Moksha Shastra-Gujarati (Devanagari transliteration).

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[१९]

बताववाने माटे तेने व्यवहारनयथी साधक कह्युं छे. आ कथन उपरथी केटलाक (जीवो) एम माने छे के-निश्चय मोक्षमार्गथी व्यवहार मोक्षमार्ग विपरीत (विरुद्ध) नथी पण बन्ने हितकारी छे, तो तेओनी आ मान्यता जूठी छे. आ संबंधमां मोक्षमार्ग-प्रकाशक पानुं र४३ मां कह्युं छे के-

“मोक्षमार्ग तो बे नथी पण मोक्षमार्गनुं निरूपण बे प्रकारथी छे. ज्यां साचा मोक्षमार्गने मोक्षमार्ग निरूपण कर्यो छे ते निश्चय मोक्षमार्ग छे. तथा ज्यां जे मोक्षमार्ग तो नथी परंतु मोक्षमार्गनुं निमित्त छे वा सहचारी छे तेने उपचारथी मोक्षमार्ग कहीए ते व्यवहार मोक्षमार्ग छे कारण के निश्चयव्यवहारनुं सर्वत्र एवुं ज लक्षण छे. अर्थात् साचुं निरूपण ते निश्चय तथा उपचार निरूपण ते व्यवहार. माटे निरूपणनी अपेक्षाए बे प्रकारे मोक्षमार्ग छे, पण एक निश्चय मोक्षमार्ग छे तथा एक व्यवहार मोक्षमार्ग छे, एम बे मोक्षमार्ग मानवा मिथ्या छे.

‘वळी ते निश्चय-व्यवहार बन्नेने उपादेय माने छे ते पण भ्रम छे, कारण के निश्चय-व्यवहारनुं स्वरूप तो परस्पर विरोधता सहित छे.’ श्री समयसार (गाथा ११मां) पण एम कह्युं छे के-

‘ववहारोऽभूयत्थो, भूयत्थो देसिदो दु सुद्धणओ’

अर्थः– व्यवहार अभूतार्थ छे, सत्यस्वरूपने निरूपतो नथी पण कोई अपेक्षाए उपचारथी अन्यथा निरूपे छे; तथा शुद्धनय छे ते निश्चय छे, भूतार्थ छे. कारण के ते जेवुं वस्तुनुं स्वरूप छे तेवुं निरूपे छे; ए प्रमाणे ए बन्नेनुं (बे नयोनुं) स्वरूप तो विरुद्धता सहित छे. (मो मार्ग प्र. पानुं र४३) बे नयो समकक्ष नथी पण “प्रतिपक्ष छे” (समयसार गा. १४ भावार्थ).

प्रवचनसार गाथा र७३-र७४मां तथा टीकामां पण कह्युं छे के‘मोक्षतत्त्वनुं साधनतत्त्व ‘शुद्ध ज छे’ अने ते ज चारे अनुयोगोनो सार छे.

(१०) निश्चय सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्रथी तो मिथ्या दर्शनज्ञान-चारित्र विरुद्ध छे ज, परंतु निश्चय सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्रथी व्यवहार सम्यग्दर्शन-ज्ञान- चारित्रनुं स्वरूप तथा फळ पण परस्पर विरुद्ध छे. आनो निर्णय करवाने माटे केटलाक आधारो नीचे आपवामां आवे छे-

१. श्री नियमसारजी (गुजराती) पानुं १४९ निश्चय प्रतिक्रमण अधिकारनी
गाथा ७७ थी ८१ नी भूमिका,
र. नियमसार गाथा ९१ पानुं १७३ कळश १रर
३. नियमसार गाथा ९र पानुं १७प टीका

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[२०]
४. नियमसार गाथा १०९ पानुं र१प कलश १पप नीचेनी टीका,
प.
” १र१ ” र४४ टीका,
६. ” १र३ ” र४९ ”
७. ” १र८ ” १प९, ६० टीका तथा फूटनोट,
८. ” १४१ ” र८र गाथा १४१नी भूमिका,
श्री प्रवचनसार
९. गाथा ११ टीका, १०. गाथा ४-प ११. गाथा १३ नी भूमिका तथा टीका,

१र. गाथा ७८ टीका, १३. गाथा ९र टीका.

१४. गाथा १प९ तथा टीका पानुं र७१ (तथा श्री रायचंद्र जैनशास्त्रमाळाना

आ ग्रंथनी आ गाथामां नीचे पं. श्री हेमराजजीनी टीका पानुं नं. रर०)

१प. गाथा र४८ तथा टीका (तथा श्री रा. शास्त्रमाळाना आ ग्रंथनी ते

गाथामां नीचे पं. हेमराजजीनी टीका)

१६. गाथा र४प तथा टीका,
१७. गाथा १प६ तथा टीका,

श्री अमृतचंद्राचार्य कृत समयसार कळश उपर श्री राजमल्लजीनी टीका (सूरतथी प्रकाशित) पुण्य-पाप अधिकार कळश ४ पानुं १०३-१०४ कळश, प पानुं १०४-१०प. कळश, ६ पानुं १०६ (आमां धर्मीना शुभ भावने बन्धमार्ग कह्यो छे.) कळश, ८ पानुं १०८ कळश, ९ पानुं १०९ कळश, ११ पानुं ११र-११३ आ बधा कळशो श्री समयसार पुण्य-पाप अधिकारमां छे, ते वांचवानी वांचकोने भलामण करवामां आवे छे.

१८. योगेन्द्रदेवकृत योगसार दोहा नं. ७१मां (पुण्यने पण निश्चयथी पाप

कह्युं छे)

१९. योगेन्द्रदेवकृत योगसार दोहा नं. ३र, ३३, ३४, ३७,
र०. श्री कुन्दकुन्दाचार्यकृत मोक्षपाहुड गाथा ३१
र१. समाधि शतक गाथा १९
रर. पुरुषार्थ सिद्धिउपायगाथा रर०

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[२१]
र३. पंचास्तिकाय गाथा १६प, १६६-६७-६८-६९,
र४. श्री समयसारजी कळश उपर पं. बनारसी नाटकमां पुण्य-पाप अधिकार

कळश, १र पृ. १३१, ३र कळश ७ पानुं रर६-२७ कळश ८ पानुं रर७-र८

रप. श्री समयसारजी मूळ गाथा टीका गाथा ६९-७०-७१-७र-७४-९र

गाथा ३८ तथा टीका, गाथा र१०, र१४, र७६, र७७-र९७ गाथा टीका सहित वांचवी.

र६. गाथा १४प थी १प१. १८१ थी १८३ पानुं र९प (परस्पर अत्यन्त

स्वरूपविपरीतता होवाथी...)

र७. गाथा ३०६-७, (शुभभाव व्यवहारचारित्र निश्चयथी विषकुंभ), र९७

गाथामां श्री जयसेनाचार्यनी टीकामां पण स्पष्ट खुलासो छे,

र८. श्री मोक्षमार्ग-प्रकाशक (गुजराती) पानुं नं. ३, र७-र८-३०-३१-३र-
३३-३प-३६-३७-३८, र४०, र४३ थी र४७ (र४७ थी रप१ सुधी
खास वात छे) र६३, र६९, र९९, ३०८-३०९.
व्यवहार नयना स्वरूपनी मर्यादा

(११) समयसार गाथा ८ नी टीकामां कह्युं छे के “व्यवहारनय म्लेच्छ भाषाना स्थाने होवाथी परमार्थने कहेनार छे माटे, व्यवहारनय स्थापित करवा योग्य छे परंतु ते व्यवहारनय अनुसरवा योग्य नथी.” पछी गा. ११ नी टीकामां कह्युं के व्यवहारनय बधोय अभूतार्थ छे माटे ते अविद्यमान, असत्य अर्थने, अभूत अर्थने प्रगट करे छे; शुद्ध नय एक ज भूतार्थ होवाथी सत्य, भूत अर्थने प्रगट करे छे. पछी कह्युं के तेथी जेओ शुद्धनयनो आश्रय करे छे तेओ ज सम्यक् अवलोकन करवाथी सम्यग्द्रष्टि छे, अन्य सम्यग्द्रष्टि नथी माटे कर्मोथी भिन्न आत्माने देखनाराओ माटे व्यवहारनय अनुसरवा योग्य नथी.”

११मी गाथाना भावार्थमां पं. जयचंद्रजीए कह्युं छे के- प्राणीओने भेदरूप व्यवहारनो पक्ष तो अनादि काळथी छे ज, अने एनो उपदेश पण बहुधा सर्व प्राणीओ परस्पर करे छे. अने जिनवाणीमां व्यवहार नयनो उपदेश शुद्धनयनो हस्तावलंबन (सहायक) जाणी बहु कर्यो छे; परंतु तेनुं फळ संसार ज छे. शुद्धनयनो पक्ष तो आव्यो ज नथी अने तेनो उपदेश पण विरल छे, शास्त्रोमां कोई कोई ठेकाणे ज छे. तेथी उपकारी श्रीगुरुए शुद्धनयना ग्रहणनुं फळ मोक्ष जाणी तेनो उपदेश प्रधानताथी आप्यो


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[२२]

छे, के–“शुद्धनय भूतार्थ छे, सत्यार्थ छे; एनो आश्रय करवाथी (जीव) सम्यग्द्रष्टि थई शके छे; एने जाण्या वगर ज्यांसुधी जीव व्यवहारमां मग्न छे त्यांसुधी आत्मानुं ज्ञान–श्रद्धानरूप निश्चय सम्यग्द्रर्शन थई शकतुं नथी.” एवो आशय समजवो जोईए.

(१र) अमुक जीवो एम माने छे के पहेलां व्यवहारनय प्रगट थाय छे, पछी व्यवहारनयना आश्रये निश्चयनय प्रगट थाय छे; अथवा तो प्रथम व्यवहारधर्म करतां निश्चयधर्म प्रगट थाय छे. तो ते मान्यता ठीक नथी, कारण के निश्चय व्यवहारनुं स्वरूप तो परस्पर विरुद्ध छे. (जुओ, मो. मा. प्र. पानुं र४३).

(१) निश्चय सम्यग्ज्ञान वगर आ जीवे अनंतवार मुनिव्रतोनुं पालन कर्युं परंतु ते मुनिव्रतना पालनने निमित्त कारण पण कहेवामां आवतुं नथी कारण के सत्यार्थ कार्य प्रगट थया वगर साधक (निमित्त) कोने कहेवुं?

प्रश्नः– द्रव्यलिंगी मुनि मोक्षना अर्थे गृहस्थपणुं छोडी तपश्चरणाद्रि करे छे, त्यां तेणे पुरुषार्थ तो कर्यो, छतां कार्य सिद्ध न थयुं, माटे पुरुषार्थ करवाथी तो कांई सिद्धि नथी?

तेनुं समाधानः– अन्यथा पुरुषार्थ करी फळ इच्छे छे पण तेथी केवी रीते फळ सिद्धि थाय? तपश्चरणादि व्यवहार साधनमां अनुरागी थई प्रवर्तवानुं फळ ते शास्त्रमां शुभबंध कह्युं छे, अने आ तेनाथी मोक्ष इच्छे छे ते केवी रीते सिद्ध थाय? ए ज तो भ्रम छे (मो. मा. प्र. पानुं र९९)

(र) मिथ्यात्वनी अवस्थामां कोई पण जीवने कदी ‘सम्यग् श्रुतज्ञान’ होतुं नथी, जेने ‘सम्यग् श्रुतज्ञान’ प्रगट थयुं होय तेने ज ‘नय’ होय छे, कारण के ‘नय’ ज्ञान ते सम्यक् श्रुतज्ञाननो एक अंश छे; अंशी विना अंश केवो? “सम्यक् श्रुतज्ञान” (भावश्रुतज्ञान) थतां ज बन्ने नयो एकी साथे होय छे. प्रथम अने पछी नहीं एम साचा जैनीओ माने छे.

(३) वस्तुस्वरूप तो एम छे के चोथा गुणस्थानथी ज निश्चय सम्यग्दर्शन प्रगट थाय छे अने ते ज समये सम्यक् श्रुतज्ञान प्रगट थाय छे. सम्यक् श्रुतज्ञानमां बन्ने नयोना अंशनो सद्भाव एकी साथे छे, आगळपाछळ नहीं. निज आत्माना आश्रये ज्यारे भावश्रुतज्ञान प्रगट थयुं त्यारे पोतानो ज्ञायकस्वभाव तथा उत्पन्न थयेल जे शुद्ध दशा ते आत्मा साथे अभेद रूप छे तेथी ते निश्चयनयनो विषय छे, अने पोतानी पर्यायमां जे अशुद्धता अने अल्पता बाकी छे ते व्यवहार नयनो विषय छे. ए प्रमाणे बन्ने नयो जीवने एकी साथे होय छे तेथी प्रथम व्यवहार-


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[२३]

नय अथवा व्यवहारधर्म अने ते पछी निश्चयनय अथवा निश्चयधर्म आम वस्तुस्वरूप नथी.

(१३) प्रश्नः– निश्चयनय अने व्यवहारनय समकक्षी छे एम मानवुं बराबर छे? उत्तरः– नहीं, समयसार गा. ११ मां ए वात स्पष्ट करेल छे; गा. १४ ना भावार्थमां बे नयोने प्रतिपक्षी कहेल छे. बन्ने नयोने समकक्षी माननार एक बीजो सम्प्रदाय* छे, तेओ बन्नेने समकक्षी अने बन्ने नयोना आश्रयथी धर्म थाय छे एम निरूपण करे छे. परंतु श्री कुंदकुंदाचार्यदेव तो स्पष्टपणे फरमावे छे के भूतार्थना (निश्चयना) आश्रये ज हमेशां धर्म थाय छे पराश्रये (व्यवहारथी) कदी अंशमात्र पण सत्यधर्म-हितरूपधर्म थतो नथी. हा, बन्ने नयोनुं तथा तेमना विषयोनुं ज्ञान अवश्य करवुं जोईए. गुणस्थान अनुसार केवा भेद आवे छे ते जाणवुं प्रयोजनवान छे. परंतु बन्ने (नयो) समान छे-समकक्षी छे एम कदी नथी, कारण के बन्ने नयोना विषयमां अने फळमां परस्पर विरोध छे माटे व्यवहारनयना आश्रये कदी पण धर्मनी उत्पत्ति, वृद्धि अने टकवुं बनतुं ज नथी एवो द्रढ निर्णय करवो जोईए. भगवान कुंदकुंदाचार्यकृत समयसारनी गाथा ११ मीने साचा जैन धर्मना प्राण कहेल छे माटे ते गाथा अने टीकानुं मनन करवुं जोईए ते गाथा निम्नोक्त छेः-

“व्यवहार नय अभूतार्थ दर्शित, शुद्धनय भूतार्थ छे;
भूतार्थने आश्रित जीव
सुद्रष्टि निश्चय होय छे. ।। ११।।

_________________________________________________________________

*ते सम्प्रदायनी व्यवहारनयना संबंधमां केवी मान्यता छे? जुओ (१) श्री मेघविजयजी गणी कृत युक्तिप्रबोध नाटक (आ गणीजी कविवर श्री बनारसीदासजीना समकालीन हता.) तेमणे व्यवहारनयना आलंबन वडे आत्महित थाय छे एम कहीने श्री समयसार नाटक तथा श्री दिगंबर जैनमतना सिद्धांतोनुं खंडन कर्युं छे, (जेओ लगभग १६मी शतीमां थया) वळी श्री यशोविज्यजी महामह उपाध्याये ‘गुर्जर साहित्य संग्रह’मां पानुं र०७, र१९, ररर, प८४, प८पमां दि. जैन धर्मना खास सिद्धांतोनुं उग्र (कडक) भाषा वडे खंडन कर्युं छे, तेओ मोटा ग्रंथकार-विद्वान हता; तेमणे दिगंबर आचार्योनो मत आ प्रमाणे बताव्यो छे केः-

(१) निश्चयनय थया पछी ज व्यवहारनय होई शके छे व्यवहारनय प्रथम होई शकतो नथी.
(र) प्रथम व्यवहारनय तथा व्यवहारधर्म अने पछी निश्चयनय तथा निश्चयधर्म-एम नथी.
(३) निश्चयनय अने व्यवहारनय बन्ने समकक्षी नथी-परस्पर विरुद्ध छे, तेमना विषय

अने फळमां विपरीतता छे.

(४) निमित्तनो प्रभाव पडतो नथी. उपर मुजब दिगंबर आचार्योनो मत छे. आ मूळ सिद्धांतोनुं ते सम्प्रदाये उग्रताथी, जोरथी खंडन कर्युं छे-माटे धर्म जिज्ञासुओने विनंति करवामां आवे छे के तेमां क्यो मत साचो छे, तेनो निर्णय साचा श्रद्धानने माटे करो, के जे प्रयोजनवान छे, जरूरी छे.


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[२४]

(१४) प्रश्नः– व्यवहार मोक्षमार्गने मोक्षनुं परंपरा कारण कह्युं छे तो त्यां शुं प्रयोजन छे?

समाधानः– (१) सम्यग्द्रष्टि जीव पोताना शुद्धात्मद्रव्यना अवलंबन वडे पोतानी शुद्धता वधारीने जेम जेम शुद्धता वडे गुणस्थानमां आगळ वधशे तेम तेम अशुद्धतानो (शुभाशुभनो) अभाव थशे अने क्रमे क्रमे शुभभावनो अभाव करीने शुक्लध्यान वडे केवळज्ञान प्रगट करशे एम बताववाने माटे व्यवहार मोक्षमार्गने परंपरा (निमित्त) कारण कहेल छे. अहीं निमित्तने देखाडवानुं प्रयोजन होवाथी व्यवहार नयनुं कथन छे.

(र) ज्ञानीनो शुभभाव पण आस्रव (बंधनुं कारण) होवाथी ते निश्चय नय परंपराए पण मोक्षनुं कारण थई शकतो नथी. श्री कुंदकुंदाचार्य देवकृत द्वादशानुप्रेक्षा गाथा प९ मां कह्युं छे के कर्मोनो आस्रव करवावाळी क्रियाथी परंपराए पण निर्वाण प्राप्त थई शकतो नथी तेथी संसारपरिभ्रमणना कारणरूप आस्रवने निंद्य जाणो ।। प९।।

(३) पंचास्तिकाय गाथा १६७ मां श्री जयसेन आचार्ये कह्युं छे के- “श्री अर्हंतादिमां पण जे राग थाय छे ते राग पण छोडवा योग्य छे.” पछी गाथा १६८ मां कह्युं छे के, धर्मी जीवनो राग पण (निश्चयनयथी) सर्व अनर्थनुं परंपरा कारण छे.

(४) आ विषयमां स्पष्टीकरणः- श्री नियमसारनी गाथा ६० (गुजराती) पानुं ११७ फूटनोट नं. ३मां कह्युं छे के “शुभोपयोगरूप व्यवहारव्रत शुद्धोपयोगनो हेतु छे अने शुद्धोपयोग मोक्षनो हेतु छे एम गणीने अहीं उपचारथी व्यवहार व्रतने मोक्षनो परंपराहेतु कहेल छे, खरेखर तो शुभोपयोगी मुनिने मुनियोग्य शुद्धपरिणति ज (शुद्धात्म द्रव्यने अवलंबती होवाथी) विशेष शुद्धिरूप शुद्धोपयोगनो हेतु थाय छे. अने ते शुद्धोपयोग मोक्षनो हेतु थाय छे. आ रीते आ शुद्धपरिणतिमां रहेला मोक्षना परंपराहेतुपणानो आरोप तेनी साथे रहेला शुभोपयोगमां करीने व्यवहार व्रतने मोक्षनो परंपराहेतु कहेवामां आवे छे. ज्यां शुद्धपरिणति ज न होय त्यां वर्तता शुभोपयोगमां मोक्षना परंपराहेतुपणानो आरोप पण करी शकातो नथी, केम के ज्यां मोक्षनो यथार्थ परंपराहेतु प्रगटयो ज नथी-विद्यमान ज नथी त्यां शुभोपयोगमां आरोप कोनो करवो?

(प) अने पंचास्तिकाय गाथा-१प९ (गुज. अनु.) पानुं र३३-३४ मां फूटनोट नं. ४मां कह्युं छे के- “जिन भगवानना उपदेशमां बे नयो द्वारा निरूपण होय छे. त्यां निश्चयनय द्वारा तो सत्यार्थ निरूपण करवामां आवे छे अने व्यवहारनय


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[२प]

द्वारा अभूतार्थ उपचरित निरूपण करवामां आवे छे.

प्रश्नः– सत्यार्थ निरूपण ज करवुं जोईए; अभूतार्थ उपचरित निरूपण शा माटे करवामां आवे छे!

उत्तरः– जेने सिंहनुं यथार्थ स्वरूप सीधुं समजातुं न होय तेने सिंहना स्वरूपना उपचरित निरूपण द्वारा अर्थात् बिलाडीना स्वरूपना निरूपण द्वारा सिंहना यथार्थ स्वरूपना ख्याल तरफ दोरी जवामां आवे छे, तेम जेने वस्तुनुं यथार्थ स्वरूप सीधुं समजातुं न होय तेने वस्तुस्वरूपना उपचरित निरूपण द्वारा वस्तुस्वरूपना यथार्थ ख्याल तरफ दोरी जवामां आवे छे. वळी लांबा कथनने बदले संक्षिप्त कथन करवा माटे पण व्यवहारनय द्वारा उपचरित निरूपण करवामां आवे छे. अहीं एटलुं लक्षमां राखवा योग्य छे के-जे पुरुष बिलाडीना निरूपणने ज सिंहनुं निरूपण मानी बिलाडीने ज सिंह समजी बेसे ते तो उपदेशने ज योग्य नथी, तेम जे पुरुष उपचरित निरूपणने ज सत्यार्थ निरूपण मानी वस्तुस्वरूपने खोटी रीते समजी बेसे ते तो उपदेशने ज योग्य नथी.

[अहीं एक उदाहरण लेवामां आवे छेः-

साध्य-साधन विषेनुं सत्यार्थ निरूपण एम छे के ‘छठ्ठा गुणस्थाने वर्तती आंशिक शुद्धि सातमा गुणस्थानयोग्य निर्विकल्प शुद्ध परिणतिनुं साधन छे. हवे, ‘छठ्ठा गुणस्थाने केवी अथवा केटली शुद्धि होय छे’-ए वातनो पण साथे साथे ख्याल कराववो होय तो, विस्तारथी एम निरूपण कराय के ‘जे शुद्धिना सद्भावमां, तेनी साथे साथे महाव्रतादिना शुभ विकल्पो हठ विना सहजपणे वर्तता होय छे ते छठ्ठा गुणस्थानयोग्य शुद्धि सातमा गुणस्थानयोग्य निर्विकल्प शुद्ध परिणतिनुं साधन छे.’ आवा लांबा कथनने बदले, एम कहेवामां आवे के ‘छठ्ठा गुणस्थाने वर्तता महाव्रतादिना शुभ विकल्पो सातमा गुणस्थानयोग्य निर्विकल्प शुद्ध परिणतिनुं साधन छे,’ तो ए उपचरित निरूपण छे, आवा उपचरित निरूपणमांथी एम अर्थ तारववो जोईए के ‘महाव्रतादिना शुभ विकल्पो नहि पण तेमना द्वारा सूचववा धारेली छठ्ठा गुणस्थानयोग्य शुद्धि खरेखर सातमा गुणस्थानयोग्य निर्विकल्प शुद्ध परिणतिनुं साधन छे.’)

(६) परंपरा कारणनो अर्थ निमित्त कारण छे, व्यवहारमोक्षमार्गने निश्चय मोक्षमार्गने माटे भिन्न साध्यसाधनरूपथी कहेल छे. तेनो अर्थ पण निमित्त मात्र छे जो निमित्तनुं ज्ञान न करीए तो प्रमाण ज्ञान थतुं नथी, माटे ज्यांज्यां तेने साधक, साधन, कारण, उपाय, मार्ग सहकारी कारण, बहिरंगहेतु कहेल छे ते सर्व


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[२६]

ते ते भूमिकाना संबंधमां जाणवा योग्य निमित्तकारण केवुं होय छे, तेनुं यथार्थ ज्ञान कराववाने माटे छे.

जे कोई जीव गुणस्थान अनुसार यथायोग्य साधक भाव, बाधकभाव अने निमित्तोने यथार्थ न जाणे तेनुं ज्ञान मिथ्या छे, कारण के ते संबंधमां साचा ज्ञानना अभावमां अज्ञानी एम कहे छे के भावलिंगी मुनिपणुं नग्न दिगंबर दशामां ज होवुं जोईए एवुं एकान्त नथी अर्थात् वस्त्र सहित मुनिपद होय तो बाधा नथी पण तेनी ए वात मिथ्या ज छे, कारण के भावलिंगी मुनिने ते भूमिकामां प्रथमना त्रण जातिना कषायोनो अभाव होय छे. अने सर्व सावधयोग (-पापक्रिया) ना त्याग सहित र८ मूलगुणोनुं पालन होय छे तेथी तेने वस्त्रना संबंधवाळो राग अथवा ते प्रकारनो शरीरनो राग कदी होतो ज नथी एवो निरपवाद नियम छे. वस्त्र राखीने पोताने जैनमुनि माननारने शास्त्रमां निगोद्रगामी कह्या छे. ए प्रमाणे गुणस्थानानुसार उपादान निमित्त बन्नेनुं यथार्थ ज्ञान होवुं जोईए. साधक जीवनुं ज्ञान एवुं ज होय छे के जे ते ते भेदने जाणतुं थकुं प्रगट थाय छे. समयसार शास्त्रमां गा. १रमां मात्र आ हेतुथी व्यवहारनयने ते काळे जाणवाने माटे प्रयोजनवान छे एम बताव्युं छे. ए रीते बन्ने नयो ज्ञान करवा माटे उपादेय छे, पण आश्रय लेवा माटे निश्चयनय उपादेय अने व्यवहारनय हेय छे.

स्व. श्री दीपचंदजीकृत ज्ञानदर्पणमां पृ. र९-३०, मां कह्युं छे के-
याही जगमांही ज्ञेय भावको लखैया ज्ञान,
ताकौ धरि ध्यान आन काहे पर हेरै हे
परके संयोग तैं अनादि दुःख पाए अब,
देखि तूं संभारि जो अखंड निधि तेरैं है
वाणी भगवानकी कौ सकल निचौर यहै,
समैसार आप पुन्य पाप नाही नेरै है
यातैं यह ग्रन्थ शिव पंथ को सधैया महा,
अरथ विचारि गुरुदेव यौ परे रहैं
।। ८प।।
व्रत तप शील संयमादि उपवास क्रिया,
द्रव्य भावरूप दोउ बंधको करतु हैा
करम जनित तातैं करमको हेतु महा,
बंध ही को करे मोक्ष पंथकौ हरतु हैा
आप जैसो कोई ताकौं आपकै समान करै,
बंध ही कौ मूल यातैं बंधकौ भरतु हैा

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[२७]
याकौ परंपरा अति मानि करतूति करै,
तेई महा मूढ भवसिंधुमैं परतु हैं ।। ८६।।
कारण समान काज सब ही बखानतु है,
यातैं परक्रिया मांहि परकी धरणि है
याहि तैं अनादि द्रव्य क्रिया तो अनेक करी,
कछु नाहिं सिद्धि भई ज्ञानकी परणि है
करमको वंस जामै ज्ञानको न अंश कोउ,
बढै भववास मोक्षपंथकी हरणि है
यातैं परक्रिया तो उपादेय न कही जाय,
तातैं सदा काल एक बंध की ढरणि है
।। ८७।।
पराधीन बाधायुत बंधकी करैया महा,
सदा विनासीक जाकौ एसो ही सुभाव है
बंध, उदै, रस, फल जीमै चार्यौं एकरूप,
शुभ वा अशुभ क्रिया एक ही लखाव हैा
करमकी चेतनामें कैसैं मोक्षपंथ सधै,
माने तेई मूढ हीए जिनके विभाव है
जैसो बीज होय ताकौ तैसो फल लागै जहां,
यह जग मांहि जिन आगम कहाव है
।। ८८।।
शुभोपयोगना संबंधमां सम्यग्द्रष्टिनी केवी मान्यता होय छे?

(१प)-श्री प्रवचनसार गाथा ११ तथा टीकामां धर्म परिणत जीवना शुभोपयोगने शुद्धोपयोगथी विरुद्ध शक्ति सहित होवाथी स्वकार्य (चारित्रनुं कार्य) करवाने माटे असमर्थ कहेल छे, हेय कहेल छे. आथी एम सिद्ध थाय छे के-ज्ञानी (धर्मी) ना शुभ भावमां पण, किंचित् मात्र पण शुद्धिनो अंश नथी, निश्चयनये ते वीतराग भावरूप मोक्षमार्ग नथी-बंधमार्ग ज छे, पण ज्ञानीने (धर्मीने) शुभभाव हेयबुद्धिए होवाथी तेने व्यवहारनये व्यवहार मोक्षमार्ग कहेल छे.

प्रश्नः– कई अपेक्षाए ते कथन कर्युं छे? उत्तरः– व्यवहार चारित्रनी साथे निश्चय चारित्र होय तो ते (शुभभाव) निमित्तमात्र छे एटलुं ज्ञान कराववानी अपेक्षाए ते कथन छे. _________________________________________________________________ १ करतूति = शुभरागनी क्रिया


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[२८]

प्रश्नः– तेवुं कथन पण कंइक हेतुथी करवामां आवे छे, तो अहीं ते हेतु कयो छे? उत्तरः– निश्चय चारित्रना धारक जीवने छठ्ठा गुणस्थानमां तेवो ज शुभराग होय छे परंतु एवा व्यवहारथी विरुद्ध प्रकारनो राग कदी पण होतो ज नथी, कारण के ते भूमिकामां त्रण प्रकारनी कषायशक्तिना अभाव सहित महामंद प्रशस्त राग होय छे, तेने महामुनि छूटतो नथी एम जाणीने तेनो त्याग करता नथी, भावलिंगी मुनिओने कदाचित् मंदरागना उदयथी व्यवहार-चारित्रनो भाव थाय छे, परंतु ते शुभभावने पण हेय जाणीने दूर करवा मागे छे, अने ते ते काळे एवो ज राग थवो घटे छे. पुरुषार्थनी मंदताथी एवो राग आवे छे, आव्या विना रहेतो नथी, परंतु मुनि तेने दूरथी ओळंगी जाय छे. ए हेतुथी आ कथन कर्युं छे एम समजवुं. कोई जडकर्मना उदयथी कोई परद्रव्य-परक्षेत्र-काळ अने परभाव वडे जीवने राग-द्वेष, सुख-दुःख ज्ञान-अज्ञान कदी थतुं ज नथी. आ प्रमाणे सम्यग्द्रष्टिने श्रद्धान होय छे.

आ संबंधमां मोक्षमार्ग प्रकाशक पृष्ठ र४९ मां कह्युं छे के-नीचली दशामां कोई जीवोने शुभोपयोग अने शुद्धोपयोगनुं युक्तपणुं होय छे, तेथी ए व्रतादि शुभोपयोगने उपचारथी मोक्षमार्ग कह्यो छे, पण वस्तुविचारथी जोतां शुभोपयोग मोक्षनो घातक ज छे. आ रीते जे बंधनुं कारण छे ते ज मोक्षनुं घातक छे, एवुं श्रद्धान करवुं. शुद्धोपयोगने ज उपादेय मानी तेनो उपाय करवो तथा शुभोपयोग- शुभोपयोगने हेय जाणी, तेना त्यागनो उपाय करवो. अने ज्यां शुद्धोपयोग न थई शके त्यां अशुभोपयोगने छोडी शुभमां ज प्रवर्तवुं, कारणे के-शुभोपयोगथी अशुभोपयोगमां अशुद्धतानी अधिकता छे.

वळी शुद्धोपयोग होय त्यारे तो ते परद्रव्यनो साक्षीभूत ज रहे छे, एटले त्यां तो कोई पण द्रव्यनुं प्रयोजन ज नथी. वळी शुभोपयोग होय त्यां बाह्य व्रतादिकनी प्रवृत्ति थाय छे तथा अशुभोपयोग होय त्यां बाह्य अव्रतादिकनी प्रवृत्ति थाय छे. कारण के-अशुद्धोपयोगने अने पर द्रव्यनी प्रवृत्तिने निमित्त-नैमित्तिक संबंध होय छे, तेथी पहेलां अशुभोपयोग छूटी शुभोपयोग थाय, पछी शुभोपयोग छूटी शुद्धोपयोग थाय एवी क्रम परिपाटी छे. परंतु कोई एम माने के शुभोपयोग छे ते शुद्धोपयोगनुं कारण छे. जेम अशुभ छूटीने शुभोपयोग थाय छे तेम शुभोपयोग छूटीने शुद्धोपयोग थाय छे. एम ज कारण कार्यपणुं होय तो शुभोपयोगनुं कारण अशुभोपयोग पण ठरे. (तो एम नथी) द्रव्यलिंगीने शुभोपयोग तो उत्कृष्ट होय छे, त्यारे शुद्धोपयोग होतो ज नथी, तेथी परमार्थथी ए बन्नेमां कारण–कार्यपणुं नथी. जेम अल्परोग नीरोग थवानुं कारण नथी, अने भलो पण नथी, तेम शुभोपयोग पण रोग समान छे, भलो नथी. (मोक्षमार्ग-प्रकाशक पृ. रप०)


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[२९]

सर्व सम्यग्द्रष्टिओने एवुं ज श्रद्धान होय छे, परंतु तेनो अर्थ एम नथी के तेओ व्यवहार धर्मने मिथ्यात्व समजे छे; अने एम पण नथी के तेओ तेने साचो मोक्षमार्ग समजता हशे.

(१६) प्रश्नः– शास्त्रमां प्रथमना त्रण गुणस्थानोमां अशुभोपयोग अने ४- प-६ गुणस्थानोमां एकलो शुभोपयोग कह्यो छे ते तारतम्यतानी अपेक्षाथी छे के मुख्यतानी अपेक्षाथी छे?

उत्तरः– ते कथन तारतम्यतानी अपेक्षाए नथी परंतु मुख्यतानी अपेक्षाथी कह्युं छे (मोक्षमार्ग प्र. पानुं र६९) आ संबंधमां विस्तारथी जाणवुं होय तो जुओ प्रवचनसार (रायचंद्र ग्रंथमाला) अ. ३ गा. ४८ श्री जयसेनाचार्यनी टीका पानुं ३४र.

(१७) प्रश्नः– शास्त्रमां कोई जग्याए “शुभ अने शुद्ध परिणामथी कर्मोनो क्षय थाय छे” एवुं कथन छे, हवे शुभभाव तो औदयिकभाव छे, बंधनुं कारण छे एम होवा छतां शुभभावथी कर्मोनो क्षय बताववानुं शुं प्रयोजन छे?

उत्तरः– १-शुभ परिणाम-रागभाव-(मलिन भाव) होवाथी ते गमे ते जीवना हो-सम्यग्द्रष्टिना हो के मिथ्याद्रष्टिना हो-ते मोहयुक्त उदयभाव होवाथी बंधनुं ज कारण छे, संवर-निर्जरानुं कारण नथी अने ए वात सत्य ज छे. आ वातने आ ज शास्त्रमां पृ. ४४१ थी ४४७ मां अनेक शास्त्रोना प्रमाण वडे सिद्ध करी बतावी छे.

र. शास्त्रना कोई पण कथननो अर्थ यथार्थ समजवो होय तो सर्व प्रथम ए निर्णय करवो जोईए के ते कया नयनुं कथन छे? आम विचार करतां-सम्यग्द्रष्टिना शुभभावथी कर्मोनो क्षय थाय छे- ए कथन व्यवहारनयनुं छे, तेथी आनो अर्थ एम थाय छे के- एम नथी पण निमित्तनी अपेक्षाए आ उपचार कर्यो छे. एटले खरेखर तो शुभभाव कर्मबंधननुं ज कारण छे परंतु सम्यग्द्रष्टिने नीचली भूमिकामां -४ थी १० गुणस्थान सुधी शुद्ध परिणामनी साथे ते ते भूमिकाने योग्य -शुभभाव निमित्तरूप होय छे, तेनुं ज्ञान कराववुं ते आ कथननुं प्रयोजन छे एम समजवुं.

३. एकीसाथे शुभ अने शुद्ध परिणामथी कर्मोनो क्षय ज्यां कह्यो होय त्यां उपादान अने निमित्त बन्ने ते ते गुणस्थानना समयमां होय छे अने आ प्रकारना ज होय छे– विरुद्ध नहीं एम बतावीने तेमां जीवना शुद्ध भाव तो उपादान कारण छे अने शुभभाव निमित्तकारण छे एम आ बन्ने कारणोनुं ज्ञान कराव्युं छे, तेमां निमित्तकारण अभूतार्थ कारण छे– साचुं कारण नथी माटे शुभ परिणामथी कर्मोनो क्षय कहेवो ते उपचारकथन छे एम समजवुं.


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[३०]

४- प्रवचनसार (पाटनी ग्रंथमाला) गाथा र४पनी टीका पानुं ३०१ मां ज्ञानीना शुभोपयोगरूप व्यवहारने “आस्रव ज” कहेल छे, माटे तेनाथी संवर अंशमात्र पण नथी.

श्री पंचास्तिकाय गाथा १६८ मां पण कह्युं छे के “तेनाथी आस्रवनो निरोध थई शकतो नथी,” अने गाथा १६६मां पण कह्युं छे के “व्यवहार मोक्षमार्ग सूक्ष्म परसमय छे अने ते बंधनो हेतु होवाथी तेनुं मोक्षमार्गपणुं निरस्त करवामां आव्युं छे. गाथा १प७ तथा तेनी टीकामां “शुभाशुभ परचारित्र छे, बंधमार्ग छे, मोक्षमार्ग नथी.”

प- आ संबंधमां खास ख्यालमां राखवा योग्य वात ए छे के पुरुषार्थसिद्धिउपाय शास्त्रनी गाथा १११ नो अर्थ घणा लांबा वखतथी केटलाक असंगत (अयथार्थ) करे छे, तेनी स्पष्टताने माटे जुओ आ शास्त्रमां पानुं ४३८.

उपरोकत सर्व कथननो अभिप्राय समजीने एम श्रद्धान करवुं जोईए के- धर्मी जीव प्रथमथी ज शुभ रागनो पण निषेध करे छे. माटे धर्मपरिणत जीवनो शुभोपयोग पण हेय छे, त्याज्य छे, निषेध्य छे; कारण के ते बंधननुं ज कारण छे. जे जीवो प्रथमथी ज एवुं श्रद्धान नथी करता तेमने आस्रव अने बंध तत्त्वनी साची श्रद्धा थई शकती नथी, अने एवा जीवो आस्रवने ज संवररूप माने छे, शुभभावने हितकर माने छे, माटे तेओ बधा जूठी मान्यतावाळा छे. आ विषयने विशेष समजवाने माटे जुओ आ शास्त्रमां पृ. ४४० थी ४४७.

व्यवहार मोक्षमार्गथी लाभ नथी एवी श्रद्धा करवी योग्य छे

(१८) केटलाक लोको एम मानी रह्या छे के शुभोपयोगथी अर्थात् व्यवहार मोक्षमार्गथी आत्माने खरेखर लाभ थाय छे, तो ते वात मिथ्या छे; कारण के तेओ व्यवहार मोक्षमार्गने वास्तवमां बहिरंग निमित्तकारण नथी मानता परंतु उपादान कारण माने छे. जुओ, श्री रायचंद्र ग्रंथमाला पंचास्तिकाय गाथा ८६ मां जयसेनाचार्यनी टीका-

त्यां धर्मास्तिकायनुं निमित्तकारणपणुं केम छे ते वात सिद्ध करवाने माटे कह्युं छे के शुद्धात्मस्वरुपे या स्थितिस्तस्य निश्चयेन वीतराग निर्विकल्प स्वसवेदन कारणं, व्यवहारेण पुनरर्हत्सिद्धादि परमेष्ठि गुणस्मरणं च यथा, तथा जीव पुद्गलानां निश्चयेन स्वकीय स्वरुपमेव स्थितेरुपादान कारणं, व्यवहारेण पुनरधर्मद्रव्यं चेति सूत्रार्थः।

अर्थः– अथवा जेम शुद्धात्मस्वरूपमां ठरवाने माटे निश्चयनयथी वीतराग निर्विकल्प स्वसंवेदन ज्ञान कारण छे तथा व्यवहारनयथी अर्हंत-सिद्धादि पंच-


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[३१]

परमेष्ठिओना गुणोनुं स्मरण छे तेम जीव अने पुद्गलोनां स्थिर रहेवामां निश्चयनयथी तेमना स्वभाव ज उपादान कारण छे अने व्यवहारनयथी अधर्मद्रव्य- एवो आ सुत्रनो अर्थ छे.”

आ कथनथी एम सिद्ध थाय छे के धर्मपरिणत जीवने शुभोपयोगनुं निमित्तपणुं अने गतिपूर्वक स्थिर थनारने माटे अधर्मास्तिकायनुं निमित्तपणुं समान छे. निमित्तथी खरेखर लाभ (हित) मानवावाळाओ निमित्तने उपादान ज माने छे, व्यवहारने निश्चय ज माने छे अर्थात् व्यवहार मोक्षमार्गथी वास्तवमां (खरेखर) लाभ माने छे तेथी तेओ बधा मिथ्याद्रष्टि छे. श्री मोक्षमार्ग-प्रकाशक पानुं रपर मां पण कह्युं छे के-“आ जीव निश्चयाभासने जाणे-माने छे, परंतु व्यवहार साधनने भलां जाणे छे... व्रतादि शुभोपयोगरूप प्रवर्ते छे, तेथी अंतिम ग्रैवेयक सुधीनां पद पामे छे, परंतु संसारनो ज भोकता रहे छे.’

केवळज्ञान, –क्रमबद्ध–क्रमवर्ती

(१९) केवळज्ञान संबंधी अनेक प्रकारनी विपरीत मान्यताओ चाली रही छे, माटे तेनुं साचुं स्वरूप शुं छे ते आ शास्त्रमां पानां १प९ थी १७० सुधीमां दर्शाव्युं छे. आ मूळ वात तरफ आपनुं ध्यान केन्द्रित करवामां आवे छे.

१- केवळी भगवान आत्मज्ञ छे. परज्ञ नथी-एवी पण एक जूठी मान्यता चाली रही छे, परंतु श्री प्रवचनसारनी गा. १३ थी प४ सुधीनी टीकामां तेनुं स्पष्ट समाधान कर्युं छे. तेमां गाथा ४८ मां कह्युं छे के “जे एकी साथे त्रैकालिक त्रिभुवनस्थ पदार्थोने नथी जाणतो तेने पर्यायसहित एक द्रव्यने पण जाणवुं शक्य नथी,” एथी सिद्ध थाय छे के जे सर्वने नथी जाणतो ते पोताने (आत्माने) नथी जाणतो.” प्रवचनसार गा. ४९ मां पण घणी स्पष्टताथी कहेल छे. गाथा उपर टीकानी साथे जे कळश छे ते खास सूक्ष्मताथी वांचवा योग्य छे.

शुद्धोपयोगनुं फळ केवळज्ञान छे तेथी केवळज्ञान प्रगट करवाने माटे शुद्धोपयोग अधिकार शरू करतां आचार्यदेवे प्रवचनसार गाथा १३ नी भूमिकामां कह्युं छे के “ए प्रमाणे आ (भगवान कुन्दकुन्दाचार्यदेव), समस्त शुभाशुभोपयोगवृत्तिने अपास्त करीने, (हेय मानीने, तिरस्कार करीने, दूर करीने) शुद्धोपयोग वृत्तिने आत्मसात् (पोतापणे) करता थका शुद्धोपयोग अधिकारनो प्रारंभ करे छे. तेमां (शरूआतमां) शुद्धोपयोगना फळनी आत्माना प्रोत्साहनने माटे प्रशंसा करे छे,” कारण के शुद्धोपयोगनुं फळ ज केवळज्ञान छे.

ते केवळज्ञानना संबंधमां विस्तारथी स्पष्ट आधार सहित समजवाने माटे जुओ आ शास्त्रमां पानां १६० थी १७० सुधी.


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[३२]

र- प्रवचनसार गाथा ४७ नी टीकामां सर्वज्ञना ज्ञानस्वभावनुं वर्णन करतां कहे छे के “अति विस्तारथी बस थाओ, जेनो अनिवारित प्रसार (फेलाव) छे, क्षायिकज्ञान एवुं प्रकाशमान होवाथी अवश्यमेव सर्वदा, सर्वत्र, सर्वथा सर्वने जाणे छे.” आथी ज साबित थाय छे के सर्व ज्ञेयोनुं संपूर्ण स्वरूप-प्रत्येक समयमां केवळज्ञान प्रत्ये सुनिश्चित होवाथी अनादि अनंत क्रमबद्धक्रमवर्ती पर्यायो केवळज्ञानीना ज्ञानमां स्पष्ट प्रतिभासित छे अने ते सुनिश्चित होवाथी बधां द्रव्योनी बधी पर्यायो क्रमबद्ध ज थाय छे; आघीपाछी, अगम्य अथवा अनिश्चित थती नथी.

३- पर्यायने क्रमवर्ती पण कहेवामां आवे छे तेनो अर्थ श्री पंचास्तिकायनी गाथा १८ नी टीकामां एवो करेल छे के- “कारण के ते (पर्यायो) क्रमवर्ती होवाथी तेमनो स्वसमय उपस्थित थाय छे अने वीती जाय छे” पछी गाथा र१ नी टीकामां कह्युं छे के “ज्यारे जीव, द्रव्यनी गौणताथी तथा पर्यायनी मुख्यताथी विवक्षित थाय छे त्यारे ते (१) ऊपजे छे, (र) विणसे छे, (३) जेनो स्वकाळ वीती गयो छे एवा सत् (विद्यमान) पर्यायसमूहने विनष्ट करे छे अने (४) जेनो स्वकाळ उपस्थित थयो छे (आव्यो) छे एवा असत्ने (अविद्यमान पर्यायसमूहने) उत्पन्न करे छे.

४- पंचाध्यायी भाग १ गाथा १६७-६८मां कहेल छे के “क्रम धातु छे ते पादविक्षेप अर्थमां प्रसिद्ध छे.” गमन करती वखते पग डाबो-जमणो क्रमसर ज चाले छे, ऊलटा क्रमथी नथी चालतो. ए प्रमाणे द्रव्योनी पर्याय पण क्रमबद्ध थाय छे, जे पोतपोताना काळमां प्रगट थाय छे, तेमां कोई काळे पहेलांनी पछी अने पछी थवावाळी प्रथम-एम थती नथी, माटे प्रत्येक पर्याय पोताना समयमां ज क्रमानुसार प्रगट थती रहे छे.

प- पर्यायने क्रमभावी पण कहेवामां आवे छे. श्री प्रमेयकमलमार्तण्ड न्यायशास्त्रमां (३, परोक्ष परि. सू. ३ गा. १७-१८नी टीकामां) कह्युं छे के-

पूर्वोत्तर चारिणोः कृतिकाशकटोदयादिस्वरुपयोः कार्यकारणयोश्चाग्निधूमादि स्वरुपयो इतिः।

नक्षत्रोना द्रष्टान्तथी पण सिद्ध थाय छे के जेम नक्षत्रोना गमननुं क्रमभावीपणुं कदी पण निश्चित क्रमने छोडीने आडुं अवळुं थतुं नथी, तेम ज द्रव्योनी प्रत्येक पर्यायनो उत्पाद-व्ययरूप प्रवाहनो क्रम पोताना निश्चित क्रमने छोडीने कदी पण आडोअवळो थतो नथी परंतु तेनो निश्चित स्वसमयमां उत्पाद थतो रहे छे.

६- केवळी-सर्वज्ञना ज्ञानप्रति सर्वज्ञेयो-सर्व द्रव्योनी त्रिकालवर्ती सर्व पर्यायो ज्ञेयपणे निश्चित ज छे अने क्रमबद्ध छे, तेनी सिद्धि करवाने माटे प्रवचनसार


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[३३]

गाथा ९९ नी टीकामां घणुं स्पष्ट कथन छे. विशेष जुओ, पाटनी ग्रंथमाला द्वारा प्रकाशित प्र० सार गाथा-

गाथा१०पानुं१रटीका अनेभावार्थ
र३र७-र८
३७४४
३८४प
३९४६
४१४८
४८-४९पप-प८
प१प९
९९१र४-र६
११३१४७-४८
र००र४३

७- श्री समयसारजी शास्त्रना कळशोनी श्री राजमल्लजी कृत टीका (सूरतथी प्रकाशित) मां पाना १० मां कहेल छे के “आ जीव आटलो काळ वीती गया पछी मोक्ष जशे एवी नोंध केवळज्ञानमां छे.”

८- अवधिज्ञानी, मनःपर्ययज्ञानीओ पण भविष्यनी पर्यायोने निश्चितरूपथी स्पष्ट जाणे ज छे. अने नक्षत्र, सूर्य, चंद्र तथा ताराओनी गति, उदय-अस्त, ग्रहणकाळ वगेरेने निश्चितरूपथी अल्पज्ञ जीवो पण जाणी शके छे तो सर्वज्ञ वीतराग पूर्णज्ञानी होवाथी सर्व द्रव्योनी सर्व पर्यायोने निश्चितरूपथी (तेना क्रममां नियत) केम नथी जाणी शकता? -चोक्कस जाणे ज छे.

९- आ कथननुं प्रयोजन-स्वतंत्र वस्तुस्वरूपना ज्ञान वडे केवळज्ञानस्वभावी पोताना आत्मानुं जे पूर्ण स्वरूप छे तेनो निश्चय करीने, सर्वज्ञ वीतराग कथित तत्त्वार्थोनुं वास्तविक श्रद्धान करीने मिथ्याश्रद्धान छोडवुं जोईए. क्रमबद्धना साचा श्रद्धानमां कर्तापणानो अने पर्यायनो आश्रय छूटीने पोताना त्रिकाळी ज्ञातास्वभावनी द्रष्टि अने आश्रय थाय छे, तेमां स्वसन्मुख ज्ञातापणानो साचो पुरुषार्थ, स्वभाव, काळलब्धि नियति अने कर्मना उपशमादि पांचे समवायो एकी साथे होय छे, आ नियम छे. एवो वस्तुनो अनेकान्त छे एम श्रद्धान करवुं, कारण के तेनी श्रद्धा कर्या वगर साची मध्यस्थता आवी शकती नथी.

(र०)- तत्त्वज्ञानी स्व. श्री पं. बनारसीदासजीए ‘परमार्थ वचनिकामां’ ज्ञानी अने अज्ञानीनो भेद समजवाने माटे कह्युं छे केः-


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[३४] १–“हवे मूढ तथा ज्ञानी जीवनुं विशेषपणुं अन्य पण सांभळो.”

ज्ञाता तो मोक्षमार्ग साधी जाणे, परंतु मूढ मोक्षमार्ग साधी जाणे नहि. शा माटे? ते सांभळो-मूढ जीव आगमपद्धतिने व्यवहार कहे छे अने अध्यात्मपद्धतिने निश्चय कहे छे तेथी ते आगम अंगने एकांतपणे साधीने तेने मोक्षमार्ग बतावे छे. अध्यात्मअंगने व्यवहारथी पण जाणे नहि एवो मूढद्रष्टि जीवनो स्वभाव छे, तेने (मूढने) आ प्रमाणे सूजे ज क्यांथी? कारण के- आगम अंग बाह्यक्रियारूप प्रत्यक्ष प्रमाण छे, तेनुं स्वरूप साधवुं तेने सुगम छे, ते बाह्य क्रिया करतो थको मूढ जीव पोताने मोक्षमार्गनो अधिकारी माने छे, परंतु अंतर्गर्भित अध्यात्मरूप क्रिया जे अंतर्द्रष्टिग्राह्य छे ते क्रियाने मूढ जीव जाणे नहीं, कारण-अंतर्द्रष्टिना अभावथी अंतरक्रिया द्रष्टिगोचर आवे नहि; माटे मिथ्याद्रष्टि जीव मोक्षमार्गने साधवाने असमर्थ छे.”

र. हवे सम्यग्द्रष्टिनो विचार सांभळो

“सम्यग्द्रष्टि कोण कहेवाय ते सांभळोः- संशय, विमोह, विभ्रम ए त्रण भाव जेनामां नथी ते सम्यग्द्रष्टि. संशय, विमोह अने विभ्रम शुं छे तेनुं स्वरूप द्रष्टान्तथी बतावीए छीए ते सांभळो, जेम कोई स्थानमां चार माणसो ऊभा हता. ते बधायनी सामे बीजा एक माणसे सीपनो कटको लावी बताव्यो. पछी दरेकने पूछयुं के आ शुं छे? सीप छे के रूपुं छे? त्यां एके-जेना मनमां संशय हतो तेणे कह्युं मने तो कांई खबर पडती नथी के आ सीप छे के रूपुं? मारी द्रष्टिमां तो एनो कशो निर्णय थतो नथी. त्यारे बीजो विमोहवाळो बोल्यो के मने तो ए ज नथी समजातुं के तमे सीप कोने कहो छो अने रूपुं कोने कहो छो? मारी द्रष्टिमां तो कशुं ज आवतुं नथी तेथी हुं नथी जाणतो के तमे शुं कहेवा मागो छो! अथवा ते चूप रहे, घेलछाथी बोले नहीं. हवे त्रीजो विभ्रमवाळो पुरुष बोल्यो के आ तो प्रत्यक्ष प्रमाण रूपुं छे, आने सीप कोण कही शके? मारी द्रष्टिमां तो आ रूपुं ज देखाय छे माटे सर्व प्रकारे आ रूपुं छे. परंतु ते त्रणेय पुरुषोए तो सीपना स्वरूपने जाण्युं नहीं. तेथी ते त्रणेय मिथ्यावादी छे. हवे चोथो पुरुष बोल्यो के-आ तो प्रत्यक्ष प्रमाण सीपनो कटको छे तेमां संशय शो? सीप, सीप, सीप, चोक्कस सीप छे. जो कोई आने अन्य _________________________________________________________________

१. आगम पद्धति बे प्रकारे छे - (१) भावरूप-पुद्गलाकार आत्मानी अशुद्ध परिणतिरूप अर्थांत् अव्रतादिना अशुभ परिणाम तथा दया, दान, पूजा, अनुकंपा, अणुव्रत- महाव्रत, मुनिना र८ मूलगुणोनुं पालनादि शुभभावरूप जीवना मलिन परिणाम अने (र) द्रव्यरूप पुद्गलपरिणाम.

र. अंतर्द्रष्टि वडे मोक्षमार्गने साधवो ते अध्यात्म अंगनो व्यवहार छे. मोक्षमार्ग साधवो ते व्यवहार अने शुद्धद्रव्य अक्रियारूप ते निश्चय.


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[३प]

वस्तु कहे तो ते प्रत्यक्षप्रमाणभ्रमित अथवा अंध छे. तेम सम्यग्द्रष्टिने स्व-परना स्वरूप विषे न तो संशय छे, न विमोह छे, न तो विभ्रम छे, यथार्थ द्रष्टि छे; माटे सम्यग्द्रष्टि जीव अन्तद्रष्टि वडे मोक्षपद्धति साधी जाणे छे. ते बाह्यभावने बाह्य निमित्तरूप मानेः बाह्य निमित्त तो अनेक छे, एक नथी, तेथी अंर्तद्रष्टिना प्रमाणमां मोक्षमार्गने साधे छे. सम्यग्ज्ञान (स्वसंवेदन) अने स्वरूपाचरणनी कणिका जाग्ये मोक्षमार्ग साचो. मोक्षमार्ग साधवो ते व्यवहार अने शुद्धद्रव्य अक्रियारूप ते निश्चय. ए प्रमाणे निश्चय–व्यवहारनुं स्वरूप सम्यग्द्रष्टि जाणे छे, पण मूढ जीव जाणे नहीं अने माने पण नहीं.

मूढ जीव बंधपद्धतिने साधतो थको तेने मोक्षमार्ग कहे छे परंतु ते वात ज्ञाता मानतो नथी; केमके, बंधने साधवाथी बंध सधाय पण मोक्ष सधाय नहीं. ज्यारे ज्ञाता कदाचित् बंधपद्धतिनो विचार करे त्यारे ते एम जाणे छे के आ बंधपद्धतिथी मारुं द्रव्यअनादि काळथी बंधरूप चाल्युं आव्युं छे. हवे ए पद्धतिनो मोह तोडी वर्तं! _________________________________________________________________

१. व्यवहारनय अशुद्ध द्रव्यने कहेवावाळो होवाथी जेटला अलग अलग, एक एक भावस्वरूप अनेक भाव बताववामां आव्या छे ते बधा अनेक विचित्र वर्णमाळा समान होवाथी, जाणवामां आवता होवाथी ते काळे प्रयोजनवान छे, परंतु उपादेयरूपथी प्रयोजनवान नथी एवा ज्ञान सहित सम्यग्द्रष्टि जीव पोतानी चारित्रगुणनी पर्यायमां आंशिक शुद्धतानी साथे जे शुभ अंश छे तेने बाह्य भाव अने बाह्य निमित्तरूपथी जाणे छे. शास्त्रमां कोई कोई ठेकाणे ते शुभभावने शुद्धपर्यायनो व्यवहारनयथी साधक पण कहेल छे, तेनो अर्थ ए छे के ते (शुभभाव) बाह्य निमित्त मात्र छे-हेय छे. आश्रय करवा योग्य अथवा हितकर नथी पण बाधक ज छे एम ज्ञानी माने छे.

र. पाटनी ग्रंथमाळा द्वारा प्रकाशित श्री प्रवचनसार गाथा ९४मां “ अविचलित चेतनामात्र आत्मव्यवहार छे” एम टीकामां पानां १११-१रमां कह्युं छे, तेने अहीं मोक्षमार्गने साधवो ते व्यवहार एम निरूपण कर्युं छे.

३. त्रिकाळी एकरूप रहेवावाळो आत्मानो जे ध्रुव ज्ञायकभाव छे ते भूतार्थ अने निश्चयनयनो विषय होवाथी तेने ‘शुद्धद्रव्य अक्रियारूप’ कह्युं छे, तेने परम पारिणामिकभाव पण कहेवामां आवे छे अने ते नित्य सामान्य द्रव्यरूप होवाथी निष्क्रिय छे अने क्रिया छे ते पर्याय छे तेथी ते व्यवहारनयनो विषय छे.

४. अहीं सम्यग्द्रष्टि जीवने तेनी भूमिकानुसार थवावाळा शुभभावने पण बंधपद्धतिमां गणेल छे. बंधमार्ग, बंधननुं कारण, बंधननो उपाय अने बंधपद्धति समान अर्थवाचक छे.

प. समकिती जीवो शुभभावने बंधपद्धतिमां गणे छे तेथी तेओ तेनाथी लाभ अथवा किंचित्मात्र पण हित मानता नथी, अने तेनो अभाव करवानो पुरुषार्थ करे छे माटे आ बंध पद्धतिनो मोह तोडीने स्वसन्मुख थवानो उद्यम करीने शुद्धतानी वृद्धि करवानी भलामण करी छे.


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[३६]

आ बंधपद्धतिनो राग पहेलांनी जेम हे नर! तुं शा माटे करे छे?” ज्ञाता क्षणमात्र पण बंधपद्धतिमां मग्न थाय नहीं. ते पोतानुं स्वरूप विचारे, अनुभवे, ध्यावे, गावे, श्रवण करे तथा नवधाभक्ति, तप, क्रिया वगेरे पोताना शुद्ध स्वरूपसन्मुख थईने करे ए ज्ञातानो आचार छे. एनुं नाम मिश्र व्यवहार छे.

(३) हवे, हेय ज्ञेय उपादेयरूप ज्ञातानी चालनो विचार-“हेय-त्यागवायोग्य तो पोताना द्रव्यनी अशुद्धता, ज्ञेय विचाररूप अन्य छ द्रव्यनुं स्वरूप, अने उपादेय आचरणरूप पोताना द्रव्यनी शुद्धता. तेनुं विवेचन-गुणस्थान प्रमाणे हेय ज्ञेय उपादेयरूप शक्ति ज्ञातानी होय. ज्ञातानी हेय ज्ञेय उपादेयरूप शक्ति जेम जेम वर्धमान थती जाय तेम तेम गुणस्थाननी वृद्धि थाय एम कहेल छे. तेने गुणस्थान प्रमाणे ज्ञान अने गुणस्थान अनुसार क्रिया होय छे. तेमां पण आटली विशेषता छे के एक गुणस्थानवर्ती अनेक जीवो होय तो ते दरेकनुं ज्ञान अनेकरूपे होय छे तेम ज क्रिया पण अनेकरूप होय छे. दरेकनी भिन्न भिन्न सत्ता होवाने लीधे एकता-समानता होय नहीं. दरेक जीवद्रव्यना औदयिक भाव जुदा जुदा होय छे, ते औदयिक भाव अनुसार ज्ञाननी पण भिन्नता जाणवी. परंतु तेमां विशेषता ए छे के कोईपण ज्ञानीनुं कोईपण जातनुं ज्ञान एवुं न होय के ज्ञान परसत्तावलंबनशील थइने साक्षात् मोक्षमार्ग थाय एम कहे, केमके अवस्थाना प्रमाणमां परसत्तावलंबन छे, पण परसत्तावलंबी ज्ञानने परमार्थता (मोक्षमार्ग) कहेतो नथी. जे ज्ञान स्वसत्तावलंबनशील होय ते ज खरुं ज्ञान छे. ते ज्ञानने सहकारभूत-निमित्तरूप अनेक प्रकारना औदयिक भाव होय छे. ते औदयिक भावोने ज्ञानी तमाशो जोनारनी जेम साक्षीपणे जाणे छे. परंतु तेनो कर्ता, भोकता के अवलंबी नथी. माटे कोई एम कहे के “ आ प्रकारना ज औदयिकभाव होय तो (ते जीवने) अमुक गुणस्थान छे” तो ते वात खोटी छे. तेणे द्रव्यना स्वरूपने बिलकुल जाण्युं नथी, केमके अन्य गुणस्थाननी तो वात शुं करवी? केवळी भगवानना औदयिक भावोनी पण भिन्नता (अनेकता) छे.

केवळीओना पण औदयिक भाव एकसरखा न होय. कोई केवळीने दंड-कबाटरूप क्रियानो उदय होय, तो कोई अन्य केवळीने ते न पण होय. ए प्रमाणे केवळीओना उदयभावोनी पण ज्यारे भिन्नता छे तो पछी बीजा गुणस्थानोनी शुं वात करीए? माटे औदयिक* भावोना भरोसे ज्ञान नथी. ज्ञान स्वशक्तिप्रमाण छे. स्व-परप्रकाशक _________________________________________________________________ *अहींया सम्यग्द्रष्टिना शुभोपयोगने औदयिक भाव कहेल छे अने ते औदयिक भावथी संवर निर्जरा नथी परंतु बंध थाय छे.


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[३७]

ज्ञानशक्ति, ज्ञायकप्रमाण ज्ञान तथा यथानुभवप्रमाण स्वरूपाचरण चारित्र, ए ज्ञातानुं सामर्थ्य छे.”

“ आ वार्तानो विस्तार क्यां सुधी लखीए-क्यां सुधी कहीए? आ तो वचनातीत, इन्द्रियातीत, ज्ञानातीत छे, माटे आ विचारने वधारे शुं लखीए. जे ज्ञाता हशे ते तो थोडुं लख्युं घणुं समजशे अने जे अज्ञानी हशे ते आ चिठ्ठी सांभळशे खरो, परंतु समजशे नहीं. आ वचनिका यथायोग्य सुमति प्रमाणे केवळीना वचनानुसार छे. जे कोई आने सांभळशे, समजशे, श्रद्धशे तेनुं कल्याण थशे अने ते ज खरेखर भाग्यशाळी छे. इति परमार्थ वचनिका.”

(र१) समाजमां आत्मज्ञान विषयमां अपूर्व जिज्ञासा अने जागृति

१. जेने सत्यनी तरफ रुचि थई रही छे, जे सत्यतत्त्वने समजवानो अने निर्णय करवानो इच्छक छे तेवो समाज मध्यस्थताथी शास्त्रोनो स्वाध्याय करीने नयार्थ, अनेकान्त, उपादान-निमित्त, निश्चय-व्यवहार बन्ने नयोनी साची व्याख्या अने प्रयोजन तथा मोक्षमार्गनुं बे प्रकारथी निरूपण, हेय-उपादेय अने प्रत्येक द्रव्यना पर्यायोनी पण स्वतंत्रता, केवळज्ञान अने क्रमबद्ध पर्याय वगेरे प्रयोजनभूत विषयोमां उत्साहपूर्वक अभ्यास करी रह्यो छे अने तत्त्वनिर्णयना विषयमां समाजमां खास विचारोनी प्रवाहधारा चाली रही छे एम नीचेना आधार उपरथी पण सिद्ध थाय छे.

र. श्री भारत. दि. जैन संघ (मथुरा) तरफथी इ. स. १९४४मां प्रकाशित मोक्षमार्ग प्रकाशक (पं. टोडरमल्लजी) नी प्रस्तावना पा. ९मां शास्त्रीजीए कह्युं छे के-

“आज सुधी शास्त्र-स्वाध्याय अने पारस्परिक चर्चाओमां एकान्त निश्चयी अने एकान्त व्यवहारीने ज मिथ्याद्रष्टि कहेता सांभळतां आव्या छीए, परंतु बन्ने नयोनुं अवलंबन करनार पण मिथ्याद्रष्टि होई शके छे. आ आपनी (स्व. पं. टोडरमल्लजीनी) नवी अने विशेष चर्चा छे. एवा मिथ्याद्रष्टिओना सूक्ष्म भावोनुं विश्लेषण करतां आपे अनेक अपूर्व वातो जणावी छे. उदाहरण माटे-आपे ए वातनुं खंडन कर्युं छे के मोक्षमार्ग निश्चय-व्यवहाररूप बे प्रकारनो छे. त्यां तेओ लखे छे के आ मान्यता निश्चय-व्यवहारावलंबी मिथ्याद्रष्टिओनी छे. वास्तवमां पाठक जोई शकशे के जे लोको निश्चयसम्यग्दर्शन, व्यवहारसम्यग्दर्शन, निश्चयरत्नत्रय, व्यवहाररत्नत्रय, निश्चयमोक्षमार्ग, व्यवहारमोक्षमार्ग वगेरे भेदोनी रात-दिवस चर्चाओ करे छे तेमनी मान्यताथी पंडितजीनी मान्यता केटली भिन्न छे? ए ज प्रमाणे आगळ तेओए लख्युं छे के “निश्चय अने व्यवहार बन्नेने उपादेय मानवा ते पण भ्रम छे, कारण के बन्ने नयोनुं स्वरूप तो परस्पर विरुद्ध छे. माटे बन्ने नयोनुं उपादेयपणुं बनतुं नथी.” अत्यार सुधी तो अमारी ए ज धारणा


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[३८]

हती के एकलो निश्चय पण उपादेय नथी अने एकलो व्यवहार पण उपादेय नथी; परंतु बन्नेय उपादेय छे. “परंतु पंडितजीए एने मिथ्याद्रष्टिओनी प्रवृत्ति कही छे.”

आगळ पृ. ३० मां पण लख्युं छे के ‘जे एम माने छे के श्रद्धान तो निश्चयनुं करवुं जोईए अने प्रवृत्ति व्यवहारनी राखवी जोईए’ तेने पण मिथ्याद्रष्टि ज कह्या छे.

आ आवृत्ति आत्मार्थी विद्वानभाई श्री खीमचंदभाई जेठालाल शेठनी देखरेख नीचे तैयार थई छे तथा ब्र. गुलाबचंदभाईए तेने लगतुं तमाम कार्य कर्युं छे ते माटे बन्नेनो आभार मानुं छुं.

वीर सं. र४८९. वि. सं. र०१९
श्रावण सुदी ८- रामजी माणेकचंद दोशी