Moksha Shastra-Gujarati (Devanagari transliteration). Second Chapter Pg. 171 to 236; Sutra: 1-7 (Chapter 2).

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१६६ ] [ मोक्षशास्त्र जेटली पर्यायो छे, ते बधी तात्कालिक (वर्तमानकालीन) पर्यायोनी जेम, अत्यंत मिश्रित होवा छतां पण, सर्व पर्यायोना विशिष्ट लक्षण स्पष्ट जणाय तेवी रीते एक क्षणमां ज ज्ञानमंदिरमां स्थिति पामे छे.”

आ गाथानी सं. टीकामां श्री जयसेनाचार्ये कह्युं छे के-“... ज्ञानमां समस्त द्रव्योनी त्रणे काळनी पर्यायो एकसाथे जणावा छतां पण प्रत्येक पर्यायनुं विशिष्ट स्वरूप, प्रदेश, काळ, आकारादि विशेषताओ स्पष्ट जणाय छे; संकर–व्यतिकर थतां नथी...”

“तेमने (केवळी भगवानने) सर्व द्रव्य, क्षेत्र, काळ अने भावनुं अक्रमिक ग्रहण होवाथी प्रत्यक्ष संवेदनना (प्रत्यक्ष ज्ञानना) आलंबनभून समस्त (सर्व) द्रव्य–पर्यायो प्रत्यक्ष ज छे.” (प्रवचनसार थाया-२१ नी टीका)

“जे (पर्यायो) हजी सुधी पण उत्पन्न थयेल नथी, तथा जे उत्पन्न थईने नष्ट थई गयेल छे, ते (पर्यायो) वास्तवमां अविद्यमान होवा छतां पण ज्ञानने प्रतिनियत होवाथी (ज्ञानमां निश्चित्-चोंटेला-होवाथी, ज्ञानमां सीधा जणाता होवाथी) ज्ञानप्रत्यक्ष वर्तता थका, पथ्थरना थांभलामां कोतरायेला भूत अने भावी देवोनी (तीर्थंकरदेवोनी) जेम पोतानुं स्वरूप अकंपपणे (ज्ञानने) अर्पण करती थकी (ते पर्यायो) विद्यमान ज छे.” (प्रवचनसार गाथा-३८ नी टीका)

(प) टीकाः– “क्षायिकज्ञान वास्तवमां एक समयमां ज सर्वतः (सर्व आत्मप्रदेशोथी) वर्तमानमां वर्तता तथा भूत-भविष्य काळमां वर्तता ते सर्व पदार्थोने जाणे छे जेमां पृथक्पणे वर्तता स्वलक्षणरूप लक्ष्मीथी आलोकित अनेक प्रकारोने कारणे विचित्रता प्रगट थई छे अने जेमनामां परस्पर विरोधथी उत्पन्न थवावाळी असमानजातीयताने कारणे विषमता प्रगट थई छे... तेने जाणे छे. जेनो फेलाव अनिवार छे, एवुं प्रकाशमान होवाथी क्षायिकज्ञान, अवश्यमेव, सर्वदा, सर्वत्र, सर्वथा, सर्वने (द्रव्य-क्षेत्र-काळ-भावरूपे) जाणे छे.” (प्रवचनसार गाथा-४७ नी टीका)

(६) “जे एक ज साथे (-युगपद) त्रैकालिक त्रिभुवनस्थ (त्रणे काळ अने त्रणे लोकना) पदार्थोने जाणतुं नथी तेने पर्याय सहित एक द्रव्य पण जाणवुं शक्य नथी.” (प्रवचनसार गाथा-४८)

(७) “एक ज्ञायकभावनो समस्त ज्ञेयोने जाणवानो स्वभाव होवाथी क्रमेक्रमे प्रवर्तता, अनंत, भूत-वर्तमान-भावी विचित्र पर्यायसमूहवाळा अगाध स्वभाववाळा अने गंभीर समस्त द्रव्यमात्रने-जाणे के ते द्रव्यो ज्ञायकमां कोतराई गया होय, चितराई


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अ. १. परि. प ] [ १६७ गया होय, दटाई गया होय, खोडाई गया होय, डूबी गया होय, समाई गया होय, प्रतिबिम्बित थया होय एवी रीते एक क्षणमां ज जे शुद्धात्मा प्रत्यक्ष करे छे,...”

(प्र. सार गाथा-२००नी टीका)

(८) “घातिकर्मनो नाश थतां अनंतदर्शन, अनंतज्ञान, अनंतसुख अने अनंतवीर्य-ए अनंतचतुष्टय प्रगट थाय छे. त्यां अनंतदर्शन-ज्ञानथी तो, छ द्रव्योथी भरपूर जे आ लोक छे तेमां जीव अनंतानंत अने पुद्गल एनाथी पण अनंतगुणा छे; अने धर्म, अधर्म तथा आकाश ए त्रण द्रव्य अने असंख्य काळद्रव्य छे-ते सर्व द्रव्योनी भूत-भविष्य-वर्तमानकाळ संबंधी अनंत पर्यायोने भिन्न-भिन्न एक समयमां देखे अने जाणे छे.”

[अष्टपाहुड-भावपाहुड गाथा-१प० नी पं. जयचंद्रजीकृत टीका]

(९) श्री पंचास्तिकायनी श्री जयसेनाचार्यकृत सं. टीका पृ. ८७ गाथा प मां कह्युं छे के-

णाणाणाणं च णत्थि केवलिणो (गाथा-प)

“केवळी भगवानने ज्ञानाज्ञान होतुं नथी, अर्थात् तेमने कोई विषयमां ज्ञान अने कोई विषयमां अज्ञान वर्ते छे-एम होतुं नथी, पण सर्वत्र ज्ञान ज वर्ते छे.”

(१०) भगवंत भूतबलि आचार्य प्रणीत महाबंध प्रथम भाग, प्रकृतिबंध अधिकार पृ. २७-२८ मां केवळज्ञानुं स्वरूप नीचे प्रमाणे कह्युं छेः-

“केवळी भगवान त्रिकाळावच्छिन्न लोक-अलोक संबंधी संपूर्ण गुण-पर्यायोथी समन्वित अनंत द्रव्योने जाणे छे.” एवुं कोई ज्ञेय होई शकतुं नथी के जे केवळी भगवानना ज्ञाननो विषय न होय. ज्ञाननो धर्म ज्ञेयने जाणवानो छे अने ज्ञेयनो धर्म छे ज्ञाननो विषय थवानो. एमां विषयविषयिभाव संबंध छे. ज्यारे मति अने श्रुतज्ञान द्वारा पण आ जीव वर्तमान सिवाय भूत तथा भविष्यकाळनी वातोनुं परिज्ञान करे छे, त्यारे केवळी भगवान द्वारा अतीत, अनागत, वर्तमान सर्व पदार्थोनुं ग्रहण (-ज्ञान) करवुं युक्तियुक्त ज छे,... जो क्रमपूर्वक केवळीभगवान अनंतानंत पदार्थोने जाणत तो सर्व पदार्थोनो साक्षात्कार न थई शकत. अनंतकाळ व्यतीत थवा छतां पण पदार्थोनी अनंत गणना अनंत ज रहेत. आत्मानी असाधारण निर्मळता थवाने लीधे एक समयमां ज सर्व पदार्थोनुं ग्रहण (-ज्ञान) थाय छे.

‘ज्यारे ज्ञान एक समयमां संपूर्ण जगतनो अथवा विश्वना तत्त्वोनो बोध करी ले छे, तो आगळ ते कार्यहीन जई जशे’-ए आशंका पण योग्य नथी; कारण के काळद्रव्यना निमित्ते तथा अगुरुलघुगुणना कारणे समस्त वस्तुओमां


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१६८ ] [ मोक्षशास्त्र क्षणे क्षणे परिणमन-परिवर्तन थाय छे. जे काले भविष्यकाळ हतो ते आजे वर्तमान बनीने आगळ अतीतनुं रूप धारण करे छे. आ रीते परिवर्तननुं चक्र सदा चालवाने कारणे ज्ञेयना परिणमन अनुसार ज्ञानमां पण परिणमन थाय छे. जगतना जेटला पदार्थो छे, तेटली ज केवळज्ञाननी शक्ति के मर्यादा नथी. केवळज्ञान अनंत छे. जो लोक अनंतगुणो पण होत, तो य केवळज्ञानसमुद्रमां ते बिंदुनी जेम समाई जात... अनंत केवळज्ञान द्वारा अनंत जीव तथा अनंत आकाशादिनुं ग्रहण थवा छतां पण ते पदार्थो सान्त थतां नथी. अनंतज्ञान अनंत पदार्थ अथवा पदार्थोने अनंतरूपे बतावे छे, ते कारणे ज्ञेय अने ज्ञाननी अनंतता अबाधित रहे छे.

[महाबंध प्रथम भाग पृ. २७ तथा धवला पुस्तक १३ पृ. ३४६ थी ३प३]

उपरोक्त आधारोथी नीचे प्रमाणेना मंतव्य मिथ्या सिद्ध थाय छेः (१) केवळी भगवान भूत अने वर्तमान काळवर्ती पर्यायोने ज जाणे छे अने

भविष्यनी पर्यायोने ते थाय त्यारे जाणे छे. (र) सर्वज्ञ भगवान अपेक्षित धर्मोने जाणता नथी. (३) केवळी भगवान भूत भविष्यनी पर्यायोने सामान्य रूपे जाणे छे पण

विशेषरूपे जाणता नथी. (४) केवळी भगवान भविष्यनी पर्यायोने समग्ररूपे (समूहरूपे) जाणे छे, भिन्न

भिन्नरूपे जाणता नथी. (प) ज्ञान फक्त ज्ञानने ज जाणे छे. (६) सर्वज्ञना ज्ञानमां पदार्थो झळके छे, परंतु भूतकाळ तथा भविष्यकाळनी पर्यायो

स्पष्टरूपे झळकती नथी. -इत्यादि मंतव्यो सर्वज्ञने अल्पज्ञ मानवा बराबर छे.
केवळज्ञान (–सर्वज्ञनुं ज्ञान) द्रव्य–पर्यायोनां शुद्धत्व–अशुद्धत्व आदि
अपेक्षित धर्मोने पण जाणे छे.

(११) श्री समयसारजीमां अमृतचंद्राचार्यकृत कळश नं. २ मां केवळज्ञानमय सरस्वतीनुं स्वरूप आवी रीते कह्युं छे, ‘... ते मूर्ति एवी छे के जेमां अनंत धर्म छे एवा अने प्रत्यक्-परद्रव्योथी, परद्रव्योना गुण-पर्यायोथी भिन्न तथा परद्रव्यना निमित्तथी थयेल पोताना विकारोथी कथंचित् भिन्न एकाकार एवो जे आत्मा तेना तत्त्वने अर्थात् असाधारण सजातीय विजातीय द्रव्योथी विलक्षण निजस्वरूपने पश्यती– देखे छे.’

भावार्थः– × × ×... तेमां अनंत धर्म क्या क्या छे? तेनो उत्तर कहे छे-जे

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अ. १. परि. प ] [ १६९ वस्तुमां सत्पणुं, वस्तुपणुं, प्रमेयपणुं, प्रदेशपणुं, चेतनपणुं, अचेतनपणुं, मूर्तिकपणुं अमूर्तिकपणुं इत्यादि धर्म तो गुण छे अने ते गुणोनुं त्रणे काळे समय समयवर्ति परिणमन थवुं ते पर्याय छे, ते अनंत छे. तथा एकपणुं, अनेकपणुं, नित्यपणुं, अनित्यपणुं, भेदपणुं, अभेदपणुं, शुद्धपणुं, अशुद्धपणुं आदि अनेक धर्म छे ते सामान्यरूपे तो वचनगोचर छे अने विशेषरूपे वचनना अविषय छे. एवा ते अनंत छे ते ज्ञानगम्य छे (-अर्थात् केवळज्ञानना विषय छे.)

[श्री रायचंद जैन शास्त्रमाळा मुंबईथी प्रकाशित समयसार पानुं-४]
सर्वज्ञ व्यवहारथी परने जाणे छे तेनो अर्थ

(१२) परमात्मप्रकाश शास्त्र गा. परनी सं. टीकामां (पानुं नं. पप) कह्युं छे के-“आ आत्मा व्यवहारनयथी केवळज्ञान द्वारा लोकालोकने जाणे छे अने शरीरमां रहेवा छतां पण निश्चयनयथी पोताना आत्मस्वरूपने जाणे छे, ए कारणे ज्ञाननी अपेक्षाए तो व्यवहारनयथी सर्वगत छे, प्रदेशोनी अपेक्षाए नहि, जेवी रीते रूपवान पदार्थोने नेत्र देखे छे, परंतु तेनांथी तन्मय थतां नथी. अहीं कोई प्रश्न करे छे के जो व्यवहारनयथी लोकालोकने जाणे छे अने निश्चयनयथी नहि तो सर्वज्ञपणुं व्यवहारनयथी थयुं निश्चयनयथी न थयुं? तेनुं समाधान करे छे-जेवी रीते पोताना आत्माने तन्मय थईने जाणे छे, तेवी ज रीते परद्रव्यने तन्मयपणे जाणतो नथी, भिन्न स्वरूपे जाणे छे, ते कारणे व्यवहारनयथी कह्युं, [न च परिज्ञानाभावात्] कांई परिज्ञानना अभावथी कह्युं नथी. (ज्ञानथी जाणपणुं तो निज अने परनुं समान छे). जेवी रीते निजने तन्मय थईने निश्चयथी जाणे छे, तेवी ज रीते जो परने पण तन्मय थईने जाणे तो परना सुख, दुःख, राग, द्वेषनुं ज्ञान थतां सुखी, दुःखी, रागी, द्वेषी थाय ए मोटुं दूषण प्राप्त थाय.”

(१३) आ रीते समयसारजी पानुं ४६६-६७, गाथा ३प६ थी ३६प नी सं. टीकामां श्री जयसेनाचार्ये पण कह्युं छे “... यदि व्यवहारेण परद्रव्यं जानाति तर्हि निश्चयेन सर्वज्ञो न भवतीति पूर्वपक्षे परिहारमाह यथा स्वकीय सुखादिकं तन्मयो भूत्वा जानाति तथा बहिर्द्रव्यं न जानाति तेन कारणेन व्यवहारः। यदि पुनः परकीय सुखादिकमात्मसुखादिवत्तन्मयो भूत्वा जानाति तर्हि यथा स्वकीय सवेदने सुखी भवति तथा परकीय सुख–दुःख संवेदनकाले सुखी दुःखी च प्राप्नोति न च तथा। व्यवहारस्तथापि छद्मस्थ जनापेक्षया सोऽपि निश्चय एवेति

केवळज्ञान नामनी पर्यायनो निश्चयस्वभाव
(१४) पंचास्तिकाय शास्त्रनी गाथा-४९ नी टीकामां श्री जयसेनाचार्ये कह्युं छे

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१७० ] [ मोक्षशास्त्र के- “तथा जीवे निश्चयनयेन क्रमकरण व्यवधानरहितं त्रैलोक्योदर विवरणवर्ति समस्त वस्तुगतानंतधर्मप्रकाशकमखंड प्रतिभासमयं केवलज्ञानं पूर्वमेव तिष्ठति तथा गाथा–२९ नी टीकामां पण कह्युं छे के “... अत्र स्वयं जातमिति वचनेन पूर्वोक्तमेव निरुपाधित्यं समर्थितं। तथा च स्वयमेव सर्वज्ञो जातः सर्वदर्शी च जातो निश्चयनयेनेति पूर्वोक्तमेव सर्वज्ञत्वं सर्वदर्शीत्वं च समर्थितमितितथा गाथा–१प४ नी टीकामां कह्युं छे के... समस्त वस्तुगतानंत धर्माणां युगपद्विशेष परिच्छित्ति समर्थ केवलज्ञानं

(प) परमात्म प्रकाश अ. २ गा. १०१ नी सं. टीकामां कह्युं छे के-“जगत्त्रय

कालत्रयवर्ति समस्त द्रव्यगुणपर्यायाणां क्रमकरण व्यवधानरहित्वेन परिच्छित्ति समर्थ विशुद्ध दर्शन ज्ञानं च”.

(६) समयसारजी शास्त्रमां आत्मद्रव्यनी ४७ शक्ति कही छे तेमां सर्वज्ञत्वशक्तिनुं स्वरूप एवुं कह्युं छे के, “विश्वविश्व विशेषभाव परिणतात्मज्ञानमयी सर्वज्ञशक्तिः।

अर्थः– समस्त विश्वना (छये द्रव्यना) विशेष भावोने जाणवा रूपे परिणमेल आत्मज्ञानमयी सर्वज्ञत्वशक्ति.”१०.

नोंधः– सर्वज्ञमात्र आत्मज्ञ ज छे एम कहेवुं योग्य नथी कारण के-संपूर्ण आत्मज्ञ थनार, परद्रव्योने पण सर्वथा, सर्व विशेष भावो सहित जाणे छे. विशेष माटे जुओ-आत्मधर्म मासिक वर्ष-९ अंक नं. ८ सर्वज्ञत्व शक्तिनुं वर्णन. कोई असत् कल्पनाथी सर्वज्ञनुं स्वरूप अन्यथा माने छे तेनुं तथा सर्वज्ञ वस्तुओना अनंत धर्मोने जाणता नथी एम माने छे तेमनुं उपरोक्त कथनना आधारे निराकरण थई जाय छे.

* * *

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मोक्षशास्त्र–गुजराती टीका
अध्याय बीजो

प्रथम अध्यायमां, सम्यग्दर्शनना विषयनो उपदेश आपतां शरूआतमां [अ. १ सू. ४ मां] जीवादिक तत्त्वो कह्यां, तेमांथी जीवतत्त्वना भावो, तेनुं लक्षण अने शरीर साथेना संबंधनुं आ बीजा अध्यायमां वर्णन छे; प्रथम जीवना स्वतत्त्व (निजभाव) बताववा सूत्र कहे छे.

जीवना असाधारण भावो
औपशमिकक्षायिकौ भावौ मिश्रश्च जीवस्य स्वतत्त्वमौदयिक–
पारिणामिकौ च।। १।।
अर्थः– [जीवस्य] जीवना [औपशमिकक्षायिकौ] औपशमिक अने क्षायिक

[भावौ] भाव [च मिश्र] अने मिश्र तथा [औदयिकपारिणामिकौ च] औदयिक अने पारिणामिक ए पांच भावो [स्व–तत्त्वम्] निजभाव छे अर्थात् जीव सिवाय बीजा कोईमां होता नथी.

टीका
(१) पांच भावोनी व्याख्या

१. औपशमिकभाव– आत्माना पुरुषार्थथी अशुद्धतानुं प्रगट न थवुं अर्थात् दबाई जवुं ते; आत्माना आ भावने उपशमभाव अथवा औपशमिकभाव कहे छे. आत्माना पुरुषार्थनुं निमित्त पामीने जड कर्मनुं प्रगटरूप फळ जडकर्ममां न आववुं ते कर्मनो उपशम छे. आ, जीवनो एक समय पूरतो पर्याय छे, ते समय-समय करीने अंतर्मुहूर्त रहे छे पण एक समये एक ज अवस्था होय छे.

र. क्षायिकभाव– आत्माना पुरुषार्थथी कोई गुणनी शुद्ध अवस्था प्रगटे ते क्षायिकभाव छे. आत्माना पुरुषार्थनुं निमित्त पामी कर्मआवरणनो नाश थवो ते कर्मनो क्षय छे. आ पण जीवनी एक समय पूरती अवस्था छे. समय समय करीने ते सादि अनंत रहे छे तो पण एक समये एक ज अवस्था होय छे. सादिअनंत अमूर्त अतीन्द्रियस्वभाववाळा केवळज्ञान-केवळदर्शन-केवळसुख-केवळवीर्ययुक्त फळरूप अनंत-


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१७२ ] [ मोक्षशास्त्र चतुष्टयनी साथे रहेली परम उत्कृष्ट क्षायिकभावनी शुद्ध परिणति ते कार्यशुद्धपर्याय छे तेने क्षायिकभाव पण कहेवाय छे.

३. क्षायोपशमिकभाव– आत्माना पुरुषार्थनुं निमित्त पामीने कर्मनो स्वयं अंशे क्षय अने स्वयं अंशे उपशम ते कर्मनो क्षयोपशम छे, अने क्षायोपशमिकभाव ते आत्मानो पर्याय छे. आ पण आत्मानी एक समय पूरती अवस्था छे, तेनी लायकात प्रमाणेना उत्कृष्ट काळ सुधी पण ते रहे छे परंतु समये समये बदलीने रहे छे.

४. औदयिकभाव– कर्मोदयना निमित्ते आत्मामां जे विकारभाव आत्मा करे छे ते औदयिकभाव छे. आ पण आत्मानी एक समय पूरती अवस्था छे.

प. पारिणामिकभाव– ‘पारिणामिक’ एटले सहज स्वभाव; उत्पाद-व्यय वगरनो ध्रुव एकरूप कायम रहेनार भाव ते पारिणामिकभाव छे. पारिणामिकभाव बधा जीवोने सामान्य होय छे. औदयिक, औपशमिक, क्षायोपशमिक अने क्षायिक ए चार भावो रहितनो जे भाव ते पारिणामिकभाव छे. ‘पारिणामिक’ कहेतां ज ‘परिणमे छे’ एवो ध्वनि आवे छे. परिणमे छे एटले के द्रव्य-गुणनुं नित्य वर्तमानरूप निरपेक्षपणुं छे, आवी द्रव्यनी पूर्णता छे. द्रव्य-गुण अने निरपेक्षपर्यायरूप वस्तुनी जे पूर्णता छे तेने पारिणामिकभाव कहे छे.

६. जेनो निरंतर सद्भाव रहे तेने पारिणामिकभाव कहे छे, सर्व भेद जेमां गर्भित छे एवो चैतन्यभाव ते ज जीवनो पारिणामिकभाव छे. मतिज्ञानादि तथा केवळज्ञानादि जे अवस्थाओ छे ते पारिणामिकभाव नथी.

मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मनःपर्ययज्ञान ए अवस्थाओ क्षायोपशमिकभाव छे, केवळज्ञान अवस्था क्षायिकभाव छे. केवळज्ञान प्रगट थया पहेलां ज्ञानना उघाडनो जेटलो अभाव छे ते औदयिकभाव छे. ज्ञान, दर्शन अने वीर्यगुणनी अवस्थामां औपशमिकभाव होतो ज नथी. मोहनो ज उपशम थाय छे, तेमां प्रथम मिथ्यात्वनो-(दर्शनमोहनो) उपशम थतां जे सम्यक्त्व प्रगटे छे ते श्रद्धागुणनो औपशमिकभाव छे.

(र) आ पांच भावो शुं बतावे छे?

आ पांच भावो नीचेनी बाबतो सिद्ध करे छेः- १. जीवनो अनादि अनंत शुद्ध चैतन्यस्वभाव छे एम पारिणामिकभाव साबित

करे छे.

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अ. २. सूत्र १ ] [ १७३ र. जीवनो अनादि अनंत शुद्ध चैतन्यस्वभाव होवा छतां तेनी अवस्थामां विकार छे

एम औदयिकभाव साबित करे छे.

३. जड कर्मनी साथे जीवने अनादिनो संबंध छे अने जीव तेने वश थाय छे तेथी

विकार थाय छे पण कर्मना कारणे विकारभाव थतो नथी एम पण औदयिकभाव
साबित करे छे.

४. जीव अनादिथी विकार करतो होवा छतां ते जड थई जतो नथी अने तेनां ज्ञान,

दर्शन अने वीर्यनो अंशे उघाड तो सदा रहे छे एम क्षायोपशमिकभाव साबित
करे छे.

प. आत्मानुं स्वरूप यथार्थपणे समजीने ज्यारे पोताना पारिणामिकभावनो जीव

आश्रय करे छे त्यारे औदयिकभाव टळवानी शरूआत थाय छे, अने प्रथम
श्रद्धागुणनो औदयिकभाव टळे छे एम औपशमिकभाव साबित करे छे.

६. साची समजण पछी जीव जेम जेम सत्य पुरुषार्थ वधारे छे तेम तेम मोह अंशे

टळतो जाय छे एम क्षायोपशमिकभाव साबित करे छे.

७. जीव जो प्रतिहतभावे पुरुषार्थमां आगळ वधे तो चारित्रमोह स्वयं दबाई जाय

छे [-उपशम पामे छे] एम औपशमिकभाव साबित करे छे.

८. अप्रतिहत पुरुषार्थ वडे पारिणामिकभावनो आश्रय वधतां विकारनो नाश थई

शके छे एम क्षायिकभाव साबित करे छे.

९. जोके कर्म साथेनो संबंध प्रवाहथी अनादिनो छे तोपण समये समये जूनां कर्म

जाय छे अने नवां कर्मनो संबंध थतो रहे छे ते अपेक्षाए तेमां शरूआतपणुं
रहेतुं होवाथी
[-सादी होवाथी] ते कर्म साथेनो संबंध सर्वथा टळी जाय छे
एम क्षायिकभाव साबित करे छे.

१०. कोई निमित्त विकार करावतुं नथी पण जीव पोते निमित्ताधीन थईने विकार

करे छे. जीव ज्यारे पारिणामिकभावरूप पोताना स्वभाव तरफनुं लक्ष करी
स्वाधीनपणुं प्रगट करे छे त्यारे निमित्ताधीनपणुं टळी शुद्धता प्रगटे छे-एम
औपशमिकभाव, साधकदशानो क्षायोपशमिकभाव अने क्षायिकभाव ए त्रणे
साबित करे छे.
(३) पांच भावो संबंधी केटलाक प्रश्नोत्तर

१. प्रश्नः– भावना वखते आ पांचमांथी कयो भाव ध्यान करवा योग्य छे अर्थात् ध्येय छे?


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१७४ ] [ मोक्षशास्त्र

उत्तरः– भावना वखते पारिणामिकभाव ध्यान करवा योग्य छे अर्थात् ध्येय छे. ध्येयभूत द्रव्यरूप जे शुद्धपारिणामिकभाव छे ते त्रिकाळ रहे छे तेथी ते ध्यान करवा योग्य छे.

र. प्रश्नः– पारिणामिकभावना आश्रये जे ध्यान थाय छे ते ध्यान भावना समये ध्येय केम नथी?

उत्तरः– ते ध्यान पोते पर्याय छे तेथी विनश्वर छे, पर्यायना लक्षे शुद्ध अवस्था प्रगटे नहि, माटे ते ध्येय नथी.

[हिंदी समयसार टीका. जयसेनाचार्यनी टीकानो अनुवाद, पानुं ३३०-३३१]

३. प्रश्नः– शुद्ध अने अशुद्ध भेदे पारिणामिकभाव बे प्रकारना नथी पण पारिणामिकभाव शुद्ध ज छे एम कहेवुं ते बराबर छे?

उत्तरः– ना, ते बराबर नथी, जो के सामान्यरूपे (-द्रव्यार्थिकनये अगर उत्सर्ग कथनथी) पारिणामिकभाव शुद्ध छे तोपण विशेषरूपे (पर्यायार्थिकनये अगर अपवाद कथनथी) अशुद्धपारिणामिकभाव पण छे. आ कारणे जीवभव्याभव्यत्वानि च एवा आ अध्यायना सातमा सूत्रथी पारिणामिकभावने जीवत्व, भव्यत्व अने अभव्यत्व एवा त्रण प्रकारनो कह्यो छे, तेमांथी शुद्ध चैतन्यरूप जे जीवत्व छे ते अविनाशी शुद्ध द्रव्याश्रित छे, तेथी तेने शुद्धद्रव्याश्रित नामनो शुद्धपारिणामिकभाव जाणवो; अने (दश प्रकारना द्रव्यप्राणोथी ओळखातुं जे जीवत्वस्वरूप छे ते) जीवत्व, भव्यत्व तथा अभव्यत्व ए त्रण प्रकारो पर्यायाश्रित छे ते कारणे तेने पर्यायार्थिक नामना अशुद्ध पारिणामिकभावो जाणवा.

४. प्रश्नः– ए त्रण भावोनी अशुद्धता कई अपेक्षाए छे? उत्तरः– ए अशुद्धपारिणामिकभाव व्यवहारथी सांसारिक जीवोमां छे तोपण ‘सव्वे सुद्धा हु सुद्धणया’ अर्थात् सर्वे जीवो शुद्धनये शुद्ध छे, तेथी ए त्रण भावो शुद्ध निश्चयनयनी अपेक्षाए कोई जीवने नथी (मुक्त जीवोने तो ते सर्वथा ज नथी). संसारी जीवोमां पर्यायअपेक्षाए अशुद्धत्व छे.

प. प्रश्नः– आ शुद्ध अने अशुद्ध पारिणामिकभावोमांथी क्यो भाव ध्यान समये ध्येयरूप छे?

उत्तरः– जे द्रव्यरूप शुद्ध पारिणामिकभाव छे ते अविनाशी छे तेथी ते ध्येयरूप छे, अर्थात् ते त्रिकाळी शुद्धपारिणामिकभावना लक्षे शुद्ध अवस्था प्रगटे छे.

[बृहत्-द्रव्यसंग्रह पा. ३४-३प]

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अ. २. सूत्र १ ] [ १७प

(४) औपशमिकभाव क्यारे थाय?

अध्याय-१ सूत्र-३२मां जणाव्युं के जीवने ‘सत् अने असत्’नी समजण रहितनी जे दशा छे ते ‘उन्मत्त’ जेवी छे. पोतानी आवी दशा अनादिनी छे एम पहेला अध्यायना सूत्र-४ मां कहेलां तत्त्वोनो रागमिश्रित विचार करतां जीवने ख्याल आवे छे; वळी तेने एवो पण ख्याल आवे छे के जीवने पुद्गलकर्म तथा शरीर साथे प्रवाहरूपे अनादिथी संबंध छे, अर्थात् जीव पोते तेने ते ज छे पण कर्म अने शरीर जूनां जाय छे अने नवां आवे छे; तथा आ संयोगसंबंध अनादिथी चाल्यो आवे छे. अ. १. सूत्र ३२मां जणावेली अज्ञानदशा होय त्यारे आ संयोगसंबंधने जीव एकरूपे (तादात्म्य संबंधपणे) माने छे अने ए रीते अज्ञानपणे जीव शरीरने पोतानुं मानतो होवाथी, शरीर साथे मात्र निमित्त-नैमित्तिक संबंध होवा छतां पण, तेनी साथे कर्ताकर्म संबंध माने छे; आ कारणे ‘हुं शरीरनां कार्य करी शकुं’ एम ते मानतो आवे छे. तत्त्वनो विचार करतां करतां जीवने मालूम पडे छे के हुं जीवतत्त्व छुं अने शरीर तथा जड कर्मो माराथी तद्न जुदां अजीवतत्त्व छे, हुं ते अजीवमां नथी अने ते अजीव मारामां नथी तेथी हुं ते अजीवनुं कांई करी शकुं नहि, मारा ज भाव हुं करी शकुं, तथा अजीव तेमना भाव करी शके पण ते मारा कोई भाव करी शके नहि. आ प्रमाणे जिज्ञासु आत्माओ प्रथम रागमिश्रित विचार द्वारा जीव-अजीव तत्त्वोनुं स्वरूप जाणीने, पोतामां जे कांई विकार थाय छे ते पोताना ज दोषना कारणे छे-एम नक्की करे छे; आटलुं जाणतां अविकारी भाव शुं छे तेनो पण तेने ख्याल आवे छे; आ रीते विकारभाव (पुण्य, पाप, आस्रव, बंध) नुं तथा अविकारभाव (संवर, निर्जरा, मोक्ष) नुं स्वरूप ते जिज्ञासु आत्मा नक्की करे छे. प्रथम रागमिश्रित विचार द्वारा आ तत्त्वोनुं ज्ञान करीने पछी ज्यारे ते भेदो तरफनुं लक्ष टाळीने जीव पोताना त्रिकाळी पारिणामिकभावनो-ज्ञायकभावनो यथार्थ आश्रय करे छे त्यारे तेने श्रद्धागुणनो औपशमिकभाव प्रगटे छे. श्रद्धागुणना औपशमिकभावने औपशमिक सम्यग्दर्शन कहेवामां आवे छे. आ सम्यग्दर्शन प्रगटतां जीवने धर्मनी शरूआत थाय छे; त्यारे जीवनी अनादिथी चाली आवती श्रद्धागुणनी मिथ्यादशा टळीने सम्यक्दशा प्रगट थाय छे.

(प) औपशमिकभावनुं माहात्म्य

आ औपशमिकभाव अर्थात् सम्यग्दर्शननुं एवुं माहात्म्य छे के जे जीव पुरुषार्थ वडे तेने एक वखत प्रगट करे ते जीवने पोतानी पूर्ण पवित्र दशा (क्षायिकभाव) प्रगट थया वगर रहे ज नहि. प्रथम औपशमिकभाव प्रगटतां अ. १. सूत्र-३२ मां


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१७६ ] [ मोक्षशास्त्र कहेली ‘उन्मत्तदशा’ टळे छे अर्थात् जीवनी मिथ्याज्ञानदशा टळीने ते सम्यक्मति- श्रुतज्ञानरूप थई जाय छे, अने जो ते जीवने पूर्वे मिथ्या अवधिज्ञान होय तो ते पण टळी जईने सम्यक्अवधिज्ञानरूप थई जाय छे; आ औपशमिकभाव ते ‘संवर’ छे.

सम्यग्दर्शननुं माहात्मय बताववा माटे आचार्य भगवाने आ शास्त्रनी शरूआत करतां ज पहेला अध्यायना पहेला सूत्रमां पहेलो ज शब्द ‘सम्यग्दर्शन’ वापर्यो छे, अने प्रथम सम्यग्दर्शन औपशमिक भावे ज थतुं होवाथी औपशमिकभावनुं माहात्म्य बताववा माटे अहीं पण आ बीजो अध्याय शरू करतां ते भाव पहेला सूत्रमां पहेला ज शब्दमां बताव्यो छे.

(६) पांच भावो संबंधी केटलुंक स्पष्टीकरण

१. प्रश्नः– दरेक जीवमां पारिणामिकभाव अनादिनो छे, छतां तेने औपशमिकभाव अर्थात् सम्यग्दर्शन केम प्रगटयुं नथी?

उत्तरः– जीवने अनादिथी पोताना स्वरूपनुं भान नथी अने तेथी पोते पारिणामिकभावस्वरूप छे एम ते जाणतो नथी, अने ‘शरीर मारुं अने शरीरने अनुकूळ जणाती परवस्तुओ मने लाभकारी छे. तथा शरीरने प्रतिकूळ जणाती परवस्तुओ मने नुकसानकारी छे’ एम अज्ञानदशामां मान्या करे छे तेथी तेनुं वलण परवस्तुओ, शरीर अने विकारीभावो तरफ रह्या ज करे छे; अहीं, जे कोईथी उत्पन्न करवामां आव्यो नथी अने क्यारेय कोईथी जेनो विनाश नथी एवा पारिणामिकभावनुं ज्ञान करावीने, पोताना गुण-पर्यायरूप भेदोने अने पर वस्तुओने गौण करीने आचार्यभगवान ते उपरनुं लक्ष छोडावे छे; भेदद्रष्टिमां निर्विकल्पदशा थती नथी माटे अभेदद्रष्टि करावी छे के जेथी निर्विकल्पदशा प्रगटे, औपशमिकभाव पण एक प्रकारनी निर्विकल्पदशा छे.

र. प्रश्नः– आ सूत्रमां कहेला पांच भावोमांथी क्यां भाव तरफना वलण वडे धर्मनी शरूआत अने पूर्णता थाय?

उत्तरः– पारिणामिकभाव सिवायना चारे भावो क्षणिक छे, एक समय पूरता छे, वळी तेमां पण क्षायिकभाव तो वर्तमान छे नहि, औपशमिकभाव पण होय तो थोडो वखत टके छे, अने औदयिक-क्षायोपशमिकभावो पण समये समये पलटे छे माटे ते भावो उपर लक्ष करे तो त्यां एकाग्रता थई शके नहि अने धर्म प्रगटे नहि. त्रिकाळ स्वभावी पारिणामिकभावनुं माहात्म्य जाणीने ते तरफ जीव पोतानुं वलण करे तो धर्मनी शरूआत थाय छे अने ते भावनी एकाग्रताना जोरे ज धर्मनी पूर्णता थाय छे.

३. प्रश्नः– पंचास्तिकायमां कह्युं छे के-

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अ. २. सूत्र १ ] [ १७७

मोक्षं कुर्वन्ति मिश्रौपशमिकक्षायिकाभिधाः।
बंधमौदयिका भावा निःक्रियाः पारिणामिकाः।।
[गाथा-प६ जयसेनाचार्यकृत टीका]

अर्थः– मिश्र, औपशमिक अने क्षायिक ए त्रण भावो मोक्ष करे छे, औदयिकभाव बंध करे छे अने पारिणामिकभाव बंध-मोक्षनी क्रिया रहित छे.

प्रश्नः– उपरना कथननो शुं आशय छे? उत्तरः– ए श्लोकमां कयो भाव उपादेय अर्थात् आश्रय करवा योग्य छे ए कह्युं नथी, परंतु एमां तो मोक्ष के जे कर्मना अभावरूप निमित्तनी अपेक्षा राखे छे ते भाव ज्यारे प्रगटे त्यारे जीवनो केवो भाव होय ते बताव्युं छे अर्थात् मोक्ष के जे सापेक्षपर्याय छे तेनुं अने ते प्रगटती वखते तथा ते पहेलां सापेक्षपर्याय केवी होय तेनुं स्वरूप बताव्युं छे. आ श्लोक एम बतावे छे के क्षायिकभाव मोक्षने करे छे एटले के ते भावनुं निमित्त पामीने आत्मप्रदेशेथी द्रव्यकर्मनो स्वयं अभाव थाय छे. मोक्ष तो आ अपेक्षाए क्षायिक पर्याय छे, अने क्षायिक भाव तो जड कर्मनो अभाव सूचवे छे. क्षायिकभाव थया पहेलां मोहना औपशमिक तथा क्षायोपशमिक भावो होवा ज जोईए अने त्यार पछी ज क्षायिकभाव प्रगटे छे तथा क्षायिकभाव प्रगटे त्यारे ज जड कर्मोनो स्वयं अभाव थाय छे-आवो निमित्त-नैमित्तिक संबंध बताववा माटे ‘ए त्रणे भावो मोक्ष करे छे’ एम कह्युं छे. आ श्लोकमां कया भावने आश्रये धर्म प्रगटे छे ए कांई प्रतिपादन कर्युं नथी. ए ख्यालमां राखवुं के पहेला चारे भावो स्वअपेक्षाए पारिणामिकभावो छे.

(जुओ, जयधवल पुस्तक १, पानुं ३१९, धवल भाग-प, पानुं-१९७)

४. प्रश्नः– उपरना श्लोकमां कह्युं छे के-औदयिकभाव बंधनुं कारण छे. जो एम स्वीकारीए तो गति, जाति आदि नामकर्म संबंधी औदयिकभावो पण बंधनां कारण थाय?

उत्तरः– श्लोकमां कहेल ‘औदयिकभाव’मां सर्व औदयिकभावो बंधनुं कारण छे एम न समजवुं, पण मात्र मिथ्यात्व, असंयम, कषाय अने योग ए चार भावो बंधनुं कारण छे एम समजवुं. (श्री धवला पुस्तक-७ पा. ९-१०)

प. प्रश्नः– औदयिका भावाः बंधकारणम्’ एम कह्युं छे तेनो अर्थ शुं छे?

उत्तरः– तेनो अर्थ एटलो ज छे के जो जीव मोहना उदयमां जोडाय तो बंध थाय. द्रव्यमोहनो उदय होवा छतां जो जीव शुद्धात्म भावनाना बळ वडे


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१७८ ] [ मोक्षशास्त्र भावमोहरूपे न परिणमे तो बंध थतो नथी. जो जीवने कर्मना उदयना कारणे बंध थतो होय तो संसारीने सर्वदा कर्मनो उदय विद्यमान छे तेथी सर्वदा बंध थाय, कदी मोक्ष थाय ज नहि, माटे एम समजवुं के कर्मनो उदय बंधनुं कारण नथी, पण जीवनुं भावमोहरूपे परिणमन ते बंधनुं कारण छे.

(हिंदी प्रवचनसार पा. प८-प९ जयसेनाचार्यकृत टीका)

६. प्रश्नः– पारिणामिकभावने पर्यायरूपे कोई गुणस्थाने वर्णवेल छे? उत्तरः– हा, बीजुं गुणस्थान दर्शनमोहनीयकर्मनी उदय, उपशम, क्षयोपशम के क्षय-ए चार अवस्थाओमांथी कोई पण अवस्थानी अपेक्षा राखतुं नथी एटलुं बताववा त्यां श्रद्धा अपेक्षाए पारिणामिक भाव कहेवामां आवे छे. आ जीव चारित्रमोह साथे जोडाय छे ते तो औदयिक भाव छे, ते जीवने ज्ञान-दर्शन अने वीर्यनो क्षायोपशमिकभाव छे अने सर्व जीवोने (द्रव्यार्थिकनये) अनादि अनंत पारिणामिक भाव होय छे ते आ गुणस्थाने वर्तता जीवने पण होय छे.

७. प्रश्नः– सम्यग्द्रष्टि जीवो विकारी भावोने-अपूर्णदशाने आत्मानुं स्वरूप मानता नथी अने आ सूत्रमां तेवा भावोने आत्मानुं स्वतत्त्व कह्युं तेनुं शुं कारण?

उत्तरः– विकारी भाव अने अपूर्ण अवस्था आत्मानी वर्तमान भूमिकामां आत्माना पोताना दोषना कारणे थाय छे, पण कोई जड कर्मना कारणे के परद्रव्यना कारणे थती नथी एम बताववा माटे आ सूत्रमां ते भावने ‘स्वतत्त्व’ कहेल छे.

(७) जीवनुं कर्तव्य

जीवे तत्त्वादिकनो निश्चय करवानो उद्यम करवो, तेनाथी औपशमिकादि सम्यक्त्व स्वयं थाय छे. द्रव्यकर्मना उपशमादिक ते तो पुद्गलनी शक्ति (पर्याय) छे; जीव तेनो कर्ता-हर्ता नथी. पुरुषार्थ पूर्वक उद्यम करवानुं काम जीवनुं छे; जीवे पोते तत्त्वनिर्णय करवामां उपयोग लगाववो जोईए. ए पुरुषार्थथी मोक्षना उपायनी सिद्धि आपोआप थाय छे. जीव पुरुषार्थ वडे ज्यारे तत्त्वनिर्णय करवामां उपयोग लगाववानो अभ्यास राखे छे त्यारे तेने विशुद्धता वधे छे, कर्मोनो रस स्वयं हीन थाय छे अने केटलाक काळे ज्यारे पोताना पुरुषार्थ वडे जीवमां प्रथम औपशमिकभावे प्रतीति प्रगटे छे त्यारे दर्शनमोहनो आपोआप उपशम थाय छे. जीवनुं कर्तव्य तो तत्त्वना निर्णयनो अभ्यास छे; जीव ज्यारे तत्त्वनिर्णयमां उपयोग लगावे त्यारे दर्शनमोहनो उपशम स्वयं ज थाय छे, कर्मना उपशममां जीवनुं कांई ज कर्तव्य नथी.

(८) पांच भावो संबंधी वधारे खुलासो
केटलाक लोको आत्माने सर्वथा (एकांत) चैतन्यमात्र माने छे अर्थात् सर्वथा

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अ. २. सूत्र १ ] [ १७९ शुद्ध माने छे, वर्तमान अवस्थामां अशुद्धता होवा छतां तेने स्वीकारता नथी; वळी कोई सर्वथा आनंदमात्र आत्मानुं स्वरूप माने छे, वर्तमान अवस्थामां दुःख होवा छतां तेने स्वीकारता नथी; तेमनी ते मान्यता अने तेना जेवी बीजी मान्यताओ बराबर नथी एम आ सूत्र सिद्ध करे छे. जो आत्मा सर्वथा शुद्ध ज होय तो संसार, बंध, मोक्ष, मोक्षनो उपाय ए सर्व मिथ्या ठरे. आत्मानुं त्रिकाळी स्वरूप अने वर्तमान अवस्थानुं स्वरूप (अर्थात् द्रव्ये अने पर्याये आत्मानुं स्वरूप) केवुं होय ते यथार्थपणे आ पांच भावो बतावे छे. जो आ पांच भावोमांथी एकपण भावनुं अस्तित्व न स्वीकारवामां आवे तो आत्माना शुद्ध-अशुद्ध स्वरूपनुं सत्य कथन थतुं नथी, अने तेथी ज्ञानमां दोष आवे छे. आ सूत्र ज्ञाननो दोष टाळीने, आत्मानुं त्रिकाळी स्वरूप अने. निगोदथी सिद्ध सुधीनी तेनी तमाम अवस्थाओ बहु ज अल्प शब्दोमां चमत्कारिक रीते दर्शावे छे, ते पांच भावोमां चौद गुणस्थानो तथा सिद्धदशा पण आवी जाय छे.

आ शास्त्रमां अनादिथी चाल्यो आवतो औदयिकभाव पहेलो लीधो नथी पण औपशमिकभाव पहेलो लीधो छे ते एम सूचवे छे के आ शास्त्रमां स्वरूप समजाववा माटे भेदो बताववामां आव्या छे तो पण भेदना आश्रये एटले के औदयिक; औपशमिक, क्षायोपशमिक के क्षायिक-ए भावोना लक्षे विकल्प चालु रहे छे अर्थात् अनादिथी चाल्यो आवतो औदयिकभाव ज चालु रहे छे, माटे ते भावो तरफनुं लक्ष छोडीने ध्रुवरूप पारिणामिकभाव तरफ लक्ष करी एकाग्र थवुं; तेम करतां प्रथम औपशमिकभाव प्रगटे छे अने क्रमे क्रमे शुद्धता वधतां क्षायिकभावनी पूर्णता थाय छे.

(९) आ सूत्रमां रहेली नय–प्रमाण विवक्षा

(१) वर्तमान पर्याय अने (र) ते बाद करतां जे द्रव्य सामान्य तथा तेना गुणोनुं साद्रश्यपणे त्रिकाळ ध्रुवरूपे टकी रहेवुं-आवां बे पडखां दरेक द्रव्यमां छे. आत्मा पण एक द्रव्य छे तेथी तेमां पण एवां बे पडखां छे, ते बे पडखांथी वर्तमान पर्यायनो विषय करनार पर्यायार्थिकनय छे. आ सूत्रमां कहेला पांच भावोमांथी औपशमिक, क्षायिक, क्षायोपशमिक अने औदयिक ए चार भावो पर्यायरूप-वर्तमान हालत पूरता-छे तेथी ते पर्यायार्थिकनयनो विषय छे; ते वर्तमान पर्यायने बाद करतां द्रव्यसामान्य तथा तेना अनंतगुणोनुं साद्रश्यपणे त्रिकाळ ध्रुवरूप टकी रहेवुं छे तेने पारिणामिकभाव कहे छे, ते भावने कारणपरमात्मा, कारण समयसार के ज्ञायकभाव पण कहेवामां आवे छे; ते त्रिकाळ साद्रश्यरूप होवाथी द्रव्यार्थिकनयनो विषय छे. आ बन्ने पडखां (पर्यायार्थिकनयनो विषय अने द्रव्यार्थिकनयनो विषय ते बन्ने) थईने


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१८० ] [ मोक्षशास्त्र आखुं जीवद्रव्य छे, तेथी ते बन्ने पडखां प्रमाणनो विषय छे.

आ बन्ने पडखांनुं नय अने प्रमाण द्वारा यथार्थ ज्ञान करीने जे जीव पोताना वर्तमान पर्यायने त्रिकाळी पारिणामिकभाव तरफ वाळे छे तेने सम्यग्दर्शन थाय छे, अने ते क्रमे क्रमे आगळ वधीने मोक्षदशारूप क्षायिकभाव प्रगट करे छे. ।। ।।

भावोना भेदो

द्विनवाष्टादशैकविंशतित्रिभेदाः यथाक्रमम्।। २।।

अर्थः– उपर कहेला पांच भावो [यथाक्रमम्] अनुक्रमथी [द्वि नव अष्टादश

एकविंशति त्रिभेदाः] बे, नव, अढार, एकवीश अने त्रण भेदवाळा छे.

ते भेदोनुं वर्णन आगळना सूत्रो द्वारा करे छे. ।। ।।
औपशमिकभावना बे भेदो
सम्यक्त्वचारित्रे ।। ३।।
अर्थः–[सम्यक्त्व] औपशमिक सम्यक्त्व अने [चारित्रे] औपशमिक चारित्र

एम औपशमिकभावना बे भेदो छे.

टीका

औपशमिक सम्यक्त्व– जीवने पोताना सत्य पुरुषार्थथी ज्यारे औपशमिक सम्यक्त्व प्रगटे छे त्यारे जड कर्मो साथे निमित्त-नैमित्तिक संबंध एवो होय छे के मिथ्यात्व कर्मनो अने अनंतानुबंधी क्रोध-मान-माया-लोभ कर्मनो स्वयं उपशम थाय छे. अनादि मिथ्याद्रष्टि जीवोने तथा कोई सादिमिथ्याद्रष्टिने मिथ्यात्वनी एक अने अनंतानुबंधीनी चार एम कुल पांच प्रकृति उपशमरूप थाय छे अने बाकीना सादिमिथ्याद्रष्टिने मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व अने सम्यक्त्व प्रकृति ए त्रण तथा अनंतानुबंधीनी चार एम कुल सात प्रकृतिनो उपशम थाय छे. जीवना आ भावने औपशमिक सम्यक्त्व कहेवाय छे.

औपशमिक चारित्र– जीव जे चारित्रभाव वडे उपशमश्रेणीने लायक भाव प्रगट करे तेने औपशमिक चारित्र कहे छे; ते वखते मोहनीय कर्मनी अप्रत्याख्यानावरणादि २१ प्रकृतिओनो स्वयं उपशम थाय छे.

प्रश्नः– जड कर्मप्रकृतिनुं नाम ‘सम्यक्त्व’ केम छे?

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अ. २. सूत्र ४ ] [ १८१

उत्तरः– सम्यग्दर्शननी साथे-सहचरित उदय होवाना कारणे उपचारथी कर्मप्रकृतिने ‘सम्यक्त्व’ नाम आपवामां आवे छे. ।। ।।

(श्री धवला पुस्तक ६ पानुं-३९)
क्षायिकभावना नव भेदो

ज्ञानदर्शनदानलाभभोगोपभोगवीर्याणि च।। ४।।

अर्थः– [ज्ञान दर्शन दान लाभ भोग उपभोग वीर्याणि] केवळज्ञान, केवळदर्शन,

क्षायिकदान, क्षायिकलाभ, क्षायिकभोग, क्षायिकउपभोग, क्षायिकवीर्य तथा [च] ‘च’ कहेतां क्षायिकसम्यक्त्व अने क्षायिकचारित्र-एम क्षायिकभावना नव भेद छे.

टीका

जीव ज्यारे आ भाव प्रगट करे छे त्यारे द्रव्यकर्मो स्वयं-पोतानी मेळे आत्मप्रदेशेथी अत्यंत वियोगपणे छूटा पडे छे अर्थात् कर्मो क्षय पामे छे तेथी आ भावने ‘क्षायिकभाव’ कहेवामां आवे छे.

केवळज्ञानः– संपूर्ण ज्ञाननुं प्रगटवुं ते केवळज्ञान छे, त्यारे ज्ञानावरणीय कर्मनी अवस्था क्षयपणे स्वयं होय छे.

केवळदर्शनः– संपूर्ण दर्शननुं प्रगटवुं ते केवळदर्शन छे, त्यारे दर्शनावरणी कर्मनो उपर प्रमाणे क्षय होय छे.

क्षायिकदानादि पांच भावोः– संपूर्णपणे पोताना गुणनुं पोताने माटे दानादि पांच भावोरूपे प्रगटवुं थाय छे, त्यारे दानांतराय वगेरे पांच प्रकारनां अंतराय कर्मनो उपर प्रमाणे क्षय होय छे.

क्षायिकसम्यक्त्वः– पोताना असली स्वरूपनी पाकी प्रतीतिरूप पर्याय ते क्षायिक सम्यक्त्व छे, ते प्रगटे त्यारे मिथ्यात्वनी त्रण अने अनंतानुबंधीनी चार एम कुल सात कर्मप्रकृतिओनो उपर प्रमाणे क्षय होय छे.

क्षायिकचारित्रः– पोताना स्वरूपनुं पूर्ण चारित्र प्रगटवुं ते क्षायिकचारित्र छे, त्यारे मोहनीय कर्मनी बाकीनी २१ प्रकृतिओनो क्षय होय छे. आ प्रमाणे कर्मनो स्वयं क्षय थाय त्यारे ‘जीवे कर्मनो क्षय कर्यो’ एम मात्र उपचारथी कहेवामां आवे छे. परमार्थथी तो जीवे पोतानी अवस्थामां पुरुषार्थ कर्यो छे, जडमां पुरुषार्थ कर्यो नथी.

आ नव क्षायिकभावने नव लब्धि पण कहेवामां आवे छे.

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१८२ ] [ मोक्षशास्त्र

क्षायिकदान– पोताना शुद्ध स्वरूपनुं पोताने दान ते उपादान छे अने अनंत जीवोने निमित्तपणे थाय ते क्षायिक अभयदान छे.

क्षायिकलाभ– पोताना शुद्ध स्वरूपनो पोताने लाभ ते उपादान छे अने निमित्तपणे शरीरना बळने टकाववाना कारणरूप, अन्य मनुष्यने न होय तेवा अत्यंत शुभ सूक्ष्म नोकर्मरूपे परिणमता अनंत पुद्गल परमाणुओनो समये समये संबंध होवो ते.

क्षायिक भोग– पोताना शुद्ध स्वरूपनो भोग ते क्षायिक भोग छे अने निमित्तपणे पुष्पवृष्टि आदिक विशेषोनुं प्रगट थवुं ते.

क्षायिक उपभोग– पोताना शुद्ध स्वरूपनो समये समये भोगवटो थवो ते क्षायिक उपभोग छे, अने निमित्तपणे सिंहासन, चामर, त्रण छत्र आदि विभूतिनुं होवुं ते.

क्षायिक वीर्य– पोताना शुद्ध स्वरूपमां उत्कृष्ट सामर्थ्यपणे प्रवृत्ति ते क्षायिक वीर्य छे. ।। ।।

क्षायोपशमिकभावना अढार भेदो
ज्ञानाज्ञानदर्शनलब्धयश्चतुस्त्रित्रिपंचभेदाः सम्यक्त्वचारित्र
संयमासंयमाश्च।। ५।।
अर्थः– [ज्ञान अज्ञान] मति, श्रुत, अवधि, मनःपर्यय ए चार ज्ञान, कुमति.

कुश्रुत, कुअवधि ए त्रण अज्ञान, [दर्शन] चक्षु, अचक्षु, अवधि ए त्रण दर्शन, [लब्धयः] क्षायोपशमिकदान-लाभ-भोग-उपभोग-वीर्य ए पांच लब्धि, [चतुः त्रि त्रि पंचभेदाः] एम चार + त्रण + त्रण अने पांच भेदो (तेम ज) [सम्यक्त्व] क्षायोपशमिक सम्यक्त्व, [चारित्र] क्षायोपशमिक चारित्र [च] अने [संयमासंयमाः] संयमासंयम क्षायोपशमिकभावना अढार भेद छे.

टीका

क्षायोपशमिक सम्यक्त्व– मिथ्यात्वनी तथा अनंतानुबंधीनी कर्मप्रकृतिओना उदयाभावी क्षय तथा उपशमनी अपेक्षाए क्षायोपशमिक सम्यक्त्व कहेवाय छे; अने सम्यक्त्वप्रकृतिनो उदय छे ते अपेक्षाए तेने ज वेदसम्यक्त्व कहेवामां आवे छे.

क्षायोपशमिक चारित्र– सम्यग्दर्शनपूर्वकना चारित्र वखते जे राग छे तेनी अपेक्षाए ते सरागचारित्र कहेवाय छे पण तेमां जे राग छे ते चारित्र नथी, जेटलो


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अ. २. सूत्र ६ ] [ १८३ वीतरागभाव छे तेटलुं ज चारित्र छे, आ चारित्रने क्षायोपशमिक चारित्र कहेवाय छे.

संयमासंयम– आ भावने देशविरत अथवा विरताविरत चारित्र पण कहेवामां आवे छे.

मतिज्ञान– वगेरेनुं स्वरूप पहेला अध्यायमां कहेवाई गयुं छे त्यांथी जोई लेवुं. [जुओ, पानुं ४० तथा ८६]

दान–लाभ– वगेरे लब्धिनुं स्वरूप उपरना सूत्रमां कह्युं छे, त्यां क्षायिकभावे ते लब्धि हती, अहीं ते लब्धि क्षायोपशमिकभावे छे-एम समजवुं. ।। ।।

औदयिकभावना एकवीस भेदो
गतिकषायलिंगमिथ्यादर्शनाज्ञानासंयतासिद्धलेश्या–
श्चतुश्चतुस्क्र्येकैकैकैकषड्भेदाः।। ६।।
अर्थः– [गति] तिर्यंच, नरक, मनुष्य अने देव ए चार गति, [कषाय]

क्रोध, मान, माया, लोभ ए चार कषाय, [लिंग] स्त्रीवेद, पुरुषवेद अने नपुंसकवेद ए त्रण लिंग, [मिथ्यादर्शन] मिथ्यादर्शन, [अज्ञान] अज्ञान, [असंयत] असंयम, [असिद्ध] असिद्धत्व तथा [लेश्याः] कृष्ण, नील, कापोत, पीत, पद्म अने शुक्ल ए छ लेश्या-एम [चतुः चतुः त्रि एक एक एक एक षड्भेदाः] चार + चार + त्रण + एक + एक + एक + एक अने छ-ए बधा मळीने औदयिकभावना एकवीश भेदो छे.

टीका

प्रश्नः– गति तो अघातिकर्मना उदयथी थाय छे, जीवना अनुजीवी गुणना घातनुं ते निमित्त नथी छतां तेने औदयिकभावमां केम गणी छे?

उत्तरः– जीवने जे प्रकारनी गतिनो संयोग थाय छे तेमां ते ममत्वपणुं करे छे, जेम के- ‘हुं मनुष्य, हुं ढोर, हुं देव, हुं नारकी’ एम ते माने छे. आ रीते ज्यां मोहभाव होय त्यां वर्तमान गतिमां जीव पोतापणानी कल्पना करे छे तेथी आ अपेक्षाए गतिने औदयिकभावमां गणेल छे.

लेश्याः– कषायथी अनुरंजित योगने लेश्या कहेवामां आवे छे. लेश्या बे प्रकारनी छे-द्रव्यलेश्या तथा भावलेश्या, अहीं भावलेश्यानो विषय छे. भावलेश्या छ प्रकारनी छे. ‘लेश्या वखते आत्मामां ते ते प्रकारनो रंग थाय छे’ एम न समजवुं. पण जीवना विकारी कार्यो भावअपेक्षाए छ प्रकारना थाय छे, ते भावमां विकारनी तारतम्यता बताववा माटे ए छ प्रकारो कह्या छे. लोकमां कोई माणस खराब काम करे तो ‘काळुं


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१८४ ] [ मोक्षशास्त्र कार्य कर्यु’ एम कहेवाय छे, त्यां तेना कार्यनो काळो रंग नथी पण ते कार्यमां तेनो तीव्र माठो भाव होवाथी तेने ‘काळुं’ कहेवामां आवे छे, अने ए भावअपेक्षाए तेने कृष्णलेश्या कहेवामां आवे छे. जेम जेम विकारनी तीव्रतामां ओछापणुं होय छे तेम तेम ते भावने ‘नील लेश्या’ वगेरे नाम आपवामां आवे छे. शुक्ललेश्या ए पण शुभ औदयिकभावमां होय छे, शुक्ललेश्या ए कांई धर्म नथी. ते लेश्या तो मिथ्याद्रष्टिओने पण थाय छे. पुण्यनी तारतम्यतामां ऊंचो पुण्यभाव होय त्यारे शुक्ललेश्या होय छे, ते औदयिकभाव छे अने तेथी ते संसारनुं कारण छे, धर्मनुं कारण नथी.

प्रश्नः– भगवानने तेरमा गुणस्थाने कषाय नथी छतां तेमने शुक्ललेश्या केम कही छे?

उत्तरः– भगवानने शुक्ललेश्या उपचारथी कही छे. पूर्वे योग साथे लेश्यानुं सहकारीपणुं हतुं ते योग तेरमा गुणस्थाने विद्यमान होवाथी उपचारथी त्यां लेश्या पण कही छे. लेश्यानुं कार्य कर्मबंध छे, भगवानने कषाय नथी तोपण योग होवाथी एक समयनो बंध छे ते अपेक्षा लक्षमां राखी उपचारथी शुक्ललेश्या कही छे.

अज्ञानः– ज्ञाननो अभाव ते अज्ञान-ए अर्थमां अहीं अज्ञान लीधुं छे, कुज्ञानने अहीं लीधुं नथी, कुज्ञानने तो क्षायोपशमिकभावमां लीधुं छे. ।। ।।

पारिणामिकभावना त्रण भेदो
जीवभव्याभव्यत्वानि च।। ७।।
अर्थः– [जीव भव्य अभव्यत्वानि च] जीवत्व, भव्यत्व, अभव्यत्व एम

पारिणामिकभावना त्रण भेदो छे.

टीका
(१) सूत्रमां छेडे ‘’ शब्दथी अस्तित्व, वस्तुत्व, प्रमेयत्व आदि

सामान्यगुणोनुं पण ग्रहण थाय छे.

भव्यत्व–मोक्ष पामवाने लायक जीवने ‘भव्यत्व’ होय छे. अभव्यत्व–मोक्ष पामवाने कदी लायक थता नथी एवा जीवने ‘अभव्यत्व’ होय छे.

भव्यत्व अने अभव्यत्व गुणो छे, ते बन्ने अनुजीवी गुणो छे; कर्मना सद्भाव के अभावनी अपेक्षाए ते नामो आपवामां आव्यां नथी.

जीवत्वः– चैतन्यपणुं; जीवनपणुं ज्ञानादि गुणयुक्त रहेवुं ते जीवन कहेवाय छे.

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अ. २. सूत्र ७ ] [ १८प

पारिणामिक शब्दनो अर्थः– कर्मना उदयादिनी अपेक्षा वगर आत्मामां जे गुण मूळथी रहेवावाळा छे तेने ‘पारिणामिक’ कहे छे.

(र) विशेष खुलासो

१. पांच भावोमां औपशमिक, क्षायिक, क्षायोपशमिक अने औदयिक ए चार भावो पर्यायरूप (वर्तमान वर्तती दशारूप) छे, अने पांचमो शुद्ध पारिणामिकभाव छे ते त्रिकाळी एकरूप ध्रुव छे तेथी ते द्रव्यरूप छे; आ रीते आत्मपदार्थ द्रव्य अने पर्याय सहित (-जे वखते जे पर्याय होय ते सहित) छे.

र. जीवत्व, भव्यत्व अने अभव्यत्व ए त्रण पारिणामिकभावोमां जे शुद्ध जीवत्वभाव छे ते शुद्धद्रव्यार्थिकनयाश्रित होवाथी निरावरण शुद्ध पारिणामिकभाव छे अने ते बंध-मोक्ष पर्याय (-परिणति) रहित छे एम समजवुं.

३. जे दश प्राणरूप जीवत्व, भव्यत्व अने अभव्यत्व छे ते वर्तमान वर्तती अवस्थाना आश्रये होवाथी (-पर्यायार्थिकनयाश्रित होवाथी) अशुद्ध पारिणामिकभाव समजवा. जेम सर्व संसारी जीवो शुद्धनये शुद्ध छे तेम जो अवस्थाद्रष्टिए पण शुद्ध छे एम मानवामां आवे तो दश प्राणरूप जीवत्व, भव्यत्व अने अभव्यत्वनो अभाव ज थाय.

४. भव्यत्व अने अभव्यत्वमां भव्यत्व नामनो जे अशुद्धपारिणामिकभाव छे ते भव्य जीवोने होय छे; ते भाव जोके द्रव्यकर्मनी अपेक्षा राखतो नथी तोपण ते जीवना सम्यक्त्वादि गुण ज्यारे ढंकायेला होय छे त्यारे तेमां जे जडकर्म निमित्त छे ते कर्मने भव्यत्वनी अशुद्धतामां उपचारथी निमित्त कहेवाय छे. ते जीव ज्यारे पोतानी पात्रता वडे ज्ञानीनी देशना सांभळी सम्यग्दर्शन प्रगट करे छे अने पोताना चारित्रमां स्थिर थाय छे त्यारे तेने भव्यत्व शक्ति प्रगट (-व्यक्त) थाय छे, -ते जीव सहज शुद्ध पारिणामिकभाव जेनुं लक्षण छे एवा पोताना परमात्मद्रव्यमय सम्यक्श्रद्धा, ज्ञान अने अनुचरणरूप अवस्था (-पर्याय प्रगट) करे छे.

[जुओ, समयसार-हिन्दी जयसेनाचार्यकृत संस्कृत टीका, पा. ४२३]

प. पर्यायार्थिकनये कहेवामां आवतो भव्यत्वभावनो अभाव मोक्षदशामां थाय छे, एटले के ज्यारे जीवमां सम्यग्दर्शनादि गुणनी पूर्णता थई जाय छे त्यारे भव्यत्वनो व्यवहार मटी जाय छे. [जुओ, अध्याय १० सूत्र-३]