Moksha Shastra-Gujarati (Devanagari transliteration). Parishist-2; Parishist-3.

< Previous Page   Next Page >


Combined PDF/HTML Page 10 of 36

 

Page 126 of 655
PDF/HTML Page 181 of 710
single page version

मोक्षशास्त्र–गुजराती टीका
अध्याय १ः परिशिष्ट र.
[]
सम्यग्दर्शन
सम्यग्दर्शन शुं अने तेने कोनुं अवलंबन

सम्यग्दर्शन पोते आत्माना श्रद्धागुणनो निर्विकारी पर्याय छे. अखंड आत्माना लक्षे सम्यग्दर्शन प्रगटे छे; सम्यग्दर्शनने कोई विकल्पनुं अवलंबन नथी, पण निर्विकल्प स्वभावना अवलंबने सम्यग्दर्शन प्रगटे छे. आ सम्यग्दर्शन ज आत्माना सर्व सुखनुं कारण छे. ‘हुं ज्ञानस्वरूप आत्मा छुं, बंधरहित छुं’-आवो विकल्प करवो ते पण शुभराग छे. ते शुभरागनुं अवलंबन पण सम्यग्दर्शनने नथी; ते शुभ विकल्पने. अतिक्रमतां सम्यग्दर्शन थाय छे. सम्यग्दर्शन पोते राग अने विकल्प रहित निर्मळ गुण छे, तेने कोई विकारनुं अवलंबन नथी पण आखा आत्मानुं अवलंबन छे- आखा आत्माने ते स्वीकारे छे.

एक वार विकल्प रहित थईने अखंड ज्ञायकस्वभावने लक्षमां लीधो त्यां सम्यग्भान थयुं. अखंड स्वभावनुं लक्ष ए ज स्वरूपनी शुद्धि माटे कार्यकारी छे. अखंड सत्य स्वरूपने जाण्या विना-श्रद्धा कर्या विना, ‘हुं ज्ञानस्वरूप आत्मा छुं, अबद्धस्पृष्ट छुं’-ए वगेरे विकल्पो पण आत्मानी शुद्धि माटे कार्यकारी नथी. एकवार अखंड ज्ञायकस्वभावनुं लक्ष कर्युं पछी जे वृत्ति ऊठे ते वृत्तिओ अस्थिरतानुं कार्य करे परंतु ते स्वरूपने रोकवा समर्थ नथी, केमके श्रद्धामां तो वृत्ति-विकल्परहित स्वरूप छे; तेथी वृत्ति ऊठे ते श्रद्धाने फेरवी शके नहि... जो विकल्पमां ज अटकी जाय तो ते मिथ्याद्रष्टि छे. विकल्प रहित थईने अभेदनो अनुभव करवो ते ज सम्यग्दर्शन छे; आ बाबतमां कह्युं छे केः-

कम्मं बद्धमबद्धं जीवे एवं तु ण णयपक्खं।
पक्खातिक्कंतो पुण भण्णदि जो सो समयसारो।। १४२।।
[समयसार]
छे कर्म जीवमां बद्ध वा अणबद्ध ए नयपक्ष छे;
पण पक्षथी अतिक्रांति भाख्यो ते ‘समयनो सार’ छे. १४र

Page 127 of 655
PDF/HTML Page 182 of 710
single page version

१२६ ] [ मोक्षशास्त्र

‘आत्मा कर्मथी बंधायेलो छे के आत्मा कर्मथी बंधाएलो नथी’ एवा बे प्रकारना भेदना विचारमां रोकावुं ते तो नयनो पक्ष छे; ‘हुं आत्मा छुं, परथी जुदो छुं’ एवो विकल्प ते पण राग छे, ए रागनी वृत्तिने-नयना पक्षने ओळंगे तो सम्यग्दर्शन प्रगटे. “हुं बंधायेलो छुं अथवा हुं बंध रहित मुक्त छुं.” एवी विचारश्रेणीने ओळंगी जईने जे आत्मानो अनुभव करे छे ते ज सम्यग्द्रष्टि छे अने ते ज शुद्धात्मा छे.

‘हुं अबंध छुं, बंध मारुं स्वरूप नथी’ एवा भंगनी विचारश्रेणीना कार्यमां अटकवुं तो अज्ञान छे, अने ते भंगना विचारने ओळंगीने अभंग स्वरूपने स्पर्शी लेवुं (अनुभवी लेवुं) ते ज पहेलो आत्मधर्म एटले के सम्यग्दर्शन छे. ‘हुं पराश्रय रहित, अबंध, शुद्ध छुं.’ एवा निश्चयनयना पडखांनो विकल्प ते राग छे. अने ते रागमां रोकाय (रागने ज सम्यग्दर्शन मानी ल्ये पण रागरहित स्वरूपने न अनुभवे) तो ते मिथ्याद्रष्टि छे.

भेदना विकल्प आवे खरा छतां तेनाथी सम्यग्दर्शन नथी

अनादिथी आत्मस्वरूपनो अनुभव नथी, परिचय नथी; तेथी आत्मानो अनुभव करवा जतां पहेलां ते संबंधी विकल्प आव्या वगर रहेता नथी. अनादिथी आत्माना स्वरूपनो अनुभव नथी तेथी वृत्तिओनुं उत्थान थाय छे के- ‘हुं आत्मा कर्मना संबंधवाळो छुं के कर्मना संबंध वगरनो छुं, आम बे नयोना बे विकल्प ऊठे छे; परंतु- कर्मना संबंधवाळो के कर्मना संबंध वगरनो एटले के बद्ध छुं के अबद्ध छुं.’ एवा बे प्रकारना भेदनो पण एक स्वरूपमां क्यां अवकाश छे? स्वरूप तो नयपक्षनी अपेक्षाओथी पार छे. एक प्रकारना स्वरूपमां बे प्रकारनी अपेक्षाओ नथी. हुं शुभाशुभभाव रहित छुं एवा विचारमां अटकवुं ते पण पक्ष छे. तेनाथी पण पेलेपार स्वरूप छे. स्वरूप तो पक्षातिक्रांत छे, ए ज सम्यग्दर्शननो विषय छे एटले के तेना ज लक्षे सम्यग्दर्शन प्रगट थाय छे, ते सिवाय बीजो सम्यग्दर्शननो उपाय नथी.

सम्यग्दर्शननुं स्वरूप शुं? देहनी कोई क्रियाथी तो सम्यग्दर्शन नथी, जड कर्मोथी नथी, अशुभ राग के शुभराग थाय तेना लक्षे पण सम्यग्दर्शन नथी अने हुं पुण्यपापना परिणामोथी रहित ज्ञायकस्वरूप छुं’ एवो जे विचार ते पण स्वरूपनो अनुभव कराववा समर्थ नथी. ‘हुं ज्ञायक छुं’ एवा विचारमां अटक्यो ते भेदना विचारमां अटक्यो छे, परंतु स्वरूप तो ज्ञाताद्रष्टा छे तेनो अनुभव ते ज सम्यग्दर्शन छे. भेदना विचारमां अटकवुं ते सम्यग्दर्शननुं स्वरूप नथी.

जे वस्तु छे ते पोताथी परिपूर्ण स्वभावे भरेल छे. आत्मानो स्वभाव परनी

Page 128 of 655
PDF/HTML Page 183 of 710
single page version

अ. १. परि. २ ] [ १२७ अपेक्षा विनानो एकरूप छे. कर्मना संबंधवाळो छुं के कर्मना संबंध वगरनो छुं एवी अपेक्षाओथी ते स्वभावनुं लक्ष थतुं नथी; जोके आत्मस्वभाव तो अबंध ज छे परंतु ‘हुं अबंध छुं’ एवा विकल्पने पण छोडीने निर्विकल्प ज्ञाताद्रष्टा निरपेक्ष स्वभावनुं लक्ष करतां ज सम्यग्दर्शन प्रगटे छे.

आत्मानी प्रभुतानो महिमा अंदर परिपूर्ण छे, अनादिथी तेनी सम्यक् प्रतीति वगर तेनो अनुभव नथी, अनादिथी परलक्ष कर्युं छे पण स्वभावनुं लक्ष कर्युं नथी. शरीरादिमां तो आत्मानुं सुख नथी, शुभरागमां पण सुख नथी, अने ‘शुभराग रहित मारुं स्वरूप छे’ एवा भेदना विचारमां पण आत्मानुं सुख नथी. माटे ते भेदना विचारमां अटकवुं ते पण अज्ञानीनुं कार्य छे. माटे ते नय-पक्षना भेदनुं लक्ष मूकी दईने अभेद ज्ञातास्वभावनुं लक्ष करवुं ते ज सम्यग्दर्शन छे अने तेमां ज सुख छे. अभेद स्वभावनुं लक्ष कहो, ज्ञातास्वरूपनो अनुभव कहो, सुख कहो, धर्म कहो के सम्यग्दर्शन कहो-ते आ ज छे.

विकल्प राखीने स्वरूपनो अनुभव थई शके नहि.

अखंडानंद अभेद आत्मानुं लक्ष नय द्वारा थतुं नथी. कोई महेलमां जवा माटे मोटर गमे तेवी दोडावे, पण ते महेलना बारणां सुधी आवी शके. मोटर सहित महेलमां पेसी शकाय नहि. गमे त्यांसुधी आगळ लई जाय पण छेवटे तो मोटरमांथी ऊतरीने जाते अंदर जवुं पडे; तेवी रीते नयपक्षना विकल्पोरूपी मोटर गमे तेटली दोडावे. ‘हुं ज्ञायक छुं, अभेद छुं, शुद्ध छुं’-एवा विकल्प करे तोपण ते विकल्प स्वरूपना आंगणां सुधी लई जवाय. परंतु स्वरूपना अनुभव वखते तो ते बधा विकल्प छोडी ज देवा पडे. विकल्प राखीने स्वरूपनो अनुभव थई शके नहि. नयपक्षोनुं ज्ञान ते स्वरूपना आंगणे आववा माटे जरूरनुं छे. “हुं स्वाधीन ज्ञानस्वरूपी आत्मा छुं, कर्मो जड छे, जड कर्मो मारा स्वरूपने रोकी शके नहि, हुं विकार करुं तो कर्मोने निमित्त कहेवाय, पण कर्मो मने विकार करावे नहि केमके बन्ने द्रव्यो जुदां छे, ते कोई एक बीजानुं करी शके नहि. हुं जडनुं कांई न करुं जड मारुं कांई न करे, राग-द्वेष थाय छे ते कर्म करावतुं नथी तेम ज परवस्तुमां थता नथी पण मारी अवस्थामां थाय छे, ते रागद्वेष मारो स्वभाव नथी, निश्चयथी मारो स्वभाव रागरहित ज्ञानस्वरूप छे” आ प्रमाणे बधां पडखांनुं (नयोनुं) ज्ञान पहेलां करवुं जोईए, परंतु आटलुं करे त्यां सुधी पण भेदनुं लक्ष छे, भेदना लक्षथी अभेद आत्मस्वरूपनो अनुभव थतो नथी, छतां पहेलां ते भेद जाणवा जोईए. एटलुं जाणे त्यारे ते स्वरूपना आंगणां सुधी आव्यो छे. पछी ज्यारे अभेदनुं लक्ष करे त्यारे भेदनुं लक्ष


Page 129 of 655
PDF/HTML Page 184 of 710
single page version

१२८ ] [ मोक्षशास्त्र छूटी जाय अने स्वरूपनुं अनुभवन थाय एटले के अपूर्व सम्यग्दर्शन प्रगटे. आ रीते जोके स्वरूपमां ढळतां पहेलां नयपक्षना विचारो होय छे खरा, परंतु ते नयपक्षना कोईपण विचारो स्वरूपना अनुभवमां मददगार नथी.

सम्यग्दर्शन अने सम्यग्ज्ञाननो संबंध कोनी साथे छे?

सम्यग्दर्शन निर्विकल्प सामान्य श्रद्धागुणनो शुद्धपर्याय छे, तेने एकला निश्चयअखंड स्वभाव साथे ज संबंध छे, अखंड द्रव्य जे भंग-भेद रहित छे ते ज सम्यग्दर्शनने मान्य छे; सम्यग्दर्शन पर्यायने स्वीकारतुं नथी, पण सम्यग्दर्शन साथे रहेतुं ज सम्यग्ज्ञान छे तेनो संबंध निश्चय-व्यवहार बन्ने साथे छे एटले के निश्चय-अखंड स्वभावने तथा व्यवहारमां पर्यायना जे भंग-भेद पडे छे ते बधाने सम्यग्ज्ञान जाणी ले छे.

सम्यग्दर्शन एक निर्मळ पर्याय छे, पण ‘हुं एक निर्मळ पर्याय छुं’-एम सम्यग्दर्शन पोते पोताने जाणतुं नथी. सम्यग्दर्शननो अखंड विषय एक द्रव्य ज छे. पर्याय ते सम्यग्दर्शननो विषय नथी.

प्रश्नः– सम्यग्दर्शननो विषय अखंड छे अने ते पर्यायने स्वीकारतुं नथी तो पछी सम्यग्दर्शन वखते पर्याय क्यां गई? सम्यग्दर्शन पोते ज पर्याय छे, शुं पर्याय द्रव्यथी जुदो पडी गयो?

उत्तरः– सम्यग्दर्शननो विषय तो अखंड द्रव्य ज छे. सम्यग्दर्शनना विषयमां द्रव्य-गुण-पर्यायना भेद नथी, द्रव्य-गुण-पर्यायथी अभेद वस्तु ते ज सम्यग्दर्शनने मान्य छे. (अभेद वस्तुनुं लक्ष करतां जे निर्मळ पर्याय प्रगटयो ते सामान्य वस्तु साथे अभेद थई जाय छे.) सम्यग्दर्शनरूप जे पर्याय छे तेने पण सम्यग्दर्शन स्वीकारतुं नथी, एक समयमां अभेद परिपूर्ण द्रव्य ते ज सम्यग्दर्शनने मान्य छे. एकला आत्माने सम्यग्दर्शन प्रतीतमां ल्ये छे.. परंतु सम्यग्दर्शन साथे प्रगटतुं सम्यग्ज्ञान सामान्य-विशेष सर्वने जाणे छे, सम्यग्ज्ञान छे ते पर्यायने अने निमित्तने पण जाणे छे. सम्यग्दर्शनने पण जाणनारुं तो सम्यग्ज्ञान ज छे.

श्रद्धा अने ज्ञान क्यारे सम्यक् थयां?

औदयिक, औपशमिक, क्षायोपशमिक के क्षायिकभाव ए कोई सम्यग्दर्शननो विषय नथी केमके ते बधा पर्याय छे. सम्यग्दर्शननो विषय परिपूर्ण द्रव्य छे, पर्यायने सम्यग्दर्शन स्वीकारतुं नथी, एकली वस्तुनुं ज्यारे लक्ष कर्युं त्यारे श्रद्धा सम्यक् थई.

प्रश्नः– ते वखते थतुं सम्यग्ज्ञान केवुं होय छे?
उत्तरः– ज्ञाननो स्वभाव सामान्य-विशेष सर्वने जाणवानो छे. ज्यारे ज्ञाने

Page 130 of 655
PDF/HTML Page 185 of 710
single page version

अ. १. परि. २ ] [ १२९ आखा द्रव्यने, ऊघडेला पर्यायने अने विकारने जेम छे तेम जाणीने, ‘परिपूर्ण स्वभाव ते हुं, विकार रह्यो ते हुं नहि’ एम विवेक कर्यो त्यारे ते सम्यक् थयुं छे. सम्यग्दर्शनरूप ऊघडेला पर्यायने (१) सम्यग्दर्शनना विषयभूत परिपूर्ण वस्तुने (र) अने अवस्थानी ऊणपने (३)-ए त्रणेने जेम छे तेम सम्यग्ज्ञान जाणे छे; अवस्थानो स्वीकार ज्ञानमां छे. आ रीते सम्यग्दर्शन तो एक निश्चयने ज (अभेद स्वरूपने ज) स्वीकारे छे, अने सम्यग्दर्शननुं अविनाभावी (साथे ज रहेतुं) सम्यग्ज्ञान निश्चय अने व्यवहार बन्नेने बराबर जाणीने विवेक करे छे. जो निश्चय-व्यवहार बन्नेने न जाणे तो ज्ञान प्रमाण (सम्यक्) थतुं नथी. जो व्यवहारनुं लक्ष करे तो द्रष्टि खोटी ठरे छे अने जो व्यवहारने जाणे ज नहि तो ज्ञान खोटुं ठरे छे. ज्ञान निश्चय-व्यवहारनो विवेक करे छे त्यारे ते सम्यक् छे अने द्रष्टि व्यवहारनुं लक्ष छोडीने निश्चयने अंगीकार करे तो ते सम्यक् छे.

सम्यग्दर्शननो विषय शुं? मोक्षनुं परमार्थ कारण कोण?

सम्यग्दर्शनना विषयमां मोक्षपर्याय अने द्रव्य एवा भेद ज नथी, द्रव्य ज परिपूर्ण छे ते सम्यग्दर्शनने मान्य छे. बंध-मोक्ष पण सम्यग्दर्शनने मान्य नथी. बंध-मोक्षनो पर्याय, साधकदशाना भंग-भेद ए बधाने सम्यग्ज्ञान जाणे छे.

सम्यग्दर्शननो विषय परिपूर्ण द्रव्य छे ते ज मोक्षनुं परमार्थकारण छे. पंचमहाव्रतादिने के विकल्पने मोक्षनुं कारण कहेवुं ते तो स्थूळ व्यवहार छे, अने सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्ररूप साधक अवस्थाने मोक्षनुं कारण कहेवुं ते पण व्यवहार छे केमके ते साधक अवस्थानो पण ज्यारे अभाव थाय छे त्यारे मोक्षदशा प्रगटे छे, एटले ते पण अभावरूप कारण छे माटे व्यवहार छे.

त्रिकाळी अखंड वस्तु छे ते ज मोक्षनुं निश्चयकारण छे. परमार्थे तो वस्तुमां कारण-कार्यना भेद पण नथी, कार्य-कारणना भेद पण व्यवहार छे. एक अखंड वस्तुमां कार्य-कारणना भेदना विचारथी विकल्प आवे छे तेथी ते पण व्यवहार छे; छतां व्यवहारपणे पण कार्य-कारणना भेद सर्वथा न ज होय तो मोक्षदशा प्रगटाववानुं पण कही शकाय नहि. एटले अवस्थामां साधकसाध्यना भेद छे; परंतु अभेदना लक्ष वखते व्यवहारनुं लक्ष होय नहि केमके व्यवहारना लक्षमां भेद आवे छे अने भेदना लक्षे परमार्थ-अभेद स्वरूप लक्षमां आवतुं नथी; तेथी सम्यग्दर्शनना लक्ष्यमां भेद आवता नथी, एकरूप अभेद वस्तु ज सम्यग्दर्शननो विषय छे.


Page 131 of 655
PDF/HTML Page 186 of 710
single page version

१३० ] [ मोक्षशास्त्र

सम्यग्दर्शन ए ज शांतिनो उपाय छे.

अनादिथी आत्माना अखंड रसने सम्यग्दर्शन वडे जाण्यो नथी एटले परमां अने विकल्पमां जीव रस मानी रह्यो छे; पण हुं अखंड एकरूप स्वभाव छुं तेमां ज मारो रस छे, परमां क्यांय मारो रस नथी- एम स्वभावद्रष्टिना जोरे एकवार बधाने निरस बनावी दे! शुभ विकल्प ऊठे ते पण मारी शांतिनुं साधन नथी, मारी शांति मारा स्वरूपमां छे, आम स्वरूपना रसना अनुभवमां समस्त संसारने निरस बनावी दे! तने सहजानंद स्वरूपना अमृतरसनी अपूर्व शांतिनो अनुभव प्रगट थशे. तेनो उपाय सम्यग्दर्शन ज छे.

संसारनो अभाव सम्यग्दर्शनथी थाय छे

अनंतकाळथी अनंत जीवो संसारमां रखडे छे अने अनंत काळमां अनंत जीवो सम्यग्दर्शन वडे पूर्ण स्वरूपनुं भान करीने मुकित पाम्या छे. जीवोए संसारपक्ष तो अनादिथी ग्रहण कर्यो छे परंतु सिद्धनो पक्ष कदी ग्रहण कर्यो नथी. हवे सिद्धनो पक्ष ग्रहण करीने पोताना सिद्धस्वरूपने जाणीने संसारनो अभाव करवानो अवसर आव्यो छे.. अने तेनो उपाय एक मात्र सम्यग्दर्शन छे.


Page 132 of 655
PDF/HTML Page 187 of 710
single page version

मोक्षशास्त्र–गुजराती टीका
अध्याय १ःपरिशिष्ट ३.
[]
जिज्ञासुए धर्म केवी रीते करवो?

जे जीव जिज्ञासु थई स्वभाव समजवा मागे छे ते सुख लेवा अने दुःख टाळवा मागे छे. सुख पोतानो स्वभाव छे अने वर्तमानमां जे दुःख छे ते क्षणिक छे तेथी टळी शके छे. वर्तमान दुःखअवस्था टाळीने सुखरूप अवस्था पोते प्रगट करी शके छे; आटलुं तो, जे सत् समजवा मागे छे तेणे स्वीकारी लीधुं ज छे. आत्माए पोताना भावमां पुरुषार्थ करी विकार रहित स्वरूपनो निर्णय करवो जोईए. वर्तमान विकार होवा छतां विकार रहित स्वभावनी श्रद्धा करी शकाय छे एटले के आ विकार अने दुःख मारुं स्वरूप नथी एम नक्की थई शके छे.

पात्र जीवनुं लक्षण

जिज्ञासु जीवोने स्वरूपनो निर्णय करवा माटे पहेली ज ज्ञानक्रिया शास्त्रोए बतावी छे. स्वरूपनो निर्णय करवा माटे बीजुं कांई दान, पूजा, भक्ति के व्रत- तपादि करवानुं कह्युं नथी, परंतु श्रुतज्ञानथी आत्मानो निर्णय करवानुं ज कह्युं छे. कुदेव, कुगुरु अने कुशास्त्र तरफनो आदर अने ते तरफनुं वलण तो खसी ज जवुं जोईए तथा विषयादि परवस्तुमां सुखबुद्धि टळी जवी जोईए, बधा तरफथी रुचि टळीने पोतानी तरफ रुचि वळवी जोईए अने देव, गुरु, शास्त्रने यथार्थपणे ओळखी ते तरफ आदर करे, अने आ बधुं जो स्वभावना लक्षे थयेल होय तो ते जीवने पात्रता थई कहेवाय. आटली पात्रता ते हजी सम्यग्दर्शननुं मूळ कारण नथी, सम्यग्दर्शननुं मूळ कारण तो चैतन्यस्वभावनुं लक्ष करवुं ते छे, परंतु प्रथम तो कुदेवादिनो सर्वथा त्याग तथा सत् देव-गुरु-शास्त्र अने सत्समागमनो प्रेम तो पात्र जीवोने होय ज. एवा पात्र थयेला जीवोए आत्मानुं स्वरूप समजवा शुं करवुं ते अहीं स्पष्ट बताव्युं छे.

सम्यग्दर्शनना उपाय माटे ज्ञानीओए बतावेली क्रिया

“प्रथम, श्रुतज्ञानना अवलंबनथी ज्ञानस्वभावी आत्मानो निश्चय करीने, पछी आत्मानी प्रगट प्रसिद्धिने माटे, पर पदार्थनी प्रसिद्धिना कारणो जे इन्द्रियो द्वारा अने मन द्वारा प्रवर्तती बुद्धिओ तेमने मर्यादामां लावीने जेणे मतिज्ञान- तत्त्वने


Page 133 of 655
PDF/HTML Page 188 of 710
single page version

१३२ ] [ मोक्षशास्त्र आत्मसन्मुख कर्युं छे एवो, तथा नाना प्रकारना पक्षोना आलंबनथी थता अनेक विकल्पो वडे आकुळता उत्पन्न करनारी श्रुतज्ञाननी बुद्धिओने पण मर्यादामां लावी श्रुतज्ञान-तत्त्वने पण आत्मसन्मुख करतो, अत्यंत विकल्प रहित थईने, तत्काळ... परमात्मरूप आत्माने ज्यारे आत्मा अनुभवे छे ते वखते ज आत्मा सम्यक्पणे देखाय छे (अर्थात् श्रद्धाय छे) अने जणाय छे, ते ज सम्यग्दर्शन अने ज्ञान छे.”

[जुओ, समयसार गाथा-१४४ टीका]
आ पेरेग्राफ उपरनुं स्पष्टीकरण नीचे प्रमाणे छेः-
श्रुतज्ञान कोने कहेवुं..?

“प्रथम श्रुतज्ञानना अवलंबनथी ज्ञानस्वभावी आत्मानो निर्णय करवो” - आम कह्युं छे. श्रुतज्ञान कोने कहेवुं? सर्वज्ञ भगवाने कहेलुं श्रुतज्ञान अस्ति-नास्ति द्वारा वस्तुस्वरूपने सिद्ध करे छे. अनेकान्तस्वरूप वस्तुने ‘स्वपणे छे अने परपणे नथी’ -एम जे वस्तुने स्वतंत्र सिद्ध करे छे ते श्रुतज्ञान छे.

पर वस्तुने छोडवानुं कहे अथवा पर उपरना रागने घटाडवानुं कहे-ए कांई भगवाने कहेला श्रुतज्ञाननुं लक्षण नथी. एक वस्तु पोतापणे छे अने ते वस्तु अनंत परद्रव्यथी छूटी छे आम अस्ति-नास्तिरूप परस्पर विरुद्ध बे शक्तिओ प्रकाशीने वस्तुस्वरूपने जे बतावे ते अनेकान्त छे अने ते ज श्रुतज्ञाननुं लक्षण छे. वस्तु स्वपणे छे अने परपणे नथी-एमां वस्तु कायम सिद्ध करी छे.

श्रुतज्ञाननुं वास्तविक लक्षण–अनेकान्त

एक वस्तुमां ‘छे’ अने ‘नथी’ एवी परस्पर विरुद्ध बे शक्तिओ जुदी- जुदी अपेक्षाथी प्रकाशीने वस्तुनुं परथी भिन्न स्वरूप जे बतावे ते श्रुतज्ञान छे; आत्मा सर्व परद्रव्योथी जुदी वस्तु छे एम प्रथम श्रुतज्ञानथी नक्की करवुं जोईए.

अनंत परवस्तुथी आ आत्मा जुदो छे एम सिद्ध थतां हवे पोताना द्रव्यपर्यायमां जोवानुं आव्युं. मारुं त्रिकाळी द्रव्य ते एक समय पूरती अवस्थारूपे नथी; एटले के विकार क्षणिक पर्यायपणे छे परंतु त्रिकाळी स्वरूपपणे विकार नथी- आम विकार रहित स्वभावनी सिद्धि पण अनेकांत वडे ज थाय छे. भगवानना कहेलां सत्शास्त्रोनी महत्ता अनेकांतथी ज छे. भगवाने पण जीवोनी दया पाळवानुं कह्युं के अहिंसा बतावी अथवा कर्मोनुं वर्णन कर्युं-ए कांई भगवानने के भगवानना कहेला शास्त्रने ओळखवानुं खरुं लक्षण नथी.


Page 134 of 655
PDF/HTML Page 189 of 710
single page version

अ. १. परि. ३ ] [ १३३

भगवान पण बीजानुं करी शकया नहि

भगवाने पोतानुं कार्य पूरेपूरुं कर्युं पण बीजानुं भगवाने कांई कर्युं नहि, केमके एक तत्त्व पोतापणे छे अने परपणे नथी तेथी ते कोई बीजानुं कांई करी शके नहि. दरेक द्रव्य जुदां-जुदां स्वतंत्र छे, कोई कोईनुं कांई करी शके नहि-आम जाणवुं ते ज भगवानना शास्त्रनी ओळखाण छे; ते ज श्रुतज्ञान छे.

प्रभावनानुं साचुं स्वरूप

कोई जीव परद्रव्यनी प्रभावना करी शकतो नथी, परंतु जैनधर्म एटले के आत्मानो वीतराग स्वभाव तेनी प्रभावना धर्मी जीवो करे छे. आत्माने जाण्या वगर आत्माना स्वभावनी वृद्धिरूप प्रभावना केवी रीते करे? प्रभावना करवानो विकल्प ऊठे ते पण परना कारणे नथी; बीजा माटे कांई पण पोतामां थाय एम कहेवुं ते जैनशासननी मर्यादामां नथी. जैनशासन तो वस्तुने स्वतंत्र, स्वाधीन, परिपूर्ण स्थापे छे.

खरी दयानुं (अहिंसानुं) भगवाने कहेलुं स्वरूप

भगवाने बीजा जीवोनी दया स्थापी-ए वात खोटी छे. परजीवनी क्रिया आ जीव करी ज शकतो नथी तो पछी तेने बचाववानुं भगवान केम कहे? भगवाने तो आत्माना स्वभावने ओळखीने कषायभावथी पोताना आत्माने बचाववो ते करवानुं कह्युं छे; ते ज खरी दया छे. पोताना आत्मानो निर्णय कर्या वगर जीव शुं करशे? भगवानना श्रुतज्ञानमां तो एम कह्युं छे के- तुं ताराथी परिपूर्ण वस्तु छो, दरेक तत्त्व पोताथी ज स्वतंत्र छे, कोई तत्त्वने बीजा तत्त्वनो आश्रय नथी-आ प्रमाणे वस्तुना स्वरूपने छूटुं राखवुं ते अहिंसा छे, अने एकबीजानुं करी शके एम वस्तुने पराधीन मानवी ते हिंसा छे.

आनंद प्रगटाववानी भावनावाळो शुं करे?

जगतना जीवोने सुख जोईए छे, सुख कहो के धर्म कहो. धर्म करवो छे एटले आत्मशांति जोईए छे, सारुं करवुं छे. सारुं क्यां करवुं छे? आत्मानी अवस्थामां दुःखनो नाश करीने वीतरागी आनंद प्रगट करवो छे. ए आनंद एवो जोईए के जे स्वाधीन होय-जेना माटे परनुं अवलंबन न होय.. आवो आनंद प्रगटाववानी जेने यथार्थ भावना होय ते जिज्ञासु कहेवाय. पोतानो पूर्णानंद प्रगटाववानी भावनावाळो जिज्ञासु पहेलां ए जुए के एवो पूर्णानंद कोने प्रगटयो छे. पोताने हजी तेवो


Page 135 of 655
PDF/HTML Page 190 of 710
single page version

१३४ ] [ मोक्षशास्त्र आनंद प्रगट नथी पण पोताने जेनी भावना छे तेवो आनंद बीजा कोईकने प्रगटयो छे अने जेमने ते आनंद प्रगटयो छे एवाओना निमित्तथी पोते ते आनंद प्रगटाववानो साचो मार्ग जाणे-आम जाण्युं तेमां साचां निमित्तोनी ओळखाण पण आवी गई. आटलुं करे त्यां सुधी हजी जिज्ञासु छे.

पोतानी अवस्थामां अधर्म-अशांति छे ते टाळीने धर्म-शांति प्रगटाववी छे. ते शांति पोताने आधारे अने परिपूर्ण जोईए छे. आवी जेने जिज्ञासा थाय ते प्रथम एम नक्की करे छे के-हुं एक आत्मा मारुं परिपूर्ण सुख प्रगटाववा मागुं छुं, तो तेवुं परिपूर्ण सुख कोईने प्रगटयुं होवुं जोईए; जो परिपूर्ण सुख-आनंद प्रगट न होय तो दुःखी कहेवाय. जेने परिपूर्ण अने स्वाधीन आनंद प्रगटयो होय ते ज संपूर्ण सुखी छे; तेवा सर्वज्ञ छे.. आ रीते जिज्ञासु पोताना ज्ञानमां सर्वज्ञनो निर्णय करे छे. परनुं करवा-मूकवानी वात तो छे ज नहि, -ज्यारे परथी जरा छूटो पडयो त्यारे तो आत्मानी जिज्ञासा थई छे. आ तो परथी खसीने जेने पोतानुं हित करवानी झंखना जागी छे एवा जिज्ञासु जीवनी वात छे. परद्रव्य प्रत्येनी सुखबुद्धि अने रुचि टाळी ते पात्रता, अने स्वभावनी रुचि अने ओळखाण थवी ते पात्रतानुं फळ छे.

दुःखनुं मूळ भूल छे. जेणे पोतानी भूलथी दुःख उत्पन्न कर्युं छे ते पोतानी भूल टाळे तो तेनुं दुःख टळे. बीजा कोईए भूल करावी नथी तेथी बीजो कोई पोतानुं दुःख टाळवा समर्थ नथी.

श्रुतज्ञाननुं अवलंबन–ए ज पहेली क्रिया

जे आत्मकल्याण करवा तैयार थयो छे एवा जिज्ञासुए प्रथम शुं करवुं-ते बतावाय छे. आत्मकल्याण एनी मेळे थई जतुं नथी पण पोताना ज्ञानमां रुचि अने पुरुषार्थथी आत्मकल्याण थाय छे. पोतानुं कल्याण करवा माटे, जेओने पूर्ण कल्याण प्रगटयुं छे ते कोण छे, तेओ शुं कहे छे, तेओए प्रथम शुं कर्युं हतुं-एनो पोताना ज्ञानमां निर्णय करवो पडशे; एटले के सर्वज्ञनुं स्वरूप जाणीने तेमना कहेला श्रुतज्ञानना अवलंबनथी पोताना आत्मानो निर्णय करवो जोइए, ए ज प्रथम कर्तव्य छे. कोइ परना अवलंबनथी धर्म प्रगटतो नथी, छतां ज्यारे पोते पोताना पुरुषार्थथी समजे छे त्यारे सामे निमित्त तरीके सत् देव-गुरु ज होय छे.

आ रीते पहेलो ज निर्णय ए आव्यो के कोई पूर्ण पुरुष संपूर्ण सुखी छे अने संपूर्ण ज्ञाता छे; ते ज पुरुष पूर्ण सुखनो पूर्ण सत्य मार्ग कही शके छे; पोते ते समजीने पोतानुं पूर्ण सुख प्रगट करी शके छे; अने पोते समजे त्यारे साचां देव


Page 136 of 655
PDF/HTML Page 191 of 710
single page version

अ. १. परि. ३ ] [ १३प गुरु-शास्त्रो ज निमित्तरूप होय छे. जेने स्त्री, पुत्र, पैसा वगेरेनी एटले के संसारनां निमित्तो तरफनी तीव्र रुचि हशे तेने धर्मनां निमित्तो देव-गुरु-शास्त्र प्रत्येनी रुचि नहि थाय एटले तेने श्रुतज्ञाननुं अवलंबन टकशे नहि अने श्रुतज्ञानना अवलंबन वगर आत्मानो निर्णय थाय नहि, केमके आत्माना निर्णयमां सत् निमित्तो ज होय परंतु कुदेव-कुगुरु-कुशास्त्र ए कोई आत्माना निर्णयमां निमित्तरूप थाय ज नहि. जे कुदेवादिने माने तेने आत्मनिर्णय होय ज नहि.

बीजानी सेवा करीए तो धर्म थाय-ए मान्यता तो जिज्ञासुने होय ज नहि. पण यथार्थ धर्म केम थाय ते माटे प्रथम पूर्ण ज्ञानी भगवान अने तेमनां कहेलां शास्त्रोना अवलंबनथी ज्ञानस्वभावी आत्मानो निर्णय करवानो उद्यमी थाय. धर्मनी कळा ज जगत समज्युं नथी. जो धर्मनी एक कळा पण शीखे तो तेनो मोक्ष थया वगर रहे नहि.

जिज्ञासु जीव पहेलां सुदेवादिनो अने कुदेवादिनो निर्णय करीने कुदेवादिने छोडे छे, अने सत् देव-गुरुनी एवी लगनी लागी छे के-सत्पुरुषो शुं कहे छे ते समजवानुं ज लक्ष छे, एटले अशुभथी तो हठी ज गयो छे. जो सांसारिक रुचिथी पाछो नहि हठे तो श्रुतना अवलंबनमां टकी शकशे नहि.

धर्म कयां छे अने केम थाय?

घणा जिज्ञासुओने आ ज प्रश्न ऊठे छे के धर्म माटे प्रथम शुं करवुं? शुं डुंगरा उपर चडवुं, के सेवा-पूजा कर्या करवी के गुरुनी भक्ति करीने तेमनी कृपा मेळववी के दान करवुं? तो तेनो जवाब ए छे के एमां क्यांय आत्मानो धर्म नथी. धर्म तो पोतानो स्वभाव छे, धर्म पराधीन नथी, कोईना अवलंबने धर्म थतो नथी, धर्म कोईनो आप्यो अपातो नथी; पण पोतानी ओळखाणथी ज धर्म थाय छे. जेने पोतानो पूर्णानंद जोईए छे तेणे पूर्ण आनंदनुं स्वरूप शुं छे, ते कोने प्रगटयो छे ते नक्की करवुं जोईए. जे आनंद हुं इच्छुं छुं ते पूर्ण अबाधित इच्छुं छुं एटले कोई आत्माओ तेवी पूर्णानंद दशा पाम्या छे अने तेओने पूर्णानंद दशामां ज्ञान पण पूर्ण ज छे; केमके जो ज्ञान पूर्ण न होय तो राग-द्वेष रहे अने राग-द्वेष रहे तो दुःख रहे, ज्यां दुःख होय त्यां पूर्णानंद न होई शके. माटे जेमने पूर्णानंद प्रगटयो छे एवा सर्वज्ञ भगवान छे तेमनो अने तेओ शुं कहे छे तेनो जिज्ञासुए निर्णय करवो जोईए. तेथी ज कह्युं छे के ‘प्रथम, श्रुतज्ञानना अवलंबन वडे आत्मानो निर्णय करवो..’ आमां उपादान-निमित्तनी संधि रहेली छे. ज्ञानी कोण छे, सत् वात कोण कहे छे-ए बधुं नक्की करवा माटे निवृत्ति लेवी जोईए. जो स्त्री-कुटुंब-


Page 137 of 655
PDF/HTML Page 192 of 710
single page version

१३६ ] [ मोक्षशास्त्र -लक्ष्मीनो प्रेम अने संसारनी रुचिमां ओछप नहि थाय तो ते सत्समागम माटे निवृत्ति लइ शकशे नहि. श्रुतनुं अवलंबन लेवानुं कह्युं त्यां ज तीव्र अशुभ भावनो तो त्याग आवी गयो. अने साचां निमित्तोनी ओळखाण करवानुं पण आवी गयुं.

सुखनो उपाय–ज्ञान अने सत्समागम

तारे सुख जोईए छे ने? जो तारे सुख जोईतुं होय तो तुं पहेलां सुख क्यां छे अने ते केम प्रगटे तेनो निर्णय कर, ज्ञान कर. सुख क्यां छे अने केम प्रगटे छे तेना ज्ञान वगर सुकाई जाय तोपण सुख न मळे-धर्म न थाय. सर्वज्ञ भगवानना कहेला श्रुतज्ञानना अवलंबन वडे ए निर्णय थाय छे अने ते निर्णय करवो ए ज प्रथम धर्म छे. जेने धर्म करवो होय ते धर्मीने ओळखी तेओ शुं कहे छे तेनो निर्णय करवा माटे सत्समागम करे. सत्समागमे जेने श्रुतज्ञाननुं अवलंबन थयुं के अहो! परिपूर्ण आत्मवस्तु, आ ज उत्कृष्ट महिमावंत छे, आवुं परम स्वरूप में अनंतकाळमां सांभळ्‌युं पण नथी- आम थतां तेने स्वरूपनी रुचि जागे अने सत्समागमनो रंग लागे, एटले तेने कुदेवादि के संसार प्रत्येनी रुचि होय ज नहि.

जो वस्तुने ओळखे तो प्रेम जागे अने ते तरफनो पुरुषार्थ वळे. आत्मा अनादिथी स्वभावने चूकीने परभावरूपी परदेशमां रखडे छे, स्वरूपनी बहार- संसारमां रखडतां रखडतां परम पिता सर्वज्ञ परमात्मा अने परम हितकारी श्री परम गुरु भेटया. अने तेओ पूर्ण हित केम थाय ते संभळावे छे अने आत्माना स्वरूपनी ओळखाण करावे छे. पोतानुं स्वरूप सांभळतां कया धर्मीने उल्लास न आवे? आवे ज, आत्मस्वभावनी वात सांभळतां जिज्ञासु जीवोने महिमा आवे ज.. अहो! अनंतकाळथी आ अपूर्व ज्ञान न थयुं, स्वरूपनी बहार परभावमां भमीने आ अनंतकाळ दुःखी थयो, आ अपूर्व ज्ञान पूर्वे जो कर्युं होत तो आ दुःख न होत.. आम स्वरूपनी झंखना लागे, रस आवे, महिमा जागे.. अने ए महिमाने यथार्थपणे घूंटतां स्वरूपनो निर्णय करे. आ रीते जेने धर्म करीने सुखी थवुं होय तेणे प्रथम श्रुतज्ञाननुं अवलंबन लईने आत्मानो निर्णय करवो.

भगवाननी श्रुतज्ञानरूपी दोरीने द्रढपणे पकडीने तेना अवलंबनथी स्वरूपमां पहोंची जवाय छे. श्रुतज्ञाननुं अवलंबन एटले शुं? साचा श्रुतज्ञाननो ज रस छे, अन्य कुश्रुतज्ञाननो रस नथी, संसारनी वातोनो तीव्र रस टळी गयो छे अने श्रुतज्ञाननो तीव्र रस लाग्यो छे-आ रीते श्रुतज्ञानना अवलंबन वडे ज्ञानस्वभावी आत्मानो निर्णय करवा जे तैयार थयो छे तेने अल्पकाळमां आत्मभान थशे.. संसारनो तीव्र लोहवाट जेना हृदयमां घोळातो होय तेने तो आ परम शांत स्वभावनी वात समजवानी पात्रता नहि.


Page 138 of 655
PDF/HTML Page 193 of 710
single page version

अ. १. परि. ३ ] [ १३७ जागे.. अहीं जे ‘श्रुतनुं अवलंबन’ मूकयुं छे ते अवलंबन तो स्वभावना लक्षे छे, पाछा न फरवाना लक्षे छे. ज्ञानस्वभावी आत्मानो निर्णय करवा माटे जेणे श्रुतनुं अवलंबन उपाडयुं ते आत्मस्वभावनो निर्णय करे ज करे. पाछो फरे एवी वात शास्त्रमां लीधी नथी.

संसारनी रुचि घटाडीने आत्मानो निर्णय करवाना लक्षे जे अहीं सुधी आव्यो तेने श्रुतज्ञानना अवलंबने निर्णय थवानो ज, निर्णय न थाय तेम बने ज नहि. शाहुकारना चोपडे दिवाळानी वात ज न होय, तेम अहीं दीर्घसंसारीनी वात ज नथी. अहीं तो साचा जिज्ञासु जीवोनी ज वात छे. बधी वातनी हा जी हा भणे अने एकेय वातनो पोताना ज्ञानमां निर्णय करे नहि एवा ‘धजानी पूंछडी’ जेवा जीवोनी वात नथी लीधी. टंकणखार जेवी वात छे. जे अनंतकाळना संसारनो अंत लाववा माटे पूर्ण स्वभावना लक्षे शरूआत करवा नीकळ्‌यो छे एवा जीवनी शरूआत पाछी नहि फरे-एवानी ज अहीं वात छे. आ तो अप्रतिहत मार्ग छे. ‘पूर्णताना लक्षे शरूआत ते ज वास्तविक शरूआत छे.’ पूर्णताना लक्षे ऊपडेली शरूआत पाछी न फरे; पूर्णताना लक्षे पूर्णता थाय ज.

जे तरफनी रुचि ते तरफनुं घोलन

एक ने एक वात फेरवी फेरवीने कहेवाय छे, तेथी रुचिवंत जीवने कंटाळो न आवे. नाटकनी रुचिवाळो नाटकमां ‘वन्समोर’ करीने पण पोतानी रुचिवाळी वस्तुने वारंवार जुए छे; तेम जे भव्यजीवोने आत्मानी रुचि थई अने आत्मानुं करवा माटे नीकळ्‌या ते वारंवार रुचिपूर्वक दरेक वखते-खातां, पीतां, चालतां, सूतां, बेसतां, बोलतां, विचारतां-निरंतर श्रुतनुं ज अवलंबन, स्वभावना लक्षे करे छे; तेमां कोई काळ के क्षेत्रनी मर्यादा करता नथी. श्रुतज्ञाननी रुचि अने जिज्ञासा एवी जामी छे के कयारेय पण ते खसती नथी. अमुक काळ अवलंबन करवुं-पछी मूकी देवुं एम नथी कह्युं परंतु श्रुतज्ञानना अवलंबन वडे आत्मानो निर्णय करवानुं कह्युं छे. जेने साचा तत्त्वनी रुचि थई छे ते बीजां सर्व कार्योनी प्रीतिने गौण ज करे छे.

प्रश्नः– त्यारे शुं सत्नी प्रीति थाय एटले खावा-पीवानुं अने धंधो-वेपार बधुं छोडी देवुं? श्रुतज्ञान सांभळ्‌या ज करवुं- परंतु सांभळीने करवुं शुं?

उत्तरः– सत्नी प्रीति थाय एटले तरत ज खावापीवानुं बधुं छूटी ज जाय एवो नियम नथी. परंतु ते तरफनी रुचि तो अवश्य घटे ज. परमांथी सुखबुद्धि ऊडी जाय अने बधामां एक आत्मा ज आगळ होय एटले निरंतर आत्मानी ज धगश अने


Page 139 of 655
PDF/HTML Page 194 of 710
single page version

१३८ ] [ मोक्षशास्त्र झंखना होय. मात्र श्रुतज्ञान सांभळ्‌या ज करवुं एम कह्युं नथी परंतु श्रुतज्ञान द्वारा आत्मानो निर्णय करवो. श्रुतना अवलंबननी धून चडतां त्यां देव, गुरु, शास्त्र, धर्म, निश्चय, व्यवहार वगेरे अनेक पडखांथी वातो आवे ते बधां पडखां जाणीने एक ज्ञानस्वभावी आत्मानो निश्चय करवो जोईए. आमां भगवान केवा, तेमनां शास्त्रो केवां अने तेओ शुं कहे छे ए बधानुं अवलंबने एम निर्णय करावे छे के तुं ज्ञान छो, आत्मा ज्ञानस्वरूपी ज छे. ज्ञान सिवाय बीजुं कांई ते करी शकतो नथी.

देव-गुरु-शास्त्र केवां होय अने ते देव-गुरु-शास्त्रने ओळखीने तेमनुं अवलंबन लेनार पोते शुं समज्यो होय ते आमां बताव्युं छे. ‘तुं ज्ञानस्वभावी आत्मा छो, तारो स्वभाव जाणवानो ज छे. कांई परनुं करवुं के पुण्य-पापना भाव करवा ते तारुं स्वरूप नथी’-आम जे बतावतां होय ते साचां देव-गुरु-शास्त्र छे, अने आ प्रमाणे जे समजे ते ज देव-गुरु-शास्त्रना अवलंबने श्रुतज्ञानने समज्यो छे. पण जे रागथी धर्म मनावता होय, शरीराश्रित क्रिया आत्मा करे एम मनावता होय, जड कर्म आत्माने हेरान करे एम कहेता होय ते कोई देव-गुरु-शास्त्र साचां नथी.

जे शरीरादि सर्व परथी भिन्न ज्ञानस्वभावी आत्मानुं स्वरूप बतावतां होय अने पुण्य-पापनुं कर्तव्य आत्मानुं नथी एम बतावतां होय ते ज सत्श्रुत छे, ते ज साचा देव छे अने ते ज साचा गुरु छे. जे पुण्यथी धर्म बतावे, शरीरनी क्रियानो कर्ता आत्मा छे एम बतावे अने रागथी धर्म बतावे ते बधा कुदेव, कुगुरु, कुशास्त्र छे; केमके तेओ जेम छे तेम वस्तुस्वरूपना जाणकार नथी पण ऊलटुं स्वरूप बतावे छे. वस्तुस्वरूप जेम छे तेम न बतावे अने जरापण विरुद्ध बतावे ते कोई देव, कोई गुरु के कोई शास्त्र साचां नथी.

श्रुतज्ञानना अवलंबननुं फळ–आत्म अनुभव

‘हुं आत्मा तो ज्ञायक छुं, पुण्य-पापनी वृत्तिओ मारुं ज्ञेय छे, ते मारा ज्ञानथी जुदी छे’ आम पहेलां विकल्प द्वारा देव-गुरु-शास्त्रना अवलंबने यथार्थ निर्णय करवो; आ तो हजी ज्ञानस्वभावनो अनुभव थयो नथी त्यार पहेलांनी वात छे. जेणे स्वभावना लक्षे श्रुतनुं अवलंबन लीधुं छे ते अल्पकाळमां आत्म-अनुभव करशे ज. प्रथम विकल्पमां एम नक्की कर्युं के परथी तो हुं जुदो, पुण्य-पाप पण मारुं स्वरूप नहि, मारा शुद्ध स्वभाव सिवाय देव-गुरु-शास्त्रनुं पण अवलंबन परमार्थे नहि, हुं तो स्वाधीन ज्ञानस्वभावी छुं; आम जेणे निर्णय कर्यो तेने अनुभव थया वगर रहेशे ज नहि.

पुण्य-पाप मारुं स्वरूप नथी, हुं ज्ञायक छुं-आवी जेणे निर्णय द्वारा हा पाडी

Page 140 of 655
PDF/HTML Page 195 of 710
single page version

अ. १. परि. ३ ] [ १३९ तेनुं परिणमन पुण्य-पाप तरफथी पाछुं खसीने ज्ञायकस्वभाव तरफ ढळ्‌युं एटले तेने पुण्य-पापनो आदर न रह्यो तेथी ते अल्पकाळमां पुण्य-पाप रहित स्वभावनो निर्णय करीने अने तेनी स्थिरता करीने वीतराग थई पूर्ण थई जशे. पूर्णनी ज वात छे- शरूआत अने पूर्णता वच्चे आंतरो पाडयो ज नथी केमके शरूआत थई छे ते पूर्णताने लक्षमां लईने ज थई छे; सत्य संभळावनार अने सांभळनार बन्नेनी पूर्णता ज छे; जेओ पूर्ण स्वभावनी वात करे छे ते देव, गुरु अने शास्त्र ए त्रणे तो पवित्र ज छे; तेना अवलंबने जेणे हा पाडी ते पण पूर्ण पवित्र थया वगर रहे ज नहि.. पूर्णनी हा पाडीने आव्यो छे ते पूर्ण थशे ज.. आ रीते उपादान निमित्तनी संधि साथे ज छे.

सम्यग्दर्शन थया पहेलां..

आत्मानंद प्रगट करवा माटेनी पात्रतानुं स्वरूप शुं? तारे धर्म करवो छे ने? तो तुं तने ओळख. पहेलामां पहेलां साचो निर्णय करवानी वात छे. अरे, तुं छो कोण? शुं क्षणिक पुण्य-पापनो करनार ते ज तुं छो? ना, ना. तुं तो ज्ञान करनार ज्ञानस्वभावी छो. परने ग्रहनार के छोडनार तुं नथी, जाणनार ज तुं छो. आवो निर्णय ते ज धर्मनी पहेली शरूआतनो (सम्यग्दर्शननो) उपाय छे. शरूआतमां एटले के सम्यग्दर्शन पहेलां आवो निर्णय न करे तो ते पात्रतामां पण नथी. मारो सहज स्वभाव जाणवानो छे- आवो श्रुतना अवलंबने जे निर्णय करे छे ते पात्र जीव छे. जेने पात्रता प्रगटी तेने अंर्तअनुभव थवानो ज छे. सम्यग्दर्शन थया पहेलां जिज्ञासु जीव-धर्मसन्मुख थयेलो जीव-सत्समागमे आवेलो जीव श्रुतज्ञानना अवलंबने ज्ञानस्वभावी आत्मानो निर्णय करे छे.

हुं ज्ञानस्वभावी जाणनार छुं, ज्ञेयमां क्यांय राग-द्वेष करी अटके तेवो मारो ज्ञानस्वभाव नथी; पर गमे तेम हो, हुं तो तेनो मात्र जाणनार छुं, मारो जाणनार स्वभाव परनुं कांई करनार नथी; हुं जेम ज्ञान स्वभावी छुं तेम जगतना बधा आत्माओ ज्ञानस्वभावी छे, तेओ पोते पोताना ज्ञानस्वभावनो निर्णय चूकया छे तेथी दुःखी छे, तेओ जाते निर्णय करे तो तेओनुं दुःख टळे, हुं कोईने फेरववा समर्थ नथी. पर जीवोनुं दुःख हुं टाळी शकुं नहि. केमके दुःख तेओए पोतानी भूलथी कर्युं छे अने तेओ पोतानी भूल टाळे तो तेमनुं दुःख टळे, कोई परना लक्षे अटकवानो ज्ञाननो स्वभाव नथी.

प्रथम श्रुतनुं अवलंबन बताव्युं तेमां पात्रता थई छे एटले के श्रुतना अवलंबनथी आत्मानो अव्यक्त निर्णय थयो छे, त्यार पछी प्रगट अनुभव केम थाय ते नीचे कहेवामां आवे छेः-


Page 141 of 655
PDF/HTML Page 196 of 710
single page version

१४० ] [ मोक्षशास्त्र

सम्यग्दर्शन पहेलां श्रुतज्ञानना अवलंबनना जोरे आत्माना ज्ञानस्वभावने अव्यक्तपणे लक्षमां लीधो छे, हवे प्रगटरूप लक्षमां ल्ये छे- अनुभव करे छे- आत्मसाक्षात्कार अर्थात् सम्यग्दर्शन करे छे, ते कई रीते? तेनी रीते ए छे के “.. पछी आत्मानी प्रगट प्रसिद्धिने माटे पर पदार्थनी प्रसिद्धिनां कारणो जे इन्द्रिय अने मनद्वारा प्रवर्तती बुद्धिओ तेमने मर्यादामां लावीने जेणे मतिज्ञानतत्त्वने आत्मसुख कर्युं छे एवो” अप्रगटरूप निर्णय थयो हतो ते हवे प्रगटरूप कार्य लावे छे. जे निर्णय कर्यो हतो तेनुं फळ प्रगटे छे.

आ निर्णय जगतना बधा संज्ञी आत्माओ करी शके छे. बधा आत्माओ परिपूर्ण भगवान ज छे, तेथी बधा पोताना ज्ञानस्वभावनो निर्णय करी शकवा समर्थ छे. जे आत्मानुं करवा मागे तेने ते थई शके छे, परंतु अनादिथी पोतानी दरकार करी नथी. भाई रे! तुं कोण वस्तु छो ते जाण्या विना तुं करीश शुं? पहेलां आ ज्ञानस्वभावी आत्मानो निर्णय करवो जोईए, ए निर्णय थतां अव्यक्तपणे आत्मानुं लक्ष आव्युं, पछी परना लक्षथी अने विकल्पथी खसीने स्वनुं लक्ष प्रगट अनुभवपणे करवुं.

आत्मानी प्रगट प्रसिद्धि माटे इन्द्रिय अने मनथी जे पर लक्ष जाय छे तेने फेरवीने ते मतिज्ञानने स्वमां एकाग्र करतां आत्मानुं लक्ष थाय छे एटले के आत्मानी प्रगटपणे प्रसिद्धि थाय छे; आत्मानो प्रगटरूप अनुभव थवो ते ज सम्यग्दर्शन छे अने सम्यग्दर्शन ए ज धर्म छे.

धर्म माटे पहेलां शुं करवुं?

माणसो कहे छे के आत्मानुं कांई न समजाय तो पुण्यना शुभभाव तो करवा के नहि? तेनो उत्तरः- प्रथम स्वभाव समजवो ते ज धर्म छे, धर्म वडे ज संसारनो अंत छे, शुभभावथी धर्म थाय नहि अने धर्म वगर संसारनो अंत आवे नहि. धर्म तो पोतानो स्वभाव छे, माटे पहेलां स्वभाव समजवो जोईए.

प्रश्नः– स्वभाव न समजाय तो शुं करवुं? समजतां वार लागे तो शुं अशुभ भाव करीने दुर्गति जवुं? शुभथी तो धर्म थवानी ना कहो छो?

उत्तरः– प्रथम तो आ वात न समजाय एम बने ज नहि. समजतां वार लागे त्यां समजणना लक्षे अशुभभाव टाळी शुभभाव करवानी ना नथी, परंतु शुभभावथी धर्म थतो नथी- एम जाणवुं. ज्यां सुधी कोई पण जड वस्तुनी क्रिया अने रागनी क्रियाने जीव पोतानी माने त्यां सुधी साची समजणना मार्गे नथी.


Page 142 of 655
PDF/HTML Page 197 of 710
single page version

अ. १. परि. ३ ] [ १४१

सुखनो रस्तो साची समजण; विकारनुं फळ जड

जो आत्मानी साची रुचि थाय तो समजणनो रस्तो लीधा वगर रहे नहि; सत्य जोईतुं होय, सुख जोईतुं होय तो आ ज रस्तो छे. समजतां भले वार लागे, परंतु मार्ग तो साची समजणनो लेवो जोईए ने! साची समजणनो मार्ग ल्ये तो सत्य समजाया वगर रहे ज नहि. जो आवा मनुष्यदेहमां अने सत्समागमना योगे पण सत्य न समजे तो फरी आवां सत्यनां टाणां मळतां नथी. हुं कोण छुं तेनी जेने खबर नथी अने अहीं ज स्वरूप चुकीने जाय छे ते ज्यां जशे त्यां शुं करशे? शांति क्यांथी लावशे? आत्माना भान वगर कदाच शुभभाव कर्या होय तो पण ते शुभनुं फळ जडमां जाय छे, आत्मामां पुण्यनुं फळ आवतुं नथी. आत्मानी दरकार करी नथी अने अहींथी ज जे मूढ थई गयो छे तेणे कदाच शुभभाव कर्या तो रजकणो बंधाणा अने ते रजकणोना फळमां पण रजकणोनो संयोग मळवानो, रजकणोनो संयोग मळे तेमां आत्माने शुं? आत्मानी शांति तो आत्मामां छे, परंतु तेनी तो दरकार करी नथी.

असाध्य कोण? अने शुद्धात्मा कोण?

अज्ञानी जडनुं लक्ष करीने जड जेवो थई गयो छे, मरतां ज पोताने भूलीने संयोगद्रष्टिथी मरे छे, असाध्यपणे वर्ते छे एटले चैतन्यस्वरूपनुं भान नथी, ते जीवतां ज असाध्य ज छे. भले, शरीर हाले, चाले, बोले, पण ए तो जडनी क्रिया छे. तेनो धणी थयो पण अंतरमां साध्य जे ज्ञानस्वरूप तेनी जेने खबर नथी ते असाध्य (जीवतुं मुडदुं) छे. वस्तुनो स्वभाव यथार्थपणे सम्यग्दर्शन पूर्वकना ज्ञानथी न समजे तो जीवने स्वरूपनो किंचित् लाभ नथी; सम्यग्दर्शन-ज्ञानवडे स्वरूपनी ओळखाण अने निर्णय करीने जे ठर्यो तेने ज ‘शुद्ध आत्मा’ एवुं नाम मळे छे, अने शुद्धात्मा ए ज सम्यग्दर्शन तथा सम्यग्ज्ञान छे. ‘हुं शुद्ध छुं’ एवो विकल्प छूटीने एकलो आत्म-अनुभव रही जाय ते ज सम्यग्दर्शन अने सम्यग्ज्ञान छे, ए कांई आत्माथी जुदां नथी.

सत्य जेने जोईतुं होय तेवा जिज्ञासु-समजु जीवने कोइ असत्य कहे तो ते असत्यनी हा पाडी दे नहि- असत्नो स्वीकार न करे, जेने सत्स्वभाव जोईतो होय ते स्वभावथी विरुद्ध भावनी हा न पाडे-तेने पोताना न माने. वस्तुनुं स्वरूप शुद्ध छे तेनो बराबर निर्णय कर्यो अने वृत्ति छूटी जतां जे अभेद शुद्ध अनुभव थयो ते ज धर्म छे. आवो धर्म केवी रीते थाय, धर्म करवा माटे प्रथम शुं करवुं? ते संबंधी आ कथन चाले छे.


Page 143 of 655
PDF/HTML Page 198 of 710
single page version

१४२ ] [ मोक्षशास्त्र

धर्मनी रुचिवाळा जीव केवा होय?

धर्मने माटे पहेलांमां पहेलां श्रुतज्ञाननुं अवलंबन लई श्रवण-मननथी ज्ञानस्वभावी आत्मानो निश्चय करवो के हुं एक ज्ञानस्वभाव छुं, ज्ञानस्वभावमां ज्ञान सिवाय कांई करवा-मूकवानो स्वभाव नथी. आ प्रमाणे सत् समजवामां जे काळ जाय छे ते पण अनंतकाळे नहि करेलो एवो अपूर्व अभ्यास छे. जीवने सत् तरफनी रुचि थाय एटले वैराग्य जागे अने आखा संसार तरफनी रुचि ऊडी जाय, चोराशीना अवतारनो त्रास थई जाय के ‘आ त्रास शा? स्वरूपनुं भान नहि अने क्षणे क्षणे पराश्रयभावमां राचवुं-आ ते कांई मनुष्यना जीवन छे? तिर्यंच वगेरेनां दुःखनी तो वात ज शी, परंतु आ मनुष्यमां पण आवां जीवन? अने मरण टाणे स्वरूपना भान वगर असाध्य थईने मरवुं? -आ प्रमाणे संसारनो त्रास थतां स्वरूप समजवानी रुचि थाय. वस्तु समजवा माटे जे काळ जाय ते पण ज्ञाननी क्रिया छे, सत्नो मार्ग छे.

जिज्ञासुओए प्रथम ज्ञानस्वभावी आत्मानो निर्णय करवो; हुं एक जाणनार छुं, मारुं स्वरूप ज्ञान छे, ते जाणवावाळुं छे, पुण्य-पापना भाव के स्वर्ग-नरक आदि कोई मारो स्वभाव नथी-एम श्रुतज्ञान वडे आत्मानो प्रथम निर्णय करवो ते ज प्रथम उपाय छे.

उपादान–निमित्त अने. कारण–कार्य

१. साचा श्रुतज्ञानना अवलंबन विना अने र-श्रुतज्ञानथी ज्ञानस्वभावी आत्मानो निर्णय कर्या विना आत्मा अनुभवमां आवे नहि. आमां आत्मानो अनुभव करवो ते कार्य छे, आत्मानो निर्णय ते उपादानकारण छे अने श्रुतनुं अवलंबन ते निमित्त छे. श्रुतना अवलंबनथी ज्ञानस्वभावनो जे निर्णय कर्यो तेनुं फळ ते निर्णय अनुसार आचरण अर्थात् अनुभव करवो ते छे. आत्मानो निर्णय ते कारण अने आत्मानो अनुभव ते कार्य-ए रीते अहीं लीधुं छे, एटले जे निर्णय करे तेने अनुभव थाय ज एम वात करी छे.

अंर्तअनुभवनो उपाय अर्थात् ज्ञाननी क्रिया

हवे, आत्मानो निर्णय कर्या पछी तेनो प्रगट अनुभव कई रीते करवो ते बतावे छेः- निर्णय अनुसार श्रद्धानुं आचरण ते अनुभव छे. प्रगट अनुभवमां शांतिनुं वेदन लाववा माटे एटले आत्मानी प्रगट प्रसिद्धि माटे पर पदार्थनी प्रसिद्धिनां कारणोने छोडी देवां जोईए. प्रथम ‘हुं ज्ञानानंदस्वरूपी आत्मा छुं.’ - एम निश्चय कर्या पछी आत्माना आनंदनो प्रगट भोगवटो करवा (वेदन करवा- अनुभव करवा) माटे, पर


Page 144 of 655
PDF/HTML Page 199 of 710
single page version

अ. १. परि. ३ ] [ १४३ पदार्थनी प्रसिद्धिनां कारणो-जे इन्द्रिय अने मन द्वारा परलक्षे प्रवर्ततुं ज्ञान तेने स्व तरफ वाळवुं; देव-गुरु-शास्त्र वगेरे पर पदार्थ तरफनुं लक्ष तथा मनना अवलंबने प्रवर्तती बुद्धि अर्थात् मतिज्ञान तेने संकोचीने-मर्यादामां लावीने पोता तरफ वाळवुं ते अंर्तअनुभवनो पंथ छे, सहज शीतळ स्वरूप अनाकुळ स्वभावनी छायामां पेसवानुं पगथियुं छे.

प्रथम, आत्मा ज्ञानस्वभावी छे एवो बराबर निश्चय करीने, पछी प्रगट अनुभव करवा माटे पर तरफ वळता भाव जे मति अने श्रुतज्ञान तेमने स्व तरफ एकाग्र करवा, जे ज्ञान परमां विकल्प करीने अटके छे ते ज ज्ञानने त्यांथी खसेडीने स्वभावमां वाळवुं. मति अने श्रुतज्ञानना जे भाव छे ते तो ज्ञानमां ज रहे छे, परंतु पहेलां ते भावो पर तरफ वळता, हवे तेने आत्मसन्मुख करतां स्वभावनुं लक्ष थाय छे. आत्माना स्वभावमां एकाग्र थवानां आ क्रमसर पगथियां छे.

ज्ञानमां भव नथी

जेणे मनना अवलंबने प्रवर्तता ज्ञानने मनथी छोडावी स्वतरफ वाळ्‌युं छे अर्थात् मतिज्ञान पर तरफ वळतुं तेने मर्यादामां लईने आत्मसन्मुख कर्युं छे तेना ज्ञानमां अनंत संसारनो नास्तिभाव अने ज्ञानस्वभावनो अस्तिभाव छे. आवी समजण अने आवुं ज्ञान करवुं तेमां अनंत पुरुषार्थ छे. स्वभावमां भव नथी तेथी जेने स्वभाव तरफनो पुरुषार्थ ऊग्यो तेने भवनी शंका रहेती नथी. ज्यां भवनी शंका छे त्यां साचुं ज्ञान नथी अने ज्यां साचुं ज्ञान छे त्यां भवनी शंका नथी-आ रीते ‘ज्ञान’ अने ‘भव’नी एकबीजामां नास्ति छे.

पुरुषार्थ वडे सत्समागमथी एकला ज्ञानस्वभावी आत्मानो निर्णय कर्या पछी ‘हुं अबंध छुं के बंधवाळो छुं, शुद्ध छुं के अशुद्ध छुं, त्रिकाळ छुं के क्षणिक छुं’-एवी जे वृत्तिओ ऊठे तेमां पण हजी आत्मशांति नथी, ते वृत्तिओ आकुळतामयआत्मशांतिनी विरोधिनी छे. नयपक्षोना अवलंबनथी थता मनसंबंधी अनेक प्रकारना विकल्पो तेने पण मर्यादामां लावीने अर्थात् ते विकल्पोने रोकवाना पुरुषार्थ वडे श्रुतज्ञानने पण आत्मसन्मुख करतां शुद्धात्मानो अनुभव थाय छे; आ रीते मति अने श्रुतज्ञानने आत्मसन्मुख करवा ते ज सम्यग्दर्शन छे. इन्द्रिय अने मनना अवलंबने मतिज्ञान परलक्षे प्रवर्ततुं तेने, अने मनना अवलंबने श्रुतज्ञान अनेक प्रकारना नयपक्षोना विकल्पोमां अटकतुं तेने-एटले के परावलंबने प्रवर्ततां मतिज्ञान अने श्रुतज्ञानने मर्यादामां लावीने-अंर्तस्वभावसन्मुख करीने, ते ज्ञानो द्वारा एक ज्ञानस्वभावने पकडीने (लक्षमां लईने), निर्विकल्प थईने, तत्काळ निजरसथी ज प्रगट


Page 145 of 655
PDF/HTML Page 200 of 710
single page version

१४४ ] [ मोक्षशास्त्र थता शुद्धात्मानो अनुभव करवो, ते अनुभव ज सम्यग्दर्शन अने सम्यग्ज्ञान छे.

–आ रीते अनुभवमां आवतो शुद्धात्मा केवो छे?

शुद्धात्मा आदि-मध्य-अंत रहित त्रिकाळ एकरूप छे, तेमां बंध-मोक्ष नथी, ते अनाकुळतास्वरूप छे, ‘हुं शुद्ध छुं के अशुद्ध छुं’-एवा विकल्पथी थती जे आकुळता तेनाथी रहित छे. लक्षमांथी पुण्य-पापनो आश्रय छूटीने एकलो आत्मा ज अनुभवरूप छे, केवळ एक आत्मामां पुण्य-पापना कोई भावो नथी. जाणे के आखाय विश्व पर तरतो होय एटले के समस्त विभावोथी जुदो थई गयो होय तेवो चैतन्यस्वभाव छूटो अखंड प्रतिभासमय अनुभवाय छे. आत्मानो स्वभाव पुण्य-पापनी उपर तरतो छे. तरतो एटले तेमां भळी जतो नथी, ते-रूप थतो नथी परंतु तेनाथी छूटो ने छूटो रहे छे. अनंत छे एटले के जेना स्वभावनो कदी अंत नथी; पुण्य-पाप तो अंतवाळां छे, ज्ञानस्वरूप अनंत छे अने विज्ञानघन छे- एकला ज्ञाननो ज पिंड छे. एकला ज्ञानपिंडमां राग-द्वेष जरापण नथी. रागनो अज्ञानभावे कर्ता हतो पण स्वभावभावे रागनो कर्ता नथी. अखंड आत्मस्वभावनो अनुभव थतां जे जे अस्थिरताना विभावो हता ते बधाथी छूटीने ज्यारे आ आत्मा, विज्ञानघन एटले जेमां कोई विकल्पो प्रवेश करी शके नहि एवा ज्ञानना निबिड पिंडरूप परमात्मस्वरूप आत्माने अनुभवे छे त्यारे ते पोते ज सम्यग्दर्शनस्वरूप छे.

निश्चय अने व्यवहार

आमां निश्चय-व्यवहार बन्ने आवी जाय छे. अखंड विज्ञानघनस्वरूप ज्ञानस्वभावी आत्मा ते निश्चय छे अने परिणतिने स्वभावसन्मुख करवी ते व्यवहार छे. मति-श्रुतज्ञानने स्व तरफ वाळवाना पुरुषार्थरूपी जे पर्याय ते व्यवहार छे, अने अखंड आत्मस्वभाव ते निश्चय छे. ज्यारे मति-श्रुतज्ञानने स्व तरफ वाळ्‌यां अने आत्मानो अनुभव कर्यो ते ज वखते आत्मा सम्यक्पणे देखाय छे- श्रद्धाय छे. आ सम्यग्दर्शन प्रगटवा वखतनी वात करी छे.

सम्यग्दर्शन थतां शुं थाय?

सम्यग्दर्शन थतां स्वरसनो अपूर्व आनंद अनुभवाय छे. आत्मानो सहज आनंद प्रगट थाय छे, आत्मिक आनंदनो उछाळो आवे छे, अंतरमां आत्मशांतिनुं वेदन थाय छे, आत्मानुं सुख अंतरमां छे ते अनुभववामां आवे छे; ए अपूर्व सुखनो रस्तो सम्यग्दर्शन ज छे. ‘हुं भगवान आत्मा चैतन्यस्वरूप छुं’-एम जे निर्विकल्प शांतरस अनुभवाय छे ते ज शुद्धात्मा अर्थात् सम्यग्दर्शन तथा सम्यग्ज्ञान