Page 206 of 655
PDF/HTML Page 261 of 710
single page version
२०६ ] [ मोक्षशास्त्र पर्याय नथी गुणपर्याय छे. क्षयोपशमहेतुक लब्धि पण एक पर्याय या धर्म छे अने उपयोग पण एक धर्म छे, केमके ते आत्मानो परिणाम छे. ते उपयोग दर्शन अने ज्ञान एवा बे प्रकारनो छे.
(प) धर्म, स्वभाव, भाव, गुणपर्याय, गुण ए शब्दो एकार्थवाचक छे. (६) प्रयोजनभूत जीवादि तत्त्वोनुं श्रद्धान करवा योग्य ज्ञाननी क्षयोपशमलब्धि तो सर्व संज्ञी पंचेन्द्रिय जीवोने होय छे; पण जे जीव परनुं लक्ष टाळी स्व (आत्मा) तरफ उपयोगने वाळे छे तेने आत्मानुं ज्ञान (सम्यग्ज्ञान) थाय छे, अने जे जीव पर तरफ ज उपयोगने वाळ्या करे छे तेने मिथ्याज्ञान थाय छे अने तेथी तेनुं अविनाशी कल्याण थतुं नथी.
जीवने छद्मस्थदशामां ज्ञाननो उघाड अर्थात् क्षयोपशमहेतुक लब्धि घणी होय तोपण ते बधा उघाडनो उपयोग एक साथे करी शकतो नथी, केमके तेनो उपयोग रागमिश्रित छे तेथी रागमां रोकाई जाय छे, ते कारणे ज्ञाननो उघाड (लब्धि) घणो होय तो पण व्यापार (उपयोग) तो अल्प होय छे. ज्ञानगुण तो दरेक जीवने परिपूर्ण छे; विकारी दशामां ते ज्ञानगुणनी पूर्ण पर्याय ऊघडती नथी, एटलुं ज नहि पण पर्यायमां जेटलो उघाड होय तेटलो पण व्यापार एक साथे करी शकतो नथी. आत्मानुं लक्ष पर तरफ होय त्यां सुधी तेनी आवी दशा होय छे. माटे जीवे स्व अने परनुं यथार्थ भेदविज्ञान करवुं जोईए, भेदविज्ञान थतां ते पोतानो पुरुषार्थ स्व तरफ वाळ्या ज करे छे, अने तेथी क्रमे क्रमे राग टाळीने बारमा गुणस्थाने सर्वथा राग टळी जतां वीतरागता थाय छे. त्यार पछी थोडा ज वखतमां पुरुषार्थ वधतां ज्ञानगुण जेटलो परिपूर्ण छे तेटलो ज परिपूर्ण तेनो पर्याय उघडे छे; ज्ञानपर्याय पूर्ण ऊघडी गया पछी ज्ञानना व्यापारने एक बाजुथी बीजी तरफ वाळवानुं रहेतुं नथी; माटे दरेक मुमुक्षु जीवोए यथार्थ भेदविज्ञान प्राप्त करवुं जोईए-के जेनुं फळ केवळज्ञान छे. १८.
चक्षु अने [श्रोत्र] श्रोत्र-कान ए पांच इन्द्रियो छे.
Page 207 of 655
PDF/HTML Page 262 of 710
single page version
अ. २. सूत्र २० ] [ २०७
(१) आ इन्द्रियो भावेन्द्रिय अने द्रव्येन्द्रिय एम बन्ने प्रकारनी समजवी. एकेन्द्रिय जीवने पहेली (स्पर्शन) इन्द्रिय, बे-इन्द्रिय जीवने पहेली बे-एम अनुक्रमे होय छे. आ अध्यायना सूत्र-१४ नी टीकामां आ संबंधी विगतथी जणाव्युं छे, माटे त्यांथी जोई लेवुं.
(र) आ पांच भावेन्द्रियोमां भावश्रोत्रेन्द्रियने घणी लाभदायक गणवामां आवी छे, केमके ते भाव-इन्द्रियना बळथी सम्यग्ज्ञानी पुरुषनो उपदेश श्रवण करीने त्यार बाद विचार करीने यथार्थ निर्णय करी हितनी प्राप्ति अने अहितनो त्याग जीव करी शके छे. जडइन्द्रिय तो सांभळवामां निमित्तमात्र छे.
(३) १-क्षोत्रेन्द्रिय (कान) नो आकार जवनी वचली नळी जेवो, र-नेत्रनो आकार मसुर जेवो, ३-नाकनो आकार तलना फूल जेवो, ४-रसनानो आकार अर्धचंद्र जेवो होय छे अने स्पर्शनेन्द्रिय शरीराकारे होय छे-स्पर्शनेन्द्रिय आखा शरीरमां होय छे. ।। १९।।
शब्द ए पांच क्रमथी [तत् अर्थाः] उपर कहेली पांच इन्द्रियोनो विषय छे अर्थात् उपर कहेली पांच इन्द्रियो ते ते विषयने जाणे छे.
(१) जाणवानुं काम भावेन्द्रियनुं छे, पुद्गलइन्द्रिय निमित्त छे. दरेक इन्द्रियनो विषय शुं छे ते अहीं कह्युं छे; आ विषयो जड-पुद्गलो छे.
(र) प्रश्नः– आ अधिकार जीवनो छे छतां तेमां पुद्गलद्रव्यनी वात शा माटे लीधी?
उत्तरः– जीवने भावेन्द्रियथी थतां उपयोगरूप ज्ञानमां ज्ञेय शुं छे ते जणाववा माटे कह्युं छे. ज्ञेय निमित्त मात्र छे, ज्ञेयथी ज्ञान थतुं नथी पण उपयोगरूप भावेन्द्रियथी ज्ञान थाय छे एटले के ज्ञान विषयी (विषय करनार) छे अने ज्ञेय विषय छे ए बताववा आ सूत्र कह्युं छे.
(३) स्पर्शः– आठ प्रकारना छे. १. शीत, र. उष्ण, ३. लूखो, ४. चीकणो, प. कोमळ, ६. कठोर, ७. हळवो अने ८. भारे.
Page 208 of 655
PDF/HTML Page 263 of 710
single page version
२०८ ] [ मोक्षशास्त्र
रसः– पांच प्रकारना छे. १. तीखो, र. आम्ल (खाटो), ३. कडवो, ४. मधुर अने प. कषायेलो.
गंधः– बे प्रकारनी छे. १. सुगंध अने र. दुर्गंध. वर्णः– (रंग)-पांच प्रकारना छे. १. कृष्ण, र. नील (आसमानी), ३. पीळो, ४. रातो अने प-शुक्ल (धोळो).
शब्द (स्वर)– सात प्रकारना छे. १. षडज, र. ऋषभ, ३. गंधार, ४. मध्यम, प. पंचम, ६. धैवत, ७. निषाद.
ए प्रमाणे कुल र७ भेदो छे, तेमना संयोगना असंख्यात भेदो पडे छे. (४) संज्ञी प्राणीओने इन्द्रिय द्वारा थता चैतन्यवेपारमां मन निमित्तरूप होय छे.
(प) स्पर्श, रस, गंध अने शब्द ए विषयोनुं ज्ञान ते ते विषयने जाणनार इन्द्रिय साथे ते विषयनो संयोग थवाथी ज थाय छे. आत्मा चक्षुद्वारा जे रूपने देखे छे ते रूपथी योग्य क्षेत्रे दूर रहीने देखी शके छे. ।। २०।।
अथवा मननुं प्रयोजन श्रुतज्ञान छे.
(१) द्रव्यमन आठ पांखडीवाळा खीलेला कमळना आकारे छे (जुओ, अध्याय र, सूत्र ११ नी टीका). जीवे श्रवण करेला पदार्थने विचारवामां मनद्वारा प्रवृत्ति थाय छे. कर्णेन्द्रियद्वारा श्रवण करेला शब्दनुं ज्ञान ते मतिज्ञान छे; ते मतिज्ञानपूर्वकनो विचार ते श्रुतज्ञान छे. सम्यग्ज्ञानी पुरुषोनो उपदेश श्रवण करवामां कर्णेन्द्रिय निमित्त छे अने तेनो विचार करीने यथार्थ निर्णय करवामां मन निमित्त छे. हितनी प्राप्ति अने अहितनो त्याग मन द्वारा थाय छे. (जुओ, अध्याय र, सूत्र ११ तथा १९ नी टीका). प्रथम रागसहित मन द्वारा आत्मानुं साचुं ज्ञान करी शकाय छे अने पछी (रागने अंशे तोडतां) मनना अवलंबन वगर सम्यग्ज्ञान प्रगटे छे; तेथी संज्ञी जीवो ज धर्म पामवाने लायक छे (जुओ, अध्याय र, सूत्र र४ नी टीका).
(र) मन विनाना (असंज्ञी) जीवोने पण एक प्रकारनुं श्रुतज्ञान होय छे. (जुओ, अध्याय १, सूत्र ११ तथा ३० नी टीका). तेओने आत्मज्ञान नहि होवाथी ते ज्ञानने ‘कुश्रुत’ कहेवामां आवे छे.
Page 209 of 655
PDF/HTML Page 264 of 710
single page version
अ. २. सूत्र २२-३३ ] [ २०९
(३) श्रुतज्ञान जे विषयने जाणे छे तेमां मन स्वतंत्र निमित्त छे, कोई इन्द्रियने आधीन मन नथी एटले के श्रुतज्ञानमां कोई पण इन्द्रियनुं निमित्त नथी. ।। २१।।
अर्थात् पृथ्वीकायिक, जळकायिक, अग्निकायिक, वायुकायिक अने वनस्पतिकायिक जीवोने [एकम्] एक स्पर्शनइन्द्रिय ज होय छे.
आ सूत्रमां कहेला जीवो एक स्पर्शन इन्द्रियद्वारा ज ज्ञान करे छे. आ सूत्रमां ‘इन्द्रियोना स्वामी’ एवुं मथाळुं बांध्युं छे, तेमां इन्द्रियना बे प्रकार छे-जड इन्द्रिय अने भावेन्द्रिय. जडइन्द्रियनी साथे जीवने निमित्त-नैमित्तिक संबंध बताववा माटे व्यवहारथी स्वामी कहेल छे, खरेखर तो कोई द्रव्य बीजा द्रव्यनुं स्वामी छे ज नहि. अने भावेन्द्रिय ते आत्मानो ते वखतनो पर्याय छे एटले अशुद्धनये तेनो स्वामी आत्मा छे. ।। २२।।
भमरो वगेरे तथा मनुष्य वगेरेने [एकैक वृद्धानि] क्रमथी एकेक ईन्द्रिय वधती वधती छे अर्थात् करमियां वगेरेने बे, कीडी वगेरेने त्रण, भमरा वगेरेने चार अने मनुष्य वगेरेने पांच इन्द्रिय छे.
प्रश्नः– कोई मनुष्य जन्मथी ज आंधळो अने काने बहेरो होय छे तो एवा जीवने त्रण इन्द्रिय जीव कहेवो के पंचेन्द्रिय जीव कहेवो?
उत्तरः– ते पंचेन्द्रिय जीव तेने पांचे इन्द्रियो छे, पण उपयोगरूप शक्ति नथी तेथी ते देखतो अने सांभळतो नथी.
वर्णन र४ मां सूत्रमां कहे छे. ।। २३।।
Page 210 of 655
PDF/HTML Page 265 of 710
single page version
२१० ] [ मोक्षशास्त्र
संज्ञी जीवो पंचेन्द्रिय ज होय छे. (जुओ, अध्याय-र, सूत्र ११ तथा २१ नी टीका). जीवना हिताहितनी प्रवृत्ति मन द्वारा थाय छे. पंचेन्द्रिय जीवमां संज्ञी अने असंज्ञी एवा बे प्रकार छे. संज्ञी एटले संज्ञावाळा प्राणी समजवा. ‘संज्ञा’ना घणा अर्थो थाय छे तेमांथी अहीं ‘मन’ एवो अर्थ लेवो. ।। २४।।
[कर्मयोगः] कार्मण काययोग होय छे.
(१) विग्रहगति– एक शरीरने छोडीने बीजा शरीरनी प्राप्ति माटे गमन करवुं ते विग्रहगति छे. अहीं विग्रहनो अर्थ शरीर छे.
कर्मयोग– कर्मोना समूहने कार्मणशरीर कहे छे; आत्माना प्रदेशोना परिस्पंदनने योग कहे छे. आ परिस्पंदन वखते कार्मणशरीर निमित्तरूप छे तेथी तेने कर्मयोग कहे छे, अने ते कारणे नवां कर्मोनो ते वखते आस्रव थाय छे. (जुओ, सूत्र-४४ नी टीका).
(२) मरण थतां नवीन शरीर ग्रहण करवा माटे जीव गमन करे छे त्यारे रस्तामां एक, बे, त्रण के चार समय लागे छे, ते समयमां कार्मणयोगना कारणे पुद्गलकर्मनुं तथा तैजसवर्गणानुं ग्रहण थाय छे पण नोकर्मपुद्गलोनुं ग्रहण थतुं नथी. ।। २प।।
Page 211 of 655
PDF/HTML Page 266 of 710
single page version
अ. २. सूत्र २६-२७ ] [ २११ विग्रहगतिमां जीव अने पुद्गलनुं गमन केवी रीते थाय छे?
(१) श्रेणिः लोकना मध्यभागथी उपर, नीचे तथा तिर्यग्दिशामां क्रमथी हारबंध रचनावाळा प्रदेशोनी पंक्ति (Line) ने श्रेणि कहे छे.
(र) विग्रहगतिमां आकाशप्रदेशोनी सीधी पंक्तिए ज गमन थाय छे. विदिशामां गमन थतुं नथी. पुद्गलनो शुद्ध परमाणु ज्यारे अति शीघ्र गमन करी एक समयमां चौद राजु गमन करे छे त्यारे ते सीधो ज गमन करे छे.
(३) उपर प्रमाणे श्रेणिनी छ दिशा थाय छेः- १-पूर्वथी पश्चिम, र-उत्तरथी दक्षिण, ३-उपरथी नीचे तथा बीजा त्रण तेनाथी ऊलटी रीते एटले के, ४-पश्चिमथी पूर्व, प-दक्षिणथी उत्तर अने नीचेथी उपर.
(४) प्रश्नः– आ जीव अधिकार छे तेमां पुद्गलनो विषय शा माटे लीधो? उत्तरः– जीव अने पुद्गलनो निमित्त-नैमित्तिक संबंध बताववा तथा जीव तेम ज पुद्गल बन्ने गमन करे छे एम बताववा माटे पुद्गलनो विषय लीधो छे. ।। २६।।
थाय छे.
विषय हतो तेथी अहीं ‘जीवस्य’ नो अर्थ ‘मुक्त जीव’ थाय छे. आ अध्यायना रप मा सूत्रमां विग्रहनो अर्थ ‘शरीर’ कर्यो हतो, अहीं तेनो अर्थ ‘वक्रता’ करवामां आव्यो छे; विग्रह शब्दना ए बन्ने अर्थो थाय छे. रप मा सूत्रमां श्रेणिनो विषय न हतो तेथी त्यां ‘वक्रता’ अर्थ लागु थतो नहि, पण आ सूत्रमां श्रेणिनो विषय होवाथी ‘अविग्रहा’ नो अर्थ वक्रता रहित (मोडा रहित) थाय छे एम समजवुं. मुक्त जीवो श्रेणिबद्ध गतिथी एक समयमां सीधा सात राजु ऊंचा गमन करी सिद्धक्षेत्रमां जई स्थिर थाय ।। २७।।
Page 212 of 655
PDF/HTML Page 267 of 710
single page version
२१२ ] [ मोक्षशास्त्र
विग्रहवती च संसारिणः प्राक्चतुर्भ्यः।। २८।।
पहेलां पहेलां [विग्रहवती च] वक्रता-मोडासहित तथा रहित थाय छे.
१. संसारी जीवनी गति मोडासहित अने मोडारहित होय छे. जो मोडारहित होय तो तेने एक समय लागे छे; जो एक मोडो लेवो पडे तो बे समय, बे मोडा लेवा पडे तो त्रण समय अने त्रण मोडा लेवा पडे तो चार समय लागे छे. जीव चोथा समये तो क्यांक नवुं शरीर नियमथी धारण करी ले छे; तेथी विग्रहगतिनो समय वधारेमां वधारे चार समय सुधी होय छे. ते गतिओनां नाम-१-ऋजुगति (ईषुगति), र-पाणीमुक्तागति, ३-लांगलिकागति अने ४-गौमुत्रिकागति ए प्रमाणे छे.
र. एक परमाणुने मंदगतिए एक आकाश प्रदेशेथी तेनी नजीकना बीजा आकाशप्रदेश सुधी जतां जे वखत लागे छे ते एक समय छे, आ नानामां नानो काळ छे.
३. लोकमां एवुं कोई स्थळ नथी के ज्यां जतां जीवने त्रण करतां वधारे मोडा लेवा पडे.
४. विग्रहगतिमां एक समयथी वधारे वखत रहे त्यारे जीवने चैतन्यनो उपयोग होतो नथी. ज्यारे जीवनी ते प्रकारनी लायकात होती नथी त्यारे द्रव्यइन्द्रियो पण होती नथी, एवो निमित्त-नैमित्तिकसंबंध छे. जीवनो उपयोग होवा लायक होय छे त्यारे द्रव्यइन्द्रियो पोताना कारणे स्वयं हाजर होय छे, ते एम साबित करे छे के जीवनी पात्रता होय त्यारे तेने अनुसार निमित्त स्वयं हाजर होय छे, निमित्त माटे राह जोवी पडती नथी; अने जीव लायक न होय त्यारे निमित्तनो तेना पोताना कारणे स्वयं अभाव होय छे. ।। २८।।
छे अर्थात् तेमां एक समय ज लागे छे.
Page 213 of 655
PDF/HTML Page 268 of 710
single page version
अ. २. सूत्र ३० ] [ २१३
(१) जे समये जीवनो एक शरीर साथेनो संयोग बंध पडयो ते ज समये, जो जीव अविग्रहगतिने लायक होय तो, बीजा क्षेत्रे रहेला बीजा शरीरने लायक पुद्गलो साथे (शरीर साथे) संबंध शरू थाय छे. मुक्त जीवोने पण सिद्धगतिमां जतां एक ज समय लागे छे. आ गति सीधी लाईनमां ज होय छे.
(र) एक पुद्गलने उत्कृष्ट झडपथी गति करतां चौद राजलोक अर्थात् लोकना एक छेडेथी बीजा छेडा सुधी (सीधी लाईनमां उपर के नीचे) जतां एक समय ज लागे छे. ।। २९।।
[अनाहारक] जीव अनाहारक होय छे.
(१) आहारः– औदारिक, वैक्रियिक अने आहारक शरीर तथा छ पर्याप्तिने योग्य पुद्गलपरमाणुओना ग्रहणने आहार कहेवामां आवे छे.
(र) उपर कहेला आहारने जीव ज्यां सुधी ग्रहण नथी करतो त्यां सुधी ते अनाहारक कहेवाय छे. संसारी जीव अविग्रहगतिमां आहारक होय छे परंतु एक, बे के त्रण मोडावाळी गतिमां एक, बे के त्रण समय सुधी अनाहारक रहे छे; चोथा समये नियमथी आहारक थई जाय छे.
(३) ए वात लक्षमां राखवानी के आ सूत्रमां नोकर्मनी अपेक्षाए अनाहारकपणुं कह्युं छे. कर्मग्रहण तथा तैजसपरमाणुनुं ग्रहण तेरमा गुणस्थान सुधी होय छे. जो आ कर्म अने तैजस परमाणुना ग्रहणने आहारकपणुं गणवामां आवे तो ते अयोगी गुणस्थाने होतुं नथी.
(४) विग्रहगति सिवायना वखतमां जीव दरेक समये नोकर्मरूप आहार करे छे. (प) अहीं आहार, अनाहार अने ग्रहण शब्दो वापर्या छे ते मात्र निमित्त नैमित्तिकसंबंध बताववा माटे छे. खरी रीते (निश्चयद्रष्टिए) आत्माने कोईपण समये कोई पण परद्रव्यनां ग्रहण के त्याग होतां नथी, पछी ते निगोदमां हो के सिद्ध हो!।। ३०।।
Page 214 of 655
PDF/HTML Page 269 of 710
single page version
२१४ ] [ मोक्षशास्त्र
प्रकारना [जन्म] जन्म होय छे.
(१) जन्मः– नवीन शरीर धारण करवुं ते जन्म छे. सम्मूर्च्छन जन्मः– पोताना शरीरने योग्य पुद्गलो द्वारा, माता-पिताना रज अने वीर्य विना ज शरीरनी रचना थवी तेने सम्मूर्च्छन जन्म कहे छे.
गर्भ जन्मः– स्त्रीना उदरमां रज अने वीर्यना मळवाथी जे जन्म(conception) थाय तेने गर्भजन्म कहे छे.
उपपाद जन्मः– माता-पिताना रज अने वीर्य विना देव अने नारकीओना निश्चितस्थानविशेषमां उत्पन्न थवाने उपपाद जन्म कहे छे. आ उपपाद जन्मवाळुं शरीर वैक्रियिक रजकणोनुं बने छे.
नो अर्थ ‘चारे बाजु’-अथवा‘ज्यां-त्यां’ थाय छे अने मूर्च्छनं नो अर्थ ‘शरीरनुं बनी जवुं’ एवो थाय छे.
(३) जीव अनादि-अनंत छे एटले तेने जन्म-मरण होतां नथी, पण अनादिथी जीवने पोताना स्वरूपनी भ्रमणा (मिथ्यादर्शन) होवाथी तेने शरीर साथे एक क्षेत्रावगाहसंबंध थाय छे अने अज्ञानथी शरीरने पोतानुं माने छे. वळी शरीरने हुं हलावी-चलावी शकुं, शरीरनी क्रिया हुं करी शकुं ए वगेरेथी ऊंधी मान्यता जीवने अनादिथी चाली आवे छे; ते विकारभाव होय त्यां सुधी जीवने नवां नवां शरीरो साथे संबंध थाय छे. ते नवा शरीरना संबंधने (संयोगने) जन्म कहे छे अने जूना शरीरना वियोगने मरण कहे छे. सम्यग्द्रष्टि थया पछी चारित्रनी पूर्णता न थाय त्यां सुधी जीवने नवुं शरीर प्राप्त थाय छे तेमां जीवनो कषायभाव निमित्त छे. ।। ३१।।
Page 215 of 655
PDF/HTML Page 270 of 710
single page version
अ. २. सूत्र ३२-३३ ] [ २१प त्रण-अचित्त, उष्ण, विवृत [च एकशः मिश्राः] अने क्रमथी एकएकथी मळेली त्रण अर्थात् सचित्ताचित्त, शीतोष्ण अने संवृतविवृत [तत् योनयः] ए नव जन्मयोनिओ छे.
(१) जीवोनां उत्पत्तिस्थानने योनि कहे छे; योनि आधार अने जन्म आधेय छे. (र) सचित्तयोनि– जीवसहित योनिने सचित्तयोनि कहे छे. संवृतयोनि– जे कोईना देखवामां न आवे एवा उत्पत्तिस्थानने संवृत (ढंकायेली) योनि कहे छे.
विवृतयोनि– जे सर्वना देखवामां आवे एवा उत्पत्तिस्थानने विवृत (खुल्ली) योनि कहे छे.
(३) १-माणस के बीजा प्राणीना पेटमां जीवो (करमियां) उत्पन्न थाय तेनी सचित्तयोनि छे. र-दीवाल, टेबल वगेरेमां जीवो उत्पन्न थाय छे तेनी अचित्तयोनि छे. ३-माणसे पहेरेल टोपी वगेरेमां जीवो उत्पन्न थाय तेनी सचित्ताचित्त योनि छे. ४-ठंडीमां जीवो उत्पन्न थाय तेनी शीतयोनि छे. प-गरमीमां जीवो उत्पन्न थाय तेनी उष्णयोनि छे. ६-पाणीना खाडामां सूर्यनी गरमीथी पाणी ऊनुं थतां जीवो उत्पन्न थाय तेनी शीतोष्णयोनि छे. ७-पेकबंध टोपलामां रहेला फळमां जीवो उत्पन्न थाय तेनी संवृतयोनि छे. ८-पाणीमां जीवो (लीलफूग वगेरे) उत्पन्न थाय तेनी विवृतयोनि छे अने ९-थोडो भाग उघाडो तथा थोडो ढंकाएलो एवा स्थानमां जीवो ऊपजे तेनी संवृत-विवृतयोनि छे.
(४) गर्भ– योनिना आकारना त्रण भेद छे; १-शंखावर्त, र-कूर्मोन्नत अने ३-वंशपत्र. शंखावर्त योनिमां गर्भ रहेतो नथी. कूर्मोन्नतयोनिमां तीर्थंकर, चक्रवर्ती, बळभद्र अने तेना भाईओ सिवाय कोई उत्पन्न थतुं नथी. वंशपत्रयोनिमां बाकीना गर्भजन्मवाळा सर्व जीवो उत्पन्न थाय छे. ।। ३र।।
प्रकारना जीवोने [गर्भः] गर्भजन्म ज होय छे अर्थात् ते जीवोने ज गर्भजन्म होय छे.
Page 216 of 655
PDF/HTML Page 271 of 710
single page version
२१६ ] [ मोक्षशास्त्र
(१) जरायुज– जाळनी समान मांस अने लोहीथी व्याप्त एक प्रकारनी थेलीथी लपेटायेल जे जीव जन्मे छे तेने जरायुज कहे छे. जेम के-गाय, भेंस, मनुष्य वगेरे.
अंडजः– जे जीव ईंडामांथी जन्मे छे तेने अंडज कहे छे. जेम के-चकली, कबूतर, मोर वगेरे पक्षीओ.
पोतजः– जन्मती वखते जे जीवोनां शरीर उपर कोईपण प्रकारनुं आवरण न होय तेने पोतज कहे छे. जेम के सिंह, वाघ, हाथी, हरण, वांदरो वगेरे.
(र) असाधारण भाषा अने अध्ययनादि जरायुज जीवोमां ज होय छे. चक्रधर वासुदेवादि महा प्रभावशाळी जीवो जरायुज छे, मोक्ष पण जरायुजने ज थाय छे. ।। ३३।।
होय छे अर्थात् उपपादजन्म ते जीवोने ज होय छे.
(१) देवनां प्रसूतिस्थानमां शुद्ध सुगंधी कोमळ संपुटना आकारे शय्या होय छे तेमां उत्पन्न थई अंतर्मुहूर्तमां परिपूर्ण युवान जेवो थई, जेम कोई शय्यामां सूतेलो जागृत थाय तेम आनंद सहित जीव बेठो थाय छे-आ देवनो उपपादजन्म छे.
(र) नारकी जीवो बीलमां उत्पन्न थाय छे. मधुछत्तानी जेम ऊंधुं मोढुं वगेरे आकारे नानां मोढांवाळां उत्पत्तिस्थान छे तेमां नारकी जीव ऊपजे छे अने ऊंधुं माथुं, ऊंचा पग ए रीते घणी आकरी वेदनाथी नीकळी विलाप करतो जमीन उपर पडे छे-आ नारकीनो उपपादजन्म छे. ।। ३४।।
जीवोने [सम्मूर्च्छनम्] सम्मूर्च्छन जन्म ज होय छे अर्थात् सम्मूर्च्छन जन्म बाकीना जीवोने ज होय छे.
Page 217 of 655
PDF/HTML Page 272 of 710
single page version
अ. २. सूत्र ३६-३७ ] [ २१७
एकेन्द्रियथी असंज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यंचोने नियमथी सम्मूर्च्छन जन्म होय छे. संज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यंचोने गर्भ अने सम्मूर्च्छन बन्ने प्रकारना जन्म होय छे एटले के केटलाक गर्भज होय छे अने केटलाक सम्मूर्च्छन होय छे. लब्धि-अपर्याप्त मनुष्योने पण सम्मूर्च्छन जन्म होय छे. ।। ३प।।
वैक्रियिक, आहारक, तैजस अने कार्मण [शरीराणि] ए पांच शरीरो छे.
औदारिकशरीर– मनुष्य अने तिर्यंचोनां शरीर- के जे सडे छे, गळे छे तथा झरे छे ते-औदारिकशरीर छे; आ शरीर स्थूळ छे तेथी ‘उदार’ कहेवाय छे. सूक्ष्मनिगोदनुं शरीर इन्द्रियो वडे न देखाय, बाळ्युं बळे नहि, काप्युं कपाय नहि तोपण ते स्थूळ छे, केम के बीजां शरीरो तेनाथी क्रमे क्रमे सूक्ष्म छे. [जुओ, हवे पछीनुं सूत्र]
वैक्रियिकशरीर– जेमां हलकुं, भारे तथा अनेक प्रकारनां रूप बनाववानी शक्ति होय तेने वैक्रियिक शरीर कहे छे, ते देव अने नारकीओने ज होय छे.
शके छे ते औदारिक शरीरनो प्रकार छे.
आहारक शरीर– सूक्ष्मपदार्थना निर्णय माटे अथवा संयमनी रक्षा वगेरे माटे छठ्ठा गुणस्थानवर्ती जीवने मस्तकमांथी एक हाथनुं पूतळुं नीकळे छे तेने आहारक शरीर कहे छे. (तत्त्वोमां कांई शंका थतां केवळी अगर श्रुतकेवळी पासे जवा माटे आवा मुनिना मस्तकमांथी एक हाथनुं पूतळुं नीकळे छे तेने आहारक शरीर कहे छे.
कार्मण शरीर– ज्ञानावरणादि आठ कर्मोना समूहने कार्मणशरीर कहे छे.
नोंधः–
Page 218 of 655
PDF/HTML Page 273 of 710
single page version
२१८ ] [ मोक्षशास्त्र सूक्ष्म छे अर्थात् औदारिकथी वैक्रियिक सूक्ष्म, वैक्रियिकथी आहारक सूक्ष्म, आहारकथी तैजस सूक्ष्म अने तैजसथी कार्मणशरीर सूक्ष्म छे. ।। ३७।।
शरीरो [असंख्येयगुणं] असंख्यातगुणा छे.
औदारिक शरीरना प्रदेशो करतां असंख्यातगुणा वैक्रियिक शरीरना प्रदेशो छे अने वैक्रियिक शरीरथी असंख्यातगुणा आहारक शरीरना प्रदेशो छे. ।। ३८।।
वाळां छे अर्थात् आहारक शरीरथी अनंतगुणा प्रदेशो तैजस शरीरमां छे अने तैजसथी अनंतगुणा कार्मण शरीरमां प्रदेशो छे.
आगळ आगळना शरीरमां प्रदेशोनी संख्यामां अधिकता होवा छतां तेनो मेळाप लोढाना पिंडनी माफक सघन होय छे तेथी ते अल्परूप होय छे. प्रदेशो कहेतां अहीं परमाणुओ समजवा. ।। ३९।।
बाधारहित छे.
आ बे शरीरो लोकना छेडा सुधी हरकोई जग्याए जई शके छे अने गमे त्यांथी पसार थई शके छे. वैक्रियिक अने आहारक शरीरो हरकोईमां प्रवेश करी शके छे पण वैक्रियिक शरीर त्रसनालि सुधी ज गमन करी शके छे. आहारक शरीरनुं
Page 219 of 655
PDF/HTML Page 274 of 710
single page version
अ. २. सूत्र ४१-४२ ] [ २१९ गमन अधिकमां अधिक अढी द्वीपपर्यंत ज्यां केवळी अने श्रुतकेवळी होय त्यां सुधी थाय छे. मनुष्यनुं वैक्रियिकशरीर मनुष्यलोक (-अढीद्वीप) सुधी जाय छे, तेथी अधिक जतुं नथी. ।। ४०।।
अनादिकाळथी संबंधवाळां छे.
(१) आ कथन सामान्य तैजस अने कार्मणशरीरनी अपेक्षाए छे. विशेष अपेक्षाए आ प्रकारनां पहेलां पहेलांनां शरीरोनो संबंध बंध पडीने नवां नवां शरीरोनो संबंध थतो रहे छे. अर्थात् अयोगी गुणस्थान पहेलां दरेक समये जीव आ तैजस अने कार्मण शरीरनां नवां नवां रजकणो ग्रहण करे छे अने जूनां छोडे छे. (जे समये तेनो तद्न अभाव थाय छे ते ज समये जीव सीधो श्रेणिए सिद्धस्थाने पहोंची जाय छे.) सूत्रमां ‘च’ शब्द आप्यो छे तेमांथी आ अर्थ नीकळे छे.
(र) ‘जीवने आ शरीरोनो संबंध प्रवाहरूपे अनादिथी नथी पण नवो (- सादी) छे’ एम मानवुं ते भूलभरेलुं छे, केम के जो एम होय तो पूर्वे जीव अशरीरी हतो एटले के शुद्ध हतो अने पाछळथी ते अशुद्ध थयो एम ठरे; परंतु शुद्ध जीवने अनंत पुरुषार्थ होवाथी तेने अशुद्धता आवे नहि अने अशुद्धता ज्यां न होय त्यां आ शरीरो होय ज नहि. ए रीते जीवने आ शरीरनो संबंध सामान्य अपेक्षाए (-प्रवाहरूपे) अनादिथी छे. वळी जो तेने ते ज शरीरोनो संबंध अनादिथी माने तो ते संबंध अनंतकाळ रहे अने तेथी जीव विकार न करे तोपण तेनो मोक्ष कदी थाय ज नहि. अवस्थाद्रष्टिए जीव अनादिथी अशुद्ध छे एम आ सूत्र सिद्ध करे छे. [जुओ, हवे पछीना सूत्रनी टीका.]।। ४१।।
जीवोने होय छे.
Page 220 of 655
PDF/HTML Page 275 of 710
single page version
२२० ] [ मोक्षशास्त्र
जेने आ शरीरोनो संबंध न होय तेने संसारीपणुं होतुं नथी-सिद्धपणुं होय छे. एटलुं लक्षमां राखवुं के कोई पण जीवने खरेखर (परमार्थे) शरीर होतुं नथी. जो जीवने खरेखर शरीर होय तो जीव जड-शरीररूप थई जाय, पण तेम बने नहि. जीव अने शरीर बन्ने एक आकाशक्षेत्रे (एकक्षेत्रावगाहसंबंधे) होय छे तेथी अज्ञानी शरीरने पोतानुं माने छे; अवस्थाद्रष्टिए जीव अनादिथी अज्ञानी छे तेथी ‘अज्ञानीना आ प्रतिभास’ ने व्यवहार जणावी, तेने ‘जीवनुं शरीर’ कहेवामां आवे छे. ए रीते जीवना विकारीभावनो अने आ शरीरनो निमित्त-नैमित्तिकसंबंध बताव्यो छे, पण जीव अने शरीर एक द्रव्यरूप, एक क्षेत्ररूप, एक पर्याय (-काळ) रूप के एक भावरूप थई जाय छे-एम बताववानो शास्त्रोनो हेतु नथी; तेथी आगला सूत्रमां ‘संबंध’ शब्द वापर्यो छे. जो एम जीव अने शरीर एकरूप थाय तो बन्ने द्रव्योनो सर्वथा नाश थाय. ।। ४२।।
तदादीनि भाज्यानि युगपदेकस्याचतुर्भ्यः।। ४३।।
[युगपद्] एक साथे [एकस्य] एक जीवने [आचतुभ्यंः] चार शरीरो सुधी [भाज्यानि] विभक्त करवा जोईए अर्थात् जाणवा.
जीवने जो बे शरीरो होय तो तैजस अने कार्मण, त्रण होय तो तैजस, कार्मण अने औदारिक, अथवा तो तैजस, कार्मण अने वैक्रियिक, चार होय तो तैजस, कार्मण, औदारिक अने आहारक, अथवा तो तैजस, कार्मण, औदारिक अने (लब्धिवाळा जीवने) वैक्रियिक शरीरो होय छे. आमां (लब्धिवाळा जीवने) औदारिक साथे जे वैक्रियिक शरीर होवानुं जणाव्युं छे ते शरीर औदारिकनी जातनुं छे, देवना वैक्रियिक शरीरना रजकणोनी जातनुं ते नथी. ।। ४३।।
Page 221 of 655
PDF/HTML Page 276 of 710
single page version
अ. २. सूत्र ४४-४प ] [ २२१
उपभोगः– इन्द्रियो द्वारा शब्दादिकने ज्ञानमां ग्रहण करवा ते उपभोग कहेवाय छे.
इन्द्रियोनी रचनानो त्यां अभाव छे [जुओ सूत्र १७]; ते स्थितिमां शब्द, रूप, रस, गंध के स्पर्शनो अनुभव (-ज्ञान) थतो नथी, तेथी कार्मण शरीरने निरुपभोग ज कह्युं छे.
(३) प्रश्नः– तैजस शरीर पण निरुपभोग ज छे छतां तेने अहीं केम न गण्युं?
उत्तरः– तैजस शरीर तो कोई योगनुं पण कारण नथी तेथी निरुपभोगना प्रकरणमां तेने स्थान ज नथी. विग्रहगतिमां कार्मण शरीर तो कार्मणयोगनुं कारण छे [जुओ, सूत्र २प], तेथी ते उपभोगने लायक छे के नहि-ए प्रश्न ऊठे. तेनुं निराकरण करवा माटे आ सूत्र कह्युं छे. तैजसशरीर उपभोगने लायक छे के केम ए सवाल ज ऊठी शकतो नथी केमके ते तो निरुपभोग ज छे, तेथी अहीं तेने लीधुं नथी.
(४) जीवनी पोतानी पात्रता (-उपादान) मुजब बाह्य निमित्त संयोगरूप (हाजररूप) होय छे अने पोतानी पात्रता न होय त्यारे हाजर होतां नथी एम आ सूत्र बतावे छे, ज्यारे जीव शब्दादिकनुं ज्ञान करवाने लायक होतो नथी त्यारे जड शरीररूप इन्द्रियो हाजर होती नथी; अने ज्यारे जीव ते ज्ञान करवाने लायक होय छे त्यारे जड शरीररूप इन्द्रियो-स्वयं हाजर होय छे एम समजवुं.
(प) परवस्तु जीवने विकारभाव करावती नथी एम सूत्र २प तथा आ सूत्र बतावे छे, केमके विग्रहगतिमां स्थूळ शरीर, स्त्री, पुत्र वगेरे कोई होतां नथी. द्रव्यकर्म जड छे तेने ज्ञान नथी, वळी ते पोतानुं स्वक्षेत्र छोडी जीवना क्षेत्रमां जई शकतुं नथी तेथी ते कर्म जीवने विकारभाव करावी शके नहि. ज्यारे जीव पोताना दोषथी अज्ञानदशामां क्षणेक्षणे नवो विकारभाव कर्या करे छे त्यारे जे कर्मो छूटा पडे तेना उपर उदयनो आरोप आवे छे; अने जीव ज्यारे विकारभाव करतो नथी त्यारे छूटां पडतां कर्मो (-रजकणो) उपर निर्जरानो आरोप आवे छे अर्थात् तेने ‘निर्जरा’ नाम आपवामां आवे छे. ।। ४४।।
शरीर [आद्यम्] पहेलुं-औदारिक शरीर कहेवाय छे.
Page 222 of 655
PDF/HTML Page 277 of 710
single page version
२२२ ] [ मोक्षशास्त्र
प्रश्नः– शरीर तो जड पुद्गलद्रव्य छे अने आ अधिकार जीवनो छे, छतां तेमां आ विषय केम लीधो छे?
उत्तरः– जीवना जुदा जुदा प्रकारना विकारी भावो होय त्यारे तेने केवा केवा प्रकारनां शरीरो साथे एकक्षेत्रावगाह संबंध होय ते बताववा माटे शरीरोनो विषय अहीं (आ सूत्रमां तेम ज आ अध्यायना बीजां केटलांक सूत्रोमां) लीधो छे. ।। ४प।।
शरीर [वैक्रियिकम्] वैक्रियिक होय छे.
नोंधः– उपपाद जन्मनो विषय सूत्र ३४ मां अने वैक्रियिक शरीरनो विषय सूत्र ३६ मां आवी गयो छे, ते सूत्रो तथा तेनी टीका अहीं पण वांचवी. ।। ४६।।
वैक्रियिक शरीर ऊपजवामां ऋद्धिनुं निमित्त छे. साधुने तपना विशेषपणाथी प्राप्त थती ऋद्धिने ‘लब्धि’ कहेवामां आवे छे. ‘प्रत्यय’नो अर्थ निमित्त थाय छे. कोई तिर्यंचने पण विक्रिया होय छे, विक्रिया ते शुभभावनुं फळ छे, पण धर्मनुं फळ नथी. धर्मनुं फळ शुद्धभाव छे, शुभभावनुं फळ बाह्यसंयोग छे. मनुष्य तथा तिर्यंचनुं वैक्रियिक शरीर देव तथा नारकीना शरीरथी जुदी जातनुं छे; औदारिक शरीरनो ज एक प्रकार छे. (जुओ, सूत्र ३६ तथा ४३ नी टीका)।। ४७।।
Page 223 of 655
PDF/HTML Page 278 of 710
single page version
अ. २. सूत्र ४९ ] [ २२३
(१) तैजसशरीरना बे भेद छे-अनिःसरण अने निःसरण. अनिःसरण सर्व संसारी जीवोने देहनी दीप्तिनुं कारण छे, ते लब्धिप्रत्यय नथी, तेनुं स्वरूप सूत्र ३६ नी टीकामां आवी गयुं छे.
(र) निःसरण-तैजस शुभ अने अशुभ एम बे प्रकारनुं छे. तपश्चरणना धारक मुनिने कोई क्षेत्रमां रोग, दुष्काळादि वडे लोकोने दुःखी देखीने जो अत्यंत करुणा ऊपजी आवे तो तेमना जमणा खभामांथी एक तैजस पिंड नीकळी बार योजन सुधीना जीवोनुं दुःख मटाडी मूळ शरीरमां प्रवेश करे छे, तेने निःसरणशुभतैजसशरीर कहेवाय छे; अने कोई क्षेत्रे मुनि अत्यंत क्रोधित थाय तो ऋद्धिना प्रभावथी तेमना डाबा खभामांथी सिंदूरसमान राता अग्निरूप एक शरीर नीकळी बार योजन सुधीना बधा जीवोनां शरीरने तथा बीजां पुद्गलोने बाळी भस्म करी मूळ शरीरमां प्रवेश करी ते मुनिने पण दग्ध करे छे, (ते मुनि नरकने प्राप्त थाय छे) तेने निःसरणअशुभतैजसशरीर कहेवाय छे. ।। ४८।।
छे, [विशुद्धम्] विशुद्ध छे अर्थात् ते विशुद्धकर्म (मंदकषायथी बंधातां कर्म) नुं कार्य छे [च अव्याघाति] अने व्याघात-बाधारहित छे तथा [प्रमत्तसंयतस्य एव] प्रमत्तसंयत (छठ्ठा गुणस्थानवर्ती) मुनिने ज ते शरीर होय छे.
(१) आ शरीर चंद्रकान्तमणि समान श्वेतवर्णनुं एक हाथ प्रमाण होय छे; ते पर्वत, वज्र वगेरेथी रोकातुं नथी तेथी अव्याघात छे. आ शरीर प्रमत्तसंयमी मुनिना मस्तकमांथी नीकळे छे, प्रमत्तसंयत गुणस्थाने ज आ शरीर होय छे, बीजे होतुं नथी; तेम ज बधा प्रमत्तसंयत मुनिओने आ शरीर होतुं नथी.
(र) ते आहारकशरीर १. कदाचित् लब्धिविशेषनो सद्भाव जाणवा माटे, र. कदाचित् सूक्ष्मपदार्थना निर्णय माटे तथा ३. कदाचित् तीर्थगमन के संयमनी रक्षा अर्थे केवळी भगवान अगर श्रुतकेवळी भगवान पासे जतां स्वयं निर्णय करी अंतर्मुहूर्तमां पाछुं आवी संयमी मुनिना शरीरमां प्रवेश करे छे.
Page 224 of 655
PDF/HTML Page 279 of 710
single page version
२२४ ] [ मोक्षशास्त्र
(३) जे वखते भरत-ऐरावत क्षेत्रोमां तीर्थंकर भगवाननी, केवळीनी के श्रुतकेवळीनी विद्यमानता न होय अने तेना विना मुनिनुं समाधान थई शके नहि त्यारे महाविदेहक्षेत्रमां ज्यां तीर्थंकर भगवान वगेरे बिराजमान होय त्यां ते (भरत के ऐरावतक्षेत्रना) मुनिनुं आहारक शरीर जाय; भरत-ऐरावत क्षेत्रमां तीर्थंकर भगवानादि होय त्यारे ते नजीकना क्षेत्रे जाय छे. महाविदेहमां तीर्थंकरो त्रणेकाळ होय छे तेथी त्यांना मुनिने तेवो प्रसंग आवे तो तेमनुं आहारक शरीर ते क्षेत्रना तीर्थंकरादि पासे जाय छे.
(४) १-देवो अनेक वैक्रियिकशरीर करी शके छे, मूळ शरीरसहित देव स्वर्गलोकमां विद्यमान रहे अने विक्रिया वडे अनेक शरीर करी बीजा क्षेत्रमां जाय छे. कोई सामर्थ्यधारक देव पोतानां एक हजार रूपो करी शके छे, ते हजारे शरीरोमां ते देवना आत्माना प्रदेशो छे. मूळ वैक्रियिकशरीर जघन्य दस हजार वर्ष सुधी रहे छे, अगर वधारे जेटलुं आयुष्य होय तेटलो काळ रहे छे. उत्तरवैक्रियिकशरीरनो काळ जघन्य तथा उत्कृष्ट अंतर्मुहूर्त ज छे. तीर्थंकर भगवानना जन्म वखते तथा नंदीश्वरादिकनां जिनमंदिरोनी पूजा माटे देवो जाय छे त्यारे वारंवार विक्रिया करे छे.
र-प्रमत्तसंयत मुनिनुं आहारकशरीर दूर क्षेत्र विदेहादिकमां जाय छे. ३-तैजसशरीर बार जोजन (४८ गाउ) जाय छे. ४-आत्मा अखंड छे, तेना खंड थता नथी. आत्माना असंख्यात प्रदेशो छे ते कार्मणशरीर साथे नीकळे छे. मूळ शरीर तो जेवुं छे तेवुं ज बन्युं रहे छे, अने तेमां पण दरेक स्थळे आत्माना प्रदेशो रहे ज छे.
(प) जेम अन्नने प्राण कहेवा ते उपचार छे तेम आ सूत्रमां आहारक शरीरने ‘शुभ’ कहेलुं छे ते पण उपचार छे. बन्ने स्थानोमां कारणमां कार्यनो उपचार (अर्थात् व्यवहार) करवामां आव्यो छे. जेम अन्ननुं फळ प्राण छे तेम शुभनुं फळ आहारकशरीर छे तेथी आ उपचार छे. ।। ४९।।
[नपुंसकानि] नपुंसक होय छे.
Page 225 of 655
PDF/HTML Page 280 of 710
single page version
अ. २. सूत्र प१-प२ ] [ २२प
(१) लिंग-वेद बे प्रकारनां छेः- १-द्रव्यलिंग=पुरुष, स्त्री के नपुंसकत्व बतावनारुं शरीरनुं चिह्न; अने र-भावलिंग=स्त्री, पुरुष के स्त्री-पुरुष बन्ने भोगववानी अभिलाषारूप आत्माना विकारी परिणाम. नारकी अने सम्मूर्च्छन जीवोने द्रव्यलिंग अने भावलिंग बन्ने नपुंसक होय छे.
(र) नारकी तथा सम्मूर्च्छन जीवो नपुंसक ज होय छे केम के ते जीवोने स्त्री-पुरुष संबंधी मनोज्ञ शब्दनुं सांभळवुं, मनोज्ञ गंधनुं सूंघवुं, मनोज्ञ रूपनुं देखवुं, मनोज्ञ रसनुं चाखवुं के मनोज्ञ स्पर्शनुं स्पर्शवुं ए कांई होतुं नथी, तेथी थोडुं कल्पित सुख पण ते जीवोने होतुं नथी, माटे निश्चय करवामां आवे छे के ते जीवो नपुंसक छे. ।। प०।।
देवीओने स्त्रीलिंग होय छे.
(१) देवगतिमां द्रव्यलिंग तथा भावलिंग सरखां होय छे. (र) म्लेच्छ खंडना मनुष्यो स्त्रीवेद अने पुरुषवेद ए बे वेदने ज धारण करे छे, त्यां नपुंसक ऊपजता नथी. ।। प१।।
वेदवाळा छे.
भाववेदना पण त्रण प्रकार छे-१. पुरुषवेदनो कामाग्नि तृणना अग्नि समान जलदी शांत थई जाय छे, र. स्त्रीवेदनो कामाग्नि अंगारना अग्नि समान गुप्त अने कांईक काळ पछी शांत थाय छे अने ३. नपुंसकवेदनो कामाग्नि ईंटना अग्नि समान लांबा काळ सुधी रहे छे. ।। प२।।