श्री विद्यानंदीस्वामी जेवा समर्थ आचार्यदेवोए विस्तृत टीकानी रचना करी छे. श्री सर्वार्थसिद्धि, राजवार्तिक, श्लोकवार्तिक, अर्थप्रकाशिका आदि ग्रंथो आ शास्त्र उपरनी ज टीकाओ छे. बाळकथी मांडीने महापंडित ए सर्वेने आ शास्त्र उपयोगी छे. आ शास्त्रनी रचना घणी ज आकर्षक छे, घणा अल्प शब्दोमां दरेक सूत्रनी रचना छे अने ते सूत्रो सहेलाईथी याद राखी शकाय तेवां छे. घणा जैनो तेना सूत्रो मोढे करे छे. जैन पाठशाळाओना पाठय-पुस्तकोमां आ एक मुख्य छे. हिंदीमां आ शास्त्रनी घणी आवृत्तिओ छपाई गई छे.

(२) शास्त्रना नामनी सार्थक्ता

आ शास्त्रमां प्रयोजनभूत तत्त्वोनुं वर्णन घणी ज खूबीथी आचार्यभगवाने भरी दीधुं छे. पथभ्रान्त संसारी जीवोने आचार्यदेवे मोक्षनो मार्ग दर्शाव्यो छे; शरूआतमां ज ‘सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्रनी एकता ते मोक्षमार्ग छे’ एम जणावीने सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान अने सम्यक्चारित्रनुं वर्णन कर्युं छे. ए रीते मोक्षमार्गनुं प्ररूपण होवाथी आ शास्त्र ‘मोक्षशास्त्र’ नामथी ओळखाय छे. तेम ज आमां जीव-अजीवादि सात तत्त्वोनुं वर्णन होवाथी तत्त्वार्थसूत्र नामथी पण आ शास्त्र प्रसिद्ध छे.

(३) शास्त्रना विषयो

आ शास्त्र कुल १० अध्यायोमां विभक्त छे अने तेमां कुल ३प७ सूत्रो छे. पहेला अध्यायमां ३३ सूत्रो छे; तेमां पहेला ज सूत्रमां सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र


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[१०]

ए त्रणेनी एकताने मोक्षमार्ग तरीके जणावीने पछी सम्यग्दर्शन अने सम्यग्ज्ञाननुं विवेचन कर्युं छे. बीजा अध्यायमां प३ सूत्रो छे, तेमां जीवतत्त्वनुं वर्णन छे. जीवना पांच असाधारण भावो, जीवनुं लक्षण तथा इन्द्रिय, योनि, जन्म, शरीरादि साथेना संबंधनुं विवेचन कर्युं छे. त्रीजा अध्यायमां ३९ सूत्रो छे तथा चोथा अध्यायमां ४२ सूत्रो छे. आ बन्ने अध्यायोमां संसारी जीवने रहेवानां स्थानरूप अधो, मध्य अने ऊर्ध्व ए त्रण लोकनुं वर्णन छे अने नरक, तिर्यंच, मनुष्य तथा देव ए चार गतिओनुं विवेचन छे. पांचमा अध्यायमां ४२ सूत्रो छे अने तेमां अजीवतत्त्वनुं वर्णन छे; तेथी पुद्गलादि अजीवद्रव्योनुं वर्णन कर्युं छे; ए उपरांत द्रव्य, गुण, पर्यायना लक्षणनुं वर्णन घणुं टूंकामां विशिष्ट रीते जणाव्युं छे-ए आ अध्यायनी खास विशेषता छे. छठ्ठा अध्यायमां २७ तथा सातमा अध्यायमां ३९ सूत्रो छे; आ बन्ने अध्यायोमां आस्रवतत्त्वनुं वर्णन छे. छठ्ठा अध्यायमां प्रथम आस्रवनुं स्वरूप वर्णवीने पछी आठे कर्मोना आस्रवनां कारणो जणाव्यां छे. सातमा अध्यायमां शुभास्रवनुं वर्णन छे, तेमां बार व्रतोनुं वर्णन करीने तेना आस्रवना कारणमां समावेश कर्यो छे, आ अध्यायमां श्रावकाचारना वर्णननो समावेश थई जाय छे. आठमा अध्यायमां २६ सूत्रो छे अने तेमां बंधतत्त्वनु वर्णन छे. बंधना कारणोनुं तथा तेना भेदोनुं अने स्थितिनुं वर्णन कर्युं छे. नवमा अध्यायमां ४७ सूत्रो छे अने तेमां संवर तथा निर्जरा ए बे तत्त्वोनुं घणुं सुंदर विवेचन छे; तथा निर्ग्रंथ मुनिओनुं स्वरूप पण जणाव्युं छे. एटले आ अध्यायमां सम्यक्चारित्रना वर्णननो समावेश थई जाय छे. पहेला अध्यायमां सम्यग्दर्शन तथा सम्यग्ज्ञाननुं वर्णन कर्युं हतुं अने आ नवमा अध्यायमां सम्यक्चारित्रनुं (-संवर, निर्जरानुं) वर्णन कर्युं. ए रीते सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्ररूप मोक्षमार्गनुं वर्णन पूरुं थतां छेल्ले दशमा अध्यायमां नवसूत्रो द्वारा मोक्षतत्त्वनुं वर्णन करीने श्री आचार्यदेवे आ शास्त्र पूर्ण कर्युं छे.

संक्षेपथी जोतां आ शास्त्रमां सम्यग्दर्शन-सम्यग्ज्ञान-सम्यक्चारित्ररूप मोक्षमार्ग, प्रमाण-नय-निक्षेप, जीव-अजीवादि सात तत्त्वो, ऊर्ध्व मध्य-अधो-ए त्रण लोक, चार गतिओ, छ द्रव्यो अने द्रव्य-गुण-पर्याय-ए बधानुं स्वरूप आवी जाय छे. ए रीते आचार्यभगवाने आ शास्त्रमां तत्त्वज्ञाननो भंडार घणी खूबीथी भरी दीधो छे.

(४) शास्त्रना कथननो प्रकार

आ शास्त्रमां पर्यायार्थिकनयनी मुख्यताथी वस्तुस्वरूपनुं कथन करवामां आव्युं छे, तेथी तेमां एक द्रव्यनो बीजा द्रव्यनी साथे संबंध पण जणाव्यो छे, परंतु वर्तमान जैन समाजमां ‘नय’-संबंधीना यथार्थज्ञाननी प्रायः शून्यता देखाय छे, तेथी


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[११]

समाजनो मोटो भाग आ शास्त्रना साचा मर्मथी अज्ञात छे. एक द्रव्य बीजा द्रव्यनुं कांई करी शके नहि-एवुं वस्तुस्वरूप छे, तेथी ज्यां ज्यां एक द्रव्यने बीजा द्रव्यनी साथे संबंध जणाववामां आवे त्यां त्यां एम समजवुं के ते संबंध मात्र निमित्त- नैमित्तिकपणानो छे, पण जुदां द्रव्योने कर्ताकर्मसंबंध जरा पण होई शक्तो नथी. ज्यां पर्यायनुं अने तेना निमित्तनुं ज्ञान कराववुं होय त्यां घणी वार निमित्तनी मुख्यताथी कथन करवामां आवे छे. पण निमित्तथी कोई कार्य थतुं नथी. आ शास्त्रमां पण घणी जग्याए निमित्तनी मुख्यताथी कथन करवामां आव्युं छे. साधक दशानी भूमिकानुसार अमुक प्रकारनो ज राग अने निमित्त-नैमित्तिकनो मेळ होय छे. एनाथी विरुद्ध होय नहीं एम ज्ञान कराववा माटे व्यवहारनय अने तेनो विषय जाणवा माटे तेनुं कथन होय छे. अने तेवा सूत्रोनी टीकामां ते कथनना भावोने स्पष्ट करवामां आव्यो छे. तेना अभ्यासथी धर्म जिज्ञासुओने सत्यस्वरूप समजवुं सुगम थशे.

(प) आ शास्त्रनी गुजराती टीकाना आधारभूत शास्त्रो

आ टीकानो संग्रह मुख्यपणे श्री सर्वार्थसिद्धि, श्री तत्त्वार्थराजवार्तिक; श्री श्लोकवार्तिक, श्री अर्थप्रकाशिका, श्री समयसार, श्री प्रवचनसार, श्री पंचास्तिकाय, श्री नियमसार, श्री धवलाशास्त्र, तथा श्री मोक्षमार्ग-प्रकाशक वगेरे अनेक सत्शास्त्रोना आधारे करवामां आवेल छे.

(६) परम उपकारी पूज्य गुरुदेवश्रीनी कृपानुं फळ

परमपूज्य सत्पुरुष अध्यात्मयोगी परमसत्य जैनधर्मना मर्मना पारगामी अने अद्वितीय उपदेशक श्री कानजीस्वामीने, आ ग्रंथनुं लखाण तैयार कर्या पछी वांची जवा माटे में विनंति करतां तेओश्रीए ते स्वीकारवा कृपा करी; तेना फळरूपे तेओश्रीए जे जे सुधाराओ सूचव्या ते दाखल करी आ ग्रंथनुं लखाण प्रेसमां मोकलवामां आव्युं हतुं. ए रीते आ ग्रंथ तेओश्रीनी कृपानुं फळ छे-एम जणाववा रजा लउं छुं. तेओश्रीनी आ कृपा माटे तेओश्रीनो जेटलो उपकार मानीए तेटलो ओछो छे एम कहेवानी भाग्ये ज जरूर छे.

(७) मुमुक्षु वांचकोने भलामण

मुमुक्षुओए आ ग्रंथनो सूक्ष्मद्रष्टिथी अने मध्यस्थपणे अभ्यास करवो. सत्शास्त्रनो धर्मबुद्धि वडे अभ्यास करवो ते सम्यग्दर्शननुं कारण छे, आ उपरांत शास्त्राभ्यासमां नीचेनी बाबतो खास लक्षमां राखवीः-


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[१२]

१. सम्यग्दर्शनथी ज धर्मनी शरूआत थाय छे. २. सम्यग्दर्शन प्रगट कर्या सिवाय कोई पण जीवने साचां व्रत, सामायिक, प्रतिक्रमण, तप, प्रत्याख्यान वगेरे क्रियाओ होय नहि, केम के ते क्रियाओ प्रथम पांचमा गुणस्थाने शुभभावरूपे होय छे.

३. शुभभाव ज्ञानी अने अज्ञानी बन्नेने थाय छे, पण अज्ञानी जीव एम माने छे के-तेनाथी धर्म थशे. पण ज्ञानीओने ते हेयबृद्धिए होवाथी, तेनाथी धर्म थशे एम तेओ कदी मानता नथी.

४. आ उपरथी शुभभाव करवानी ना पाडवामां आवे छे एम समजवुं नहि; पण ते शुभभावने धर्म मानवो नहि, तेम ज तेनाथी क्रमेक्रमे धर्म थशे एम मानवुं नहि; केम के ते विकार होवाथी अनंत वीतरागदेवोए तेने बंधनुं कारण कह्युं छे.

प. दरेक वस्तु द्रव्य-गुण-पर्यायथी स्वतंत्र छे; एक वस्तु बीजी वस्तुनुं कांई करी शके नहि, परिणमावी शके नहि, प्रेरणा करी शके नहि. असर-मदद के उपकार करी शके नहि, लाभ-नुकशान करी शके नहि, मारी-जीवाडी शके नहि, सुख-दुःख आपी शके नहि-एवी दरेक द्रव्य-गुण-पर्यायनी स्वतंत्रता अनंत ज्ञानीओए पोकारी पोकारीने कही छे.

६. जिनमतमां तो एवी परिपाटी छे के पहेलां सम्यक्त्व होय पछी व्रत होय; हवे सम्यक्त्व तो स्व-परनुं श्रद्धान थतां थाय छे, माटे यथार्थ श्रद्धान करी सम्यग्द्रष्टि थवुं.

७. पहेला गुणस्थाने जिज्ञासु जीवोने ज्ञानी पुरुषना धर्मोपदेशनुं श्रवण, निरंतर तेमनो समागम, सत्शास्त्रनो अभ्यास, वांचन-मनन, देवदर्शन, पूजा भक्ति, दान वगेरे शुभभावो होय छे परंतु पहेला गुणस्थाने साचां व्रत-तप वगेरे होतां नथी.

आ शास्त्र तैयार करवामां भाईश्री खीमचंद जेठालाल शेठ, तथा ब्रह्मचारी गुलाबचंदभाई वगेरे भाईओए अनेक प्रकारनी मदद आपी छे ते बदल ते सर्वेनो आभार मानवानी रजा लउं छुं.

रामजी माणेकचंद दोशी
वीर निर्वाण सं. २४७प-प्रमुख-
अषाढ सुद-२श्री दि
जैन स्वाध्यायमंदिर ट्रस्ट
सोनगढ

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मोक्षशास्त्र गुजराती त्रीजी आवृत्तिनी
प्रस्तावना

आ शास्त्रमां आवेला विषयो अने तेनी साथे संबंध राखता बीजा विषयोनी स्पष्टतानी जरूरियात होवाथी आ प्रस्तावना लखवामां आवी छे.

तत्त्वार्थोनी यथार्थ श्रद्धा करवा माटे केटलाक विषयो उपर प्रकाश १. अ. १ सूत्र १. “सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्राणि मोक्षमार्गः” आ सूत्रना संबंधमां

श्री नियमसारशास्त्र गा. रनी टीकामां श्री पद्मप्रभमलधारीदेवे कह्युं छे के
‘सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्राणि मोक्षमार्गः’ एवुं वचन होवाथी मार्ग तो शुद्ध
रत्नत्रय छे. निजपरमात्मतत्त्वनां सम्यक्श्रद्धान-ज्ञान-अनुष्ठानरूप शुद्धरत्नत्रय
मार्ग परमनिरपेक्ष होवाथी मोक्षनो उपाय छे... तेथी आ सूत्रमां शुद्धरत्नत्रय
अर्थात् निश्चय मोक्षमार्गनी व्याख्या छे, व्यवहारमोक्षमार्गनी आ व्याख्या नथी.

र. सूत्र र. ‘तत्त्वार्थ श्रद्धानम्’ सम्यग्दर्शनम्’ अहीं सम्यग्दर्शन शब्द छे ते

निश्चयसम्यग्दर्शन छे. अने ते ज पहेला सूत्र साथे सुसंगत अर्थवाळो छे.
शास्त्रोमां ज्यारे सात तत्त्वोने भेदरूप देखाडवानुं प्रयोजन होय छे त्यारे पण
तत्त्वार्थ श्रद्धानम्’ आवा शब्दो लखेला होय छे, त्यां तेनो अर्थ ‘व्यवहार
सम्यग्दर्शन’ करवो जोईए.
आ सूत्रमां तो ‘तत्त्वार्थश्रद्धान’ शब्द सात तत्त्वोने अभेदरूप देखाडवाने माटे

छे तेथी सूत्र र मां निश्चय सम्यग्दर्शननी व्याख्या छे.

आ सूत्रमां ‘निश्चय सम्यग्दर्शन’नी व्याख्या करी छे, तेनां कारणो आ शास्त्रमां

पाना ६ थी १र सुधीमां स्पष्टपणे जणाव्यां छे. ते जिज्ञासुओने सावधानी पूर्वक वांचवानी भलामण करवामां आवे छे. ३. प्रश्नः– वस्तुस्वरूप अनेकान्तात्मक छे अने जैन शास्त्रो अनेकान्त विद्यानुं

प्रतिपादन करे छे, तो सूत्र १मां कहेल निश्चयमोक्षमार्ग अर्थात् शुद्ध रत्नत्रय
अने बीजा सूत्रमां कहेल निश्चय सम्यग्दर्शनने अनेकान्त कई रीते घटे छे?
उत्तरः– (१) निश्चय मोक्षमार्ग ज खरो मोक्षमार्ग छे अने व्यवहार मोक्षमार्ग
साचो मोक्षमार्ग नथी; अने निश्चय सम्यग्दर्शन ते ज साचुं
सम्यग्दर्शन छे, व्यवहार सम्यग्दर्शन साचुं सम्यग्दर्शन नथी. आवुं
अनेकान्त छे.

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[१४]
(र) ते स्वाश्रये ज प्रगटी शके छे, अने पराश्रये कदी प्रगटी शकतुं
नथी एवुं अनेकान्त छे;
(३) मोक्षमार्ग परम निरपेक्ष छे अर्थात् तेने परनी अपेक्षा नथी अने
ते त्रणे काळे पोतानी अपेक्षाथी ज प्रगट थई शके छे, आ
अनेकान्त छे.
(४) तेथी ते प्रगट थवामां आंशिक स्वाश्रयपणुं अने आंशिक पराश्रयपणुं
छे- (एटले तेने निमित्त, व्यवहार, भेद वगेरेनो आश्रय छे) एम
मानवुं ते साचुं अनेकान्त नथी पण मिथ्या-अनेकान्त छे, ए
प्रमाणे निःसंदेह निर्णय करवो ते ज अनेकान्त विद्या छे.
(प) निश्चय मोक्षमार्ग स्वाश्रये पण प्रगटे अने पराश्रये पण प्रगटे,
एम मानवामां आवे तो निश्चय अने व्यवहारनुं स्वरूप (के जे
परस्पर विरुद्धता लक्षण सहित छे ते तेवुं न रहीने) एकमेक थई
जाय अने तेथी निश्चय अने व्यवहार बन्नेनो नाश थई जाय.
(६) अ. १. सू. ७ ८मां निश्चय सम्यग्दर्शनादि प्रगट करवाना अमुख्य-
(गौण) उपायोनुं वर्णन कर्युं छे. तेवा उपायो अमुख्य अर्थात् भेद
अने निमित्तमात्र छे. जो तेमना आश्रयथी अंश मात्र पण निश्चय
धर्म प्रगट थई शके छे एम मानवामां आवे तो ते उपायो
अमुख्य न रहीने, मुख्य (निश्चय) थई जाय एम समजवुं,
अमुख्य एटले गौण अने गौण (उपाय) ने हेय=छोडवायोग्य
कहेल छे (जुओ, प्रवचनसार गाथा प३ नी टीका.)

जे जीवे स्वसन्मुख थईने निश्चय सम्यग्दर्शन प्रगट कर्युं होय तेवा जीवने निमित्त-जे अमुख्य उपाय छे ते केवां केवां होय छे ते आ सूत्रमां बताव्युं छे. निमित्त परपदार्थ छे तेने जीव मेळवी शके नहीं; लावी शके के ग्रहण करी शके नहीं.

उपादान निश्चय जहाँ, तहँ निमित्त पर होय
(बनारसीदासजी)

वळी आ विषयमां मोक्षमार्ग-प्रकाशक पानुं र९९ (आवृत्ति सात) एम कह्युं छे के “माटे जे जीव पुरुषार्थ करीने मोक्षनो उपाय करे छे, तेने तो सर्व कारणो मळे छे, अने तेने अवश्य मोक्षनी प्राप्ति थाय छे, एम नक्की करवुं.”

श्री प्रवचनसार गा. १६नी टीकामां श्री अमृतचंद्राचार्यदेव पण कहे छे के- “निश्चयथी पर (द्रव्य) साथे आत्माने कारकतानो संबंध नथी, के जेथी शुद्धात्मस्वभावनी प्राप्तिने माटे सामग्री (बाह्य साधन) गोतवानी व्यग्रताथी जीव (व्यर्थ) परतंत्र थाय छे.”


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[१प]

(७) आ शास्त्रना आठमा पानामां नियमसारशास्त्रनो आधार आपीने निश्चय-सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र परमनिरपेक्ष छे एम दर्शाव्युं छे तेथी तेनुं एक अंग जे निश्चयसम्यग्दर्शन छे ते पण परमनिरपेक्ष छे एटले के ते स्वात्माना आश्रये ज अने परथी निरपेक्ष ज थाय छे एम समजवुं. ‘ज’ शब्द वस्तुस्थितिनी मर्यादारूप साचो नियम बताववाने माटे छे.

अ. १ सूत्र ३३, नैगमनयना त्रणभेद तेमां भूतनैगमनयनी मुख्यता.
नैगमनय

आ शास्त्रमां नयो सात कहेवामां आव्या छे तेमां पहेलो नय नैगमनय छे. ए नैगमनय त्रण प्रकारनो छे. भूतनैगम, वर्तमाननैगम अने भावीनैगम. आ नयोनां द्रष्टांतो नीचे मुजब छे.

भूतनैगमनय

१. श्री नियमसार गा. १९नी टीकामां कह्युं छे के “अहीं भूतनैगमनयनी अपेक्षाए भगवंत सिद्धोने पण व्यंजनपर्यायवाळापणुं अने अशुद्धपणुं संभवे छे, केमके पूर्व काळे ते भगवंतो संसारी हता एवो व्यवहार छे.

जुओ, सिद्ध भगवंतो वर्तमानमां संसारी नथी पण सिद्ध छे छतां तेमने भूतनैगमनय लागु पाडी तेओ वर्तमानमां संसारी छे एम कहेवामां आवे छे. तेनुं प्रयोजन ए बताववानुं छे के तेओ भूतकाळमां संसारी हता अने सम्यग्दर्शन- ज्ञान-चारित्रनी एकता करी, मोक्षमार्ग प्रगट करी मोक्ष पाम्या. माटे भव्य जीवोए ते निश्चयमोक्षमार्ग अंगीकार करवो जोईए. र. श्री परमात्मप्रकाश अ. र गा. १४नी टीका पृ. १र९ त्रीजी आवृत्तिमां कह्युं छे केः-

“××× अथवा साधक व्यवहार मोक्षमार्ग, साध्य निश्चय मोक्षमार्ग. अहीं शिष्य कहे छे के निश्चयमोक्षमार्ग निर्विकल्प छे, ते काळे सविकल्प मोक्षमार्ग नथी. नथी ते साधक केवी रीते थाय? त्यां तेनो परिहार ए छे के भूतनैगमनये परंपराए छे.”

जुओ, आ स्वरूप बराबर ध्यानमां राखवा जेवुं छे. श्री तत्त्वज्ञान-तरंगिणी शास्त्र अ. ७ गा. प मां कह्युं छे के हे आत्मन्! आ व्यवहारमार्ग चिंता, कलेश, कषाय अने शोकथी जटिल (मुंझवण भरेलो) छे. देहादि द्वारा साध्य होवाथी पराधीन छे, कर्मोने लाववानुं कारण छे, अत्यंत विकटमय तेम ज आशाथी व्याप्त छे अने व्यामोह करवावाळो छे, परंतु शुद्धनिश्चयनयरूप मार्गमां एवी कोई विपत्ति नथी. तेथी तुं व्यवहारनयनो त्याग करी शुद्धनिश्चयनयरूप मार्गनुं अवलंबन कर,


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[१६]

केमके आ लोकनी तो शुं वात! परलोकमां पण ते सुखनो देवावाळो छे. अने समस्त दोषोथी रहित निर्दोष छे.

भावार्थः– व्यवहारनयरूप मार्गमां गमन करवाथी नाना प्रकारनी चिंताओनो जुदी जुदी जातनां कलेश-कषाय-शोकोनो सामनो करवो पडे छे. तेमां देह इंद्रियमन आदिनी आवश्यकता पडे छे तेथी ते पराधीन छे. शुभ–अशुभ बन्ने प्रकारना कर्म पण व्यवहारनयना अवलंबनमां आवे छे, अत्यंत विषम छे, तेने अनुसरनारा पुरुषोने अनेक प्रकारना भय अने आशाओथी उत्पन्न थतुं दुःख भोगववुं पडे छे. परंतु शुद्ध निश्चयनयरूप मार्गमां गमन करतां ते स्वाधीन छे. तेमां शरीरादिकनी आवश्यकता पडती नथी. तेना अवलंबनमां कोई पण प्रकारनां कर्मोनो पण आस्रव थतो नथी. तेमां विकट अने भय तथा आशाजन्य दुःख पण भोगववानुं होतुं नथी. ते व्यामोह पण उत्पन्न करतो नथी, ते बन्ने लोकमां सुख देवावाळो अने निर्दोष छे. माटे एवा भयंकर व्यवहार मार्गने छोडी सर्वोत्तम निश्चय मोक्षमार्गमां गमन करवुं जोईए. प.”

३. ए बराबर ख्यालमां राखवुं जोईए के सम्यग्द्रष्टि जीवने आंशिक शुद्ध परिणति सहित उपर कह्यो तेवो व्यवहार मोक्षमार्ग गुणस्थानक्रममां जबरदस्तीथी पोतानी भूमिका अनुसार आव्या विना रहेतो नथी ते प्रत्ये तेने हेयबुद्धि होय छे- वियोगबुद्धिए अतन्मयपणे होय छे. तेने ते दूरथी ओळंगी जईने, निर्विकल्प दशा प्रगट करे छे; बीजा शब्दोमां कहीए तो तेनो ते परिहार करे छे. (जुओ, श्री प्रवचनसार गा. प नीचेनी बन्ने आचार्योनी टीका)

४. ते सम्यग्द्रष्टि जीव, व्यवहारनुं आलंबन पुरुषार्थ वधारी छोडे छे अने निर्विकल्प दशा प्रगट करे छे, त्यारे तेने ते शास्त्रना नय अधिकारनी गा. १६-१७ लागु पडे छे.

ते गाथाओनो अर्थ नीचे प्रमाणे छे- प. “जे महानुभाव मोक्षरूपी संपत्तिने प्राप्त थया-प्राप्त करे छे अने करशे ते सहुए प्रथम व्यवहारनयनुं आलंबन कर्युं हतुं; केमके विना कारण, कार्य कदापि थई शकतुं नथी. व्यवहारनय कारण छे अने निश्चयनय कार्य छे तेथी विना व्यवहार, निश्चय पण कदापि होई शकतो नथी. ।। १६-१७।।

६. अहीं जे जीवोने हेयबुद्धिए, जे व्यवहार मार्गरूप सराग चारित्र हतुं तेनो तेमणे अभाव कर्यो त्यारे व्यवहारने भूतनैगमनये कारण कह्युं. जेओ व्यवहार करतां करतां निश्चय प्रगटशे एम माने छे ते तो व्यवहारनो त्याग करी शके नहीं,


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[१७]

ते तो व्यवहारने दूर ओळंगी जवा मागता नथी, ते तो पराधीनतामां रहेतां रहेतां, स्वाधीनता प्रगटशे एम माने छे-ए मान्यता विपरीत होवाथी, तेमने निर्विकल्प दशारूप निश्चय चारित्र कदी थाय नहीं. -ते कदी प्रगटे ज नहीं. मिथ्या मान्यता साथे यथार्थ व्यवहार कदी होतो नथी; तेथी तेने व्यवहारनो अभाव थाय नहीं. तेथी तेवो व्यवहार कारण छे ते भूतनैगमनयनुं कथन छे. ते भूतनैगमनयनुं कथन होवाथी, व्यवहारनो अभाव ते कारण छे अने तेनो अभाव थाय त्यारे व्यवहारने बहिरंग कारण कहेवाय छे. (जुओ, श्री पंचास्तिकाय गा. १६०, श्री जयसेन आचार्यकृत टीका)

७. आ गाथाओ पहेलो व्यवहार अने पछी निश्चय एम कहे छे. त्यां व्यवहारनो अभाव थतां थतां निश्चय थाय छे एम समजवुं. जेम प्रथम बाळकपणुं, पछी युवानपणुं-तेमां जे जीव बाळकपणामां गुजरी न जाय तेने युवानपणुं थतां बाळकपणानो अभाव थाय छे-तेथी बाळकपणुं कारण अने युवानपणुं कार्य-तेनी माफक भूतनैगमनये परंपराए व्यवहार (अभाव थतां) कारण अने निश्चय कार्य एम समजवुं.

उपरना कथननो सार
(१) सम्यग्द्रष्टि जीवोने अंशे निश्चय दशा अने अंशे व्यवहार दशा एकी

साथे होय छे.

(र) तेमांथी क्रमे क्रमे व्यवहार दशानो अभाव अने निश्चयदशानी वृद्धि पोत

पोताना गुणस्थान अनुसार थया करे छे; ए प्रमाणे पूर्ण वीतरागरूप निश्चयदशा बारमा गुणस्थानमां होय छे, त्यां व्यवहार चारित्रनो अभाव होय छे; बीजा व्यवहार होय छे ते जुदी वात छे.

(३) तेमां जे दशानो अभाव थयो ते वर्तमान अंश छे एम गणी तेने

भूतनैगमनये व्यवहारसाधन, कारणसाधन-बहिरंगसाधक-निमित्तकारण कहेवामां आवे छे.

(४) व्यवहारदशानो अंशे पण अभाव न थाय तो निश्चयदशामां वृद्धि न

थाय तेथी व्यवहार विना निश्चय न थाय एम कहेवामां आवे छे पण खरेखर तो व्यवहारना अभावथी ज निश्चयदशामां वृद्धि थाय छे.

(प) भूतनैगमनयनुं ज्ञान कराववानुं एक प्रयोजन ए पण छे के अनेक
संप्रदायो साधकदशानी भूमिकाथी विरुद्ध-अनेक प्रकारना व्यवहारो कहे
छे ते यथार्थ नथी. पण भगवान सर्वज्ञनां ज्ञानमां आव्या प्रमाणेनो
ज व्यवहार (निमित्तपणे-

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[१८]

सहचरहेतुपणे) होवो जोईए अने आ जातना व्यवहारनो अभाव करी निश्चयदशानी वृद्धि थाय छे.

(६) व्यवहार पंचाचाररूप सहकारी कारणथी उत्पन्न निश्चय पंचाचार

कहेवामां आवे छे ते भूतनैगमनयनुं कथन छे. निमित्त कारणो बतावतां वर्तमान कारणो बतावे ते तो ऋजुसूत्रनयनो विषय छे तथा भूतकाळमां व्यवहार हतो तेनो वर्तमानमां अभाव थयो तेने बतावे ते भूतनैगमनयनो विषय छे एम बे नयना विषयनुं ज्ञान कराववामां आवे तो ज निमित्तकारण (व्यवहार) ना विषयनुं पूरुं ज्ञान (-प्रमाणज्ञान) थाय छे.

(७) सम्यक्मतिज्ञानपूर्वक सम्यक्श्रुतज्ञान थाय छे ते भूतनैगमनयनुं कथन छे.
भूतनैगमनय संबंधी विशेष

श्री तत्त्वार्थसूत्र अ. १० मां मोक्ष अधिकारनुं वर्णन छे, तेना नवमा सूत्रमां सिद्ध भगवंतोने लगतुं अल्पबहुत्व, क्षेत्र-काळ आदि बार प्रकारे साध्य करवानुं कह्युं छे. तेनी संस्कृत टीकामां भूतनैगमनय जुदा जुदा बोल संबंधी १० प्रकारे लागु पाडेल छे ते मूळ टीकामांथी तथा पं. श्री जयचंद्रजीकृत सर्वार्थसिद्धि वचनिकामांथी जोई लेवा. अहीं तेना विस्तारनी जरूर नथी.

वर्तमान नैगम अने भावीनैगमनयनी चर्चा जरूरी नथी परंतु भावी नैगमनुं स्वरूप जाणवा माटे प्रवचनसार चरणानुयोग अधिकार गा. ७, सीरीअल गाथा नं. र०७ नी श्री जयसेनाचार्यकृत सं. टीका वांची लेवी.

निश्चय–व्यवहार मोक्षमार्गना स्वरूपमां केवो निर्णय करवो जोईए
(८) “निश्चये वीतरागभाव ज मोक्षमार्ग छे, वीतरागभावो अने व्रतादिकमां
कथंचित् कार्य-कारणपणुं छे* माटे व्रतादिकने मोक्षमार्ग कहे छे. पण ते
कहेवामात्र ज छे.”
(मोक्षमार्ग-प्रकाशक पृ. र४७)

धर्मपरिणत जीवने वीतराग भावनी साथे जे शुभभावरूप रत्नत्रय (व्यवहार-दर्शन-ज्ञान-चारित्र) होय छे तेने व्यवहारनय द्वारा उपचारथी व्यवहारमोक्षमार्ग कह्यो छे. जोके ते रागभाव होवाथी बंधमार्ग ज छे एवो निर्णय करवो जोईए.

(९) व्यवहार मोक्षमार्ग खरेखर बाधक होवा छतां पण तेनुं निमित्तपणुं _________________________________________________________________

*नैमित्तिक (कार्य), निमित्त (कारण)