Moksha Shastra-Gujarati (Devanagari transliteration). Sutra: 33 (Chapter 1); Parishist-1.

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अ. १. सूत्र ३३] [८३

एम संशय, विपर्यय अने अनध्यवसाय अनेक प्रकारे मिथ्याज्ञानमां होय छे; माटे सत् अने असत्नो यथार्थ भेद यथार्थ समजी, स्वच्छंदे करवामां आवती कल्पनाओ अने उन्मत्तपणुं टाळवानुं आ सूत्र कहे छे. [मिथ्यात्वने उन्मत्तपणुं कह्युं छे कारण के मिथ्यात्वथी अनंत पाप बंधाय छे तेनो जगतने ख्याल नथी.]।। ३२।।

प्रमाणनुं स्वरूप कह्युं, हवे श्रुतज्ञानना अंशरूप नयनुं स्वरूप कहे छे
नैगमसंग्रहव्यवहारर्जुसूत्रशब्दसमभिरूढैवंभूतानयाः।। ३३।।
अर्थः– [नैगम] नैगम, [संग्रह] संग्रह, [व्यवहार] व्यवहार, [ऋजुसूत्र]

ऋजुसूत्र, [शब्द] शब्द, [समभिरूढ] समभिरूढ, [एवंभूता] एवंभूत-ए सात [नयाः] नयो [Viewpoints] छे.

टीका

वस्तुना अनेक धर्मोमांथी कोई एकनी मुख्यता करी, अन्य धर्मोनो विरोध कर्या वगर तेमने गौण करी साध्यने जाणवो ते नय छे.

दरेक वस्तुमां अनेक धर्मो रहेला छे तेथी ते अनेकान्तस्वरूप छे. [‘अंत’ नो

अर्थ ‘धर्म’ थाय छे.] अनेकांतस्वरूप समजाववानी पद्धतिने ‘स्याद्धाद’ कहेवामां आवे छे. स्याद्धाद धोतक छे, अनेकांत धोत्य छे. ‘स्यात्’ नो अर्थ ‘कथंचित्’ थाय छे, एटले के कोई यथार्थ प्रकारनी विवक्षानुं कथन ते स्याद्वाद. अनेकांतनो प्रकाश करवा माटे ‘स्यात्’ शब्दनो प्रयोग करवामां आवे छे.

हेतु अने विषयना सामर्थ्यनी अपेक्षाए प्रमाणथी निरूपण करवामां आवेला अर्थना एकदेशने कहेवो ते नय छे, तेने ‘सम्यक् एकांत’ पण कहेवामां आवे छे. श्रुतप्रमाण स्वार्थ अने परार्थ बे प्रकार छे, तेमां परार्थ श्रुतप्रमाणनो अंश ते नय छे. शास्त्रना भावो समजवा माटे नयोनुं स्वरूप समजवानी जरूर छे. सात नयोनुं स्वरूप नीचे मुजब छेः- १. नैगमनयः– जे भूतकाळना पर्यायमां वर्तमानवत् संकल्प करे अथवा भविष्यना

पर्यायमां वर्तमानवत् संकल्प करे तथा वर्तमान पर्यायमां कंईक निष्पन्न
(प्रगटरूप) छे अने कंईक निष्पन्न नथी तेनो निष्पन्नरूप संकल्प करे ते
ज्ञानने तथा वचनने नैगमनय कहे छे.
[Figurative]

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८४] [मोक्षशास्त्र २. संग्रहनयः– जे समस्त वस्तुओने तथा समस्त पर्यायने संग्रहरूप करी जाणे तथा

कहे ते संग्रहनय छे. जेम-सत्, द्रव्य ईत्यादि. [General, Common]

३. व्यवहारनयः– अनेक प्रकारना भेद करी व्यवहार करे-भेदे ते व्यवहारनय छे.

संग्रहनय द्वारा ग्रहण करेल पदार्थोनो विधिपूर्वक भेद करे तेने व्यवहार कहे छे.
जेम सत् बे प्रकारे छे-द्रव्य अने गुण. द्रव्यना छ भेद छे-जीव, पुद्गल,
धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाश अने काळ. गुणना बे भेद छे-सामान्य
अने विशेष. आ रीते ज्यां सुधी भेद थई शके छे त्यां सुधी आ नय प्रवर्ते छे.
[Distributive]

४. ऋजुसूत्रनयः– [ऋजु एटले वर्तमान, हाजर, सरळ] जे ज्ञाननो अंश वर्तमान

पर्याय मात्रने ग्रहण करे ते ऋजुसूत्रनय छे. [Present condition]

प. शब्दनयः– जे नय लिंग, संख्या, कारक आदिना व्यभिचारने दूर करे छे ते

शब्दनय छे. आ नय लिंगादिकना भेदथी पदार्थने भेदरूप ग्रहण करे छे; जेम-
दार (पु
), भार्या (स्त्री), कलत्र (न), ए दार, भार्या अने कलत्र त्रणे
शब्दो भिन्न लिंगवाळा होवाथी, जोके एक ज पदार्थना वाचक छे तोपण आ
नय स्त्री पदार्थने लिंगना भेदथी त्रण भेदरूप जाणे छे.
[Descriptive]

६. समभिरूढ नयः– (१) जे जुदाजुदा अर्थोने उल्लंधी एक अर्थने रूढि थी ग्रहण करे

ते. जेमके- गाय. [Usage] (२) पर्यायना भेदथी अर्थने भेदरूप ग्रहण करे ते.
जेम-इंद्र, पुरंदर, शुक्र, ए त्रणे शब्दो इन्द्रनां नाम छे पण आ नय त्रणेनो
जुदोजुदो अर्थ करे छे.
[Specific]

७. एवंभूतनयः– जे शब्दनो जे क्रियारूप अर्थ छे ते क्रियारूप परिणमता पदार्थने जे

नय ग्रहण करे छे तेने एवंभूतनय कहे छे. जेमके-पूजारीने पूजा करती वखते ज
पूजारी कहेवो.
[Active]

पहेला त्रण भेद द्रव्यार्थिकनयना छे, तेने सामान्य, उत्सर्ग अथवा अनुवृत्ति एवा नामथी पण कहेवामां आवे छे.

पाछळना चार भेद पर्यायार्थिकनयना छे, तेने विशेष, अपवाद अथवा व्यावृत्ति एवा नामथी पण कहेवामां आवे छे.

पहेला चार नय अर्थनय छे, पछीना त्रण शब्द्रनय छे. पर्याय बे प्रकारना छे-(१) सहभावी-जेने गुण कहेवामां आवे छे;(२) क्रमभावी-जेने पर्याय कहेवामां आवे छे.

द्रव्य ए नाम वस्तुओनुं पण छे; अने वस्तुओना सामान्यस्वभावमय

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अ. १. सूत्र ३३] [८प एक स्वभावनुं पण छे. ज्यारे द्रव्य प्रमाणनो विषय होय त्यारे तेनो अर्थ वस्तु (द्रव्य, गुण अने त्रणेकाळना पर्यायो सहित) एवा करवो; नयोना प्रकरणमां ज्यारे द्रव्यार्थिक वपराय त्यारे ‘सामान्य स्वभावमय एक स्वभाव’ (सामान्यात्मक धर्म) एवो तेनो अर्थ करवो.

द्रव्यार्थिकमां नीचे प्रमाणे त्रण भेद थाय छेः-
१. सत् अने असत् पर्यायना स्वरूपमां प्रयोजनवश परस्पर भेद न मानी
बन्नेने वस्तुनुं स्वरूप मानवुं ते नैगमनय छे.
२. सत्ना अंतर्भेदोमां भेद न गणवो ते संग्रहनय छे.
३. सत्मां अंतर्भेदो मानवा ते व्यवहारनय छे.
नयना ज्ञाननय, शब्दनय अने अर्थनय एवा पण त्रण प्रकार पडे छे.
१. वास्तविक प्रमाणज्ञान छे; अने एकदेशग्राही ते होय त्यारे तेने नय कहे
छे, तेथी ज्ञाननुं नाम नय छे अने तेने ज्ञाननय कहेवामां आवे छे.
२. ज्ञान द्वारा जाणेला पदार्थनुं प्रतिपादन शब्द द्वारा थाय छे तेथी ते शब्दने
शब्दनय कहेवामां आवे छे.
३. ज्ञाननो विषय पदार्थ छे तेथी नयथी प्रतिपादन करवामां आवता पदार्थने
पण नय कहेवामां आवे छे, ते अर्थनय छे.

आत्माना संबंधमां आ सात नयो नीचेना चौद बोलमां श्रीमद् राजचंद्रजीए उतारेला छे ते साधकने उपयोगी होवाथी अहीं अर्थ साथे आपवामां आवे छेः-

१. एवंभूतद्रष्टिथी ऋजुसूत्र स्थिति कर. = पूर्णताने लक्षे शरूआत कर.
२. ऋजुसूत्रद्रष्टिथी एवंभूत स्थिति कर. = साधकद्रष्टि द्वारा साध्यमां स्थिति कर.
३. नैगमद्रष्टिथी एवंभूत प्राप्ति कर. = तुं पूर्ण छो एवी संकल्पद्रष्टि वडे
पूर्णताने प्राप्त कर.
४. एवंभूतद्रष्टिथी नैगम विशुद्ध कर. = पूर्णद्रष्टिथी अव्यक्त अंश विशुद्ध कर.
प. संग्रहद्रष्टिथी एवंभूत था.= त्रिकाळी सत् द्रष्टिथी पूर्ण शुद्ध पर्याय प्रगट कर.
६. एवंभूतद्रष्टिथी संग्रह विशुद्ध कर. = निश्चयद्रष्टिथी सत्ताने विशुद्ध कर.
७. व्यवहारद्रष्टिथी एवंभूत प्रत्ये जा. = भेदद्रष्टि छोडीने अभेद प्रत्ये जा.
८. एवंभूतद्रष्टिथी व्यवहारनिवृत्ति कर. = अभेदद्रष्टिथी भेदने निवृत्त कर.

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८६] [मोक्षशास्त्र

९. शब्दद्रष्टिथी एवंभूत प्रत्ये जा. = शब्दना रहस्यभूत पदार्थनी द्रष्टिथी

पूर्णता प्रत्ये जा.

१०. एवंभूतद्रष्टिथी शब्द निर्विकल्प कर. = निश्चयद्रष्टिथी शब्दना रहस्यभूत

पदार्थमां निर्विकल्प था.

११. समभिरूढद्रष्टिथी एवंभूत अवलोक. = साधकअवस्थाना आरूढभावथी

निश्चयने जो.

१२. एवंभूतद्रष्टिथी समभिरूढ स्थिति कर. = निश्चयद्रष्टिथी समस्वभाव

प्रत्ये आरूढ स्थिति कर.

१३. एवंभूतद्रष्टिथी एवंभूत था. = निश्चयद्रष्टिथी निश्चयरूप था.
१४. एवंभूत स्थितिथी एवंभूतद्रष्टि शमाव. = निश्चयस्थितिथी निश्चयद्रष्टिना
विकल्पने शमावी दे.
खरा भावो लौकिक भावोथी विरुद्ध होय छे

प्रश्नः– जो व्यवहारनय थी एटले के व्याकरणने अनुसरीने जे प्रयोग (अर्थ) थाय छे तेने तमे शब्दनयथी दूषित कहेशो तो लोक अने शास्त्रने विरोध आवशे?

उत्तरः– लोक न समजे तेथी विरोध भले करे; अहीं यथार्थ स्वरूप (तत्त्व) विचारवामां आवे छे-परीक्षा करवामां आवे छे. औषधि रोगीनी इच्छानुसार होती नथी. (सर्वार्थसिद्धि पानुं-प३४.) जगत रोगी छे, तेने अनुकूळ आवे एम ज्ञानीओ तत्त्वनुं स्वरूप (औषधि) न कहे, पण जेम यथार्थ स्वरूप होय तेम तेओ कहे. ३३.

*
ज्ञान संबंधी विशेष खुलासो (सूत्र–८)

प्रश्न– आठमा सूत्रमां (पानुं-४२) ज्ञानना सत्-संख्यादि आठ भेदो ज केम कहेवामां आव्या छे, ओछा के वधारे केम कह्या नथी?

उत्तरः– नीचेना आठ प्रकारनो निषेध करवा माटे ते आठ भेदो कहेवामां आव्या छे.ः-

१. नास्तिक कहे छे के ‘कोई वस्तु छे ज नहि.’ तेथी ‘सत्’ साबित
करवाथी ते नास्तिकनी दलील तोडी नांखी.
२. कोई कहे छे के ‘वस्तु एक ज छे, तेमां कोई प्रकारना भेद नथी.’
‘संख्या’ साबित करवाथी ते दलील तोडी नांखी.

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अ. १. सूत्र ३३] [८७

३. कोई कहे छे के ‘वस्तुने प्रदेश (आकार) नथी.’ ‘क्षेत्र’ साबित करवाथी
ते दलील तोडी नांखी.
४. कोई कहे छे के ‘वस्तु क्रियारहित छे.’ ‘स्पर्शन’ साबित करवाथी ते दलील
तोडी नांखी. [नोंधः- एक जग्याथी बीजी जग्याए जवुं ते क्रिया छे.]
प. ‘वस्तुनो प्रलय (सर्वथा नाश) थाय छे’ एम कोई माने छे. ‘काल’
साबित करवाथी ते दलील तोडी नांखी.
६. ‘वस्तु क्षणिक छे’ एम कोई माने छे. ‘अंतर’ साबित करवाथी ते
दलील तोडी नांखी.
७. ‘वस्तु कूटस्थ छे’ एम कोई माने छे. ‘भाव’ साबित करवाथी ते
दलील तोडी नांखी. [जेनी हालत न बदलाय तेने कूटस्थ कहे छे.]
८. ‘वस्तु सर्वथा एक ज छे अथवा तो वस्तु सर्वथा अनेक ज छे’ एम
कोई माने छे. ‘अल्प-बहुत्व’ सिद्ध करवाथी ते दलील तोडी नांखी.
[जुओ, ‘प्रश्रोत्तर-सर्वार्थसिद्धि’ पानुं २७७-२७८]
ए प्रमाणे श्री उमास्वामी विरचित मोक्षशास्त्रना
प्रथम अध्यायनी गुजराती टीका पूरी थई.

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भगवान श्री उमास्वामी विरचित
मोक्षशास्त्र–तत्त्वार्थसूत्र
(गुजराती टीका)
प्रथम अध्यायनां
परिशिष्ट
-ः टीका संग्राहकः-
रामजी माणेकचंद दोशी

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९०] [मोक्षशास्त्र

[]
सम्यग्दर्शन संबंधी केटलीक जाणवा जेवी विगतो
(१)
सम्यग्दर्शननी जरूरियात

प्रश्नः– सम्यग्दर्शनथी धर्मनी शरूआत थाय छे एम ज्ञानीओ कहे छे, तो सम्यग्दर्शन विनानां ज्ञान अने चारित्र केवां होय?

उत्तरः– सम्यग्दर्शन न होय तो अगियार अंगनो ज्ञाता पण मिथ्याज्ञानी छे; अने तेनुं चारित्र पण मिथ्याचारित्र छे. अहीं आशय ए छे के सम्यग्दर्शन विना व्रत, तप, जप, भक्ति, प्रत्याख्यान आदि जे कांई आचरण छे ते सर्वे मिथ्याचारित्र छे; माटे सम्यग्दर्शन शुं छे अने ते केवी रीते प्राप्त थई शके छे ते जाणवानी जरूर छे.

(२)
सम्यग्दर्शन शुं छे?

प्रश्नः– सम्यग्दर्शन शुं छे? ते द्रव्य छे, गुण छे के पर्याय छे? उत्तरः– सम्यग्दर्शन ते जीवद्रव्यना श्रद्धागुणनो एक निर्मळ्‌ा पर्याय छे. आ जगतमां छ द्रव्यो छे तेमां एक चेतनद्रव्य (जीव) छे, अने पांच अचेतन-जड द्रव्यो(पुद्गल, धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाश अने काळ) छे. जीवद्रव्य अर्थात् आत्मवस्तुमां अनंत गुणो छे, तेमां एक गुण श्रद्धा (मान्यता-विश्वास-प्रतीति) छे, ते गुणनी अवस्था अनादिथी ऊंधी छे तेथी जीवने पोताना स्वरूपनी भ्रमणा छे, ते अवस्थाने मिथ्यादर्शन कहेवामां आवे छे; ते श्रद्धागुणनी सवळी (शुद्ध) अवस्था ते सम्यग्दर्शन छे. आ रीते आत्माना श्रद्धागुणनो शुद्ध पर्याय सम्यग्दर्शन छे.

(३)
श्रद्धागुणनी मुख्यताए
निश्चयसम्यग्दर्शननी व्याख्या

(१) श्रद्धागुणनी जे अवस्था प्रगट थवाथी पोताना शुद्ध आत्मानो प्रतिभास थाय ते सम्यग्दर्शन छे.


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अ. १. परि. १] [९१

(२) सर्वज्ञ भगवाननी वाणीमां जेवुं पूर्ण आत्मानुं स्वरूप कह्युं छे तेवुं श्रद्धान ते निश्चयसम्यग्दर्शन छे. [निश्चयसम्यग्दर्शन निमित्तने, अधूरा के विकारी पर्यायने, भंग-भेदने के गुणभेदने स्वीकारतुं नथी-लक्षमां लेतुं नथी.]

नोंधः– घणा माणसो मात्र एक सर्वव्यापक आत्मा छे एम माने छे अने ते आत्माने कूटस्थ

मात्र माने छे, पण तेमना कहेवा मुजब चैतन्य मात्र आत्माने मानवो ते सम्यग्दर्शन नथी.

(३) स्वरूपनुं श्रद्धान.
(४) आत्मश्रद्धान.
[पुरुषार्थसिद्धि उपाय गाथा-२१६]
(प) स्वरूपनी यथार्थ प्रतीति. [मोक्षमार्ग प्रकाशक पानुं ३२२-३२८]
(६) परथी भिन्न पोताना आत्मानी श्रद्धा-रुचि. [समयसार कलश ६;

छहढाळा-त्रीजी ढाळ, गाथा-२]

नोंधः– अहीं ‘परथी भिन्न’ ए शब्दो एम सूचवे छे के सम्यग्दर्शनने परवस्तु, निमित्त,

अशुद्धपर्याय, ऊणी शुद्धपर्याय के भंग-भेद ए कांई स्वीकार्य नथी. सम्यग्दर्शननो विषय (लक्ष्य) पूर्ण ज्ञानघन त्रिकाळी आत्मा छे. [पर्यायनी अपूर्णता वगेरे सम्यग्ज्ञाननो विषय छे.]

(७) विशुद्धज्ञान-दर्शनस्वभावस्वरूप निज परमात्मानी रुचि ते सम्यग्दर्शन. [जयसेनाचार्य कृत टीका-हिंदी समयसार पानुं-८]

नोंधः– अहीं ‘निज’ शब्द छे, ते अनेक आत्माओ छे तेमनाथी पोतानी भिन्नता बतावे छे.
(८) शुद्ध जीवास्तिकायनी रुचिरूप निश्चयसम्यक्त्व. [जयसेनाचार्य कृत

टीकापंचास्तिकाय गाथा-१०७ पानुं-१७०]

(४)
ज्ञानगुणनी मुख्यताए
निश्चयसम्यग्दर्शननी व्याख्या

(१) विपरीत अभिनिवेश रहित जीवादि तत्त्वार्थश्रद्धान ते सम्यग्दर्शननुं लक्षण छे. [मोक्षमार्ग प्रकाशक पानुं ३१७-३२० तथा पुरुषार्थसिद्धिउपाय गाथा-२२]

नोंधः– आ व्याख्या प्रमाणद्रष्टिए छे तेमां नास्ति-अस्ति बन्ने पडखां बताव्यां छे.

(र) ‘जीवादिनुं श्रद्धान सम्यक्त्व छे’ एटले के जीवादि पदार्थोना यथार्थ श्रद्धान स्वरूपे आत्मानुं परिणमन ते सम्यक्त्व छे. [समयसार गाथा-१पप हिंदी पानुं २२प, गुजराती पानुं-२०१]

(३) भूतार्थे जाणेला पदार्थोथी शुद्धात्माना जुदापणानुं सम्यक्अवलोकन. [जयसेनाचार्य कृत टीका-हिंदी समयसार पानुं-२२६]


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९२] [मोक्षशास्त्र

नोंधः– कोलम नं. र तथा ३ एम सूचवे छे के जेने नव पदार्थोनुं सम्यग्ज्ञान होय तेने ज

सम्यग्दर्शन होय, आ रीते सम्यग्ज्ञान अने सम्यग्दर्शननुं अविनाभावीपणुं बतावे छे. आ कथन द्रव्यार्थिकनये छे.

(४) पंचाध्यायी भाग बीजामां ज्ञान अपेक्षाए निश्चयसम्यग्दर्शननी व्याख्या गाथा १८६ थी १८९ मां आपी छे, ते कथन पर्यायार्थिकनये छे. ते गाथामां नीचे प्रमाणे कह्युं छे-

[गाथा-१८६] - “तेथी शुद्धतत्त्व कांई ते नवतत्त्वथी विलक्षण अर्थांतर

नथी, परंतु केवळ नवतत्त्वसंबंधी विकारोने छोडीने नव तत्त्व ज शुद्ध छे.

भावार्थः– तेथी सिद्ध थाय छे के केवळ विकारनी उपेक्षा करवाथी नव तत्त्व शुद्ध छे, नवतत्त्वोथी कांई सर्वथा भिन्न शुद्धत्व नथी.”

[गाथा-१८७]–“तेथी सूत्रमां तत्त्वार्थनी श्रद्धा करवी तेने सम्यग्दर्शन

मानवामां आव्युं छे, अने ते पण जीव-अजीवादिरूप नव छे; × × × भावार्थः- विकारनी उपेक्षा करतां शुद्धत्व नवतत्त्वोथी अभिन्न छे. तेथी सूत्रकारे [तत्त्वार्थसूत्रमां] नवतत्त्वोना यथार्थ श्रद्धानने सम्यग्दर्शन कह्युं छे. × × ×.”

[गाथा-१८८] - आ गाथामां जीव, अजीव, आस्रव, बंध, संवर, निर्जरा

अने मोक्ष ए सात तत्त्वोनां नाम आप्यां छे.

[गाथा-१८९] -“पुण्य अने पापनी साथे ए सात तत्त्वने नव पदार्थ

कहेवामां आवे छे अने ते नव पदार्थ, भूतार्थने आश्रये. सम्यग्दर्शननो वास्तविक विषय छे.

भावार्थः– तथा पुण्य अने पापनी साथे ए सात तत्त्व ज नव पदार्थ कहेवाय छे, अने ते नव पदार्थ यथार्थपणाने आश्रये सम्यग्दर्शननो यथार्थ विषय छे.”

नोंधः– ए ख्यालमां राखवुं के आ कथन ज्ञान अपेक्षाए छे; दर्शन अपेक्षाए सम्यग्दर्शननो

विषय पोतानो अखंड शुद्ध चैतन्यस्वरूप परिपूर्ण आत्मा छे-ते बाबत उपर जणावी छे.

(प) “शुद्ध चेतना एक प्रकारनी छे केमके शुद्धनो एक प्रकार छे. शुद्ध चेतनामां शुद्धतानी उपलब्धि थाय छे तेथी ते शुद्धरूप छे अने ते ज्ञानरूप छे तेथी ते ज्ञानचेतना छे.” [पंचाध्यायी अ. र, गाथा-१९४.]

“बधा सम्यग्द्रष्टिओने आ ज्ञानचेतना प्रवाहरूपथी अथवा अखंड एकधारारूप रहे छे. [पंचाध्यायी अ. र. गाथा-८प१.]

(६) ज्ञेय-ज्ञातृतत्त्वनी यथावत् प्रतीति जेनुं लक्षण छे ते सम्यग्दर्शनपर्याय. [प्रवचनसार अध्याय ३ गाथा-४२. श्री अमृतचंद्राचार्यकृत टीका पानुं-३३प.]


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अ. १. परि. १] [९३

(७) आत्माने आत्माथी जाणतो जीव ते निश्चयसम्यग्द्रष्टि छे. [परमात्मप्रकाश गाथा-८२]

(८) ‘तत्त्वार्थश्रद्धानं सम्यग्दर्शनम् [तत्त्वार्थसूत्र अध्याय १, सूत्र र]
(प)
चारित्रगुणनी मुख्यताए
निश्चयसम्यग्दर्शननी व्याख्या

(१) “ ज्ञानचेतनामां ‘ज्ञान’ शब्दथी ज्ञानमय होवाना कारणे शुद्धात्मानुं ग्रहण छे अने ते शुद्धात्मा जे-द्वारा अनुभूत थाय तेने ज्ञानचेतना कहे छे.” [पंचाध्यायी अ. र. गाथा १९६-भावार्थ]

(र) “तेनो खुलासो ए छे के-आत्मानो ज्ञानगुण सम्यक्त्वयुक्त थतां आत्मस्वरूपनी जे उपलब्धि थाय छे तेने ज्ञानचेतना कहे छे.” [पंचाध्यायी गाथा-१९७]

(३) “ निश्चयथी आ ज्ञानचेतना सम्यग्द्रष्टिने ज होय छे. [पंचाध्यायी गा. -१९८]
नोंधः– अहीं आत्मानो जे शुद्धोपयोग छे-अनुभव छे ते चारित्रगुणनो पर्याय छे.
(४) आत्मानी शुद्ध उपलब्धि सम्यग्दर्शननुं लक्षण छे. [पंचाध्यायी गाथा-२१प]
नोंध– अहीं एटलुं लक्षमां राखवुं के ज्ञाननी मुख्यताए तथा चारित्रनी मुख्यताए जे कथन

छे तेने सम्यग्दर्शननुं बाह्य लक्षण जाणवुं केमके सम्यग्ज्ञान अने अनुभवनी साथे सम्यग्दर्शन अविनाभावी होवाथी ते सम्यग्दर्शनने अनुमानथी सिद्ध करे छे. ए अपेक्षाए तेने व्यवहारकथन कहेवामां आवे छे, अने दर्शन (श्रद्धा) गुण अपेक्षाए जे कथन छे तेने निश्चयकथन कहेवामां आवे छे.

(प) दर्शननुं निश्चय स्वरूप एवुं छे के-भगवान परमात्मस्वभावना अतीन्द्रिय सुखनी रुचि करवावाळा जीवमां शुद्ध अंतरंग आत्मिक तत्त्वना आनंदने ऊपजवानुं धाम एवा शुद्ध जीवास्तिकायनुं (पोताना जीवस्वरूपनुं) परम श्रद्धान, द्रढ प्रतीति अने साचो निश्चय ए ज दर्शन छे. (आ व्याख्या सुखगुणनी मुख्यताथी छे.)

(६)
अनेकान्त स्वरूप

दर्शन-ज्ञान-चारित्र संबंधी अनेकान्त स्वरूप समजवा लायक होवाथी अहीं कहेवामां आवे छे.


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९४] [मोक्षशास्त्र

(१) सम्यग्दर्शन–तमाम सम्यग्द्रष्टिओने एटले चोथा गुणस्थानकथी सिद्ध सुधी बधाने एकसरखुं छे. एटले के शुद्धात्मानी मान्यता ते बधाने एकसरखी छे- मान्यतामां कांई फेरफार नथी.

(र) सम्यग्ज्ञान–तमाम सम्यग्द्रष्टिओने सम्यक्पणानी अपेक्षाए ज्ञान एक जातनुं छे, पण ज्ञान कोईने हीन, कोईने अधिक होय छे. तेरमे गुणस्थानथी सिद्ध सुधीनुं ज्ञान संपूर्ण होवाथी सर्व वस्तुओने युगपत् जाणे छे. नीचेना गुणस्थानोमां [चारथी बार सुधीमां] ज्ञान क्रमेक्रमे थाय छे अने त्यां जोके ज्ञान सम्यक् छे तोपण ओछुं-वधतुं छे, ते अवस्थामां जे ज्ञान उघाडरूप नथी ते अभावरूप छे; आ रीते सम्यग्दर्शन अने सम्यग्ज्ञानमां तफावत छे.

(३) सम्यक्चारित्र– तमाम सम्यग्द्रष्टिओने जे कांई चारित्र प्रगटयुं होय ते सम्यक् छे, अने दसमा गुणस्थान सुधी जे प्रगटयुं नथी ते विभावरूप छे. तेरमा गुणस्थाने अनुजीवी योगगुण कंपनरूप होवाथी विभावरूप छे, अने त्यां प्रतिजीवी गुणो बिलकुल प्रगट नथी. चौदमा गुणस्थाने पण उपादाननी कचाश छे तेथी त्यां औदयिकभाव छे.

(४) ज्यां सम्यग्दर्शन छे त्यां सम्यग्ज्ञान अने स्वरूपाचरणचारित्रनो अंश अभेदरूप होय छे अने उपर कह्या प्रमाणे दर्शनगुणथी ज्ञानगुणनुं जुदापणुं अने ते बन्ने गुणथी चारित्रगुणनुं जुदापणुं सिद्ध थयुं, ए रीते अनेकांत स्वरूप थयुं.

(प) आ भेद पर्यायार्थिकनयथी छे, द्रव्य अखंड होवाथी द्रव्यार्थिकनये बधा गुणो अभेद-अखंड छे एम समजवुं.

(७)
दर्शन (श्रद्धा), ज्ञान, चारित्र ए त्रणे गुणोनी अभेदद्रष्टिए
निश्चयसम्यग्दर्शननी व्याख्या

(१) अखंड प्रतिभासमय, अनंत, विज्ञानघन, परमात्मस्वरूप समयसारने ज्यारे आत्मा अनुभवे छे ते वखते ज आत्मा सम्यक्पणे देखाय छे-[अर्थात् श्रद्धाय छे] अने जणाय छे, तेथी समयसार ज सम्यग्दर्शन अने सम्यग्ज्ञान छे. नयोना पक्षपात छोडीने एक अखंड प्रतिभासनो अनुभव करवो ते ज ‘सम्यग्दर्शन’ अने ‘सम्यग्ज्ञान’ एवां नाम पामे छे. सम्यग्दर्शन-सम्यग्ज्ञान कांई अनुभवथी जुदां नथी. [गुजराती समयसार गाथा-१४४ टीका-भावार्थ, पानुं-१८४]


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अ. १. परि. १] [९प

(२) वर्ते निज स्वभावनो अनुभव लक्ष प्रतीत,
वृति वहे निजभावमां परमार्थे समकित.
[आत्मसिद्धि गाथा-१११]

अर्थः– पोताना स्वभावनी प्रतीति, ज्ञान अने अनुभव वर्ते अने पोताना भावमां पोतानी वृति वहे ते परमार्थसम्यक्त्व छे.

(८)

निश्चयसम्यग्दर्शननुं चारित्रना भेदअपेक्षाए कथन

निश्चयसम्यग्दर्शन चोथा गुणस्थानकथी शरू थाय छे, चोथा अने पांचमा गुणस्थानके चारित्रमां मुख्यपणे राग होय छे तेथी तेने ‘सरागसम्यकत्व’ कहेवाय छे. छठ्ठागुणस्थानके चारित्रमां राग गौण छे अने पछीनां गुणस्थानोमां ते टळतां टळतां छेवटे संपूर्ण वीतरागचारित्र थाय छे तेथी छठ्ठा गुणस्थानकथी ‘वीतरागसम्यक्त्व’ कहेवाय छे.

(९)
निश्चयसम्यग्दर्शन संबंधे प्रश्नोत्तर

प्रश्नः– मिथ्यात्व अने अनंतानुबंधीना निमित्ते थता विपरीत अभिनिवेश रहित जे श्रद्धा छे ते निश्चयसम्यकत्व छे के व्यवहारसम्यकत्व छे?

उत्तरः– ते निश्चयसम्यकत्व छे, व्यवहारसम्यकत्व नथी. प्रश्नः– पंचास्तिकायनी गाथा १०७नी संस्कृत टीकामां तेने व्यवहारसम्यकत्व कह्युं छे?

उत्तरः– ना, तेमां आ प्रमाणे शब्दो छे- ‘मिथ्यात्वोदयजनित

विपरिताभिनिवेश रहितं श्रद्धानंः अहीं ‘श्रद्धानं’ कहीने श्रद्धाननी ओळखाण आपी छे, पण तेने व्यवहारसम्यकत्व कह्युं नथी. व्यवहार अने निश्चयसम्यकत्वनी व्याख्या तो गाथा १०७मां कहेल ‘भावाणं’ शब्दना अर्थमां कही छे.

प्रश्नः– ‘अध्यात्म कमलमार्तंड’नी ७मी गाथामां तेने व्यवहारसम्यकत्व कह्युं छे ए खरुं?

उत्तरः– ना, त्यां निश्चयसम्यकत्वनी व्याख्या छे; द्रव्यकर्मना उपशम, क्षय वगेरेनां निमित्तथी सम्यकत्व पेदा थाय छे- एम निश्चयसम्यकत्वनी व्याख्या करवी ते व्यवहारनयथी छे केमके ते व्याख्या परद्रव्यनी अपेक्षाए कही छे. पोताना पुरुषार्थथी निश्चयसम्यकत्व


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९६] [मोक्षशास्त्र प्रगटे छे ए निश्चयनयनुं कथन छे. हिंदीमां जे ‘व्यवहारसम्यकत्व’ एवो अर्थ भर्यो छे ते मूळ गाथा साथे बंध बेसतो नथी. (१०)

व्यवहारसम्यग्दर्शननी व्याख्या

(१) पांच अस्तिकाय, छ द्रव्यो तथा जीव-पुद्गलना संयोगी परिणामोथी उत्पन्न आस्रव, बंध, पुण्य, पाप, संवर, निर्जरा अने मोक्ष ए रीते नव पदार्थोना विकल्परूप व्यवहारसम्यकत्व छे.

[पंचास्तिकाय गाथा-१०७ जयसेनाचार्यकृत टीका पानुं-१७०]

(र) जीव, अजीव, आस्रव, बंध, संवर, निर्जरा अने मोक्ष ए सात तत्त्वोनी जेम छे तेम यथार्थ अटळ श्रद्धा करवी ते व्यवहारसम्यग्दर्शन छे.

[छहढाळा-ढाळ-३ गाथा-३]

(३) प्रश्नः– व्यवहारसम्यग्दर्शन निश्चयसम्यग्दर्शननुं साधक छे? उत्तरः– प्रथम निश्चयसम्यग्दर्शन प्रगट थाय त्यारे विकल्परूप व्यवहारसम्यग्दर्शननो अभाव थाय छे. तेथी ते (व्यवहार सम्यग्दर्शन) खरेखर निश्चय सम्यग्दर्शननुं साधक नथी, तोपण तेने भूतनैगमनयथी साधक कहेवामां आवे छे, एटले के पूर्वे जे व्यवहारसम्यग्दर्शन हतुं ते निश्चयसम्यग्दर्शन प्रगट थती वखते अभावरूप थाय छे, तेथी ज्यारे तेनो अभाव थाय छे त्यारे पूर्वेनी विकल्प सहितनी श्रद्धाने व्यवहारसम्यग्दर्शन कहेवामां आवे छे. (परमात्मप्रकाश गाथा-१४० पानुं-१४३ आवृत्ति पहेली, संस्कृत टीका) आ रीते व्यवहारसम्यग्दर्शन ते निश्चयसम्यग्दर्शननुं कारण नथी, पण तेनो अभाव ते कारण छे.

(११)
व्यवहाराभास सम्यग्दर्शनने कोईवार व्यवहार सम्यग्दर्शन पण कहे छे

द्रव्यलिंगी मुनिने आत्मज्ञानशून्य आगमज्ञान, तत्त्वार्थश्रद्धान अने संयमभावनी एकता पण कार्यकारी नथी. [जुओ, मोक्षमार्गप्रकाशक पानुं २३७- २३८-२४१] अहीं जे ‘तत्त्वार्थश्रद्धान’ शब्द वापर्यो छे ते भावनिक्षेपे नथी पण नामनिक्षेपे छे.

‘जेने स्व-परनुं यथार्थ श्रद्धान नथी पण वीतरागे कहेला देव, गुरु, अने धर्म ए त्रणेने माने छे तथा अन्यमतमां कहेलां देवादि तथा तत्त्वादिने माने नहि-तो एवा केवळ व्यवहारसम्यक्त्व वडे ते निश्चयसम्यक्त्वी नाम पामे नहि.’ [मोक्षमार्ग प्रकाशक पानुं-३४३] तेने गृहीत मिथ्यात्व टळ्‌युं छे ए अपेक्षाए व्यवहारसम्यक्त्व


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अ. १. परि. १] [९७ थयुं छे एम कहेवाय छे; पण तेने अगृहीत मिथ्यादर्शन छे माटे खरी रीते तेने व्यवहाराभास सम्यग्दर्शन छे.

मिथ्याद्रष्टि जीवने देव-गुरु-धर्मादिनुं श्रद्धान आभास मात्र होय छे, तेना श्रद्धानमांथी विपरीताभिनिवेशनो अभाव थयो नथी; वळी तेने व्यवहारसम्यक्त्व आभासमात्र छे तेथी तेने जे देव-गुरु धर्म, नव तत्त्वादिनुं श्रद्धान छे ते विपरीताभिनिवेशना अभाव माटे कारण न थयुं, अने कारण थया विना तेमां [सम्यग्दर्शननो] उपचार संभवतो नथी; तेथी तेने व्यवहारसम्यग्दर्शन पण संभवतुं नथी, तेने व्यवहारसम्यक्त्व मात्र नामनिक्षेपथी कहेवामां आवे छे.

[मोक्षमार्ग प्रकाशक-पानुं ३२४-३३२]

(१२)

सम्यग्दर्शन प्रगट करवानो उपाय
प्रश्नः– सम्यग्दर्शन प्रगट करवानो उपाय शुं छे?
-१-

उत्तरः– आत्मा अने पर द्रव्यो तद्न जुदां छे, एकनो बीजामां अत्यंत अभाव छे. एक द्रव्य, तेना कोई गुण के तेना कोई पर्याय बीजा द्रव्यमां, तेना गुणमां के तेना पर्यायमां प्रवेश करी शकतां नथी; माटे एक द्रव्य बीजा द्रव्यनुं कांई करी शके नहि एवी वस्तुस्थितिनी मर्यादा छे. वळी दरेक द्रव्यमां अगुरुलधुत्वगुण छे केमके ते सामान्यगुण छे. ते गुणने लीधे कोई कोईनुं करी शके नहि. तेथी आत्मा परद्रव्यनुं कांइ करी शके नहि, शरीरने हलावी चलावी शके नहि, द्रव्यकर्मो के कोइ पण परद्रव्य जीवने कदी नुकसान करी शके नहि, आ प्रथम नक्की करवुं आ प्रमाणे नक्की करवाथी जगतना पर पदार्थोना कर्तापणानुं जे अभिमान आत्माने अनादिथी चाल्युं आवे छे ते, मान्यतामांथी [अभिप्रायमांथी] अने ज्ञानमांथी टळी जाय छे.

शास्त्रोमां द्रव्यकर्मो जीवना गुणोनो घात करे छे एवुं कथन आवे छे तेथी ते कर्मोनो उदय जीवना गुणोनो खरेखर घात करे छे एम घणा माने छे अने तेनो तेवो अर्थ करे छे; पण ते अर्थ खरो नथी, केमके ते कथन व्यवहारनयनुं छे-मात्र निमित्तनुं ज्ञान करावनारुं ते कथन छे. तेनो खरो अर्थ एवो थाय छे के-ज्यारे जीव पोताना पुरुषार्थना दोष वडे पोताना पर्यायमां विकार करे छे-अर्थात् पोताना पर्यायनो घात करे छे त्यारे ते घातमां अनुकूळ निमित्तरूप जे द्रव्यकर्म आत्मप्रदेशोथी खरवा तैयार


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९८] [मोक्षशास्त्र थयुं छे तेने ‘उदय’ कहेवानो उपचार छे एटले के ते कर्मपर निमित्तनो आरोप आवे छे. अने जो जीव पोते पोताना सत्य पुरुषार्थ वडे विकार करतो नथी-पोताना पर्यायनो घात करतो नथी तो द्रव्यकर्मोना ते ज समूहने ‘निर्जरा’ नाम आपवामां आवे छे. आ रीते निमित्त-नैमित्तिकसंबंधनुं ज्ञान करवा पूरतो ते व्यवहारकथननो अर्थ थाय छे. जो बीजी रीते (शब्दो प्रमाणे) अर्थ करवामां आवे तो संबंधने बदले कर्ताकर्मनो संबंध मानवा बराबर थाय छे; अर्थात् उपादाननिमित्त, निश्चय-व्यवहार एकरूप थई जाय छे; अथवा तो एक बाजु जीवद्रव्य अने बीजी बाजुए अनंत पुद्गल द्रव्यो (कर्मो)-ते अनंत द्रव्योए मळी जीवमां विकार कर्यो एम तेनो अर्थ थई जाय छे-के जे बनी शके नहि. आ निमित्त-नैमित्तिकसंबंध बताववा कर्मना उदये जीवने असर करी-नुकसान कर्युं -परिणमाव्यो वगेरे प्रकारे उपचारथी कहेवाय छे, पण तेनो जो ते शब्द प्रमाणे ज अर्थ करवामां आवे तो ते खोटो छे.

[जुओ, श्री समयसार गाथा १२२ थी १२प तथा ३३७ थी ३४४-नीचे अमृतचन्द्राचार्य नी

टीका]

आ रीते सम्यग्दर्शन प्रगट करवा माटे पहेलां तो स्वद्रव्य-परद्रव्यनी भिन्नता नक्की करवी, पछी शुं करवुं ते हवे कहेवाय छे.

-२-

स्वद्रव्य अने परद्रव्यनी भिन्नता नक्की करी, परद्रव्यो उपरनुं लक्ष छोडी स्वद्रव्यना विचारमां आववुं, त्यां आत्मामां बे पडखां छे ते जाणवां. एक पडखुं- आत्मानुं दरेक समये त्रिकाळी अखंड परिपूर्ण चैतन्यस्वभावरूपपणुं द्रव्ये-गुणे-पर्याये (वर्तमान पर्यायने गौण करतां) छे, आत्मानुं आ पडखुं ‘निश्चयनयनो विषय छे. आ पडखांने नक्की करनार ज्ञाननुं पडखुं ते ‘निश्चयनय’ छे.

बीजुं पडखुं-वर्तमान पर्यायमां दोष छे-विकार छे, ते नक्की करवुं. आ पडखुं व्यवहारनयनो विषय छे. आम बे नयद्वारा आत्मानां बन्ने पडखांने नक्की कर्या पछी, विकारी पर्याय उपरनुं वलण-लक्ष छोडीने पोताना त्रिकाळी चैतन्यस्वरूप तरफ वळवुं. ए रीते त्रिकाळी द्रव्य तरफ वळतां-ते त्रिकाळी नित्य पडखुं होवाथी -तेने आश्रये सम्यग्दर्शन प्रगटे छे.

जोके निश्चयनय अने सम्यग्दर्शन ए बन्ने जुदा जुदा गुणोना पर्याय छे तोपण ते बन्नेनो विषय एक छे-अर्थात् ते बन्नेनो विषय एक अखंड, शुद्ध, बुद्ध, चैतन्यस्वरूप आत्मा छे, तेने बीजा शब्दोमां ‘त्रिकाळी ज्ञायकस्वरूप’ कहेवामां आवे


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अ. १. परि. १] [९९ छे. सम्यग्दर्शन कोई परद्रव्य, देव-गुरु-शास्त्र, निमित्त, पर्याय, गुणभेद के भंग वगेरेने स्वीकारतुं नथी, केमके तेनो विषय उपर कह्या मुजब त्रिकाळी ज्ञायकस्वरूप आत्मा छे. (१३)

निर्विकल्प अनुभवनी शरूआत

निर्विकल्प अनुभवनी शरूआत चोथा गुणस्थानथी ज थाय छे, परंतु चोथा गुणस्थाने ते घणा काळना अंतराळे थाय छे, अने उपरनां गुणस्थानोए शीघ्र-शीघ्र थाय छे. नीचेना अने उपरनां गुणस्थानोनी निर्विकल्पतानां भेद ए छे के परिणामोनी मग्नता उपरनां गुणस्थानोमां विशेष छे. [गुजराती मोक्षमार्ग प्रकाशक साथेनी चिठ्ठी पानुं-३४९]

(१४)

सम्यक्त्व पर्याय होवा छतां गुण केम कहेवाय छे?

प्रश्नः– सम्यग्दर्शन तो पर्याय छे छतां कोई कोई ठेकाणे तेने सम्यकत्व गुण केम कहे छे?

उत्तरः– खरी रीते सम्यग्दर्शन पर्याय छे, पण जेवो गुण छे तेवो ज तेनो पर्याय प्रगटयो छे-एम गुण-पर्यायनुं अभेदपणुं बताववा तेने सम्यकत्व गुण पण कोई कोई ठेकाणे कहेवामां आवे छे; पण खरी रीते सम्यकत्व ते पर्याय छे-गुण नथी. गुण होय ते त्रिकाळ रहे छे. सम्यकत्व त्रिकाळ नथी पण ते तो जीव पोताना सत्य पुरुषार्थथी प्रगट करे छे त्यारे थाय छे, माटे ते पर्याय छे.

(१प)
बधा सम्यग्द्रष्टिओनुं सम्यग्दर्शन समान छे

पश्नः– छद्मस्थने सम्यग्दर्शन होय छे अने केवळी तथा सिद्ध भगवानने सम्यग्दर्शन होय छे, ते बन्नेने समान होय छे के असमान होय छे?

उत्तरः– जेम छद्मस्थ (अपूर्ण) जीवने श्रुतज्ञान अनुसार प्रतीति होय छे तेम केवळी भगवान अने सिद्ध भगवानने केवळज्ञान अनुसार ज प्रतीति होय छे. जेवुं तत्त्वश्रद्धान छद्मस्थने होय छे तेवुं ज केवळी-सिद्ध भगवानने पण होय छे, माटे ज्ञानादिकनी हीनताअधिकता होवा छतां पण तिर्यंचादिकने तथा केवळी अने सिद्ध भगवानने सम्यग्दर्शन तो समान ज छे; केमके जेवी आत्मस्वरूपनी श्रद्धा सम्यग्द्रष्टिने छे तेवी ज केवळी भगवानने छे. चोथा गुणस्थाने शुद्ध आत्मानी श्रद्धा एक प्रकारनी


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१००] [मोक्षशास्त्र होय अने केवळी थतां जुदा प्रकारनी थाय एम बने नहि; जो बने तो चोथा गुणस्थाने जे श्रद्धा छे ते खरी ठरे नहि पण मिथ्या ठरे.

[मोक्षमार्ग प्रकाशक पानुं-३२३]

(१६)

सम्यग्दर्शन भेद शा माटे?

प्रश्नः– जो बधा सम्यग्द्रष्टिओनुं सम्यग्दर्शन समान छे तो आत्मानुशासननी ११मी गाथामां सम्यग्दर्शनना दश प्रकारना भेद केम कहेवामां आव्या छे?

उत्तरः– सम्यग्दर्शनना ए भेदो निमित्तादिनी अपेक्षाए कहेवामां आव्या छे. आत्मानुशासनमां दश प्रकारे सम्यक्त्वना भेद कह्या छे तेमां आठ भेद सम्यग्दर्शन प्रगट थवा पहेलां जे निमित्तो होय छे ते निमित्तोनुं ज्ञान कराववा माटे कह्या छे, अने बे भेद ज्ञानना सहकारीपणानी अपेक्षाए कह्या छे. श्रुतकेवळीने जे तत्त्वश्रद्धान छे तेने अवगाढ सम्यग्दर्शन कहेवामां आवे छे, अने केवळी भगवानने जे तत्त्वश्रद्धान छे तेने परम अवगाढ सम्यग्दर्शन कहेवामां आवे छे; ए रीते आठ भेद निमित्तोनी अपेक्षाए अने बे भेद ज्ञाननी अपेक्षाए छे. ‘दर्शन’ नी पोतानी अपेक्षाए ते भेदो नथी. ते दशे प्रकारमां सम्यग्दर्शननुं स्वरूप एक ज प्रकारे होय छे-एम जाणवुं.

[मोक्षमार्ग प्रकाशक पानुं-३३३]

प्रश्नः– जो चोथा गुणस्थानथी ते सिद्ध भगवान सुधी बधा सम्यग्द्रष्टिओने सम्यग्दर्शन सरखुं छे तो केवळी भगवानने परम अवगाढ सम्यग्दर्शन केम कह्युं?

उत्तरः– जेम छद्मस्थने श्रुतज्ञान अनुसार प्रतीति होय छे तेम केवळी अने सिद्ध भगवानने केवळज्ञान अनुसार ज प्रतीति होय छे. सम्यग्दर्शन चोथा गुणस्थाने प्रगटतां जे आत्मस्वरूप निर्णीत कर्युं हतुं ते ज केवळज्ञान वडे जाण्युं एटले त्यां प्रतीतिमां परम अवगाढपणुं थयुं, तेथी ज त्यां परम अवगाढ सम्यक्त्व कह्युं छे. पण पूर्वे जे श्रद्धान कर्युं हतुं तेने जो केवळज्ञानमां जूठुं जाण्युं होत तो तो छद्मस्थनी श्रद्धा अप्रतीतिरूप गणात; परंतु आत्मस्वरूपनुं श्रद्धान जेवुं छद्मस्थने होय छे तेवुं ज केवळी अने सिद्ध भगवानने पण होय छे-एटले के मूळभूत जीवादिना स्वरूपनुं श्रद्धान जेवुं छद्मस्थने होय छे तेवुं ज केवळीने पण होय छे.

(१७)
सम्यक्त्वनी निर्मळतानुं स्वरूप

औपशमिक सम्यक्त्व वर्तमानमां क्षायिकवत् निर्मळ छे. क्षायोपशमिक सम्यक्त्वमां


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अ. १. परि. १] [१०१ समल तत्त्वार्थश्रद्धान थाय छे. अहीं जे मलपणुं छे तेनुं तारतम्यस्वरूप केवळज्ञानगम्य छे. आ अपेक्षाए ते सम्यक्त्व निर्मळ नथी. अत्यंत निर्मळ तत्त्वार्थश्रद्धान थाय ते क्षायिक सम्यग्दर्शन छे. [मोक्षमार्ग प्रकाशक पानुं ३३प-३३६-३४६]

आ बधां सम्यक्त्वमां ज्ञानादिकनी हीनता-अधिकता होवा छतां पण तुच्छ तिर्यंचादिकने तथा केवळी भगवानने अने सिद्ध भगवानने सम्यक्त्व गुण तो समान ज कह्यो छे, कारण के बधाने पोताना आत्मानी अथवा तो सात तत्त्वोनी समान मान्यता छे.[मोक्षमार्ग प्रकाशक पानुं-३२३]

सम्यग्द्रष्टिने व्यवहारसम्यक्त्वमां निश्चयसम्यक्त्व गर्भित छे-निरंतर गमन (परिणमन) रूप छे.[मोक्षमार्ग प्रकाशक पानुं-३प०]

(१८)
सम्यक्त्वनी निर्मळतामां नीचे प्रमाणे पांच भेद पण पाडवामां आवे छे

१- समल अगाढ, र-निर्मळ, ३-गाढ, ४-अवगाढ अने प-परम अवगाढ. वेदक सम्यक्त्व समल अगाढ छे, औपशमिक अने क्षायिक् सम्यक्त्व निर्मळ छे, क्षायिक सम्यक्त्व गाढ छे. अंग अने अंगबाह्य सहित जैनशास्त्रोना अवगाहन वडे नीपजेली द्रष्टि ते अवगाढ सम्यक्त्व छे; श्रुतकेवळीने जे तत्त्वश्रद्धान छे तेने अवगाढ सम्यक्त्व कहे छे. परमावधि ज्ञानीने अने केवळज्ञानीने जे तत्त्वश्रद्धान छे तेने परमावगाढ सम्यक्त्व कहे छे. आ बे भेद ज्ञानना सहकारीपणानी अपेक्षाए छे.

[मोक्षमार्ग प्रकाशक पानुं-३३३-३३४]
“औपशमिक समकित करतां क्षायिक समकित अधिक विशुद्ध छे.”
[जुओ, तत्त्वार्थ राज्वार्तिक अध्याय र सूत्र १ नीचेनी कारिका १०-११, तथा तेनी नीचे

संस्कृत टीका]

“ क्षायोपशमिक सम्यक्त्वथी क्षायिक सम्यक्त्वनी विशुद्धि अनंतगुणी अधिक छे.”
[जुओ, तत्त्वार्थ राजवार्तिक अध्याय र सूत्र १, कारिका १२ नीचेनी संस्कृत टीका.]
(१९)
सम्यग्द्रष्टि जीव पोताने सम्यक्त्व प्रगटयानुं श्रुतज्ञान वडे
बराबर जाणे छे
प्रश्नः– पोताने सम्यग्दर्शन प्रगटयुं छे तेनी कया ज्ञान वडे खबर पडे?

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१०२] [मोक्षशास्त्र

उत्तरः– चोथा गुणस्थाने भावश्रुतज्ञान होय छे ते ज्ञान वडे पोताने सम्यग्दर्शन प्रगटयानी सम्यग्द्रष्टिने खबर पडे छे. जो ते ज्ञान वडे खबर न पडे एम मानीए तो ते श्रुतज्ञानने सम्यक् [यथार्थ] केम कही शकाय? जो पोताने पोताना सम्यग्दर्शननी खबर न पडती होय तो तेनामां अने मिथ्याद्रष्टि अज्ञानीमां कांई फेर पडयो नहि!

पश्नः– अहीं तमे सम्यग्दर्शनने श्रुतज्ञान द्वारा जणाय एम कह्युं छे, पण पंचाध्यायी अध्याय र मां तेने अवधिज्ञान, मनःपर्ययज्ञान अने केवळज्ञानगोचर कह्युं छे-ते गाथाओ नीचे प्रमाणे छेः-

सम्यक्त्वं वस्तुतः सूक्ष्मं केवलज्ञानगोचरम्।
गोचरं स्वावधिस्वान्तः पर्ययज्ञानयोर्द्वयोः।। ३७५।।
अर्थः– [सम्यक्त्व वास्तवमां सूक्ष्म छे अने केवळज्ञानगोचर छे तथा अवधि

अने मनःपर्यय ए बन्ने गोचर छे;] अने अध्याय र गाथा ३७६ मां, ते मति अने श्रुतज्ञानगोचर नथी-एम कह्युं छे; अने अहीं तमे सम्यग्दर्शन श्रुतज्ञानगोचर छे एम कहो छो तेनो शुं खुलासो छे?

उत्तरः– सम्यग्दर्शन ते मतिज्ञान अने श्रुतज्ञानगोचर नथी एम जे ३७६ मी गाथामां कह्युं छे तेनो अर्थ एटलो छे के-सम्यग्दर्शन ते-ते ज्ञाननो प्रत्यक्ष विषय नथी एम समजवुं; पण ते-ते ज्ञानथी सम्यग्दर्शन कोई प्रकारे जाणी न ज शकाय एम कहेवानो हेतु नथी. आ बाबतमां पंचाध्यायी अ. र नी ३७१ अने ३७३ गाथा नीचे प्रमाणे छेः-

इत्येवं ज्ञाततत्त्वासौ सम्यग्द्रष्टिर्निजात्मद्रक्।
वैषयिके सुखे
ज्ञाने रागद्वेषौ परित्यजेत्।। ३७१।।

अर्थः– एवी रीते तत्त्वोना जाणवावाळा स्वात्मदर्शी सम्यग्द्रष्टि जीव इन्द्रियजन्य सुख अने ज्ञानमां रागद्वेषने छोडे छे.

अपराण्यपि लक्ष्माणि सन्ति सम्यग्द्रगात्मनः।
सम्यक्त्वेनाविनाभूतैर्यै (श्च) संलक्ष्यते सुद्रक्।। ३७३।।

अर्थः– सम्यग्द्रष्टि जीवनुं बीजुं लक्षण पण छे के-सम्यक्त्वनां अविनाभावी लक्षणो द्वारा सम्यग्द्रष्टि जीव लक्षित थाय छे.

ते लक्षण गाथा ३७४ मां कहे छेः-
उक्तमाक्ष्यं सुखं ज्ञानमनादेयं द्रगात्मनः।
नादेयं कर्म सर्व च (स्वं) तद्वद् द्रष्टिोपलब्धितः।। ३७४।।

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अ. १. परि. १] [१०३

अर्थः– जेम उपर कह्युं ते रीते सम्यग्द्रष्टिने इन्द्रियजन्य सुख अने ज्ञाननो आदर नथी तेम ज, आत्मप्रत्यक्ष होवाने लीधे सर्व कर्मोनो पण आदर नथी.

गाथा ३७प-३७६ नो एटलो ज अर्थ छे के-सम्यग्दर्शन ते केवळज्ञानादिनो प्रत्यक्ष विषय छे अने मति-श्रुतज्ञाननो ते प्रत्यक्ष विषय नथी. परंतु मति- श्रुतज्ञानमां ते तेनां लक्षणो द्वारा जाणी शकाय छे. अने केवळज्ञानादि ज्ञानमां लक्षण-लक्ष्यनो भेद पाडया सिवाय प्रत्यक्ष जाणी शकाय छे.

पश्नः– आ विषयने द्रष्टांतपूर्वक समजावो. उत्तरः– स्वानुभवदशामां आत्माने जाणवामां आवे छे ते श्रुतज्ञान वडे जाणवामां आवे छे. श्रुतज्ञान मतिज्ञानपूर्वक ज होय छे, ते मतिज्ञान-श्रुतज्ञान परोक्ष छे तेथी त्यां आत्मानुं जाणवुं प्रत्यक्ष होतुं नथी. अहीं आत्माने जे सारी रीते स्पष्ट जाणे छे तेमां पारमार्थिक प्रत्यक्षपणुं नथी तथा जेम पुद्गल पदार्थ नेत्रादि द्वारा जाणवामां आवे छे तेम एकदेश (अंशे) निर्मळतापूर्वक पण आत्माना असंख्यात प्रदेशादि जाणवामां आवता नथी, तेथी सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष पण नथी.

अनुभवमां आत्मा तो परोक्ष ज छे, कांई आत्माना प्रदेशोनो आकार भासतो नथी परंतु स्वरूपमां परिणाम मग्न थतां जे स्वानुभव थयो ते स्वानुभव प्रत्यक्ष छे; ए स्वानुभवनो स्वाद कांई आगम-अनुमानादिक परोक्ष प्रमाण वडे जणातो नथी-पोते ज ए अनुभवना रसास्वादने प्रत्यक्ष वेदे छे; जेम कोई अंध मनुष्य साकरनो आस्वाद करे छे, त्यां साकरना आकारादि परोक्ष छे पण जीभ वडे जे स्वाद लीधो छे ते स्वाद प्रत्यक्ष छे-एम अनुभव संबंधमां जाणवुं. [गुजराती मोक्षमार्ग प्रकाशकमां पानुं ३४७-३४८, टोडरमल्लजीनी रहस्यपूर्ण चिठ्ठी] आ दशा चोथा गुणस्थाने होय छे.

आ प्रमाणे आत्मानो अनुभव जाणी शकाय छे अने जे जीवने तेनो अनुभव होय ते जीवने सम्यग्दर्शन अविनाभावी होय छे. माटे मति-श्रुतज्ञानथी सम्यग्दर्शन बराबर जाणी शकाय छे.

प्रश्नः– आ बाबतमां पंचाध्यायीकारे शुं कह्युं छे? उत्तरः– पंचाध्यायीना पहेला अध्यायमां मति-श्रुतज्ञाननुं स्वरूप जणावतां ७०६ मी गाथामां नीचे प्रमाणे कह्युं छे-

अपि किंचाभिनिबोधिकबोधद्वैतं तदादिमं यावत्।
स्वात्मानुभूतिसमये प्रत्यक्षं तत्समक्षमिव नान्यत्।। ७०६।।