Moksha Shastra-Gujarati (Devanagari transliteration). Parishist-4; Parishist-5.

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अ. १. परि. ३ ] [ १४प छे. अहीं तो सम्यग्दर्शन अने आत्मा बन्ने अभेद लीधां छे. आत्मा पोते सम्यग्दर्शनस्वरूप छे.

वारंवार ज्ञानमां एकाग्रतानो अभ्यास करवो

सौथी पहेलां आत्मानो निर्णय करीने पछी अनुभव करवानुं कह्युं छे. पहेलामां पहेलां, ‘निश्चयज्ञानस्वरूप छुं, बीजुं कांई रागादि मारुं स्वरूप नथी’- एवो निर्णय ज्यां सुधी न थाय त्यां सुधी साचा श्रुतज्ञानने ओळखीने तेनो परिचय करवो. सत्श्रुतना परिचयथी ज्ञानस्वभावी आत्मानो निर्णय कर्या पछी मति-श्रुतज्ञानने ते ज्ञानस्वभाव तरफ वाळवानो प्रयत्न करवो, निर्विकल्प थवानो पुरुषार्थ करवो. आ ज प्रथमनो एटले के सम्यक्त्वनो मार्ग छे, आमां तो वारंवार ज्ञानमां एकाग्रतानो अभ्यास ज करवानो छे. बहारमां कांई करवानुं न आव्युं; पण ज्ञानमां ज समजण अने एकाग्रतानो प्रयास करवानुं आव्युं. ज्ञानमां अभ्यास करतां करतां ज्यां एकाग्र थयो त्यां ते ज वखते सम्यग्दर्शन अने सम्यग्ज्ञानरूपे आ आत्मा प्रगट थाय छे. आ ज जन्म-मरण टाळवानो उपाय छे. एकलो जाणकस्वभाव छे. तेमां बीजुं कांई करवानो स्वभाव नथी. निर्विकल्प अनुभव थया पहेलां आवो निश्चय करवो जोईए. आ सिवाय बीजुं माने तेने व्यवहारे पण आत्मानो निश्चय नथी. अनंत उपवास करे तोय आत्मानुं ज्ञान न थाय, बहारमां दोडादोडी करे तेनाथी पण ज्ञान न थाय, पण ज्ञानस्वभावनी पक्कडथी ज ज्ञान थाय. आत्मा तरफ लक्ष अने श्रद्धा कर्या वगर सम्यग्दर्शन-सम्यग्ज्ञान थाय क्यांथी? पहेलां देव-गुरु-शास्त्रनां निमित्तोथी अनेक प्रकारे श्रुतज्ञान जाणे अने ते बधामांथी एक आत्माने तारवे, पछी तेनुं लक्ष करी प्रगट अनुभव करवा माटे, मति- श्रुतज्ञानना बहार वळता पर्यायोने स्वसन्मुख करतो तत्काळ निर्विकल्प निजस्वभावरस आनंदनो अनुभव थाय छे. परमात्मस्वरूपनुं दर्शन जे वखते करे छे ते वखते आत्मा पोते सम्यग्दर्शनरूप प्रगट थाय छे. आत्मानी प्रतीत जेने थई गई छे तेने पाछळथी विकल्प आवे त्यारे पण जे आत्मदर्शन थई गयुं छे तेनुं तो भान छे, एटले के आत्मानुभव पछी विकल्प ऊठे तेथी सम्यग्दर्शन चाल्युं जतुं नथी. कोई वेशमां के वाडामां सम्यग्दर्शन नथी पण स्वरूप ए ज सम्यग्दर्शन अने सम्यग्ज्ञान छे.

सम्यग्दर्शनथी ज्ञानस्वभावी आत्मानो निश्चय कर्या पछी पण शुभभाव आवे खरा, परंतु आत्महित तो ज्ञानस्वभावनो निश्चय करवाथी ज थाय छे. जेम जेम ज्ञानस्वभावनी द्रढता वधती जाय तेम तेम शुभभाव पण टळता जाय छे. बहारना


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१४६ ] [ मोक्षशास्त्र लक्षे जे वेदन थाय ते बधुं दुःखरूप छे, अंदरमां शांतरसनी ज मूर्ति आत्मा छे तेना लक्षे जे वेदन थाय ते ज सुख छे. सम्यग्दर्शन ते आत्मानो गुण छे, गुण ते गुणीथी जुदो न होय. एक अखंड प्रतिभासमय आत्मानो अनुभव ते ज सम्यग्दर्शन छे.

छेल्ली भलामणो

आ आत्मकल्याणनो नानामां नानो (बधाथी थई शके तेवो) उपाय छे. बीजा बधा उपायो छोडीने आ ज करवानुं छे. हितनुं साधन बहारमां लेशमात्र नथी. सत्समागमे एक आत्मानो ज निश्चय करवो. वास्तविक तत्त्वनी श्रद्धा वगर अंदरना वेदननी रमझट नहि जामे. प्रथम अंतरथी सत्नो हकार आव्या वगर सत् स्वरूपनुं ज्ञान थाय नहि अने सत् स्वरूपना ज्ञान वगर भवबंधननी बेडी तूटे नहि. भवबंधनना अंत वगरनां जीवन शा कामनां? भवना अंतनी श्रद्धा वगर कदाच पुण्य करे तो तेनुं फळ राजपद के इन्द्रपद मळे परंतु तेमां आत्माने शुं? आत्माना भान वगरना तो ए पुण्य अने ए इन्द्रपद बधांय धूळधाणी ज छे, तेमां आत्मानी शांतिनो अंश पण नथी. माटे पहेलां श्रुतज्ञान वडे ज्ञानस्वभावनो द्रढ निश्चय करतां प्रतीतिमां भवनी शंका ज रहेती नथी, अने जेटली ज्ञाननी द्रढता थाय तेटली शांति वधती जाय छे.

प्रभु! तुं केवो छो, तारी प्रभुतानो महिमा केवो छे, ए तें जाण्यो नथी. तारी प्रभुताना भान वगर तुं बहारमां जेनां तेनां गाणां गाया करे तो तेमां कंई तने तारी प्रभुतानो लाभ नथी. परनां गाणां गायां पण पोताना गाणां गायां नहि; भगवाननी प्रतिमा सामे कहे के’ हे नाथ, हे भगवान! आप अनंत ज्ञानना धणी छो,’ त्यां सामो पण एवो ज पडघो पडे के’ हे नाथ, हे भगवान! आप अनंत ज्ञानना धणी छो’... अंतरमां ओळखाण होय तो ए समजे ने’ ओळखाण वगर अंतरमां साचो पडधो (निःशंकता) जागे नहि.

शुद्धात्मस्वरूपनुं वेदन कहो, ज्ञान कहो, श्रद्धा कहो, चारित्र कहो, अनुभव कहो के साक्षात्कार कहो-जे कहो ते आ एक आत्मा ज छे. वधारे शुं कहेवुं? जे कांई छे ते आ एक आत्मा ज छे, तेने ज जुदा जुदा नामथी कहेवाय छे. केवळीपद, सिद्धपद के साधुपद ए बधा एक आत्मामां ज समाय छे. समाधिमरण, आराधना ए वगेरे नामो पण स्वरूपनी स्थिरता ज छे. आ प्रमाणे आत्मस्वरूपनी समजण ए ज सम्यग्दर्शन छे अने ए सम्यग्दर्शन ज सर्व धर्मनुं मूळ छे, सम्यग्दर्शन ज आत्मानो धर्म छे.


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मोक्षशास्त्र–गुजराती टीका
अध्याय १ः परिशिष्ट ४.
[]
मोक्षशास्त्र अध्याय १, सूत्र २मां ‘तत्त्वार्थश्रद्धान’ने
सम्यग्दर्शननुं लक्षण कह्युं छे ते लक्षणमां अव्याप्ति–
अतिव्याप्ति–असंभव दोषनो परिहार
अव्याप्ति दूषणनो परिहार

(१) प्रश्नः– तिर्यंचादि तुच्छ ज्ञानी केटलाक जीवो सात तत्त्वोनां नाम पण जाणी शकता नथी छतां तेमने पण सम्यग्दर्शननी प्राप्ति शास्त्रमां कही छे, माटे तत्त्वार्थ-श्रद्धानपणुं सम्यक्त्वनुं लक्षण तमे कह्युं तेमां अव्याप्ति दूषण लागे छे?

उत्तरः– जीव-अजीवादिनां नामादिक जाणो, न जाणो वा अन्यथा जाणो, परंतु तेनुं स्वरूप यथार्थ ओळखी श्रद्धान करतां सम्यक्त्व थाय छे. त्यां कोई तो सामान्यपणे स्वरूप ओळखी श्रद्धान करे छे तथा कोई विशेषपणे स्वरूप ओळखी श्रद्धान करे छे. तिर्यंचादि तुच्छज्ञानी सम्यग्द्रष्टिओ जीवादिकनां नाम पण जाणतां नथी तोपण तेओ सामान्यपणे तेनुं स्वरूप ओळखी श्रद्धान करे छे तेथी तेमने सम्यक्त्वनी प्राप्ति होय छे. जेम कोई तिर्यंच पोतानुं वा बीजाओनुं नामादिक तो न जाणे परंतु पोतानामां ज पोतापणुं तथा अन्यने पर माने छे, तेम तुच्छ ज्ञानी जीव-अजीवनां नाम न जाणे तो पण ते ज्ञानादिस्वरूप आत्मा छे तेमां स्वपणुं माने छे तथा शरीरादिकने पर माने छे, एवुं श्रद्धान तेने होय छे अने ए ज जीव- अजीवनुं श्रद्धान छे. वळी जेम ते ज तिर्यंच, सुखादिनां नामादि तो न जाणे तोपण सुखअवस्थाने ओळखी तेना अर्थे भाविदुःखनां कारणोने पिछाणी तेनो त्याग करवा ईच्छे छे तथा वर्तमानमां जे दुःखनां कारणो बनी रह्यां छे तेना अभावनो उपाय करे छे; तेम तुच्छज्ञानी, मोक्षादिनां नाम जाणतो नथी तो पण सर्वथा सुखरूप मोक्षअवस्थाने श्रद्धान करी तेना अर्थे भाविबंधना कारणरूप रागादि आस्रवभाव छे तेना त्यागरूप संवरने करवा ईच्छे छे, तथा जे संसारदुःखनां कारण छे तेनी शुद्धभाव वडे निर्जरा करवा इच्छे छे. ए रीते आस्रवादिकनुं तेने श्रद्धान छे. ए प्रकारे तेने सात तत्त्वोनुं श्रद्धान


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१४८ ] [ मोक्षशास्त्र होय छे. जो तेने एवुं श्रद्धान न होय तो रागादिक छोडी शुद्धभाव करवानी इच्छा न थाय. ए ज अहीं कहेवामां आवे छे.

जो जीवनी जाति न जाणे-स्वपरने न ओळखे तो ते परमां रागादिक केम न करे? जो रागादिकने न ओळखे तो तेनो त्याग धरवो ते केम इच्छे? अने रागादिक ज आस्रव छे, वळी रागादिकनुं फळ बूरुं छे एम न जाणे तो ते रागादिक छोडवा शा माटे इच्छे? अने रागादिकनुं फळ ते ज बंध छे. रागादिरहित परिणामोने ओळखे तो ते रूप थवा इच्छे, अने रागादिरहित परिणामनुं नाम ज संवर छे, वळी पूर्वसंसार अवस्थानुं जे कारण विभावभाव छे, तेनी हानिने ते ओळखे छे तथा तेना अर्थे शुद्धभाव करवा इच्छे छे, हवे पूर्व संसार अवस्थानुं कारण विभावभाव छे, तेनी हानि थवी ते ज निर्जरा छे, जो संसारअवस्थाना अभावने न ओळखे तो ते संवरनिर्जरारूप शा माटे प्रवर्ते? अने संसार अवस्थानो अभाव ते ज मोक्ष छे. ए प्रमाणे साते तत्त्वोनुं श्रद्धान थतां ज रागादिक छोडी शुद्धभावरूप थवानी इच्छा ऊपजे छे; जो एमांना एक पण तत्त्वोनुं श्रद्धान न होय तो एवी इच्छा न थाय. एवी इच्छा ए तुच्छज्ञानी तिर्यंचादिक सम्यग्द्रष्टिने होय छे ज, तेथी तेने सात तत्त्वोनुं श्रद्धान होय छे एवो निश्चय करवो. ज्ञानावरणनो क्षयोपशम (उघाड) थोडो होवाथी तेने विशेषपणे तत्त्वोनुं ज्ञान होतुं नथी तोपण मिथ्यादर्शनना उपशमादिकथी सामान्यपणे तत्त्वश्रद्धाननी शक्ति प्रगट होय छे. ए प्रमाणे ए लक्षणमां अव्याप्तिदूषण नथी.

(र) प्रश्नः– जे काळमां सम्यग्द्रष्टि विषय-कषायोनां कार्योमां प्रवर्ते छे ते काळमां तेने सात तत्त्वोनो विचार ज नथी तो त्यां श्रद्धान केवी रीते संभवे? अने सम्यक्त्व तो तेने रहे ज छे, माटे ए लक्षणमां अव्याप्तिदूषण आवे छे.

उत्तरः– विचार छे ते तो उपयोगने आधीन छे, ज्यां उपयोग जोडाय तेनो ज विचार थाय; पण श्रद्धान छे ते तो प्रतीतिरूप छे, माटे अन्य ज्ञेयनो विचार थतां वा शयनादि क्रिया थतां तत्त्वोनो विचार नथी तोपण तेनी प्रतीति तो कायम ज रहे छे, नष्ट थती नथी; तेथी तेने सम्यक्त्वनो सद्भाव छे. जेम कोई रोगी पुरुषने एवी प्रतीति तो छे के-‘हुं मनुष्य छुं, तिर्यंच नथी, मने आ कारणथी रोग थयो छे, अने हवे मारे ए कारण मटाडी रोगने घटाडी निरोग थवुं जोईए’ हवे ते ज मनुष्य ज्यारे अन्य विचारादिरूप प्रवर्ते छे त्यारे तेने एवो विचार होतो नथी परंतु श्रद्धान तो एम ज रह्या करे छे; तेम आ आत्माने एवी प्रतीति तो छे के-‘हुं आत्मा छुं-पुद्गलादि नथी, मने आस्रवथी बंध थयो छे पण हवे मारे संवर


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अ. १. परि. ४ ] [ १४९ वडे निर्जरा करी मोक्षरूप थवुं.’ हवे ते ज आत्मा अन्य विचारादिरूप प्रवर्ते छे त्यारे तेने एवो विचार होतो नथी परंतु श्रद्धान तो एवुं ज रह्या करे छे.

प्रश्नः– जो तेने एवुं श्रद्धान रहे छे तो ते बंध थवानां कारणोमां केम प्रवर्ते छे? उत्तरः– जेम कोई मनुष्य कोई कारणवशथी रोग वधवानां कारणोमां पण प्रवर्ते छे, व्यापारादि कार्य वा क्रोधादि कार्य करे छे; तोपण ते श्रद्धाननो तेने नाश थतो नथी; तेम आ आत्मा पुरुषार्थनी नबळाईने वश थवाथी बंध थवानां कारणोमां पण प्रवर्ते छे, विषयसेवनादि कार्य वा क्रोधादि कार्य करे छे, तोपण तेने ए श्रद्धाननो नाश थतो नथी. ए प्रमाणे सात तत्त्वोनो विचार न होवा छतां पण तेनामां श्रद्धाननो सद्भाव छे तेथी त्यां अव्याप्तिपणुं नथी.

(३) प्रश्नः– उच्चदशामां ज्यां निर्विकल्प आत्मानुभव होय छे त्यां तो सात तत्त्वादिना विकल्पनो पण निषेध कर्यो छे, हवे सम्यक्त्वना लक्षणनो निषेध करवो केम संभवे अने त्यां निषेध संभवे छे तो त्यां अव्याप्तिपणुं आव्युं?

उत्तरः– नीचेनी दशामां सात तत्त्वोना विकल्पमां उपयोग लगावी प्रतीतिने द्रढ करी तथा विषयादिथी उपयोगने छोडावी रागादिक घटाडया, हवे ए कार्य सिद्ध थतां ए ज कारणोनो पण निषेध करीए छीए. कारण के ज्यां प्रतीति पण द्रढ थई तथा रागादि पण दूर थया त्यां हवे उपयोगने भमाववानो खेद शा माटे करीए? माटे त्यां ए विकल्पोनो निषेध कर्यो छे. वळी सम्यक्त्वनुं लक्षण तो प्रतीति ज छे. ए प्रतीतिनो तो त्यां निषेध कर्यो नथी. जो प्रतीति छोडावी होय तो ए लक्षणनो निषेध कर्यो कहेवाय पण एम तो नथी. तत्त्वोनी प्रतीति तो त्यां पण कायम ज रहे छे माटे अहीं अव्याप्तिपणुं नथी.

(४) प्रश्नः– छद्मस्थने तो प्रतीति-अप्रतीति कहेवी संभवे छे, तेथी त्यां सात तत्त्वोनी प्रतीतिने सम्यक्त्वनुं लक्षण कह्युं ते अमे मान्युं, पण केवळी अने सिद्धभगवानने तो सर्वनुं जाणपणुं समानरूप छे तेथी त्यां सात तत्त्वोनी प्रतीति कहेवी संभवती नथी, अने तेमने सम्यक्त्वगुण तो होय छे ज. माटे त्यां ए लक्षणमां अव्याप्तिपणुं आव्युं?

उत्तरः– जेम छद्मस्थने श्रुतज्ञान अनुसार प्रतीति होय छे तेम केवळी अने सिद्धभगवानने केवळज्ञान अनुसार ज प्रतीति होय छे. जे सात तत्त्वोनुं स्वरूप पहेलां निर्णीत कर्यु हतुं ते ज हवे केवळज्ञान वडे जाण्युं एटले त्यां प्रतीतिमां परम अवगाढपणुं थयुं, तेथी ज त्यां परमावगाढ सम्यक्त्व कह्युं छे. पण पूर्वे श्रद्धान कर्यु हतुं तेने जो जूठ जाण्युं होत तो त्यां अप्रतीति थात, परंतु जेवुं सात तत्त्वोनुं श्रद्धान


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१प० ] [ मोक्षशास्त्र छद्मस्थने थयुं हतुं तेवुं ज केवळी सिद्धभगवानने पण होय छे, माटे ज्ञानादिकनी हीनता-अधिकता होवा छतां पण तिर्यंचादिक अने केवळी-सिद्धभगवानने सम्यक्त्वगुण तो समान ज कह्यो. वळी पूर्व अवस्थामां ते एम मानतो हतो के- ‘संवर-निर्जरा वडे मोक्षनो उपाय करवो,’ हवे मुक्तअवस्था थतां एम मानवा लाग्यो के-‘संवरनिर्जरा वडे मने मुक्तदशा प्राप्त थई.’ पहेलां ज्ञाननी हीनताथी जीवादिकना थोडा भेदो जाणतो हतो अने हवे केवळज्ञान थतां तेना सर्व भेदो जाणे छे परंतु मूळभूत जीवादिकना स्वरूपनुं श्रद्धान जेवुं छद्मस्थने होय छे तेवुं ज केवळीने पण होय छे. जोके केवळी-सिद्धभगवान अन्य पदार्थोने पण प्रतीति सहित जाणे छे तोपण ते पदार्थो प्रयोजनभूत नथी तेथी सम्यक्त्वगुणना सात तत्त्वोनुं श्रद्धान ज ग्रहण कर्युं छे. केवळी-सिद्धभगवान रागादिरूप परिणमता नथी अने संसारअवस्थाने इच्छता नथी ते आ श्रद्धाननुं ज बळ जाणवुं.

प्रश्नः– सम्यग्दर्शनने तो मोक्षमार्ग कह्यो हतो, तो मोक्षमां तेनो सद्भाव केवी रीते कहो छो?

उत्तरः– कोई कारणो एवां पण होय छे के-कार्य सिद्ध थवा छतां पण नष्ट थतां नथी. जेमके कोई वृक्षने कोई एक शाखा वडे अनेक शाखायुक्त अवस्था थई होय, तेना होवा छतां पण ते एक शाखा नष्ट थती नथी; तेम कोई आत्माने सम्यक्त्वगुण वडे अनेक गुणयुक्त मोक्षअवस्था प्रगट थई, हवे ते होवा छतां पण सम्यक्त्वगुण नष्ट थतो नथी. ए प्रमाणे केवळी-सिद्धभगवानने पण तत्त्वार्थश्रद्धान लक्षण होय छे ज माटे त्यां अव्याप्तिपणुं नथी.

अतिव्याप्ति दूषणनो परिहार

प्रश्नः– मिथ्याद्रष्टिने पण तत्त्वार्थश्रद्धानलक्षण होय छे एम शास्त्रमां निरूपण छे, अने श्री प्रवचनसारमां आत्मज्ञानशून्य तत्त्वार्थश्रद्धान अकार्यकारी कह्युं छे. माटे सम्यक्त्वनुं लक्षण तत्त्वार्थश्रद्धान कह्युं तेमां अतिव्याप्तिदूषण लागे छे?

उत्तरः– मिथ्याद्रष्टिने जे तत्त्वश्रद्धान कह्युं छे ते नामनिक्षेपथी कह्युं छे, जेमां तत्त्वश्रद्धाननो गुण तो नथी पण व्यवहारमां जेनुं नाम तत्त्वश्रद्धान कहीए छीए ते मिथ्याद्रष्टिने होय छे अथवा आगमद्रव्यनिक्षेपथी होय छे, अर्थात् तत्त्वार्थश्रद्धाननां प्रतिपादक शास्त्रोनो अभ्यास छे पण तेना स्वरूपनो निश्चय करवामां उपयोग लगावतो नथी, एम जाणवुं; अने अहीं जे सम्यक्त्वनुं लक्षण तत्त्वार्थश्रद्धान कह्युं, ते तो भावनिक्षेपथी कह्युं छे एटले गुण सहित साचुं तत्त्वार्थश्रद्धान मिथ्याद्रष्टिने कदी पण होतुं नथी. वळी आत्मज्ञानशून्य तत्त्वार्थश्रद्धान कह्युं छे त्यां पण ए ज अर्थ


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अ. १. परि. ४ ] [ १प१ जाणवो; कारण के-जेने जीव-अजीवादिनुं साचुं श्रद्धान होय तेने आत्मज्ञान केम न होय? अवश्य होय ज. ए प्रमाणे कोई पण मिथ्याद्रष्टिने साचु तत्त्वार्थश्रद्धान सर्वथा होतुं नथी, माटे ए लक्षणमां अतिव्याप्ति दूषण लागतुं नथी.

असंभव दूषणनो परिहार

वळी आ तत्त्वार्थश्रद्धान लक्षण कह्युं छे ते असंभवदूषणयुक्त पण नथी. कारण के सम्यक्त्वनुं प्रतिपक्षी मिथ्यात्व ज छे अने तेनुं लक्षण आनाथी विपरीतता सहित छे.

ए प्रमाणे अव्याप्ति, अतिव्याप्ति अने असंभवपणाथी रहित तत्त्वार्थश्रद्धान सर्व सम्यग्द्रष्टिओने तो होय छे तथा कोई पण मिथ्याद्रष्टिओने होतुं नथी तेथी सम्यग्दर्शननुं साचुं लक्षण तत्त्वार्थश्रद्धान ज छे.

विशेष खुलासो

(१) प्रश्नः– अहीं सात तत्त्वोना श्रद्धाननो नियम कह्यो पण ते बनतो नथी, कारण के-कोई ठेकाणे परथी भिन्न पोताना श्रद्धानने पण सम्यक्त्व कहे छे. श्री समयसारमां ‘एकत्वे नियतस्य’ इत्यादि कळश लख्या छे तेमां एम कह्युं छे के- ‘आत्मानुं परद्रव्यथी भिन्न अवलोकन ते ज नियमथी सम्यग्दर्शन छे, तेथी नव तत्त्वनी संततिने छोडी अमारे तो आ एक आत्मा ज प्राप्त थाओ.’ वळी कोई ठेकाणे एक आत्माना निश्चयने ज सम्यक्त्व कहे छे. श्री पुरुषार्थसिद्धयुपायमां ‘दर्शनमात्मविनिश्चितिः’ एवुं पद छे तेनो पण ए ज अर्थ छे, माटे जीव-अजीवनुं ज वा केवळ जीवनुं ज श्रद्धान थतां पण सम्यक्त्व होय छे. जो सात तत्त्वोना श्रद्धाननो नियम होत तो आ शा माटे लखत?

उत्तरः– परथी भिन्न जे पोतानुं श्रद्धान होय छे ते आस्रवादिकना श्रद्धानथी रहित होय छे के सहित होय छे? जो रहित होय छे तो मोक्षना श्रद्धान विना ते क्या प्रयोजन अर्थे आवो उपाय करे छे? संवर-निर्जराना श्रद्धान विना रागादि रहित थई पोताना स्वरूपमां उपयोग लगाववानो उद्यम ते शा माटे राखे छे? आस्रवबंधना श्रद्धान विना ते पूर्व अवस्थाने शा माटे छोडे छे? कारण के-आस्रवादिना श्रद्धानरहित स्व-परनुं श्रद्धान करवुं संभवतुं नथी; अने जो आस्रवादिकना श्रद्धानसहित छे तो त्यां स्वयं साते तत्त्वोना श्रद्धाननो नियम थयो. वळी केवळ आत्मानो निश्चय छे त्यां पण परनुं पररूप श्रद्धान थया विना आत्मानुं श्रद्धान थाय नहि माटे अजीवनुं श्रद्धान थतां ज जीवनुं श्रद्धान थाय छे, अने प्रथम कह्या प्रमाणे आस्रवादिनुं श्रद्धान पण त्यां अवश्य होय छे; तेथी अहीं पण साते तत्त्वोना ज श्रद्धाननो नियम जाणवो.


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१प२ ] [ मोक्षशास्त्र बीजुं आस्रवादिना श्रद्धान विना स्व-परनुं श्रद्धान वा केवळ आत्मानुं श्रद्धान साचुं होतुं नथी कारण के-आत्मद्रव्य छे ते शुद्ध-अशुद्ध पर्याय सहित छे तेथी जेम तंतुना अवलोकन विना पटनुं अवलोकन न थाय तेम शुद्ध-अशुद्ध पर्याय प्रथम ओळख्या विना आत्मद्रव्यनुं श्रद्धान पण न थाय, हवे शुद्ध-अशुद्ध अवस्थानी ओळखाण आस्रवादिनी ओळखाणथी थाय छे. आस्रवादिना श्रद्धान विना स्व-परनुं श्रद्धान वा केवळ आत्मानुं श्रद्धान कार्यकारी पण नथी कारण के-एवुं श्रद्धान करो वा न करो ‘पोते छे ते पोते ज छे अने पर छे ते पर ज छे.’ वळी आस्रवादिनुं श्रद्धान होय तो आस्रव-बंधनो अभाव करी संवर-निर्जरारूप उपायथी ते मोक्षपदने पामे, स्व- परनुं श्रद्धान करावीए छीए ते पण ए ज प्रयोजन अर्थे करावीए छीए; माटे आस्रवादिना श्रद्धान सहित स्व-परनुं जाणवुं वा स्वनुं जाणवुं कार्यकारी छे.

(२) प्रश्नः– जो एम छे तो शास्त्रोमां स्व-परना श्रद्धानने वा केवळ आत्माना श्रद्धानने ज सम्यक्त्व कह्युं वा कार्यकारी कह्युं तथा नवतत्त्वनी संतति छोडी अमारे तो एक आत्मा ज प्राप्त थाओ एम केम कह्युं छे?

उत्तरः– जेने स्व-परनुं वा आत्मानुं सत्यश्रद्धान होय तेने साते तत्त्वोनुं श्रद्धान अवश्य होय ज तथा जेने साते तत्त्वोनुं सत्यश्रद्धान होय तेने स्व-परनुं वा आत्मानुं श्रद्धान अवश्य होय ज, एवुं परस्पर अविनाभावपणुं जाणी स्व-परना श्रद्धानने वा आत्मश्रद्धान होवाने सम्यक्त्व कह्युं छे. पण कोई सामान्यपणे स्वपरने जाणी वा आत्माने जाणी कृतकृत्यपणुं माने ए तो तेनो भ्रम छे; कारण के एम कह्युं छे के ‘निर्विशेषो हि सामान्ये भवेत्खरविषाणवत्’ एनो अर्थ-विशेषरहित सामान्य छे ते गधेडानां शिंगडा समान छे. माटे प्रयोजनभूत आस्रवादि विशेषो सहित स्व- परनुं वा आत्मानुं श्रद्धान करवा योग्य छे; अथवा साते तत्त्वार्थोना श्रद्धानथी जे रागादिक मटाडवा अर्थे परद्रव्योने भिन्न चिंतवे छे वा पोताना आत्माने चिंतवे छे तेने प्रयोजननी सिद्धि थाय छे तेथी मुख्यपणे भेदविज्ञानने वा आत्मज्ञानने कार्यकारी कह्युं छे. वळी तत्त्वार्थश्रद्धान कर्या विना सर्व जाणवुं कार्यकारी नथी, कारण के-प्रयोजन तो रागादि मटाडवानुं छे, हवे आस्रवादिना श्रद्धान विना ए प्रयोजन भासतुं नथी त्यारे केवळ जाणवाथी तो मानने ज वधारे पण रागादि छोडे नहि तो तेनुं कार्य केवी रीते सिद्ध थाय? बीजुं ज्यां नव तत्त्वनी संतति छोडवानुं कह्युं छे त्यां पूर्वे नव तत्त्वना विचार वडे सम्यग्दर्शन थयुं अने पाछळथी निर्विकल्पदशा थवा अर्थे नव तत्त्वोनो विकल्प पण छोडवानी इच्छा करी, पण जेने पहेलांथी ज नव तत्त्वोनो विचार नथी तेने ते विकल्पो छोडवानुं शुं प्रयोजन छे? ए करतां तो पोताने अन्य अनेक विकल्पो थाय


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अ. १. परि. ४ ] [ १प३ छे तेनो ज त्याग करो. ए प्रमाणे स्व-परना श्रद्धानमां वा आत्मश्रद्धानमां वा नवतत्त्वना श्रद्धानमां सात तत्त्वोना श्रद्धाननी सापेक्षता होय छे, माटे तत्त्वार्थश्रद्धान सम्यक्त्वनुं लक्षण छे.

(३) प्रश्नः– त्यारे कोई ठेकाणे शास्त्रोमां अर्हंतदेव, निर्ग्रंथगुरु अने हिंसादि रहित धर्मना श्रद्धानने सम्यक्त्व कह्युं छे ते केवी रीते?

उत्तरः– अर्हतदेवादिकनुं श्रद्धान थवाथी वा कुदेवादिकनुं श्रद्धान दूर थवाथी गृहीतमिथ्यात्वनो अभाव थाय छे. ए अपेक्षाए तेने सम्यग्द्रष्टि कह्यो छे पण सम्यक्त्वनुं सर्वथा लक्षण ए नथी, कारण के-द्रव्यलिंगी मुनि आदि व्यवहारधर्मना धारक मिथ्याद्रष्टिओने पण एवुं श्रद्धान होय छे. अरहंतदेवादिकनुं श्रद्धान थतां तो सम्यक्त्व होय वा न होय परंतु अरहंतादिकना श्रद्धान थया विना तत्त्वार्थश्रद्धानरूप सम्यक्त्व कदी पण होय नहि; माटे अरहंतादिकना श्रद्धानने अन्वयरूप कारण जाणी कारणमां कार्यनो उपचार करी ए श्रद्धानने सम्यक्त्व कह्युं छे, अने एटला माटे ज तेनुं नाम व्यवहारसम्यक्त्व छे. अथवा जेने तत्त्वार्थश्रद्धान होय तेने साचा अरहंतादिकना स्वरूपनुं श्रद्धान अवश्य होय ज. तत्त्वार्थश्रद्धान विना अरहंतादिकनुं श्रद्धान पक्षथी करे तोपण यथावत् स्वरूपनी ओळखाण सहित श्रद्धान थाय नहि, तथा जेने साचा अरहंतादिकना स्वरूपनुं श्रद्धान होय तेने तत्त्वार्थश्रद्धान अवश्य होय ज, कारण के अरहंतादिना स्वरूपने ओळखतां जीव-अजीव-आस्रवादिनी ओळखाण थाय छे, ए प्रमाणे तेने परस्पर अविनाभावी जाणी कोई ठेकाणे अरहंतादिना श्रद्धानने सम्यक्त्व कह्युं छे.

(४) प्रश्नः– नरकादिकना जीवोने देव-कुदेवादिनो व्यवहार नथी छतां तेमने सम्यक्त्व तो होय छे, माटे सम्यक्त्व थतां अरहंतादिनुं श्रद्धान होय ज, एवो नियम संभवतो नथी?

उत्तरः– सात तत्त्वोना श्रद्धानमां अरहंतादिनुं श्रद्धान गर्भित छे, कारण के- तत्त्वश्रद्धानमां मोक्षतत्त्वने ते सर्वोत्कृष्ट माने छे, हवे मोक्षतत्त्व तो अरहंत-सिद्धनुं ज लक्षण छे अने जे लक्षणने उत्कृष्ट माटे छे ते तेना लक्ष्यने पण उत्कृष्ट अवश्य माने ज; तेथी तेमने ज सर्वोत्कृष्ट-मान्या पण अन्यने न मान्या ए ज तेने देवनुं श्रद्धान थयुं. वळी मोक्षनुं कारण संवर-निर्जरा छे तेथी तेने पण ते उत्कृष्ट माने छे अने संवर-निर्जराना धारक मुख्यपणे मुनिराज छे तेथी ते मुनिराजने उत्तम माने छे पण अन्यने उत्तम मानतो नथी ए ज तेने गुरुनुं श्रद्धान थयुं. बीजुं रागादिरहित भावनुं नाम अहिंसा छे तेने ते उपाद्रय माने छे पण अन्यने मानतो नथी ए ज तेने धर्मनुं श्रद्धान थयुं. ए प्रमाणे तत्त्वार्थश्रद्धानमां अरहंतदेवादिकनुं श्रद्धान पण गर्भित


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१प४ ] [ मोक्षशास्त्र छे. अथवा जे निमित्तथी तेने तत्त्वार्थश्रद्धान थाय छे ते ज निमित्तथी अरहंतदेवादिकनुं पण श्रद्धान थाय छे माटे सम्यग्दर्शनमां देवादिकना श्रद्धाननो नियम छे.

(प) प्रश्नः– कोई जीव अरहंतादिकनुं श्रद्धान करे छे, तेना गुणोने ओळखे छे छतां तेने तत्त्वश्रद्धानरूप सम्यक्त्व होतुं नथी, माटे जेने साचुं अरहंतादिकनुं श्रद्धान होय तेने तत्त्वश्रद्धान अवश्य होय ज, एवो नियम संभवतो नथी?

उत्तरः– तत्त्वश्रद्धान विना अरहंतादिकना छेताळीस आदि गुणो ते जाणे छे त्यां पर्यायाश्रित गुणोने पण ते जाणतो नथी. कारण के जीव-अजीवनी जाति ओळख्या विना अरहंतादिकना आत्माश्रित अने शरीराश्रित गुणोने ते भिन्न जाणतो नथी, जो जाणे तो ते पोताना आत्माने परद्रव्यथी भिन्न केम न माने? तेथी ज श्री प्रवचनसारमां कह्युं छे के-

जो जाणदि अरहत दव्वत्तगुणत्तपज्जयत्तहि।
सो जाणदि अप्पाणं मोहो खलु जादि तस्स लयं।। ८०।।
जे जाणतो अर्हंतने गुण, द्रव्य ने पर्ययपणे,
ते जीव जाणे आत्मने तसु मोह पामे लय खरे. ८०.

अर्थः– जे अरहंतने द्रव्यत्व, गुणत्व अने पर्यायत्व वडे जाणे छे ते आत्माने जाणे छे अने तेनो मोह नाशने प्राप्त थाय छे. माटे जेने जीवादि तत्त्वोनुं श्रद्धान नथी तेने अरहंतादिकनुं पण साचुं श्रद्धान नथी. वळी ते मोक्षादिक तत्त्वोना श्रद्धान विना अरहंतादिनुं माहात्म्य पण यथार्थ जाणतो नथी, मात्र लौकिक अतिशयादि वडे अरहंतनुं, तपश्चरणादि वडे गुरुनुं अने परजीवोनी अहिंसादि वडे धर्मनुं माहात्म्य जाणे छे. पण ए तो पराश्रितभाव छे अने अरहंतादिकनुं स्वरूप तो आत्माश्रितभावो वडे तत्त्वश्रद्धान थतां ज जणाय छे, माटे जेने अरहंतादिकनुं साचुं श्रद्धान होय तेने तत्त्वश्रद्धान अवश्य होय ज, एवो नियम जाणवो. ए प्रमाणे सम्यक्त्वनुं लक्षण निर्देश कर्युं.

(६) प्रश्नः– साचुं तत्त्वार्थश्रद्धान, स्व-परनुं श्रद्धान, आत्मश्रद्धान तथा देव- गुरु-धर्मनुं श्रद्धान सम्यक्त्वनुं लक्षण कह्युं अने ए सर्व लक्षणोनी परस्पर एकता पण दर्शावी ते तो जाण्युं, परंतु आम अन्य अन्य प्रकारथी लक्षण करवानुं शुं प्रयोजन?

उत्तरः– चार लक्षणो कह्यां तेमां साची द्रष्टिपूर्वक कोई एक लक्षण ग्रहण करतां चारे लक्षणोनुं ग्रहण थाय छे तोपण मुख्य प्रयोजन जुदुं जुदुं विचारी अन्य अन्य प्रकारथी ए लक्षणो कह्यां छे.

१-ज्यां तत्त्वार्थश्रद्धान लक्षण कह्युं छे त्यां तो आ प्रयोजन छे के, जो ए तत्त्वोने ओळखे तो वस्तुना यथार्थ स्वरूपनुं वा हित-अहितनुं श्रद्धान करी मोक्षमार्गमां प्रवर्ते.


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अ. १. परि. ४ ] [ १पप

र-ज्यां स्व-पर भिन्नता श्रद्धानरूप लक्षण कह्युं छे त्यां जे वडे तत्त्वार्थश्रद्धाननुं प्रयोजन सिद्ध थाय ते श्रद्धानने मुख्य लक्षण कह्युं छे. कारण के जीव-अजीवना श्रद्धाननुं प्रयोजन तो स्व-परने भिन्न श्रद्धान करवां ए छे, अने आस्रवादिकना श्रद्धाननुं प्रयोजन रागादिक छोडवा ए छे एटले स्व-परनी भिन्नतानुं श्रद्धान थतां परद्रव्योमां रागादिक न करवानुं श्रद्धान थाय छे. ए प्रमाणे तत्त्वार्थश्रद्धाननुं प्रयोजन स्व-परना भिन्न श्रद्धानथी सिद्ध थवुं जाणी ए लक्षण कह्युं छे.

३-ज्यां आत्मश्रद्धान लक्षण कह्युं छे त्यां स्व-परना भिन्न श्रद्धाननुं प्रयोजन तो एटलुं ज छे के-पोताने पोतारूप जाणवो. पोताने पोतारूप जाणतां परनो पण विकल्प कार्यकारी नथी एवा मूळभूत प्रयोजननी प्रधानता जाणी आत्मश्रद्धानने मुख्य लक्षण कह्युं छे. तथा

४-ज्यां देव-गुरु-धर्मना श्रद्धानरूप लक्षण कह्युं छे त्यां बाह्य साधननी प्रधानता करी छे, कारण के अरहंतदेवादिकनुं श्रद्धान साचा तत्त्वार्थश्रद्धाननुं कारण छे तथा कुदेवादिकनुं श्रद्धान कल्पित अतत्त्वार्थश्रद्धाननुं कारण छे, ए बाह्यकारणनी प्रधानताथी कुदेवादिकनुं श्रद्धान छोडावी सुदेवादिकनुं श्रद्धान कराववा अर्थे देव-गुरु- धर्मना श्रद्धानने मुख्य लक्षण कह्युं छे. ए प्रमाणे जुदां जुदां प्रयोजनोनी मुख्यतापूर्वक जुदां जुदां लक्षण कह्यां छे.

(७) प्रश्नः– ए जुदां जुदां चार लक्षणो कह्यां तेमां आ जीव क्या लक्षणने अंगीकार करे?

उत्तरः– ज्यां पुरुषार्थ वडे सम्यग्दर्शन प्रगटतां विपरीताभिनिवेशनो अभाव थाय छे त्यां तो ए चारे लक्षणो एकसाथे होय छे. तथा विचार अपेक्षाए मुख्यपणे तत्त्वार्थोने विचारे छे, कां तो स्व-परनुं भेदविज्ञान करे छे, कां तो आत्मस्वरूपने ज संभाळे छे अगर कां तो देवादिकना स्वरूपने विचारे छे. ए प्रमाणे ज्ञानमां तो नानाप्रकारना विचार थाय परंतु श्रद्धानमां सर्वत्र परस्पर सापेक्षपणुं होय छे. जेम तत्त्वविचार करे छे तो भेदविज्ञानादिकना अभिप्राय सहित करे छे, ए ज प्रमाणे अन्य ठेकाणे पण परस्पर सापेक्षपणुं छे. माटे सम्यग्द्रष्टिना श्रद्धानमां तो चारे लक्षणोनो अंगीकार छे, पण जेने विपरीताभिनिवेश होय छे तेने ए लक्षणो आभासमात्र होय छे, साचां होतां नथी. ते जिनमतनां जीवादितत्त्वोने माने छे, अन्यनां मानतो नथी तथा तेनां नाम-भेदादिने शीखे छे, ए प्रमाणे तेने तत्त्वार्थश्रद्धान होय छे परंतु तेना यथार्थभावनुं श्रद्धान थतुं नथी. वळी ए स्व-परना भिन्नपणानी वातो करे छे तथा वस्त्रादिमां परबुद्धि चिंतवन करे छे, परंतु जेवी पर्यायमां अहंबुद्धि छे तथा


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१प६ ] [ मोक्षशास्त्र वस्त्रादिमां परबुद्धि छे, तेवी आत्मामां अहंबुद्धि अने शरीरमां परबुद्धि तेने थती नथी. ते आत्माने जिनवचनानुसार चिंतवे छे परंतु प्रतीतिपणे आपने आपरूप श्रद्धान करतो नथी; तथा अरहंतादि विना अन्य कुदेवादिकने ते मानतो नथी; परंतु तेना स्वरूपने यथार्थ ओळखी श्रद्धान करतो नथी. ए प्रमाणे ए लक्षणाभासो मिथ्याद्रष्टिने होय छे; तेमां कोई होय, कोई न होय; परंतु तेने अहीं भिन्नपणुं पण संभवतुं नथी. बीजुं ए लक्षणाभासोमां एटलुं विशेष छे के-पहेलां तो देवादिकनुं श्रद्धान थाय, पछी तत्त्वोनो विचार थाय, पछी स्व-परनुं चिंतवन करे अने पछी केवळ आत्माने चिंतवे, ए अनुक्रमथी जो साधन करे तो परंपरा साचा मोक्षमार्गने पामी जीव सिद्धपदने पण पामे, तथा ए अनुक्रमनुं उल्लंघन करे तेने देवादिकनी मान्यतानुं पण कांई ठेकाणुं रहेतुं नथी. माटे जे जीव पोतानुं भलुं करवा इच्छे छे तेणे तो ज्यां सुधी साचा सम्यग्दर्शननी प्राप्ति न थाय त्यां सुधी एने पण अनुक्रमथी अंगीकार करवां.

सम्यग्दर्शन माटे अभ्यासनो क्रम

प्रथम तो आज्ञादि वडे वा कोई परीक्षा वडे कुदेवादिनी मान्यता छोडी अरहंतदेवादिनुं श्रद्धान करवुं, कारण के-एनुं श्रद्धान थतां गृहीतमिथ्यात्वनो तो अभाव थाय छे, कुदेवादिकनुं निमित्त दूर थाय छे अने अरहंतदेवादिकनुं निमित्त मळे छे माटे प्रथम देवादिकनुं श्रद्धान करवुं. पछी जिनमतमां कहेलां जीवादि तत्त्वोनो विचार करवो, तेनां नाम-लक्षणादि शीखवां, कारण के-एना अभ्यासथी तत्त्वश्रद्धाननी प्राप्ति थाय छे. पछी स्व-परनुं भिन्नपणुं जेथी भासे तेवा विचारो कर्या करवा, कारण के-ए अभ्यासथी भेदविज्ञान थाय छे. त्यार पछी एक स्वमां स्वपणुं मानवा अर्थे स्वरूपनो विचार कर्या करवो. कारण के-ए अभ्यासथी आत्मानुभवनी प्राप्ति थाय छे. ए प्रमाणे अनुक्रमथी तेने अंगीकार करी पछी तेमांथी ज कोई वेळा देवादिना विचारमां, कोई वेळा तत्त्वविचारमां, कोई वेळा स्व- परना विचारमां तथा कोई वेळा आत्मविचारमां उपयोगने लगाववो. ए प्रमाणे अभ्यासथी सत्यसम्यग्दर्शननी प्राप्ति थाय छे.

(८) प्रश्नः– सम्यक्त्वनां लक्षण तो अनेक प्रकारनां कह्यां छे, तेमां अहीं तत्त्वार्थश्रद्धानलक्षणने ज मुख्य कह्युं तेनुं शुं कारण?

उत्तरः– तुच्छबुद्धिवानने अन्य लक्षणोमां तेनुं प्रयोजन प्रगट भासतुं नथी वा भ्रम ऊपजे छे तथा आ तत्त्वार्थश्रद्धानलक्षणमां प्रयोजन प्रगट भासे छे तथा कांई पण भ्रम उपजतो नथी, तेथी ए लक्षणने मुख्य कर्यु छे. ए ज अहीं दर्शाववामां आवे छे-


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अ. १. परि. ४ ] [ १प७

देव-गुरु-धर्मना श्रद्धानमां तुच्छबुद्धिवानने एम भासे छे के अरहंतदेवादिकने ज मानवा तथा अन्यने न मानवा एटलुं ज सम्यक्त्व छे, पण त्यां जीव-अजीवना बंध-मोक्षना कारण-कार्यनुं स्वरूप भासे नहि अने तेथी मोक्षमार्गरूप प्रयोजननी सिद्धि थाय नहि, वा जीवादिनुं श्रद्धान थया विना मात्र ए ज श्रद्धानमां संतुष्ट थई पोताने सम्यग्द्रष्टि माने, वा एक कुदेवादि प्रत्ये द्वेष तो राखे पण अन्य रागादि छोडवानो उद्यम न करे, एवो भ्रम ऊपजे. वळी स्व-परना श्रद्धानमां तुच्छबुद्धिवानने एम भासे के-एक स्व-परनुं जाणवुं ज कार्यकारी छे अने तेनाथी ज सम्यक्त्व थाय छे. पण त्यां आस्रवादिकनुं स्वरूप भासतुं नथी अने तेथी मोक्षमार्गरूप प्रयोजननी सिद्धि पण थती नथी, वा आस्रवादिकनुं श्रद्धान थया विना मात्र एटलुं ज जाणवामां संतुष्ट थई पोताने सम्यग्द्रष्टि मानी स्वछंदी थाय पण रागादि छोडवानो उद्यम करे नहि, एवो भ्रम ऊपजे, तथा आत्मश्रद्धानलक्षणमां तुच्छबुद्धिवानने एम भासे के-एक आत्मानो ज विचार कार्यकारी छे अने तेनाथी ज सम्यक्त्व थाय छे, पण त्यां जीव-अजीवादिना विशेषो वा आस्रवादिनुं स्वरूप भासतुं नथी अने तेथी मोक्षमार्गरूप प्रयोजननी सिद्धि पण थती नथी, वा जीवादिना विशेषोनुं अने आस्रवादिना स्वरूपनुं श्रद्धान थया विना मात्र एटला ज विचारथी पोताने सम्यग्द्रष्टि मानी स्वच्छंदी बनी रागादि छोडवानो उद्यम करे नहि, एवो भ्रम ऊपजे. एम जाणी ए लक्षणोने मुख्य कर्यां नहि, अने तत्त्वार्थश्रद्धान लक्षणमां जीव-अजीवादि वा आस्रवादिनुं श्रद्धान थयुं त्यां ते सर्वनुं स्वरूप जो बराबर भासे तो मोक्षमार्गरूप प्रयोजननी सिद्धि थाय. वळी ए श्रद्धान थतां सम्यग्दर्शन थवा छतां पण पोते संतुष्ट थतो नथी परंतु आस्रवादिनुं श्रद्धान थवाथी रागादिक छोडी मोक्षनो उद्यम राखे छे. ए प्रमाणे तेने भ्रम ऊपजतो नथी माटे तत्त्वार्थश्रद्धानलक्षणने मुख्य कर्युं छे. अथवा तत्त्वार्थश्रद्धानलक्षणमां देवादिकनुं श्रद्धान, स्व-परनुं श्रद्धान, वा आत्मश्रद्धान गर्भित होय छे ते तुच्छबुद्धिवानने पण भासे छे पण अन्य लक्षणोमां तत्त्वार्थश्रद्धाननुं गर्भितपणुं छे ते विशेष बुद्धिवान होय तेने ज भासे छे, पण तुच्छबुद्धिवानने भासतुं नथी; माटे तत्त्वार्थश्रद्धानलक्षणने मुख्य कर्युं छे. अथवा मिथ्याद्रष्टिने ए आभासमात्र होय छे; त्यां तत्त्वार्थोनो विचार तो विपरीताभिनिवेश दूर करवामां शीघ्र कारणरूप थाय छे पण अन्य लक्षणो शीघ्र कारणरूप थतां नथी वा विपरीताभिनिवेशमां पण कारण थई जाय छे तेथी अहीं सर्वप्रकारथी प्रसिद्ध जाणी विपरीताभिनिवेशरहित जीवादितत्त्वार्थोनुं श्रद्धान ज सम्य्त्वनुं लक्षण छे एवो निर्देश कर्यो. एवुं लक्षण जे आत्माना स्वभावमां होय ते ज सम्यग्द्रष्टि जाणवो.


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मोक्षशास्त्र–गुजराती टीका
अध्याय १ः परिशिष्ट प.
[]
केवळज्ञाननुं स्वरूप

(१) षट्खंडागम-धवलाटीका पुस्तक १३ सूत्र ८१-८२ द्वारा आचार्यदेवे कह्युं छे केः-

“ते केवळज्ञान सकळ छे, संपूर्ण छे अने असपत्न छे. (८१) अखंड होवाथी ते सकळ छे.”

शंकाः– ए अखंड केवी रीते छे? समाधानः– समस्त बाह्य पदार्थमां प्रवृत्ति न थवाथी ज्ञानमां खंडपणुं आवे छे, ते आ ज्ञानमां संभव नथी; केमके आ ज्ञाननो विषय त्रिकाळगोचर संपूर्ण बाह्य पदार्थो छे.

अथवा द्रव्य, गुण अने पर्यायोना भेदनुं ज्ञान अन्यथा न बनी शकवाथी जेमनुं अस्तित्व निश्चित छे एवा ज्ञानना अवयवोनुं नाम कळा छे; आ कळाओ साथे ते अवस्थित रहे छे तेथी सकळ छे. ‘सम’नो अर्थ सम्यक् छे, सम्यक् एटले परस्पर परिहार लक्षणवाळो विरोध होवा छतां पण सहानअवस्थान लक्षणवाळो विरोध न होवाथी कारण के ते अनंतदर्शन, अनंतवीर्य, विरति अने क्षायिकसम्यक्त्व आदि अनंत गुणोथी पूर्ण छे; तेथी तेने संपूर्ण कहेवामां आवे छे. ते सकळ गुणोनुं निधान छे. ए उक्त कथननुं तात्पर्य छे. सपत्ननो अर्थ शत्रु छे. केवळज्ञानना शत्रु कर्म छे. ते एने रह्यां नथी तेथी केवळज्ञान असपत्न छे. तेणे पोताना प्रतिपक्षी घातीचतुष्कनो मूळमांथी नाश करी नाख्यो छे, ए उक्त कथननुं तात्पर्य छे. आ केवळज्ञान स्वयं ज उत्पन्न थाय छे, ए वातनुं ज्ञान कराववा माटे अने तेना विषयनुं कथन करवा माटे आगळनुं सूत्र कहे छे-

स्वयं उत्पन्न थयेल ज्ञान अने दर्शनथी युक्त भगवान देवलोक अने असुरलोक सहित मनुष्यलोकनी आगति, गति, चयन, उपपाद, बंध, मोक्ष, ऋद्धि, स्थिति, युति, अनुभाग, तर्क, कळ, मन, मानसिक, भुक्त, कृत, प्रतिसेवित, आदिकर्म, अरहःकर्म,


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१६० ] [ मोक्षशास्त्र सर्वलोक, सर्व जीवो अने सर्व भावोने सम्यक् प्रकारे युगपद् जाणे छे, देखे छे अने विहार करे छे. ८२.

ज्ञान धर्मना माहात्म्यनुं नाम भग छे; ते जेमने होय छे ते भगवान कहेवाय छे. उत्पन्न थयेल ज्ञान द्वारा देखवानो जेमनो स्वभाव छे तेने उत्पन्नज्ञानदर्शी कहे छे. स्वयं उत्पन्न थयेल ज्ञान-दर्शन स्वभाववाळा भगवान सर्व लोकने जाणे छे.

शंकाः– ज्ञाननी उत्पत्ति स्वयं केवी रीते थई शके छे? समाधानः– नहि, कारण के कार्य अने कारणनुं एकाधिकरण होवाथी एमां कोई भेद नथी.

देवादि लोकमां जीवनी गति, आगति तथा चयन अने
उपपादने पण सर्वज्ञ भगवान जाणे छे

सौधर्मादिक देव, अने भवनवासी असुर कहेवाय छे. अहीं देवासुर वचन देशामर्शक छे तेथी तेनाथी ज्योतिषी, व्यंतर अने तिर्यंचोनुं पण ग्रहण करवुं जोईए. देवलोक अने असुरलोक साथे मनुष्यलोकनी आगतिने जाणे छे. अन्य गतिमांथी आववुं ते आगति छे. ईच्छित गतिमांथी अन्य गतिमां जवुं ते गति छे. सौधर्मादिक देवोने पोतानी संपत्तिनो विरह थवो ते चयन छे. विवक्षित गतिमांथी अन्य गतिमां उत्पन्न थवुं ते उपपाद छे. जीवोना विग्रह सहित अने विग्रह विना आगमन, गमन, चयन अने उपपादने जाणे छे.

पुद्गलोना आगमन, गमन, चयन अने उपपाद संबंधी

तथा पुद्गलोना आगमन, गमन, चयन अने उपपादने जाणे छे; पुद्गलोमां विवक्षित पर्यायनो नाश थवो ते चयन छे. अन्य पर्यायरूप परिणमवुं ते उपपाद छे.

धर्म, अधर्म, काळ अने आकाशना चयन अने उपपाद

धर्म, अधर्म, काळ अने आकाशना चयन अने उपपादने जाणे छे, केमके एमनुं गमन अने आगमन थतुं नथी. जेमां जीवादि पदार्थो देखवामां आवे छे अर्थात् उपलब्ध थाय छे तेनुं नाम लोक छे. अहीं ‘लोक’ शब्द वडे आकाश लेवामां आव्युं छे. तेथी आधेयमां आधारनो उपचार करवाथी धर्मादिक पण लोक सिद्ध थाय छे.

बंधने पण भगवान जाणे छे

बंधावानुं नाम बंध छे. अथवा जेना द्वारा के जेमां बंधाय छे तेनुं नाम बंध छे. ते बंध त्रण प्रकारनो छे-जीवबंध, पुद्गलबंध अने जीव-पुद्गलबंध. एक शरीरमां


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अ. १. परि. प ] [ १६१

रहेनार अनंतानंत निगोदना जीवोने जे परस्पर बंध छे ते जीवबंध कहेवाय छे. बे

त्रण वगेरे पुद्गलोनो जे समवाय संबंध थाय छे ते पुद्गलबंध कहेवाय छे. तथा औदारिक वर्गणाओ, वैक्रियिक वर्गणाओ, आहारक वर्गणाओ, तैजस वर्गणाओ अने कार्माण वर्गणाओ एनो अने जीवोनो जे बंध थाय छे ते जीव-पुद्गल बंध कहेवाय छे. जे कर्मना कारणे अनंतानंत जीव एक शरीरमां रहे छे ते कर्मनुं नाम जीवबंध छे. जे स्निग्ध अने रूक्ष वगेरे गुणोने लीधे पुद्गलोनो बंध थाय छे तेनुं नाम पुद्गल बंध छे. जे मिथ्यात्व, असंयम, कषाय अने योग आदिना निमित्ते जीव अने पुद्गलोनो बंध थाय छे ते जीव-पुद्गल बंध कहेवाय छे. आ बंधने पण ते भगवान जाणे छे.

मोक्षऋद्धि, स्थिति तथा युति अने तेमना कारणो पण जाणे छे

छूटवानुं नाम मोक्ष छे, अथवा जेना द्वारा के जेमां मुक्त थाय छे ते मोक्ष कहेवाय छे. ते मोक्ष त्रण प्रकारनो छे-जीवमोक्ष, पुद्गलमोक्ष अने जीव-पुद्गलमोक्ष.

ए ज प्रमाणे मोक्षना कारणो पण त्रण प्रकारना कहेवा जोईए. बंध, बंधनुं कारण, बंध प्रदेश, बद्ध अने बध्यमान जीव अने पुद्गल; तथा मोक्ष, मोक्षनुं कारण, मोक्षप्रदेश, मुक्त अने मुच्यमान जीव अने पुद्गल; आ सर्व त्रिकाळविषयक पदार्थोने जाणे छे, ए उक्त कथननुं तात्पर्य छे.

भोग अने उपभोगरूप घोडा, हाथी, मणि अने रत्न, रूप, संपदा, तथा ते संपदानी प्राप्तिना कारणनुं नाम ऋद्धि छे. त्रण लोकमां रहेनारी सर्व संपदाओ तथा देव, असुर अने मनुष्यभवनी संप्राप्तिना कारणोने पण जाणे छे; ए उक्त कथननुं तात्पर्य छे. छ द्रव्योनुं विवक्षित भावे अवस्थान अने अवस्थानना कारणनुं नाम स्थिति छे. द्रव्यस्थिति, कर्मस्थिति, कायस्थिति भवस्थिति, अने भावस्थिति आदि स्थितिने सकारण जाणे छे, ए उक्त कथननुं तात्पर्य छे.

त्रिकाळविषयक सर्व प्रकारना संयोग अथवा समीपताना
सर्व भेदने जाणे छे

द्रव्य, क्षेत्र, काळ अने भावसहित जीवादि द्रव्योना संमेलननुं नाम युति छे. शंकाः– युति अने बंधमां शुं तफावत छे? समाधानः– एकीभावनुं नाम बंध छे अने समीपता अथवा संयोगनुं नाम युति छे.


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१६२ ] [ मोक्षशास्त्र

अहीं द्रव्ययुति त्रण प्रकारनी छे-जीवयुति, पुद्गलयुति अने जीव-पुद्गलयुति. एमांथी एक कुळ, गाम, नगर, बिल (-दर), गुफा के जंगलमां जीवोनुं मळवुं ते जीवयुति छे. पवनने लीधे हालतां पांदडांओनी जेम एक स्थानमां पुद्गलोनुं मळवुं ते पुद्गलयुति छे. जीव अने पुद्गलोनुं मळवुं ते जीव-पुद्गलयुति छे. अथवा जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, काळ अने आकाश एमना एक वगेरेना संयोग द्वारा द्रव्ययुति उत्पन्न कराववी जोईए. जीवादि द्रव्योनुं नारकादि क्षेत्रो साथे मळवुं ते क्षेत्रयुति छे. ते ज द्रव्योनो दिवस, महिना, वर्ष आदि काळ साथेनो जे मिलाप ते काळयुति छे. क्रोध, मान, माया अने लोभादिक साथे तेमनो मिलाप थवो ते भावयुति छे. त्रिकाळविषयक आ सर्व युतिओना भेदोने ते भगवान जाणे छे.

छ द्रव्योना अनुभाग तथा घटोत्पादनरूप अनुभागने पण जाणे छे

छ द्रव्योनी शक्तिनुं नाम अनुभाग छे. ते अनुभाग छ प्रकारनो छे- जीवानुभाग, पुद्गलानुभाग, धर्मास्तिकायानुभाग, अधर्मास्तिकायानुभाग, आकाशास्तिकायानुभाग अने काळद्रव्यानुभाग. एमांथी सर्व द्रव्योनुं जाणवुं ते जीवानुभाग छे. ज्वर, कुष्ठ अने क्षयादिनो विनाश करवो अने तेमने उत्पन्न करवा तेनुं नाम पुद्गलानुभाग छे. योनि प्राभृतमां कहेला मंत्र-तंत्ररूप शक्तिओनुं नाम पुद्गलानुभाग छे, एम अहीं ग्रहण करवुं जोईए. जीव अने पुद्गलोना गमन अने आगमनमां हेतु थवुं ते धर्मास्तिकायानुभाग छे. तेमना ज अवस्थानमां हेतु थवुं ते अधर्मास्तिकायानुभाग छे. जीवादि द्रव्योनो आधार थवुं ते आकाशास्तिकायानुभाग छे. अन्य द्रव्योना क्रम अने युगपद् परिणाममां हेतु थवुं ते काळद्रव्यानुभाग छे. ए ज रीते द्विसंयोगादि रूपे अनुभागनुं कथन करवुं जोईए. जेमके-माटीनो पिंड, दंड, चक्र, चीवर, जळ अने कुंभार आदिनो घटोत्पादनरूप अनुभाग. ए अनुभागने पण जाणे छे.

तर्क, कळा, मन, मानसिक ज्ञान अने मनथी चिंतित
पदार्थोने पण जाणे छे

तर्क, हेतु अने ज्ञापक, ए एकार्थवाची शब्दो छे. एने पण जाणे छे. चित्रकर्म अने पत्रछेदन आदिनुं नाम कळा छे. कळाने पण तेओ जाणे छे. मनोवर्गणाथी बनेल हृदय-कमळनुं नाम मन छे, अथवा मनथी उत्पन्न थयेल ज्ञानने मन कहे छे. मन वडे चिंतित पदार्थोनुं नाम मानसिक छे. तेमने पण जाणे छे.

भुक्त, कृत, प्रतिसेवित, आदिकर्म, अरहःकर्म, सर्व लोक, सर्व जीवो
अने सर्व भावोने सम्यक् प्रकारे युगपद जाणे छे
राज्य अने महाव्रतादिनुं परिपालन करवुं तेनुं नाम भुक्ति छे. ते भुक्तने जाणे

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अ. १. परि. प ] [ १६३ छे. जे कांई त्रणे काळे अन्य द्वारा निष्पन्न थाय छे तेनुं नाम कृत छे. पांचे इन्द्रियो द्वारा त्रणे काळमां जे सेववामां आवे छे तेनुं नाम प्रतिसेवित छे. आद्यकर्मनुं नाम आदिकर्म छे. अर्थपर्याय अने व्यंजनपर्यायरूपे सर्व द्रव्योना आदिने जाणे छे, ए उक्त कथननुं तात्पर्य छे.

रहस् शब्दनो अर्थ अंर्त अने अरहस् शब्दनो अर्थ अनंतर छे. अरहस् एवुं जे कर्म ते अरहःकर्म कहेवाय छे. तेमने जाणे छे. शुद्धद्रव्यार्थिकनयना विषयरूपे सर्व द्रव्योना अनादिपणाने जाणे छे, ए उक्त कथननुं तात्पर्य छे. आखाय लोकमां सर्व जीवो अने सर्व भावोने जाणे छे.

शंकाः– अहीं ‘सर्व जीव’ पद ग्रहण न करवुं जोईए, केमके बद्ध अने मुक्त पदथी तेना अर्थनुं ज्ञान थई जाय छे.

समाधानः– ना, केमके एक संख्या विशिष्ट बद्ध अने मुक्तनुं ग्रहण त्यां न थाय तेथी तेनो प्रतिषेध करवा माटे ‘सर्व जीव’ पदने निर्देश कर्यो छे.

जीव बे प्रकारना छे–संसारी अने मुक्त. एमां मुक्त जीव अनंत प्रकारना छे, केमके सिद्धलोकना आदि अने अंत प्राप्त थता नथी.

शंकाः– सिद्ध लोकना आदि अने अंतनो अभाव केवी रीते छे? समाधानः– केमके तेमनो प्रवाह स्वरूपे धारावाही छे तथा ‘सर्व सिद्ध जीव सिद्धिनी अपेक्षाए सादि छे अने संताननी अपेक्षाए अनादि छे’ एवुं सूत्र वचन पण छे.

सर्व जीवोने जाणे छे

संसारी जीव बे प्रकारनां छे-त्रस अने स्थावर. त्रस जीव चार प्रकारना छे- द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय अने पंचेन्द्रिय. पंचेन्द्रिय जीव बे प्रकारना छे-संज्ञी अने असंज्ञी. आ बधा जीवो त्रसपर्याप्त अने अपर्याप्तना भेदथी बे प्रकारनां छे. अपर्याप्त जीव लब्ध्यपर्याप्त अने निर्वृत्त्यपर्याप्तना भेदथी बे प्रकारनां छे. स्थावर जीव पांच प्रकारना छे-पृथ्वीकायिक, जळकायिक, अग्निकायिक, वायुकायिक अने वनस्पतिकायिक. आ पांचेय स्थावरकायिक जीवोमां प्रत्येक बे प्रकारना छे-बादर अने सूक्ष्म. एमां बादर वनस्पतिकायिक जीव बे प्रकारना छे-प्रत्येक शरीर अने साधारण शरीर. अहीं प्रत्येक शरीर जीव बे प्रकारनां छे-बादर निगोद प्रतिष्ठित अने बादर निगोद अप्रतिष्ठित. आ बधा स्थावरकायिक जीव पण प्रत्येक बे प्रकारना छे-पर्याप्त अने अपर्याप्त. अपर्याप्त बे प्रकारना छे-लब्ध्यपर्याप्त अने निर्वृत्त्यपर्याप्त. एमांथी वनस्पतिकायिक अनंत प्रकारना अने


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१६४ ] [ मोक्षशास्त्र शेष असंख्यात प्रकारनां छे. केवळी भगवान समस्त लोकमां स्थित आ सर्व जीवोने जाणे छे, ए उक्त कथननुं तात्पर्य छे.

सर्व भावोने जाणे छे

जीव, अजीव, पुण्य, पाप, आस्रव, बंध, संवर, निर्जरा अने मोक्षना भेदथी पदार्थ नव प्रकारना छे. तेमांथी जीवोनुं कथन करी दीधुं छे. अजीव बे प्रकारनां छे- मूर्त अने अमूर्त. तेमांथी मूर्त पुद्गल ओगणीस प्रकारनां छे. जेम के, एकप्रदेशी वर्गणा, संख्यातप्रदेशी वर्गणा, असंख्यात प्रदेशी वर्गणा, अनंत प्रदेशी वर्गणा, आहार वर्गणा, अग्रहण वर्गणा, तैजस शरीर वर्गणा, अग्रहण वर्गणा, भाषा वर्गणा, अग्रहण वर्गणा, मनो वर्गणा, अग्रहण वर्गणा, कार्मणशरीर वर्गणा, स्कन्धवर्गणा, सान्तर निरन्तर वर्गणा, ध्रुवशून्य वर्गणा, प्रत्येक शरीर वर्गणा, ध्रुवशून्य वर्गणा, बादरनिगोद वर्गणा, ध्रुवशून्य वर्गणा, सूक्ष्म निगोद वर्गणा, ध्रुवशून्य वर्गणा अने महास्कन्ध वर्गणा. आ तेवीस वर्गणाओमांथी चार ध्रुवशून्य वर्गणाओ काढी नाखतां ओगणीस प्रकारना पुद्गल होय छे अने ते प्रत्येक अनंत भेदो सहित छे. अमूर्त चार प्रकारना छे-धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय अने काळ. काळ घनलोक प्रमाण छे बाकीना एक एक छे. आकाश अनंत प्रदेशी छे, काळ अप्रदेशी छे अने बाकीना असंख्यात प्रदेशी छे.

सर्व भावोनी अंतर्गत–शुभाशुभ कर्मप्रकृतिओ, पुण्य–पाप, आस्रव,

संवर, निर्जरा, बंध अने मोक्ष ए बधाने केवळी जाणे छे

शुभ प्रकृतिओनुं नाम पुण्य छे अने अशुभ प्रकृतिओनुं नाम पाप छे. अहीं घातीचतुष्क पापरूप छे. अघातिचतुष्क मिश्ररूप छे, केमके एमां शुभ अने अशुभ बन्ने प्रकृतिओ संभवे छे. मिथ्यात्व, असंयम, कषाय अने योग ए आस्रव छे. एमांथी मिथ्यात्व पांच प्रकारनुं छे. असंयम बेताळीस प्रकारनो छे. कह्युं पण छे- पांच रस, पांच वर्ण, बे गंध, आठ स्पर्श, सात स्वर, मन अने चौद प्रकारना जीव; एमनी अपेक्षाए अविरमण अर्थात् इन्द्रिय अने प्राणीरूप असंयम बेंताळीस प्रकारनो छे. ३३.

अनंतानुबंधी क्रोध, मान, माया अने लोभ; प्रत्याख्यानावरण क्रोध, मान, माया अने लोभ; अप्रत्याख्यानावरण क्रोध, मान, माया अने लोभ; संज्वलन क्रोध, मान, माया अने लोभ; हास्य रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, तथा स्त्रीवेद, पुरुषवेद अने नपुंसकवेदना भेदथी कषाय पचीस प्रकारनो छे. योग पंदर प्रकारनो छे. आस्रवना प्रतिपक्षनुं नाम संवर छे. अग्यार भेदरूप गुणश्रेणि द्वारा कर्मोनुं गळवुं ते


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अ. १. परि. प ] [ १६प निर्जरा छे. जीवो अने कर्म-पुद्गलोना समवायनुं नाम बंध छे. जीव अने कर्मनुं संपूर्ण विश्लेष थवो ते मोक्ष छे. आ बधा भावोने केवळी जाणे छे.

समं अर्थात् अक्रमे (युगपद). अहीं जे ‘समं’ पदनुं ग्रहण कर्युं छे ते केवळज्ञान अतीन्द्रिय छे अने व्यवधान आदिथी रहित छे ए वात सूचित करे छे; केमके नहि तो सर्व पदार्थोनुं युगपद ग्रहण करवानुं बनी शके नहि; संशय, विपर्यय अने अनध्यवसायनो अभाव होवाथी अथवा त्रिकाळगोचर सर्व द्रव्यो अने तेमनी पर्यायोनुं ग्रहण होवाथी केवळी भगवान सम्यक् प्रकारे जाणे छे. केवळी द्वारा सर्व बाह्यपदार्थोनुं ग्रहण थवा छतां पण तेमनुं सर्वज्ञ होवुं संभव नथी, केमके तेमने स्वरूप परिच्छिति अर्थात् स्वसंवेदननो अभाव छे एवी आशंका थता सूत्रमां ‘पश्यति’ देखे छे कह्युं छे अर्थात् तेओ त्रिकाळगोचर अनंत पर्यायो सहित आत्माने पण देखे छे.

केवळज्ञाननी उत्पत्ति थया पछी सर्व कर्मोनो क्षय थई जवाथी शरीररहित थयेल केवळी उपदेश आपी शकता नथी, तेथी तीर्थनो अभाव प्राप्त थाय छे; एम कहेवाथी सूत्रमां ‘विहरदि’ कह्युं छे अर्थात् चार अघाति कर्मोनी सत्ता रहेवाथी तेओ कांईक कम एक करोड पूर्व सुधी विहार करे छे. आवुं केवळज्ञान होय छे. ८३.

आ जातना गुणोवाळुं केवळज्ञान होय छे
शंकाः– गुणमां गुण केवी रीते होई शके?
समाधानः– अहीं केवळज्ञान द्वारा केवळज्ञानीनो निर्देश करवामां आव्यो छे.
आवा केवळी होय छे, ए उक्त कथननुं तात्पर्य छे.
(र) श्री कुन्दकुन्दाचार्यकृत प्रवचनसार गाथा ३७ मां कह्युं छे-

तक्कालिगेव सव्वे सदसब्भूदा हि पज्जयां तासिं । वट्टते ते णाणे विसेसदो दव्वजादीणं।। ३७।।

अर्थः– “ते (जीवादि) द्रव्य जातिओनी समस्त विद्यमान अने अविद्यमान पर्यायो तात्काळिक (वर्तमान) पर्यायोनी जेम विशिष्टतापूर्वक (पोतपोताना भिन्न भिन्न स्वरूपे) ज्ञानमां वर्ते छे.”

आ श्लोकनी श्री अमृतचंद्राचार्यकृत टीकामां कह्युं छे के- टीकाः– “(जीवादि) समस्त द्रव्य जातिओनी पर्यायोनी उत्पत्तिनी मर्यादा त्रणे काळनी मर्यादा जेटली होवाथी (तेओ त्रणे काळे उत्पन्न थया करे छे तेथी) तेमनी (-ते समस्त द्रव्य जातिओनी) क्रमपूर्वक तपती स्वरूपसंपदावाळी, (एक पछी बीजी प्रगट थनार), विद्यमानता अने अविद्यमानताने प्राप्त जे