Moksha Shastra-Gujarati (Devanagari transliteration).

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१०४] [मोक्षशास्त्र

अर्थः– अने विशेष ए छे के-स्वानुभूतिना समये जेटलुं पण पहेलुं ते मतिज्ञान अने श्रुतज्ञाननुं द्वैत रहे छे तेटलुं ते बधुं साक्षात् प्रत्यक्षनी माफक प्रत्यक्ष छे, बीजुं नथी-परोक्ष नथी.

भावार्थः– तथा ते मति अने श्रुतज्ञानमां पण एटली विशेषता छे के जे वखते ते बे ज्ञानोमांथी कोई एक ज्ञान द्वारा स्वानुभूति थाय छे ते वखते ए बन्ने ज्ञानो पण अतीन्द्रिय स्वात्माने प्रत्यक्ष करे छे, तेथी आ बन्ने ज्ञानो पण स्वानुभूति वखते प्रत्यक्ष छे-परोक्ष नथी.

प्रश्नः– आ बाबतमां बीजा कोई शास्त्र-आधारो छे? उत्तरः– हा, मोक्षमार्ग प्रकाशकमां ३४८ मा पाने नीचे प्रमाणे कह्युं छेः- “ जे प्रत्यक्ष जेवुं होय तेने पण प्रत्यक्ष कहीए छीए. जेम लोकमां पण कहीए छीए के‘अमे स्वप्नमां वा ध्यानमां फलाणा पुरुषने प्रत्यक्ष दीठो,’ हवे तेने प्रत्यक्ष दीठो तो नथी, परंतु प्रत्यक्ष माफक-प्रत्यक्षवत् [ते पुरुषने] यथार्थ देख्यो तेथी तेने प्रत्यक्ष कही शकाय; तेम अनुभवमां आत्मा प्रत्यक्ष माफक यथार्थ प्रतिभासे छे.”

प्रश्नकारः– श्री कुंदकुंदाचार्यकृत श्री समयसार परमागम छे तेमां आ बाबतमां शुं कह्युं छे ते जणावो?

उत्तरः– (१) श्री समयसारनी गाथा ४९ नी टीकामां नीचे प्रमाणे कह्युं छेः- “ आ प्रमाणे रस, रूप, गंध, स्पर्श, शब्द, संस्थान अने व्यक्तपणानो अभाव होवा छतां पण स्वसंवेदनना बळथी सदा प्रत्यक्ष होवाथी अनुमानगोचरमात्रपणाना अभावने लीधे (जीवने) अलिंगग्रहण कहेवामां आवे छे.”

“पोताना अनुभवमां आवता चेतनागुण वडे सदा अंतरंगमां प्रकाशमान छे तेथी (जीव) चेतनागुणवाळो छे.”

(२) श्री समयसारनी गाथा १४३नी टीकामां नीचे प्रमाणे कह्युं छेः- टीकाः– जेवी रीते केवळी भगवान, विश्वना साक्षीपणाने लीधे, श्रुतज्ञानना अवयवभूत एवा जे व्यवहारनिश्चयनय पक्षो तेमना स्वरूपने ज केवळ जाणे छे परंतु, निरंतर प्रकाशमान, सहज, विमळ, सकळ केवळज्ञान वडे सदा पोते ज विज्ञानघन थया होईने, श्रुतज्ञाननी भूमिकाना अतिक्रान्तपणा वडे (अर्थात् श्रुतज्ञाननी भूमिकाने ओळंगी गया होवाने लीधे) समस्त नयपक्षना ग्रहणथी दूर थया होवाथी, कोई पण नयपक्षने ग्रहता नथी, तेवी रीते जे (श्रुतज्ञानी आत्मा), क्षयोपशमथी जेमनुं ऊपजवुं थाय छे एवा श्रुतज्ञानात्मक विकल्पो उत्पन्न थता होवा छतां परनुं ग्रहण करवा प्रति


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अ. १. परि. १] [१०प उत्साह निवृत्त थयो होवाने लीधे, श्रुतज्ञानना अवयवभूत व्यवहार निश्चयनय पक्षोना स्वरूपने ज केवळ जाणे छे परंतु, तीक्ष्ण ज्ञानद्रष्टिथी ग्रहवामां आवेला निर्मळ, नित्य उदित, चिन्मय समयथी प्रतिबद्धपणा वडे (अर्थात् चैतन्यमय आत्माना अनुभव वडे) ते वखते (अनुभव वखते) पोते ज विज्ञानघन थयो होईने. श्रुतज्ञानात्मक समस्त अंतर्जल्परूप तथा बहिर्जल्परूप विकल्पोनी भूमिकाना अतिक्रान्तपणा वडे समस्त नयपक्षना ग्रहणथी दूर थयो होवाथी. कोईपण नयपक्षने ग्रहतो नथी, ते (आत्मा) खरेखर समस्त विकल्पोथी पर, परमात्मा. ज्ञानात्मा, प्रत्यग्ज्योति आत्मख्यातिरूप, अनुभूतिमात्र समयसार छे.

भावार्थः– जेम केवळी भगवान सदा नयपक्षना स्वरूपना साक्षी (ज्ञाता- द्रष्टा) छे तेम श्रुतज्ञानी पण ज्यारे समस्त नयपक्षोथी रहित थई शुद्ध चैतन्यमात्र भावनुं अनुभवन करे छे त्यारे नयपक्षना स्वरूपनो ज्ञाता ज छे. एक नयनो सर्वथा पक्ष ग्रहण करे तो मिथ्यात्व साथे मळेलो राग थाय; प्रयोजनना वशे एक नयने प्रधान करी तेनुं ग्रहण करे तो मिथ्यात्व सिवाय चारित्रमोहनो राग रहे; अने ज्यारे नयपक्षने छोडी वस्तुस्वरूपने केवळ जाणे ज त्यारे ते वखते श्रुतज्ञानी पण केवळीनी माफक वीतराग जेवो ज होय छे एम जाणवुं.

(३) श्री समयसारनी गाथा-प मां आचार्य भगवान कहे छे के, ‘ते एकत्वविभक्त आत्माने हुं आत्माना निजवैभव वडे देखाडुं छुं. जो हुं देखाडुं तो प्रमाण करवुं. तेनी टीका करतां आचार्य भगवान श्री अमृतचंद्रसूरी कहे छे के, ‘एम जे जे प्रकारे मारा ज्ञाननो विभव छे ते समस्त विभवथी दर्शावुं छुं. जो दर्शावुं तो स्वयमेव (पोते ज) पोताना अनुभव-प्रत्यक्षथी परीक्षा करी प्रमाण करवुं.’ आगळ जतां भावार्थमां जणावे छे के, ‘आचार्य आगमनुं सेवन, युक्तिनुं अवलंबन, परापर गुरुनो उपदेश अने स्वसंवेदन-ए चार प्रकारे उत्पन्न थयेल पोताना ज्ञानना विभवथी एकत्व-विभक्त शुद्ध आत्मानुं स्वरूप देखाडे छे. तेने सांभळनारा हे श्रोताओ! पोताना स्वसंवेदन-प्रत्यक्षथी प्रमाण करो.’ आ उपरथी सिद्ध थाय छे के, पोताने सम्यकत्व थयुं छे तेनी स्वसंवेदन प्रत्यक्षथी श्रुतप्रमाण (साचा ज्ञान) वडे पोताने खबर पडे छे.

[जुओ, समयसार गुजराती पानुं-१३]
(४) कलश ९ मां श्री अमृतचंद्राचार्यदेव जणावे छे केः-

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१०६] [मोक्षशास्त्र

(मालिनी)
उदयति न नयश्रीरस्तमेति प्रमाणम्
क्वचिदपि च न विद्मो याति निक्षेपचक्रम्।
किमपरमभिदध्मो धाम्नि सर्वंकषेऽस्मि–
न्ननुभवमुपयाते भाति न द्वैतमेव।। ९।।

अर्थः– आचार्य शुद्धनयनो अनुभव करी कहे छे के-आ सर्व भेदोने गौण करनार जे शुद्धनयनो विषयभूत चैतन्य-चमत्कारमात्र तेजःपुंज आत्मा, तेनो अनुभव थतां नयोनी लक्ष्मी उदय पामती नथी, प्रमाण अस्तने प्राप्त थाय छे अने निक्षेपोनो समूह क्यां जतो रहे छे ते अमे जाणता नथी. आथी अधिक शुं कहीए? द्वैत ज प्रतिभासित थतुं नथी.

भावार्थः– ×××××शुद्ध अनुभव थतां द्वैत ज भासतुं नथी, एकाकार चिन्मात्र ज देखाय छे.

आ उपरथी पण सिद्ध थाय छे के चोथा गुणस्थाने पण आत्माने पोताने पोताना भावश्रुत द्वारा शुद्ध अनुभव थाय छे. समयसारजीमां लगभग दरेक गाथामां आ अनुभव थाय छे एम जणावी अनुभव करवानो उपदेश कर्यो छे.

सम्यक्त्व ए सूक्ष्म पर्याय छे ए खरुं, पण सम्यग्ज्ञानी पोताने सुमति अने सुश्रुतज्ञान थयुं छे एम नक्की करी शके छे अने तेथी तेनुं (सम्यग्ज्ञाननुं) अविनाभावी सम्यग्दर्शन पोताने थयुं छे एम श्रुतज्ञानमां नक्की करे छे. केवळज्ञान, मनःपर्ययज्ञान अने परम अवधिज्ञान सम्यग्दर्शनने प्रत्यक्ष जाणी शके छे-एटलो ज मात्र तफावत छे.

मख्खनलालजी कृत पंचाध्यायीनी गाथा १९६-१९७-१९८ मां कह्युं छे के- “ ज्ञान शब्दथी आत्मा समजवो जोईए केमके आत्मा ज्ञानरूप स्वयं छे; ते आत्मा जेना द्वारा शुद्ध जाणवामां आवे छे तेनुं नाम ज्ञानचेतना छे. अर्थात् जे समये ज्ञानगुण सम्यक् अवस्थाने प्राप्त थाय छे- केवळ शुद्धात्मानो अनुभव करे ते समये तेने ज्ञानचेतना कहेवामां आवे छे. ज्ञानचेतना निश्चयथी सम्यग्द्रष्टिने ज होय छे, मिथ्याद्रष्टिने कदी पण होईशके नहीं.”*

सम्यक्मति अने सम्यक्श्रुतज्ञान छे ते कथंचित् अनुभवगोचर होवाथी प्रत्यक्षरूप _________________________________________________________________ * आ कथन प्रथम सम्यग्दर्शन प्रगटे छे तेने लागु पडे छे. त्यार पछी साधकनी अवस्था केवी होय छे ते पृ. १४८मां जणाव्युं छे त्यांथी वांची लेवुं.


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अ. १. परि. १] [१०७ पण कहेवाय छे; अने संपूर्ण ज्ञान जे केवळज्ञान छे ते जोके छद्मस्थने प्रत्यक्ष नथी तोपण शुद्धनय आत्माना केवळज्ञानरूपने परोक्ष जणावे छे. ए रीते सम्यग्दर्शननुं यथार्थ ज्ञान सम्यक्मति अने श्रुतज्ञान अनुसार थई शके छे.

[श्री समयसार गुजराती पानुं ३प. गाथा १४ नीचेनो भावार्थ]

(२०)

केटलाक प्रश्नो अने उत्तर

(१) प्रश्नः– ज्ञानगुण ज्यारे आत्माभिमुखी थई आत्मलीन थई जाय छे त्यारे ते ज्ञाननी विशेष अवस्थाने सम्यग्दर्शन कहे छे- ए खरुं छे?

उत्तरः– ना, ए खरुं नथी. सम्यग्दर्शन ते दर्शन (श्रद्धा) गुणनो पर्याय छे, ते ज्ञाननो विशेष पर्याय नथी. ज्ञाननी आत्माभिमुख अवस्था वखते सम्यग्दर्शन होय छे- एटलुं खरुं; पण सम्यग्दर्शन ते ज्ञाननो पर्याय नथी.

(र) प्रश्नः– सुदेव, सुगुरु अने सुशास्त्रनी श्रद्धा ते सम्यग्दर्शन छे? उत्तरः– ते निश्चयसम्यग्दर्शन नथी. व्यवहारसम्यग्दर्शन छे, केमके त्यां रागमिश्रित विचार (विकल्प) सहित श्रद्धा छे; आवी श्रद्धा (व्यवहारसम्यग्दर्शन) थया पछी जीव ज्यारे पोताना त्रिकाळी अखंड चैतन्यस्वरूप तरफ वळे छे त्यारे रागविकल्पनो संबंध अंशे टळतां निश्चयसम्यग्दर्शन प्रगटे छे.

(३) प्रश्नः– व्यवहारसम्यग्दर्शन ते निश्चयसम्यग्दर्शननुं कारण छे? उत्तरः– ना, व्यवहारसम्यग्दर्शन ते निश्चयसम्यग्दर्शननुं कारण नथी. व्यवहार सम्यग्दर्शन तो विकार छे, अने निश्चयसम्यग्दर्शन तो शुद्ध पर्याय छे. विकार ते अविकारनुं कारण केम थई शके? एटले व्यवहारसम्यग्दर्शन निश्चयसम्यग्दर्शननुं कारण थई शके नहि, पण तेनो व्यय (अभाव) थई निश्चयसम्यग्दर्शननो उत्पाद सुपात्र जीवोने पोताना पुरुषार्थथी थाय छे.

शास्त्रमां ज्यां व्यवहारसम्यग्दर्शनने निश्चयसम्यग्दर्शननुं कारण कह्युं छे, त्यां व्यवहारसम्यग्दर्शनने अभावरूप कारण कह्युं छे-एम समजवुं, कारण बे प्रकारनां छे-(१) निश्चय, (र) व्यवहार. निश्चयकारण तो अवस्थारूपे थनार द्रव्य पोते छे अने व्यवहारकारण पूर्वना पर्यायनो व्यय थाय छे ते छे.

(४) प्रश्नः– श्रद्धा, रुचि अने प्रतीति आदि जेटला गुण छे ते बधा सम्यक्त्व


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१०८] [मोक्षशास्त्र नथी अने ज्ञानना पर्याय छे-एम पंचाध्यायी अध्याय र गाथा ३८६-३८७ मां कह्युं छे तेनुं शुं कारण?

उत्तरः– आत्मा ज्यारे जीवादि सात तत्त्वोने विचारे छे त्यारे तेने ज्ञानमां रागथी भेद पडे छे तेथी ए ज्ञानना पर्याय छे अने ते सम्यक्त्व नथी एम कह्युं छे.

सात तत्त्वो अने नव पदार्थोनुं निर्विकल्पक ज्ञान ते निश्चय सम्यग्दर्शन सहितनुं ज्ञान छे. (जुओ, पंचाध्यायी अ. र गाथा १८६-१८९)

श्री मख्खनलालजी कृत पंचाध्यायी पानुं-११० गाथा-३८६ ना भावार्थमां कह्युं छे केः-

“परंतु वास्तवमें ज्ञान भी यही है कि जैसे को तैसा जानना और “सम्यक्त्व भी यही है कि जैसे का तैसा श्रद्धान करना.”

आ उपरथी समजवुं के राग मिश्रित श्रद्धा ते ज्ञाननो पर्याय छे. राग रहित जे तत्त्वार्थश्रद्धा छे ते सम्यग्दर्शन छे, तेने सम्यक् मान्यता अथवा सम्यक् प्रतीति पण कहेवामां आवे छे. गाथा -३८७ मां ज्ञानचेतना ते सम्यग्दर्शननुं लक्षण छे एम कह्युं छे-तेनो अर्थ एवो छे के, अनुभूति पोते सम्यग्दर्शन नथी पण ते होय त्यारे सम्यग्दर्शन अविनाभावीरूप होय छे तेथी तेने बाह्य लक्षण कह्युं छे. (जुओ, पंचाध्यायी अध्याय र गाथा ४०१-४०र-४०३). सम्यग्दर्शन प्रथम प्रगट थतां ज ज्ञान सम्यक् थई जाय छे; अने आत्मानी अनुभूति थाय छे-एटले के ज्ञान स्वज्ञेयमां स्थिर थाय छे. पण ते स्थिरता थोडो वखत टके छे. अने राग होवाथी ज्ञान स्वमांथी छूटीने पर तरफ जाय छे. , त्यारे पण सम्यग्दर्शन होय छे अने जोके ज्ञाननो उपयोग परने जाणवामां रोकायो छे तो पण ते ज्ञान सम्यग्ज्ञान छे; ते वखते अनुभूति नथी तोपण सम्यग्दर्शन अने सम्यग्ज्ञान छे एम जाणवुं.

(प) प्रश्नः– ‘सम्यग्दर्शननुं’ एक लक्षण ज्ञानचेतना छे’- ए बराबर छे? उत्तरः– ज्ञानचेतना साथे सम्यग्दर्शन अविनाभावी होय ज छे तेथी ते व्यवहार अथवा बाह्य लक्षण छे.

(६) प्रश्नः– अनुभूतिनुं नाम चेतना छे-ए बराबर छे? उत्तरः– ज्ञाननी स्थिरता एटले के शुद्धोपयोग (अनुभूति) ने उपयोगरूप ज्ञानचेतना कहेवामां आवे छे.

(७) प्रश्नः– सम्यग्दर्शननो अर्थ शुद्धात्मावलोकन वा शुद्धात्मोपलब्धि या शुद्धात्मानुभूति छे ए बराबर छे?


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अ. १. परि. १] [१०९

उत्तरः– ए त्रणे शब्दोनो अर्थ आत्मानी आत्मामां स्थिरता एवो थाय छे, अने ते चारित्रगुणनो पर्याय छे माटे प्रश्नमां कहेवामां आवेलो अर्थ घटतो नथी, पण अविनाभावी संबंधथी तेने सम्यग्दर्शननुं लक्षण कही शकाय.

(८) प्रश्नः– पूर्ण शुद्धात्मानी अनुभूति १३-१४ गुणस्थाने तथा सिद्धोने होय छे तेथी पूर्ण सम्यग्दर्शन पण त्यां थाय छे-ए बराबर छे? एटले के ते पूर्वनां जेटलां सम्यग्दर्शन छे ते सम्यग्दर्शन पूर्ण नथी ए बराबर छे?

उत्तरः– सिद्ध भगवाननुं सम्यग्दर्शन अने तिर्यंचनुं सम्यग्दर्शन विषयअपेक्षाए एक सरखुं होय छे एटले के आत्माने जेवो सिद्ध भगवान माने छे तेवो ज सम्यग्द्रष्टि तिर्यंच माने छे, तेमां लेशमात्र फेर नथी. सम्यग्द्रष्टि तिर्यंच पोताना आत्माने एक प्रकारे माने अने सिद्ध भगवान कोई बीजा प्रकारे माने एम बनी शके नहि. परंतु पर्यायमां फेर छे. सम्यग्दर्शन-पर्यायनी पूर्णता केवळज्ञान थतां प्रगटे छे. ते अपूर्णतानुं उपादानकारण संस्कारवशपणुं छे. अने निमित्त लेवुं होय तो चारित्रमोहनीय तथा घातिकर्मना उदयने उपचारथी लेवाय छे. आ संबंधे तत्त्वार्थसारमां पृष्ठा-३०४ मां आ प्रमाणे कह्युं छे, “अथवा ए कहेवुं जोईए के चारित्रमोहनीय, मिथ्यात्वना अभावमां रहे तो छे परंतु ज्यां सुधी चारित्रमोहनीय रहे छे त्यां सुधी सम्यक्त्वनी पण पूर्ति थती नथी- क्षायिक सम्यक्त्व पण ‘केवळसम्यक्त्व’नाम पामतुं नथी, -के जे रत्नयत्रनी पूर्णतानुं एक चिह्न छे. भावार्थः– कांईक संस्कारवश हो या चारित्रमोहना संबंधथी हो, चारित्रमोहनीय तथा घातिकर्मो रहे छे त्यां सुधी सम्यक्त्व पूर्ण थतुं नथी.” वळी जुओ श्लोकवार्तिक पानुं ६८-६९.

आ प्रकारे पूर्णतामां अनेकांत छे. नीचलां गुणस्थानोमां विषयअपेक्षाए सम्यग्दर्शन पूर्ण छे, पण पर्याय अपेक्षाए अपूर्ण छे. सिद्ध भगवानने विषय अने पर्याय बन्ने अपेक्षाए सम्यग्दर्शननी पूर्णता छे.

प्रश्नः– सम्यक्त्वगुण सर्वथा क्षायिक सम्यग्द्रष्टिने थयो छे के नथी थयो? तेनुं समाधान कहो. (प्रश्नकारनी दलील) जो कहेशो के सर्वथा थयो छे तो (तेने) सिद्ध कहो, शाथी? के एक गुण सर्वथा विमळ थतां सर्व शुद्ध थाय, सम्यक्गुण सर्व गुणोमां फेलायेलो छे तेथी सम्यग्ज्ञान-सम्यग्दर्शन बधा गुण सम्यक् थया पण सर्वथा सम्यग्ज्ञान नथी- एकदेश सम्यग्ज्ञान छे. सर्वथा ज्ञान सम्यक् होय तो सर्वथा गुण शुद्ध होय तेथी सर्वथा कहेता नथी; वळी जो किंचित् सम्यक्त्वगुण शुद्ध कहीए तो सम्यक्त्वगुणनुं घातक मिथ्यात्व-अनंतानुबंधी कर्म हतुं ते तो रह्युं. जे गुणनुं आवरण जाय ते गुण शुद्ध होय माटे किंचित् शुद्ध पण बनतुं नथी. तो केवी रीते छे?


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११०] [मोक्षशास्त्र

उत्तरः– ए ए आवरण तो गयुं पण बधा गुणो सर्वथा सम्यक् थया नथी. आवरण जवाथी सर्व गुणो सम्यक् सर्वथा न थया तेथी परमसम्यक् नथी. बधा गुणो साक्षात् सर्वथा शुद्ध सम्यक्रूप थाय त्यारे ‘परमसम्यक्’ एवुं नाम होय. विवक्षाप्रमाणथी कथन प्रमाण छे. ए दर्शन उपरथी पौद्गलिक स्थिति ज्यारे नाश थई त्यारे ज आ जीवनो जे सम्यक्त्वगुण मिथ्यात्वरूप परिणम्यो हतो ते ज सम्यक्त्वगुण संपूर्ण स्वभावरूप थई परिणम्यो-प्रगट थयो. चेतन-अचेतननी जुदी प्रतीतिथी सम्यकत्वगुण निजजातिस्वरूप थई परिणम्यो; तेनुं लक्षण-ज्ञानगुण अनंत शक्तिए करी विकाररूप थई रह्यो हतो ते गुणनी अनंत शक्तिमां केटलीक शक्ति प्रगट थई, सामान्यथी नाम थयुं तेने मति-श्रुति कहीए छीए, अथवा निश्चयज्ञान श्रुतपर्याय कहीए, जघन्यज्ञान कहीए छीए; बाकीनी सर्वज्ञानशक्ति रही ते अज्ञान-विकाररूप वर्गमां छे. ए विकार शक्तिने कर्मधारारूप कहीए छीए. ए ज प्रमाणे जीवने दर्शनशक्ति अदर्शनरूप रही छे, ए ज प्रमाणे जीवना चारित्रनी केटलीक चारित्ररूप तथा केटलीक अन्य विकाररूप छे, ए प्रमाणे भोगगुणनी समजवी. बधा गुण जेटला निरावरण तेटला शुद्ध, बाकीना विकाररूप, ए बधो मिश्रभाव थयो. प्रतीतिरूप ज्ञानमां सर्व शुद्ध श्रद्धाभाव थयो छे पण आवरण ज्ञाननुं तथा अन्य गुणोनुं लाग्युं छे माटे ते मिश्रभाव छे.

[अनुभव प्रकाश पानुं ७८-७९]

आ संबंधमां श्री पद्मनंदिपंचविशतिकामां ‘सुप्रभात-अष्टक’ स्तोत्र छे, तेनी पहेली गाथामां पण आ ज भावथी कह्युं छे केः-

(शार्दूलविक्रीडित)
निश्शेषावरणद्वयस्थिति निशाप्रान्तेन्तरायक्षयो
द्योते मोहकृते गते च सहसा निद्राभरे दुरतः।
सम्यग्ज्ञानद्रगक्षियुग्ममभितो विस्फारित यत्र त
ल्लब्धं यैरिह सुप्रभातमचलं तेभ्यो यतिभ्यो नमः।। १।।

अर्थः– ज्ञानावरण अने दर्शनावरण ए बन्नेनी हयातीरूप जे रात्रि तेनो नाश थवाथी, तथा अंतराय कर्मना क्षय थवाथी प्रकाश थतां, अने मोहनीयकर्मना निमित्तथी करवामां आवेल जे निद्रानो भार ते तुरत ज दूर थतां जे सुप्रभातमां सम्यग्ज्ञान तथा सम्यग्दर्शनरूप बन्ने नेत्रो विशेष स्फुरायमान थया- एवा अचळ सुप्रभातने जे यतिओए प्राप्त करी लीधुं छे ते यतिओने नमस्कार छे.

भावार्थः– जेम प्रभात थतां रात्रिनो सर्वथा अंत आवे छे तथा प्रकाश प्रगट थाय छे अने निद्रानो नाश थाय छे अर्थात् सूतेलां प्राणीओ जागृत थाय छे अने


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अ. १. परि. १] [१११ तेमनां बन्ने नेत्रो खूली जाय छे, तेम ज्ञानावरण अने दर्शनावरणनो सर्वथा नाश थवाथी तथा मोहनीय कर्मना निमित्तथी उत्पन्न थयेली निद्राना सर्वथा दूर थई जवाथी जे सुप्रभातमां सम्यग्ज्ञान अने सम्यग्दर्शन विशेष स्फुरायमान थाय छे एवा सुप्रभातने प्राप्त करी लेनारा मुनिओने मस्तक झुकावीने नमस्कार छे.

[पद्मनंदि-पंचविंशतिका पानुं-४४र]

केवळज्ञान थतां सम्यग्ज्ञान तेम ज सम्यग्दर्शन पण विशेष स्फुरायमान थाय छे तेम आ गाथामां जणाव्युं छे.

(९) प्रश्नः– जो सम्यक्त्वनो विषय बधाने सरखो छे तो पछी सम्यग्दर्शनना औपशमिक, क्षायोपशमिक अने क्षायिक एवा भेदो केम पडया?

उत्तरः– दर्शनमोहनीय कर्मना अनुभागबंधनी अपेक्षाए ते भेद नथी पण स्थितिबंधनी अपेक्षाए ते भेद छे, पण ते कारणे तेओमां आत्मानी मान्यतामां कांई फेर पडतो नथी. दरेक प्रकारना सम्यग्दर्शनमां आत्मानी मान्यता एक ज प्रकारनी छे.

आत्माना स्वरूपनी जे मान्यता औपशमिक सम्यग्दर्शनमां होय छे ते ज मान्यता क्षायोपशमिक अने क्षायिक सम्यग्दर्शनमां होय छे. केवळी भगवानने परम अवगाढ सम्यग्दर्शन होय छे तेमने पण आत्माना स्वरूपनी ते ज प्रकारनी मान्यता होय छे. ए रीते बधा सम्यग्द्रष्टि जीवोने आत्मस्वरूपनी मान्यता एक ज प्रकारनी होय छे.

[जुओ, पंचाध्यायी अध्याय र गाथा ९३४-९३८]
(र१)
ज्ञानचेतनाना विधानमां फेर केम छे?

प्रश्नः– पंचाध्यायी अने पंचास्तिकायमां ज्ञानचेतनाना विधानोमां फेर छे? उत्तरः– पंचाध्यायीमां चोथा गुणस्थानथी ज्ञानचेतनानुं विधान करेल छे, (जुओ, अध्याय र गाथा-८प४) पंचास्तिकायमां तेरमा गुणस्थानथी ज्ञानचेतनानो स्वीकार करेल छे, पण तेथी तेमां कांई विरोध नथी. सम्यग्द्रष्टि जीवने शुभाशुभ भावनुं स्वामित्व नथी ए अपेक्षाए चोथा गुणस्थानथी ज्ञानचेतना पंचाध्यायीमां कही छे. भगवान श्री कुंदकुंदाचार्यदेवे क्षायोपशमिकभावमां कर्म निमित्त होय छे ते अपेक्षाए नीचेनां गुणस्थानोमां तेनो स्वीकार करेल नथी. बन्ने कथनो विवक्षा आधीन होवाथी सत्य छे.

(रर)
आ संबंधमां विचारवा लायक नव विषयो
(१) प्रश्नः– गुणना समुदायने द्रव्य कह्युं छे अने संपूर्ण गुणो द्रव्यना प्रत्येक

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११२] [मोक्षशास्त्र प्रदेशमां रहे छे तेथी जो आत्मानो एक गुण (सम्यग्दर्शन) क्षायिक थई जाय तो संपूर्ण आत्मा ज क्षायिक थई जवो जोईए अने ते ज क्षणे तेनी मुक्ति थई जवी जोईए, एम केम नथी थतुं?

उत्तरः– जीवद्रव्यमां अनंतगुण छे, ते दरेक गुण असहाय अने स्वाधीन छे तेथी एक गुणनी शुद्धि थतां बीजा गुणनी शुद्धि थवी ज जोईए तेवो नियम नथी. आत्मा अखंड होवाथी एक गुण बीजा गुणनी साथे अभेद छे ए खरुं छे पण तेथी पर्यायअपेक्षाए दरेक गुणनो पर्याय जुदे जुदे वखते शुद्ध थवामां कांई दोष नथी; द्रव्यअपेक्षाए संपूर्ण शुद्धि प्रगटे त्यारे द्रव्यनी आखी शुद्धि प्रगटी गणाय; पण क्षायिक सम्यग्दर्शन थतां संपूर्ण आत्मा क्षायिक थवो जोईए अने मुक्ति तरत थवी जोईए एम मानवुं योग्य नथी.

(र) प्रश्नः– एक गुण सर्व गुणात्मक छे अने सर्व गुण एक गुणात्मक छे; माटे एक गुण संपूर्ण प्रगट थवाथी अन्य संपूर्ण गुण पण पूर्ण रीते ते ज समये प्रगट थवा जोईए-ए खरुं छे?

उत्तरः– ए मान्यता खरी नथी. गुण अने गुणी अखंड छे एटली अपेक्षाए एटले के अभेद अपेक्षाए गुणो अभेद छे पण तेथी एक गुण बीजा बधा गुणरूप छे एम कही शकाय नहि; एम कहेतां दरेक द्रव्य एक ज गुणात्मक थाय- पण तेम बने नहि. भेद अपेक्षाए दरेक गुण भिन्न, स्वतंत्र, असहाय छे, एक गुणमां बीजा गुणनी नास्ति छे; वस्तुनुं स्वरूप भेदाभेद छे-तेम मानवामां न आवे तो द्रव्य अने गुण सर्वथा अभिन्न थई जाय. एक गुणने बीजा गुण साथे निमित्त-नैमित्तिक- संबंध छे-ए अपेक्षाए एक गुण बीजा गुणने सहायक कहेवामां आवे छे. (जेमके- सम्यग्दर्शन कारण अने सम्यग्ज्ञान कार्य.)

(३) प्रश्नः– आत्माना एक गुणनो घात थवामां ते गुणना घातमां निमित्तरूप जे कर्म छे ते उपरांत बीजां कर्मो निमित्तरूप घातक छे के केम?

उत्तरः– ना, तेम नथी. प्रश्नः– अनंतानुबंधी चारित्रमोहनीयनी प्रकृति छे तेथी ते चारित्रना घातमां निमित्त होय पण सम्यग्दर्शनना घातमां ते केम निमित्त गणाय छे?

उत्तरः– अनंतानुबंधीना उदयमां जोडातां क्रोधादिरूप परिणाम थाय छे पण कांई अतत्त्वश्रद्धान थतुं नथी माटे ते चारित्रना घातनुं ज निमित्त थाय छे, पण सम्यक्त्वना घातमां ते निमित्त नथी. परमार्थथी तो आम ज छे; परंतु अनंतानुबंधीना उदयथी


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अ. १. परि. १] [११३ जेवा क्रोधादिक थाय छे तेवा क्रोधादिक सम्यक्त्वना सद्भावमां थता नथी एवो निमित्त नैमित्तिकसंबंध छे, तेथी उपचारथी अनंतानुबंधीमां सम्यक्त्वनुं घातकपणुं कहेवामां आवे छे. [मोक्षमार्ग-प्रकाशक पानुं-३३७]

(४) प्रश्नः– त्रिलोकसारनी ७१ मी गाथामां क्षायिक सम्यग्द्रष्टि तिर्यंचने सम्यग्दर्शनना अविभाग प्रतिच्छेदो केटला होय छे ए बताव्युं छे, माटे क्षायिक सम्यग्दर्शन अपूर्ण शा माटे ज गणाय?

उत्तरः– ‘क्षायिक’ सम्यग्दर्शन प्रगट थयुं एम कहेवुं ते आत्माना श्रद्धागुणनुं प्रगटवुं अने सात प्रकृतिओनो क्षय थवो ते बताववा-एटले के निमित्त- नैमित्तिकसंबंध बताववा पूरतुं छे, ते परनी अपेक्षाए छे, त्यां मिथ्यादर्शन अने अनंतानुबंधीनी सात प्रकृति आत्मप्रदेशे सत्तामां पण रहेती नथी, जो स्वद्रव्यना बीजा गुणोनी साथे अभेदपणुं लक्षमां लईए तो ते अपेक्षाए ते गुणनो पूर्ण पर्याय केवळज्ञान थतां प्रगट थाय छे एम कही शकाय. वळी द्रव्य अखंड छे तेथी द्रव्यअपेक्षाए आखा द्रव्यनी संपूर्ण सिद्धि सिद्धपणामां थाय छे एम कही शकाय छे. सम्यग्दर्शन एकवार प्रगट थया पछी ते मेळववा माटे पुरुषार्थ करवानो रहेतो नथी, पण तेनी द्रढता माटे तथा चारित्र माटे पुरुषार्थ करवानो रहे छे अने तेने अनुसरीने संपूर्ण ज्ञान तेरमा गुणस्थाने प्रगटे छे अने परम यथाख्यातचारित्र चौदमा गुणस्थानना अंतमां प्रगटे छे-ए रीते द्रव्यअपेक्षाए अखंड पूर्ण शुद्धि सिद्धदशामां थाय छे.

त्रिलोकसार गाथा-७१ मां अविभाग प्रतिच्छेदनुं जे कथन छे ते तेना पर्यायनी अपेक्षाए छे पण विषयनी अपेक्षाए ते कथन नथी; केम के स्वरूपनी मान्यता तो तमाम प्रकारना सम्यग्दर्शनमां एक ज प्रकारनी होय छे एटले तेमां क्रम के भेद पडी शकता नथी; चारित्रमां भेद पडे छे. सम्यग्दर्शन प्रगटतां अभिप्राय (श्रद्धा-मान्यता) अपेक्षाए जीवनो मोक्ष थयो-एम ज्ञानीओ कहे छे.

(प) प्रश्नः– संसारमां एवो नियम छे के दरेक गुणनो क्रमिक विकास थाय छे, माटे सम्यग्दर्शननो पण क्रमिक विकास थवो जोईए?

उत्तरः– एवो एकांत सिद्धांत नथी. विकासमां पण अनेकांतस्वरूप लागु पडे छे एटले के आत्मानो श्रद्धागुण तेना विषयनी अपेक्षाए एक साथे ऊघडे छे. अने आत्माना ज्ञानादि केटलाक गुणोमां क्रमिक विकास थाय छे.

अक्रमिक उधाडनुं द्रष्टांत
मिथ्यादर्शन टळी एक समयमां सम्यग्दर्शन प्रगटे छे त्यां क्रम पडतो नथी.

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११४] [मोक्षशास्त्र सम्यग्दर्शन प्रगटे त्यारथी ज ते पोताना विषय परत्वे पूर्ण अने क्रमरहित होय छे.

क्रमिक विकासनुं द्रष्टांत

सम्यग्ज्ञान-सम्यक्चारित्रमां क्रमे क्रमे विकास थाय छे. आ रीते विकासमां क्रमिक अने अक्रमिकपणुं आवे छे, तेथी विकासनुं स्वरूप अनेकांत छे-एम समजवुं.

(६) प्रश्नः– सम्यक्त्वना आठ अंग कह्यां छे, तेमां एक अंग ‘निःशंक्ति’ छे अने तेनो अर्थ निर्भयता कह्यो छे; निर्भयता आठमा गुणस्थाने थाय छे माटे ज्यांसुधी भय छे. त्यांसुधी सम्यग्दर्शन पूर्ण नथी-एम जाणवुं ते बराबर छे? जो सम्यग्दर्शन पूर्ण होत तो श्रेणिक राजा क्षायिक सम्यग्द्रष्टि हता ते आपघात न करत ए खरुं के नहि?

उत्तरः– ए खरुं नथी; सम्यग्द्रष्टिने सम्यग्दर्शनना विषयनी मान्यता पूर्ण ज होय छे केम के तेनो विषय अखंड शुद्धात्मा छे. सम्यग्द्रष्टिने शंका-कांक्षा- विचिकित्सानो अभाव द्रव्यानुयोगमां कह्यो छे, अने करणानुयोगमां भयनो आठमा गुणस्थान सुधी, लोभनो दसमा सुधी अने जुगुप्सानो आठमा सुधी सद्भाव कह्यो छे, त्यां विरोध नथी, कारण के-श्रद्धानपूर्वकना तीव्र शंकादिकनो सम्यग्द्रष्टिने अभाव थयो छे अथवा मुख्यपणे सम्यग्द्रष्टि शंकादिक करे नहि-ए अपेक्षाए सम्यग्द्रष्टिने शंकादिकनो अभाव कह्यो, पण सूक्ष्म शक्तिनी अपेक्षाए भयादिकनो उदय आठमादि गुणस्थान सुधी होय छे तेथी करणानुयोगमां त्यां सुधी सद्भाव कह्यो. (मोक्षमार्ग- प्रकाशक पानुं-र९६)

सम्यग्द्रष्टिने ‘निर्भयता’ कही छे तेनो अर्थ एवो छे के अनंतानुबंधीनो कषाय साथे जे जातनो भय होय ते जातनो भय सम्यग्द्रष्टिने नथी एटले के ‘परवस्तुथी मने भय थाय छे’ एम अज्ञानदशामां जीव मानतो हतो ते मान्यता सम्यग्द्रष्टि थतां टळी गई, हवे जे भय थाय छे ते पोताना पुरुषार्थनी नबळाईने कारणे थाय छे एटले के भयमां पोताना वर्तमान पर्यायनो दोष छे-परवस्तुनो दोष नथी, एम ते माने छे. एटले पर प्रत्येनी तेने निर्भयता प्रगटी छे, आ अपेक्षाए ते कथन छे. सर्वथा भय टळ्‌यो नथी, ते आठमे गुणस्थाने टळे छे.

श्रेणिक राजाने जे भय उत्पन्न थयो, ते पोतानी नबळाईने कारणे हतो एवी तेनी मान्यता होवाथी सम्यग्दर्शन अपेक्षाए ते निर्भय छे. चारित्रअपेक्षाए अल्प भय थतां आत्मघातनो विकल्प आव्यो.

प्रश्नः– क्षायिक लब्धिनी स्थिति राखवा माटे वीर्यांतरायना कर्मना क्षयनी

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अ. १. परि. १] [११प जरूर पडशे केमके क्षायिक शक्ति वगर कोई पण क्षायिक लब्धि टकी शके नहि. आ मान्यता बराबर छे?

उत्तरः– ए मान्यता भूल भरेली छे. वीर्यांतरायना क्षयोपशमना निमित्ते अनेक प्रकारना क्षायिक पर्याय प्रगटे छेः- १-क्षायिक सम्यग्दर्शन (चोथेथी सातमे गुणस्थाने), र-क्षायिक यथाख्यातचारित्र (बारमा गुणस्थाने), ३-क्षायिक क्षमा (दसमा गुणस्थाने), *४-क्षायिक निर्मानता (दसमा गुणस्थाने), प-क्षायिक निष्कपटता (दसमा गुणस्थाने), अने ६-क्षायिक निर्लोभता (बारमा गुणस्थाने) होय छे. बारमा गुणस्थाने वीर्य क्षयोपशमरूप होय छे, छतां कषायनो क्षय छे.

बीजी रीते जोईए तो तेरमा गुणस्थाने क्षायिक अनंतवीर्य अने संपूर्ण ज्ञान प्रगटे छे, छतां योगनुं कंपन अने चार प्रतिजीवी गुणोनु अप्रगटपणुं (विभावभाव) होय छे, चौदमा गुणस्थाने कषाय अने योग बन्ने क्षयरूप छे छतां असिद्धत्व छे, ते वखते पण जीवनी पोताना उपादाननी कचाशने लईने कर्मो साथेनो संबंध अने संसारीपणुं छे.

उपरनी हकीकतथी एम सिद्ध थाय छे के; भेद अपेक्षाए दरेक गुण स्वतंत्र छे; जो तेम न होय तो एक गुण बीजा गुणरूप थई जाय अने ते गुणनुं पोतानुं स्वतंत्र कार्य रहे नहि; द्रव्य अपेक्षाए बधा गुणो अभेद छे ए उपर कहेवाय गयुं छे.

प्रश्नः– ज्ञान अने दर्शन ए चेतनागुणना विभाग छे, ते बन्नेना घातमां निमित्तपणे जुदां जुदां कर्म मान्यां छे, परंतु सम्यक्त्व अने चारित्र ए बन्ने जुदाजुदा गुण छे छतां ते बन्नेना घातमां निमित्तकर्म एक मोह ज मानवामां आव्युं छे तेनुं शुं कारण?

प्रश्ननो विस्तार

आ प्रश्न उपरथी उठता सवालो नीचे मुजब छेः- १- मोहनीयकर्म ज्यारे सम्यक्त्व अने चारित्र ए बन्ने गुणोना घातमां निमित्त छे

त्यारे मूळ प्रकृतिओमां तेना बे भेद मानी कर्म नव कहेवां जोईए, परंतु आठ
ज केम कह्यां?

_________________________________________________________________

* द्रव्यक्रोधनी ९मा गुणस्थानकना ७मा भागमां व्युच्छित्ति (नाश) थाय छे. द्रव्यमाननी ९ मा गुणस्थानकना ८ मा भागमां व्युच्छित्ति (नाश) थाय छे. द्रव्यमायानी ९ मा गुणस्थानकना ९ मा भागमां व्युच्छित्ति (नाश) थाय छे.


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११६] [मोक्षशास्त्र र-ज्यारे मोहनीय बे गुणोना घातमां निमित्त छे तो चार घाति कर्मो चार ज

गुणोना घातमां निमित्त केम बताव्यां? पांच गुणोनो घात कहेवो जोईए?

३-शुद्ध जीवोने कर्म नष्ट थतां प्रगट थवावाळा जे आठ गुण कह्या छे तेमां चारित्रने

न कहेतां सम्यक्त्वने ज कह्युं छे तेनुं शुं कारण? त्यां चारित्रने केम छोडी दीधुं?

४-कोई कोई जग्याए चारित्र अगर सम्यक्त्वमांथी एकेयने नहि कहेतां सुखगुणनो

ज उल्लेख कर्यो छे ते शा कारणे?
उत्तर

ज्यारे जीव पोतानुं निजस्वरूप प्रगट न करे- सांसारिकदशाने वधारे-त्यारे मोहनीयकर्म निमित्त छे, पण कर्म जीवने कांई पण करी शके एम मानवुं ते तद्न मिथ्या छे. सांसारिकदशानो अर्थ ए छे के जीवमां आकुळता थाय-अशांति थाय- क्षोभ थाय. ए अशांतिमां त्रण विभागो पडे छेः १-अशांतिरूप वेदननुं ज्ञान, र-ते वेदन तरफ जीव झूके त्यारे निमित्तकारण अने ३-अशांतिरूप वेदन. ते वेदननुं ज्ञान तो ज्ञानगुणमां गर्भित थई जाय छे. ते ज्ञानना कारणमां ज्ञानावरणनो क्षयोपशम निमित्त छे. ते वेदन तरफ जीव लागे त्यारे वेदनीय कर्म ते कार्यमां निमित्त छे; अने वेदनमां मोहनीय निमित्त छे. अशांति, मोह, आत्मज्ञान-पराङ्मुखता तथा विषयासकित ए सर्व कार्य मोहनां ज छे. कारणना नाशथी कार्य पण नष्ट थई जाय छे तेथी विषयासकित घटाडवा पहेलां ज आत्मज्ञान उत्पन्न करवानो भगवान उपदेश आपे छे.

मोहना कार्यने बे प्रकारे विभक्त करी शकाय छेः १. द्रष्टिनी विमुखता अने र. चारित्रनी विमुखता. बन्नेमां विमुखता सामान्य छे. ते बन्ने सामान्यपणे ‘मोह’ नामथी ओळखाय छे, माटे ते बन्नेने अभेदपणे एक कर्म जणावी, तेना बे पेटा विभाग ‘दर्शनमोह’ अने ‘चारित्रमोह’ कह्या छे. दर्शनमोह ते अपरिमित मोह छे अने चारित्रमोह ते परिमित मोह छे. मिथ्यादर्शन ते संसारनी जड छे. सम्यग्दर्शन प्रगटतां ज मिथ्यादर्शननो अभाव थाय छे. मिथ्यादर्शनमां दर्शनमोह निमित्त छे; दर्शनमोहनो अभाव थतां ते ज वखते चारित्रमोहनो एक पेटा विभाग जे अनंतानुबंधी क्रोध-मान-माया-लोभ छे तेनो एकसाथे अभाव थाय छे, अने त्यारपछी क्रमे-क्रमे वीतरागता वधतां चारित्रमोहनो क्रमेक्रमे अभाव थतो जाय छे, ते कारणे दर्शन कारण अने चारित्र कार्य एम पण कहेवामां आवे छे, आ रीते भेद अपेक्षाए ते जुदा छे; तेथी प्रथम अभेद अपेक्षाए ‘मोह’ कर्म एक होवाथी तेने एक कर्म गणीने पछी


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अ. १. परि. १] [११७ तेना बे पेटा विभाग-दर्शनमोह अने चारित्रमोह गणवामां आव्या छे.

चार घातिया कर्मोने चार गुणोना घातमां निमित्त कह्यां तेनुं कारण ए छे के-मोहकर्मने अभेदअपेक्षाए ज्यारे एक गण्युं त्यारे श्रद्धा अने चारित्र गुणने अभेद अपेक्षाए शांति (सुख) गणी चार गुणोना घातमां चार घातिया कर्मोने निमित्तपणे कह्यां.

शंकाः– जो मिथ्यात्व अने कषाय एक ज होय तो मिथ्यात्वनो नाश थतां कषायनो अभाव पण थवो ज जोईए, के जे कषायना अभावने चारित्रनी प्राप्ति कहे छे- परंतु तेम तो थतुं नथी अने सम्यक्त्व प्राप्त होवा छतां चोथा गुणस्थाने चारित्र प्राप्त थतुं नथी तेथी चोथा गुणस्थानने अव्रतरूप कहेवाय छे. अणुव्रत थतां पांचमुं गुणस्थान थाय छे, पूर्ण व्रत थतां ‘व्रती’ संज्ञा थवा छतां यथाख्यातचारित्र प्राप्त थतुं नथी. ए प्रकारे विचारवाथी मालूम पडशे के सम्यक्त्व क्षायिकरूप पूर्ण थवा छतां पण चारित्रनी प्राप्तिमां अथवा पूर्णतामां विलंब थाय छे, तेथी सम्यक्त्व अने चारित्रमां अथवा मिथ्यात्व अने कषायोमां एकता तथा कारण-कार्यपणुं केम ठीक थई शके?

समाधानः– मिथ्यात्व न रहेवाथी जे कषाय रहे छे ते मिथ्यात्वनी साथे रहेवावाळा अति तीव्र अनंतानुबंधी कषायोनी समान होतो नथी, पण अति मंद थइ जाय छे; तेथी ते कषाय गमे तेवो बंध करे तो पण दीर्घसंसारना कारणभूत ते बंध थतो नथी, अने तेथी ज्ञानचेतना पण सम्यग्दर्शन थतां ज शरू थई जाय छे-के जे बंधना नाशनुं कारण छे; तेथी प्रथम मिथ्यात्व होय त्यारे जे चेतना होय छे ते कर्मचेतना अने कर्मफळचेतना होय छे-के जे पूर्ण बंधनुं कारण छे. आनो सारांश ए छे के कषाय तो सम्यग्द्रष्टिने पण शेष रहे छे परंतु मिथ्यात्वनो नाश थवाथी अतिमंद थई जाय छे अने तेथी सम्यग्द्रष्टि जीव केटलाक अंशे अबंध रहे छे अने निर्जरा करे छे, तेथी मिथ्यात्व अने कषायनो केटलोक अविनाभाव जरूर छे.

हवे शंकानी ए वात रही के-मिथ्यात्वना नाशनी साथे ज कषायनो पूर्ण नाश केम थतो नथी? तेनुं समाधान ए छे के-मिथ्यात्व अने कषाय सर्वथा एक चीज तो नथी; सामान्य स्वभाव बन्नेनो एक छे परंतु विशेष अपेक्षाए कांईक भेद पण छे. विशेष-सामान्यनी अपेक्षाए भेद-अभेद बन्नेने अहीं मानवा जोईए. ए भाव देखाडवाने माटे ज शास्त्रकारे सम्यक्त्व अने आत्मशांतिना घातनुं निमित्त मूळप्रकृति एक ‘मोह’ राखी छे अने उत्तरप्रकृतिमां दर्शनमोहनीय अने चारित्रमोहनीय ए बे भेद कर्या छे. (आ खुलासामां पहेली अने बीजी शंकानुं समाधान आवी गयुं.) ज्यारे उत्तरप्रकृतिमां भेद छे त्यारे तेना नाशनो पूर्ण अविनाभाव केम थई शके? [न थाय].


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११८] [मोक्षशास्त्र हा, पण मूळ कारण न रहेतां चारित्रमोहनीयनो टकाव पण अधिक रहेतो नथी. दर्शनमोहनीयनी साथे नहि तोपण थोडा ज वखतमां चारित्रमोहनीय पण नष्ट थई जाय छे..

-अथवा एम कहेवुं जोईए के चारित्रमोहनीय मिथ्यात्वना अभावमां जोके रहे तो छे परंतु ज्यां सुधी चारित्रमोहनीय रहे छे त्यां सुधी सम्यक्त्वनी पण पूर्ति थती नथी, क्षायिकसम्यक्त्व पण ‘केवळसम्यक्त्व’ नाम पामतुं नथी के जे रत्नत्रयनी पूर्णतानुं चिह्न छे.

भावार्थः– अस्थिरता वगेरेना कारणे घातिकर्मोना समय सुधी सम्यक्त्व पूर्ण थतुं नथी..

अथवा सम्यक्त्व थई जवा छतां पण ज्ञान सदा स्वानुभूतिमां ज तो नथी रहेतुं. ज्ञाननुं ज्यारे बाह्य लक्ष थई जाय छे त्यारे स्वानुभूतिथी खसी जवाना कारणे सम्यग्द्रष्टि पण विषयोमां अल्प तन्मय थई जाय छे; परंतु ए छद्मस्थज्ञाननी चंचळतानो दोष छे अने तेनुं कारण पण कषाय ज छे; पण ज्ञाननी केवळ कषाय- नैमित्तिक चंचळता थोडा वखत सुधी ज रही शके छे, अने ते पण तीव्र बंधनुं कारण थती नथी.

भावार्थः– सम्यक्त्वनी उत्पत्तिथी संसारनी जड तो तूटी जाय छे परंतु बीजां कर्मोनो ते ज क्षणे सर्वनाश थतो नथी. कर्म पोतपोतानी योग्यता अनुसार बंधाय छे तथा उदयमां आवे छे. जुओ, मिथ्यात्वना साथी चारित्रमोहनीयनी उत्कृष्ट स्थिति चालीस क्रोडाकोडी सागरनी होय छे. ए उपरथी नक्की थाय छे के मिथ्यात्व ज बधा दोषोमां अधिक बळवान दोष छे, अने ते ज दीर्घ अने असली संसारनी स्थापना करे छे, तेथी तेनो नाश कर्यो के संसारनो किनारो आवी गयो समजवो; परंतु साथे ए पण भूलवुं न जोईए के मोह तो बन्ने छे, एक (दर्शनमोह) अमर्यादित छे अने बीजो (चारित्रमोह) मर्यादित छे-परंतु बन्ने संसारनां ज कारणो छे.

संसारनुं संक्षेपमां स्वरूप कहीए तो ते दुःखमय छे, तेथी आनुषंगिक भले दुःखनां निमित्तकारण बीजां कर्म पण होय तोपण मुख्य निमित्तकारण मोहनीयकर्म छे, ज्यारे सर्व दुःखनुं कारण (निमित्तपणे) मोहनीय कर्म मात्र छे तो मोहना नाशने सुख कहेवुं जोईए. जे ग्रंथकार मोहना नाशने सुखगुणनी प्राप्ति माने छे तेनुं मानवुं मोहना संयुक्त कार्यनी अपेक्षाए व्याजबी छे. ते मानवुं अभेद-व्यापक द्रष्टिथी छे; तेथी जे सुखने अनंत चतुष्टयमां गर्भित करे छे ते चारित्र तथा सम्यक्त्वने जुदा गणता नथी, केमके सम्यक्त्व तथा चारित्रना सामुदायिक स्वरूपने सुख कही शकाय छे.


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अ. १. परि. १] [११९

चारित्र अने सम्यक्त्व बन्नेनो समावेश (छेडो-फळ) सुखगुणमां अथवा स्वरूपलाभमां ज थाय छे; तेथी चारित्र अने सम्यक्त्वनो अर्थ सुख पण थई शके छे. ज्यां सुख अने वीर्यगुणनो उल्लेख अनंत चतुष्टयमां करे छे त्यां ते गुणोनी मुख्यता गणी कहे छे अने बीजाने गौण गणी कहेता नथी, तोपण तेमने तेमां संग्रहित थयेल समजी लेवा जोईए केमके सुखगुणना ते बन्ने विशेषाकार छे. आ कथनथी मोहनीयकर्म कया गुणना घातमां निमित्त छे तेनो खुलासो थई जाय छे; तथा वेदनीयनुं अघातकपणुं पण सिद्ध थाय छे केमके वेदनीय कोईने घातवामां निमित्त नथी, मात्र घात थयेल स्वरूपनो जीव ज्यारे अनुभव करे त्यारे निमित्तरूप छे. [आ खुलासामां त्रीजी अने चोथी शंकानुं समाधान आवी गयुं.]

[आ वात खास ख्यालमां राखवी के जीवमां थतां विकारभाव जीव पोते करे

छे, त्यारे कर्मनो उदय हाजररूपे निमित्त छे, पण ते कर्मना रजकणोए जीवने कांई पण कर्युं के कांई असर करी एम मानवुं ते सर्वथा मिथ्या छे; तेम ज जीव विकार करे त्यारे पुद्गलकार्माणवर्गणा स्वयं कर्मरूपे परिणमे छे-एवो निमित्त- नैमित्तिकसंबंध छे. जीवने विकारीपणे कर्म परिणमावे अने कर्मने जीव परिणमावे ए निमित्त-नैमित्तिक संबंध बतावनारुं व्यवहारकथन छे. खरी रीते जडने कर्म तरीके जीव परिणमावी शके नहि अने कर्म जीवने विकारी करी शके नहि-एम समजवुं. गोम्मटसार आदि कर्मशास्त्रोना आ प्रमाणे अर्थ करवा ते ज न्यायसर छे.]

(८) प्रश्नः– बंधनां कारणोमां मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय अने योग ए पांच मोक्षशास्त्रमां कह्यां छे, अने बीजा आचार्यो कषाय अने योग ए बे ज बतावे छे; आ रीते तेओ मिथ्यात्व, अविरति अने प्रमाद ने कषायना भेद माने छे. कषाय चारित्रमोहनीयनो भेद छे; तो पछी एम प्रतीत थाय छे के चारित्रमोहनीय ज बधां कर्मोनुं कारण छे, माटे ज्यांसुधी कषाय विद्यमान छे त्यांसुधी कोई पण गुणनी पूर्ण शुद्धि थई शके नहि, माटे सम्यग्दर्शननी पण पूर्ण शुद्धि त्यां न थाय एम जणाय छे ते बराबर छे?

उत्तरः– कषायना मिथ्यात्व, अविरति अने प्रमाद पेटा-भाग छे, पण तेथी ‘कषाय’ चारित्रमोहनीयनो भेद छे एम मानवुं बराबर नथी. मिथ्यात्व ते महा कषाय छे. ‘कषाय’ने ज्यारे सामान्य अर्थमां वापरीए त्यारे दर्शनमोह अने चारित्रमोह बन्नेरूप छे, केमके कषायमां मिथ्यादर्शननो समावेश थई जाय छे. कषायने ज्यारे विशेष अर्थमां वापरीए त्यारे ते चारित्रमोहनीयनो भेद छे. चारित्रमोहनीयकर्म ते बधां कर्मोनुं कारण नथी, पण जीवनो मोहभाव ते सात अथवा आठ कर्मोना बंधनुं


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१२०] [मोक्षशास्त्र निमित्त छे. जीवने क्षायिक चारित्र न प्रगटे त्यां सुधी सम्यक्त्वगुणनी पूरी शुद्धि कइ अपेक्षाए थई अने कई अपेक्षाए थई नथी ए आगळ बतावाई गयुं छे. (जुओ, पारा र१ प्रश्न-८).

(९) प्रश्नः– सात प्रकृतिनो क्षय अथवा उपशमादि थाय ते व्यवहारसम्यग्दर्शन छे के निश्चयसम्यग्दर्शन छे?

उत्तरः– ते निश्चयसम्यग्दर्शन छे. प्रश्नः– सिद्ध भगवंतोने व्यवहारसम्यग्दर्शन होय छे के निश्चयसम्यग्दर्शन होय छे? उत्तरः– सिद्धोने निश्चयसम्यग्दर्शन होय छे. प्रश्नः– व्यवहारसम्यग्दर्शन अने निश्चयसम्यग्दर्शनमां शुं फेर छे? उत्तरः– जीवादि नव तत्त्वोनी तथा सुदेव, सुगुरु अने सुशास्त्रनी विकल्पसहितनी श्रद्धा तेने व्यवहारसम्यक्त्व कहेवामां आवे छे; जे जीव ते विकल्पनो अभाव करी पोताना शुद्धात्मा तरफ वलण करी निश्चयसम्यग्दर्शन प्रगट करे, तेने पूर्वे व्यवहारसम्यकत्व हतुं एम कहेवामां आवे छे. जे जीव निश्चयसम्यग्दर्शन प्रगट न करे तेने ते व्यवहाराभास सम्यक्त्व छे. व्यवहारसम्यग्दर्शननो अभाव करीने जे जीव निश्चयसम्यग्दर्शन प्रगट करे तेने व्यवहारसम्यग्दर्शन उपचारथी (-एटले के व्यय तरीके- अभाव तरीके) निश्चयसम्यग्दर्शननुं कारण कहेवामां आवे छे.

सम्यग्द्रष्टि जीवने विपरीत अभिनिवेशरहित आत्मानुं श्रद्धान छे ते निश्चयसम्यग्दर्शन छे; तथा देव-गुरु-धर्मादिनुं श्रद्धान ते व्यवहारसम्यग्दर्शन छे; ए प्रमाणे एक काळमां सम्यग्द्रष्टिने बन्ने सम्यग्दर्शन होय छे. केटलाक मिथ्याद्रष्टिने- द्रव्यलिंगी मुनिने अने केटलाक अभव्य जीवने देव-गुरु-धर्मादिनुं श्रद्धान होय छे पण ते आभासमात्र होय छे; केम के तेमने निश्चयसम्यक्त्व नथी तेथी तेमनुं व्यवहारसम्यक्त्व पण आभासरूपछे. [मोक्षमार्ग प्रकाशक पानुं-३३७]

देव-गुरु-धर्मना श्रद्धानमां प्रवृत्तिनी मुख्यता छे. जे प्रवृत्तिमां अरिहंतादिकने देवादिक माने, अन्यने न माने तेने देवादिकनो श्रद्धानी कहेवामां आवे छे. तत्त्वश्रद्धामां विचारनी मुख्यता छे. जे ज्ञानमां जीवादि तत्त्वोने विचारे छे तेने तत्त्वश्रद्धानी कहेवामां आवे छे. ए बन्ने समज्या पछी कोई जीव रागनो अंशे अभाव करी सम्यकत्व प्रगट करे छे; तेथी ए बन्ने कोई जीवने सम्यक्त्वनां (उपचारथी) कारण कहेवामां आवे छे; परंतु तेनो सद्भाव मिथ्याद्रष्टिने पण संभवे छे तेथी तेनो व्यवहार व्यवहाराभास छे.

[मोक्षमार्ग-प्रकाशक, पानुं-३३र]

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अ. १. परि. १] [१२१

(२३)

सम्यग्दर्शन अने ज्ञानचेतनामां फेर

प्रश्नः– आत्मानी शुद्धोपलब्धि ज्यां सुधी छे त्यांसुधी ज्ञान ज्ञानचेतना छे अने तेटलुं ज सम्यग्दर्शन छे ए खरुं छे?

उत्तरः– आत्माना अनुभवने शुद्धोपलब्धि कहेवामां आवे छे, ते चारित्रगुणनो पर्याय छे. ज्यारे सम्यग्द्रष्टि पोताना शुद्धोपयोगमां जोडायो होय एटले के स्वानुभवरूप प्रवर्ते त्यारे तेने सम्यक्त्व होय छे; अने ज्यारे शुद्धोपयोगमां जोडायो न होय त्यारे पण तेने ज्ञानचेतना लब्धरूप होय छे. ज्ञानचेतना अनुभवरूप होय त्यारे ज सम्यग्दर्शन होय छे अने अनुभवरूप न होय त्यारे होतुं नथी-एम मानवुं ते भूल छे.

क्षायिक सम्यक्त्वमां जीव शुभाशुभरूपे प्रवर्ते के स्वानुभवरूप प्रवर्ते पण सम्यक्त्व गुण तो सामान्य छे. [मोक्षमार्ग प्रकाशक पानुं-३४६]

सम्यग्दर्शन ते श्रद्धागुणनो शुद्ध पर्याय छे, ते क्रमेक्रमे खीलतो नथी पण अक्रमपणे एक समयमां प्रगटे छे, अने सम्यग्ज्ञानमां तो हीनताअधिकता होय छे, पण तेमां विभावपणुं होतुं नथी. चारित्रगुण पण क्रमेक्रमे उघडे छे, ते अंशे शुद्ध अने अंशे अशुद्ध (रागद्वेषवाळो) नीचली दशामां होय छे, एटले ए प्रमाणे त्रणे गुणना शुद्ध पर्यायना विकासमां तफावत छे.

(र४)
सम्यक्श्रद्धा करवी ज जोईए
चारित्र न पळाय तो पण तेनी श्रद्धा करवी

दर्शनपाहुडनी ररमी गाथामां भगवान श्री कुंदकुंदाचार्यदेवे कह्युं छे के- “जो (अमे कहीए छीए ते) करवाने समर्थ हो तो करजे, पण जो करवाने समर्थ न हो तो साची श्रद्धा तो जरूर करवी, केम के केवळी भगवाने श्रद्धा करवावाळाने सम्यक्त्व कह्युं छे.”

आ गाथा एम बतावे छे के-जेणे निजस्वरूपने उपादेय जाणी श्रद्धान कर्युं तेने मिथ्याभाव तो मटयो, पण पुरुषार्थनी नबळाईथी चारित्र अंगीकार करवानुं सामर्थ्य न होय तो जेटलुं सामर्थ्य होय तेटलुं करे अने ते सिवायने माटे श्रद्धा करे; एवी श्रद्धा करवावाळाने भगवाने सम्यक्त्व कह्युं छे.

[अष्टपाहुड हिंदी पानुं-३३, दर्शनपाहुड गाथा-रर]

आ ज मतलबे नियमसारजी गाथा १प४ मां पण कहेवामां आव्युं छे, केम के सम्यग्दर्शन ते धर्मनुं मूळ छे.


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१२२] [मोक्षशास्त्र (२प)

निश्चयसम्यग्दर्शननो बीजो अर्थ

मिथ्यात्वभाव दूर थतां सम्यग्दर्शन चोथे गुणस्थाने प्रगटे छे. ते श्रद्धागुणनो शुद्ध पर्याय होवाथी निश्चयसम्यक्त्व छे. परंतु ते सम्यग्दर्शननी साथेना चारित्रगुणना पर्यायनो विचार करवामां आवे तो चारित्रगुणना रागवाळो पर्याय होय अथवा तो स्वानुभवरूप निर्विकल्प पर्याय होय त्यां, चारित्रगुणना निर्विकल्प पर्याय साथेना निश्चयसम्यग्दर्शनने वीतरागसम्यग्दर्शन कहेवामां आवे छे अने सविकल्प (रागसहित) पर्याय साथेना निश्चयसम्यग्दर्शनने सरागसम्यकत्व कहेवामां आवे छे. आ विषय उपर (८) मा विभागमां कहेवाई गयो छे.

ज्यारे सातमा गुणस्थाने अने तेथी आगळ वधती दशामां निश्चयसम्यग्दर्शन अने वीतरागचारित्रनुं अविनाभावीपणुं होय त्यारे ते अविनाभावीपणुं बताववा माटे बन्ने गुणनुं एकत्वपणुं लई ते वखतना सम्यग्दर्शनने ते एकत्वनी अपेक्षाए ‘निश्चयसम्यक्त्व’ कहेवामां आवे छे. अने निश्चयसम्यग्दर्शन साथेनी विकल्पदशा बताववा, ते वखते जोके निश्चयसम्यग्दर्शन छे तोपण, ते निश्चयसम्यग्दर्शनने ‘व्यवहारसम्यकत्व’ कहेवामां आवे छे. माटे ज्यां ‘निश्चयसम्यग्दर्शन’ शब्द वापर्यो होय त्यां ते श्रद्धा अने चारित्रनी एकत्वअपेक्षाए छे के एकला श्रद्धागुणनी अपेक्षाए छे ते नक्की करी तेनो अर्थ समजवो; तेम ज ‘व्यवहारसम्यग्दर्शन’ शब्द वापर्यो होय त्यां ते श्रद्धा अने चारित्रनी एकत्वअपेक्षाए छे के एकली श्रद्धानी अपेक्षाए छे ते नक्की करी तेनो अर्थ समजवो.

प्रश्नः– केटलाक जीवोने गृहस्थदशामां मिथ्यात्व टळी सम्यग्दर्शन थयुं होय छे तो ते सम्यग्दर्शन केवुं सम्यग्दर्शन समजवुं?

उत्तरः– एकला श्रद्धागुणनी अपेक्षाए तेने निश्चयसम्यग्दर्शन अने श्रद्धा तथा चारित्रगुणना एकत्वनी अपेक्षाए तेने व्यवहारसम्यग्दर्शन समजवुं. ए प्रमाणे गृहस्थदशामां जे निश्चयसम्यग्दर्शन छे ते कथंचित् निश्चय अने कथंचित् व्यवहारसम्यग्दर्शन छे-एम जाणवुं.

प्रश्नः– ते निश्चयसम्यग्दर्शनने श्रद्धा अने चारित्रनी एकत्वअपेक्षाए व्यवहारसम्यग्दर्शन शा माटे कह्युं?

उत्तरः– सम्यग्द्रष्टि जीव शुभरागने तोडी वीतरागचारित्र साथे अल्पकाळमां तन्मय


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अ. १. परि. १] [१२३ थई जशे एटलो संबंध बताववा माटे ते निश्चयसम्यग्दर्शनने श्रद्धा अने चारित्रनी एकत्वअपेक्षाए व्यवहारसम्यग्दर्शन कहेवामां आवे छे.

सातमे अने आगळना गुणस्थाने सम्यग्दर्शन अने सम्यक्चारित्रनी एकता होय छे तेथी ते वखतना सम्यक्त्वमां निश्चय अने व्यवहार एवा बे भेद पडता नथी तेथी त्यां जे सम्यकत्व वर्ते छे तेने ‘निश्चयसम्यग्दर्शन’ ज कहेवामां आवे छे.

(जुओ, परमात्मप्रकाश अध्याय १ गाथा ८प नीचेनी संस्कृत तथा हिंदी टीका. आवृत्ति बीजी पा. ९०; तथा परमात्मप्रकाश अध्याय र गाथा १७-१८ नीचेनी संस्कृत तथा हिंदी टीका, आवृत्ति बीजी पा. १४६-१४७; अने हिंदी समयसारमां जयसेनआचार्यनी संस्कृत टीका, गाथा १र१-१रप नीचे, पानुं १८६ तथा हिंदी समयसार टीकामां जयसेनआचार्यनी टीकानो अनुवाद पा. ११६.)

–छेवट–
पूण्यथी मोक्षमार्गरूपी धर्म थाय अने आत्मा परद्रव्यनुं
कांई पण करी शके–ए वात श्री वीतरागदेवोए
प्ररूपेला धर्मनी मर्यादा बहार छे.