Moksha Shastra-Gujarati (Devanagari transliteration). Sutra: 53 (Chapter 2),1 (Chapter 3),2 (Chapter 3),3 (Chapter 3),4 (Chapter 3),5 (Chapter 3),6 (Chapter 3); Upsanhar; Third Chapter Pg. 237 to 269.

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२२६ ] [ मोक्षशास्त्र

कोनुं आयुष्य अपवर्तन (–अकाळ मृत्यु) रहित छे?
औपपादिकचरमोत्तमदेहाऽसंख्येयवर्षायुषोऽनपवर्त्यायुषः।। ५३।।
अर्थः– [औपपादिक] उपपाद जन्मवाळा-देव अने नारकी, [चरम उत्तम

देहाः] चरम उत्तम देहवाळा एटले ते भवे मोक्षगामीओ तथा [असंख्येय वर्ष आयुषः] असंख्यात वर्षोना आयुष्यवाळा भोगभूमिना जीवोनां [आयुषः अनुपवर्ति] आयुष्य अपवर्तन रहित होय छे.

टीका

(१) आठ कर्मोमां आयुष्य नामनुं एक कर्म छे. भोग्यमान (भोगवातां) आयुष्यकर्मनां रजकणो बे प्रकारनां होय छे-सोपक्रम अने निरुपक्रम. तेमां आयुष्यना प्रमाणमां दरेक समये सरखा निषेको निर्जरे ते प्रकारनुं आयुष्य निरुपक्रम एटले के अपवर्तन रहित छे; अने जे आयुष्यकर्म भोगववामां पहेलां तो समये समये सरखा निषेको निर्जरता होय पण तेना छेल्ला भागमां घणां निषेको एक साथे निर्जरी जाय ते प्रकारना आयुष्यने सोपक्रम आयुष्य कहेवाय छे. आयुष्यकर्मना बंधनी एवी विचित्रता छे के जेने निरुपक्रम आयुष्यनो उदय होय तेने समये समये सरखुं निर्जरे, तेथी ते उदय कहेवाय छे अने सोपक्रम आयुष्यवाळाने पहेलां अमुक वखत तो उपर प्रमाणे ज निर्जरे, त्यारे उदय कहेवाय, पण छेल्ला अंतर्मुहूर्तमां बधां निषेको भेगां निर्जरी जाय, तेथी तेने ‘उदीरणा’ कहे छे. खरेखर कोईनुं आयुष्य वधतुं के घटतुं नथी पण निरुपक्रम आयुष्यथी सोपक्रम आयुष्यनो भेद बताववा माटे सोपक्रमवाळा जीवोने ‘अकाल मृत्यु पाम्या’ एम व्यवहारथी कहेवाय छे.

(र) उत्तम एटले उत्कृष्ट; चरमदेह उत्कृष्ट होय छे, केमके जे जे जीवो केवळज्ञान पामे तेमनुं शरीर केवळज्ञान प्रगटतां परमौदारिक थाय छे. जे देहे जीवो केवळज्ञान पामता नथी ते देह चरम होतो नथी तेम ज परमौदारिक होतो नथी. मोक्ष जनार जीवने शरीर साथेनो निमित्त-नैमित्तिकसंबंध केवळज्ञान पामतां केवो होय छे ते बताववा आ सूत्रमां चरम अने उत्तम-एवां बे विशेषणो वापर्यां छे. केवळज्ञान प्रगटे त्यारे ते देह ‘चरम’ संज्ञा पामे छे; तेम ज परमौदारिकरूप थई जाय छे तेथी ‘उत्तम’ संज्ञा पामे छे; पण वज्रर्षभनाराचसंहनन तथा समचतुरस्रसंस्थानने कारणे शरीरने ‘उत्तम’ संज्ञा आपवामां आवती नथी.

(३) सोपक्रम– कदलीघात अर्थात् वर्तमान माटे अपवर्तन थता आयुष्यवाळाने


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अ. २. सूत्र प३ ] [ २२७ बाह्यमां विष, वेदना, रक्तक्षय, भय, शस्त्राघात, श्वासावरोध, कंटक, अग्नि, जळ, सर्प, अजीर्णभोजन, वज्रपात, शूळी, हिंसक जीव, तीव्र भूख के पिपासा आदि कोई निमित्त होय छे. (कदलीघातना अर्थ माटे जुओ, अ. ४ सू. र९ नी टीका.)

(४) केटलाक अंतकृत-केवळी एवा होय छे केे जेमनां शरीर उपसर्गथी विदीर्ण थाय छे पण तेमनुं आयुष्य अपवर्तन रहित छे, चरमदेहवाळा गुरुदत्त, पांडवो वगेरेने उपसर्ग थया हता पण तेमनुं आयुष्य अपवर्तन रहित हतुं.

(प) ‘उत्तम’ शब्दनो अर्थ त्रेसठ शलाकापुरुष अथवा कामदेवादि ऋद्धियुक्त पुरुषो एवो करवो ते ठीक नथी, केमके सुभौम चक्रवर्ती, छेल्ला ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती तथा छेल्ला अर्धचक्रवर्ती वासुदेव आयुष्य अपवर्तन थतां मरण पाम्या छे.

(६) भरत अने बाहुबली ते भवे मोक्षगामी जीवो हता, तेथी अंदरोअंदर लडतां तेमनुं आयुष्य बगडी शके नहि-एम कह्युं छे ते बतावे छे के ‘उत्तम’ शब्द ते भवे मोक्षगामी जीवो माटे ज वपरायो छे.

(७) बधा सकलचक्री अने अर्धचक्रीने अनपवर्तनायु होय एवो नियम नथी.

(८) सर्वार्थसिद्धिमां श्री पूज्यपाद आचार्यदेवे ‘उत्तम’ शब्दनो अर्थ कर्यो छे; तेथी मूळ सूत्रमां ते शब्द छे एम सिद्ध थाय छे. अमृतचंद्राचार्यदेवे तत्त्वार्थसार बनावतां बीजा अध्यायनी १३प मी गाथामां ‘उत्तम’ शब्द वापर्यो छे, ते गाथा नीचे प्रमाणे छे.

असंख्येयसमायुक्ताश्चरमोत्तममूर्तयः।
देवाश्च नारकाश्चैषाम् अपमृत्युनंविद्यते।। १३५।। ।। ५३।।
उपसंहार

(१) आ अध्यायमां जीवतत्त्वनुं निरूपण छे, तेमां प्रथम ज जीवना औपशमिकादिक पांच भावो वर्णव्या [सूत्र १]; पांच भावोना त्रेपन भेदो सात सूत्रमां कह्या [सूत्र ७]. पछी जीवनुं प्रसिद्ध लक्षण ‘उपयोग’ जणावीने तेना भेद कह्या [सूत्र ९]. जीवना बे भेद संसारी अने मुक्त कह्या [सूत्र १०]. तेमां संसारी जीवोना भेद संज्ञी-असंज्ञी, तथा त्रस-स्थावर कह्या, अने त्रसना भेद बे इंद्रियथी पंचेन्द्रिय सुधीना जणाव्या; पांच इंद्रियोना द्रव्येन्द्रिय अने भावेन्द्रिय एवा बे प्रकार कह्या अने तेना विषय जणाव्या [सूत्र २१]. एकेन्द्रियादि जीवोने केटली इंद्रियो होय तेनुं निरूपण कर्युं. [सूत्र २३]. वळी संज्ञी जीवोनुं तथा जीव परभवगमन करे छे ते गमननुं स्वरूप कह्युं [सूत्र ३०].


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२२८ ] [ मोक्षशास्त्र

पछी जन्मना भेद, योनिना भेद तथा गर्भज, देव, नारकी अने सम्मूर्च्छन जीवो केम ऊपजे तेनो निर्णय कह्यो [सूत्र ३प]; पांच शरीरना नाम कही तेनी स्थूळता अने सूक्ष्मतानुं स्वरूप कह्युं अने ते केम ऊपजे तेनुं निरूपण कर्युं [सूत्र ४९]; पछी क्या जीवने क्या वेद होय छे ते कह्युं [सूत्र प२]; पछी उदय-मरण अने उदीरणा-मरणनो नियम बताव्यो [सूत्र प३].

ज्यां सुधी जीवनी अवस्था विकारी होय छे त्यां सुधी आवा परवस्तुना संयोगो होय छे; अहीं तेनुं ज्ञान कराव्युं छे, अने सम्यग्दर्शन पामी, वीतरागता प्राप्त करी संसारी जीव मटीने मुक्त जीव थवा माटे जणाव्युं छे.

(र) पारिणामिकभाव संबंधी

जीव अने तेना अनंतगुणो त्रणेकाळ अखंड अभेद छे तेथी ते पारिणामिकभावे छे. दरेक द्रव्यना दरेक गुणोनुं क्षणे क्षणे परिणमन थाय छे; जीव पण द्रव्य होवाथी अने तेमां द्रव्यत्व नामनो गुण होवाथी समये समये तेना अनंत गुणोनुं परिणमन थाय छे; ते परिणमनने पर्याय कहेवामां आवे छे. तेमां जे पर्यायो अनादिथी ज शुद्ध छे ते पण पारिणामिकभावे छे.

जीवनी अनादिथी संसारी अवस्था छे एम आ अध्यायना १० मा सूत्रमां कह्युं छे, केमके पोतानी अवस्थामां अनादिथी क्षणे क्षणे नवो विकार जीव करतो आवे छे; परंतु ए ख्यालमां राखवुं के तेना बधा गुणोना पर्यायोमां विकार नथी पण अनंत गुणोमांथी घणा अल्प गुणोनी अवस्थामां विकार थाय छे. जेटला गुणोनी अवस्थामां विकार थतो नथी तेटला पर्यायो शुद्ध छे.

हवे जे विकारी पर्यायो थाय छे तेनुं स्वरूप विचारीए. दरेक द्रव्य सत् होवाथी तेना पर्यायमां समये समये उत्पाद, व्यय अने ध्रौव्यने पर्याय अवलंबे छे. ते त्रण अंशोमांथी जे ध्रौव्य अंश छे ते अंश सद्रश रहेतो होवाथी ते अंश पण पारिणामिकभावे छे. ते अंश अनादि अनंत एकप्रवाहपणे छे. ते एकप्रवाहपणे रहेतो ध्रौव्य पर्याय पण पारिणामिकभावे छे.

आ उपरथी नीचे प्रमाणे पारिणामिकभावपणुं सिद्ध थयुं- १. द्रव्यनुं त्रिकाळीपणुं तथा अनंत गुणो अने तेना पर्यायनो एकप्रवाहरूपे रहेतो अनादि अनंत ध्रौव्य अंश-ए त्रणे अभेदपणे पारिणामिकभावे छे अने तेने परम पारिणामिकभाव अथवा द्रव्यद्रष्टिए पारिणामिकभाव कहेवामां आवे छे.

र. जे अनादि अनंत ध्रौव्य अंश छे तेने एक प्रवाहपणे उपर लीधो छे, पण ते

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अ. २. उपसंहार] [ २२९ दरेक समये छे तेथी दरेक समयनो जे ध्रौव्य अंश छे ते पर्यायार्थिकनये पारिणामिक भाव छे.

(३) उत्पाद अने व्ययपर्याय

हवे उत्पाद अने व्ययपर्याय संबंधीः- तेमां व्ययपर्याय तो अभावरूपे छे तेथी तेने आ अध्यायना पहेला सूत्रमां कहेला पांच भावोमांथी कोईपण भाव लागु पडी शके नहि.

उत्पादपर्याय समये समये अनंत गुणोनो छे तेमां जे गुणोनो पर्याय अनादिथी अविकारी छे ते पारिणामिकभावे छे अने ते पर्याय होवाथी पर्यायार्थिकनये पारिणामिकभाव छे.

परनी अपेक्षा राखनारा जीवना भावोनां चार विभागो पडे छे-१. औपशमिकभाव र. क्षायोपशमिकभाव ३. क्षायिकभाव अने ४. औदयिकभाव. ए चार भावोनुं स्वरूप पूर्वे आ अध्यायना सूत्र १ नी टीकामां कह्युं छे.

(४) आ पांच भावोनुं ज्ञान धर्म करवामां शी रीते उपयोगी छे?

जो जीव आ पांच भावोनुं स्वरूप जाणे तो क्या भावने आधारे धर्म थाय ते पोते समजी शके. पांच भावोमांथी पारिणामिकभाव सिवायना चार भावोमांथी कोईना लक्षे धर्म थतो नथी, अने पर्यायार्थिकनये जे पारिणामिकभाव छे तेना आश्रये पण धर्म थतो नथी-एम ते समजे. हवे ज्यारे पोताना पर्यायार्थिकनये वर्तता पारिणामिकभावना आश्रये पण धर्म न थाय तो पछी निमित्त-के जे पर द्रव्य छे-तेना आश्रये के लक्षे तो धर्म न ज थई शके एम पण ते समजे छे.

(प) उपादानकारण अने निमित्तकारण संबंधी

प्रश्नः– जैनधर्म तो वस्तुनुं स्वरूप अनेकांत कहे छे, माटे कोई वखते उपादान (-परमपारिणामिकभाव) नी मुख्यताए धर्म थाय अने कोई वखते निमित्त (- परद्रव्य) नी मुख्यताए धर्म थाय एम होवुं जोईए; उपर कह्युं तेम एकला उपादान (-परमपारिणामिकभाव)थी धर्म थाय एम कहेतां एकांत थई जशे?

उत्तरः– आ प्रश्न सम्यक् अनेकांत अने मिथ्याअनेकांत तथा सम्यक्-मिथ्याएकांतना स्वरूपनी अज्ञानता बतावे छे. पारिणामिकभावना आश्रये धर्म थाय अने बीजा कोई भावना आश्रये धर्म न थाय एम अस्ति-नास्तिस्वरूप ते सम्यक्अनेकांत छे. प्रश्नमां जणावेल अनेकांत तो मिथ्या अनेकांत छे; वळी जो ते प्रश्नमां जणावेल सिद्धांत स्वीकारवामां आवे तो ते मिथ्या एकांत थाय छे, केमके जो कोई वखते निमित्तनी


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२३० ] [ मोक्षशास्त्र मुख्यताए (एटले के परद्रव्यनी मुख्यताए) धर्म थाय तो परद्रव्य अने स्वद्रव्य ए बे एक थई जाय अने तेथी मिथ्याएकांत थाय छे.

प्रश्नः– तो पछी सत् देव-गुरु-शास्त्र अने भगवानना दिव्यध्वनिना आश्रये धर्म थाय छे एम तो शास्त्रमां कह्युं छे, माटे कोई वखते ते निमित्तोनी मुख्यताए धर्म थाय एम मानवामां शुं दोष आवे छे?

उत्तरः– शास्त्रमां एम ज कह्युं छे के-परमशुद्धनिश्चयनयना ग्राहक पारिणामिकभावे (अर्थात् निज त्रिकाळी शुद्ध चैतन्य परमात्मभावे-ज्ञायकभावे) धर्म थाय. सत्देव, सद्गुरु, सत्शास्त्र के भगवाननो दिव्यध्वनि ते तो जीव अशुभ भाव टाळी शुभभाव रूप रागनुं अवलंबन ले छे तेमां निमित्त मात्र छे; वळी तेमना तरफना राग-विकल्पने पण टाळीने जीव ज्यारे पारिणामिकभावनो (ज्ञायकभावनो) आश्रय ले छे त्यारे तेने धर्म प्रगटे छे अने ते वखते रागनुं अवलंबन छूटी जाय छे. धर्म प्रगटया पहेलां राग कई दिशामां ढळ्‌यो हतो ते बताववा माटे देव-गुरु-शास्त्र के दिव्यध्वनि वगेरेने निमित्त कहेवामां आवे छे, पण निमित्तनी मुख्यताए कोईपण वखते धर्म थाय एम बताववा माटे निमित्तनुं ज्ञान कराववामां आवतुं नथी.

कोई वखते उपादानकारणनी मुख्यताए धर्म थाय अने कोई वखते निमित्तकारणनी मुख्यताए धर्म थाय-एम जो मानी लईए तो धर्म करवा माटे कोई त्रिकाळी अबाधित नियम रहेतो नथी; अने जो कोई नियमरूप सिद्धांत न होय तो धर्म क्या वखते उपादानकारणनी मुख्यताथी थाय अने क्या वखते निमित्तकारणनी मुख्यताथी थाय ए नक्की नहि होवाथी जीव कदी धर्म करी शके नहि.

धर्म करवा माटे त्रिकाळी एकरूप नियम न होय एम बनी शके नहि; माटे एम समजवुं के जे कोई जीवो पूर्वे धर्म पाम्या छे, वर्तमानमां धर्म पामे छे अने भविष्यमां धर्म पामशे ते बधायने परमपारिणामिकभावनो ज आश्रय छे, पण बीजो कोई आश्रय नथी.

प्रश्नः– सम्यग्द्रष्टि जीवो पण सम्यग्दर्शन थया पछी सत्देव, सद्गुरु, सत्शास्त्रनुं अवलंबन ले छे अने तेना आश्रये तेमने धर्म थाय छे तो त्यां निमित्तनी मुख्यताए धर्मनुं कार्य थयुं के नहि?

उत्तरः– ना, निमित्तनी मुख्यताए क्यांय पण कार्य थतुं ज नथी. सम्यग्द्रष्टिने जे शुभभाव थाय छे तेमां रागनुं अवलंबन छे अने तेनो पण सम्यग्द्रष्टिने खेद वर्ते छे. सत् देव-गुरु के शास्त्रनुं तो कोई जीव अवलंबन लई ज शके नहि केमके ते परद्रव्य छे; छतां ज्ञानीओ सत् देव-गुरु-शास्त्रनुं अवलंबन ले छे एवुं जे कथन करवामां आवे


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अ. २. उपसंहार] [ २३१ छे ते तो मात्र उपचारकथन छे, खरी रीते परद्रव्यनुं अवलंबन नथी पण रागभावनुं त्यां अवलंबन छे.

हवे ते शुभभाव वखते सम्यग्द्रष्टिने जे शुभभाव वधे छे ते, अभिप्रायमां परमपारिणामिकभावनो आश्रय छे तेना ज बळे वधे छे, बीजी रीते कहीए तो सम्यग्दर्शनना जोरे ते शुद्धभाव वधे छे परंतु शुभराग के परद्रव्यना अवलंबने शुद्धता वधती नथी.

प्रश्नः– देव-गुरु-शास्त्रने निमित्तमात्र कह्यां तथा तेमना अवलंबनने उपचारमात्र कह्युं-तेनुं कारण शुं?

उत्तरः– आ विश्वमां अनंत द्रव्यो छे, तेमांथी राग वखते छद्मस्थ जीवनुं वलण क्या द्रव्य तरफ गयुं ते बताववा माटे ते द्रव्यने ‘निमित्त’ कहेवामां आवे छे; ते वखते ते जीवने ‘अनुरूप अशुद्धभाव’ करवामां अनुकूळ ते द्रव्य छे तेथी ते द्रव्यने ‘निमित्त’ कहेवामां आवे छे, ए रीते देव-गुरु-शास्त्र निमित्तमात्र छे अने देव-गुरु-शास्त्रनुं अवलंबन उपचारमात्र छे.

निमित्त-नैमित्तिकसंबंध जीवने ज्ञान करवा माटे छे, पण ‘धर्म करवामां कोई वखते निमित्तनी मुख्यता छे’-एवी मान्यता करवा माटे ते ज्ञान नथी. सम्यग्दर्शन प्रगट करवा मागता जीवे निमित्त-नैमित्तिकसंबंधना स्वरूपनुं यथार्थ ज्ञान करवुं जोईए, ते ज्ञान करवानी जरूर एटला माटे छे के जो ते ज्ञान न होय तो ‘कोई वखते निमित्तनी मुख्यताए पण कार्य थाय’ एवुं वलण जीवने रहे अने तेथी तेनुं अज्ञान टळे नहि.

(६) आ पांच भावो साथे आ अध्यायना सूत्रो शी
रीते संबंध राखे छे तेनो खुलासो

सूत्र १. आ सूत्र पांचे भावो बतावे छे, तेमांथी शुद्ध द्रव्यार्थिकनयना विषयरूप पोताना पारिणामिकभावना आश्रये ज धर्म थाय छे.

सूत्र र–६. आ सूत्रो पहेला चार भावोना भेदो जणावे छे, तेमां त्रीजा सूत्रमां औपशमिकभावना भेदो वर्णवतां प्रथम सम्यक्त्व लीधुं छे केमके धर्मनी शरूआत औपशमिकसम्यक्त्वथी थाय छे; सम्यक्त्व पाम्या पछी आगळ वधतां केटलाक जीवोने औपशमिकचारित्र थाय छे तेथी बीजुं औपशमिकचारित्र कह्युं छे. आ बे सिवाय बीजा कोई औपशमिकभावो नथी. [सूत्र-३]

जे जे जीवो धर्मनी शरूआतमां प्रगट थतुं औपशमिकसम्यक्त्व, पारिणामिकभावना आश्रये पामे छे ते जीवो पोतामां शुद्धि वधारतां वधारतां छेवटे संपूर्ण शुद्धता पामे छे,


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२३२ ] [ मोक्षशास्त्र तेथी तेमने सम्यक्त्व अने चारित्रनी पूर्णता थवा उपरांत ज्ञान, दर्शन, दान, लाभ भोग, उपभोग अने वीर्य ए गुणोनी पूर्णता प्रगटे छे; ए नव भावोनी प्राप्ति क्षायिकभावे पर्यायमां थाय छे, तेथी फरी कदी विकार थतो नथी अने ते जीवो समये समये संपूर्ण आनंद अनंतकाळ सुधी भोगवे छे; तेथी चोथा सूत्रमां ए नव भावो जणाव्या छे. तेने नव लब्धि पण कहेवामां आवे छे.

सम्यग्ज्ञाननो उघाड ओछो होवा छतां सम्यग्दर्शन-सम्यक्चारित्रना बळ वडे वीतरागता प्रगटे छे तेथी ते बे शुद्ध पर्यायो प्रगट थया पछी बाकीना सात क्षायिक पर्यायो एक साथे प्रगटे छे; त्यारे सम्यग्ज्ञान पूर्ण थतां केवळज्ञान पण प्रगटे छे. [सूत्र-४]

जीवमां अनादिथी विकार थाय छे पण तेना ज्ञान, दर्शन अने वीर्यगुण सर्वथा नाश पामता नथी, तेनो उघाड ओछा के वधारे अंशे रहे छे; अनादिनुं अज्ञान टाळ्‌या पछी साधक जीवने क्षायोपशमिक सम्यक्त्व होय छे अने तेमने क्रमे क्रमे चारित्र प्रगटे छे ते बधा क्षायोपशमिकभावो छे. [सूत्र-प]

जीव अनेक प्रकारनो विकार करे छे अने तेना परिणामे चतुर्गतिमां रखडे छे; तेमां तेने स्वरूपनी ऊंधी मान्यता, ऊंधुं ज्ञान अने ऊंधुं वर्तन होय छे, अने तेथी तेने कषाय पण थाय छे; वळी सम्यग्ज्ञान थया पछी पूर्णता प्राप्त कर्या पहेलां अंशे कषाय होय छे अने तेथी तेने जुदी जुदी लेश्याओ थाय छे. जीव स्वलक्षने चूकीने परलक्ष करे छे तेथी आ विकारो थाय छे. तेने औदयिकभाव कहेवाय छे. मोहसंबंधी आ भाव ज संसार छे. [सूत्र-६]

सूत्र ७–जीवमां शुद्ध अने अशुद्ध एवा बे प्रकारना पारिणामिकभाव छे. [सूत्र ७ तथा ते नीचेनी टीका]

सूत्र ८–९–जीवनुं लक्षण उपयोग छे. छद्मस्थ जीवनी अनेक दशा होवाथी तेनो ज्ञान-दर्शननो उपयोग ओछो के वधारे होय छे, अने केवळज्ञान प्रगट थतां पूर्ण होय छे. छद्मस्थ जीवोने ज्ञान-दर्शननो उपयोग क्षायोपशमिक भावे छे अने केवळी भगवानने ते उपयोग क्षायिकभावे छे. [सूत्र ८-९]

सूत्र १०–जीवोना संसारी अने मुक्त एवा बे प्रकार छे; तेमां अनादि अज्ञानी संसारी जीवने (औदयिक, क्षायोपशमिक अने पारिणामिक) त्रण भावो होय छे, प्रथम धर्म पामतां (औदयिक, क्षायोपशमिक, औपशमिक अने पारिणामिक) चार भावो थाय छे. क्षायिकसम्यक्त्व पाम्या पछी उपशमश्रेणी मांडनार जीवने ए पांचे


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अ. २. उपसंहार] [ २३३ भावो होय छे अने मुक्त जीवोने क्षायिक तथा पारिणामिक ए बे ज भाव होय छे. [सूत्र-१०]

सूत्र ११– जीवे पोते जे प्रकारना ज्ञान, वीर्यादिना उघाडनी लायकात प्राप्त करी होय ते क्षायोपशमिकभावने अनुकूळ जड मननो सद्भाव के अभाव होय छे; ज्यारे जीव मन तरफ पोतानो उपयोग वाळे छे त्यारे तेने विकार थाय छे, केमके मन परवस्तु छे. ज्यारे जीव पोतानो पुरुषार्थ मन तरफ वाळी ज्ञान के दर्शननो व्यापार करे छे त्यारे द्रव्यमन उपर निमित्तपणानो आरोप आवे छे. द्रव्यमन कांई लाभ- नुकसान करतुं नथी केमके ते परद्रव्य छे. [सूत्र-११]

सूत्र १र थी २०–पोताना क्षायोपशमिक ज्ञानादिना अनुसार अने नामकर्मना उदय अनुसार ज जीव त्रस के स्थावर दशा संसारमां पामे छे; आ रीते क्षायोपशमिकभाव अनुसार जीवनी दशा होय छे. पूर्वे जे नामकर्म बंधायेलुं तेनो उदय थतां त्रस के स्थावरपणानो तेम ज जड इन्द्रियो अने मननो संयोग होय छे. [सूत्र १२ थी १७ तथा १९-२०]

ज्ञानना क्षायोपशमिकभावना लब्ध अने उपयोग एवा बे प्रकार छे. [सूत्र-१८]

सूत्र २१ थी प३–संसारी जीवोने औदयिकभाव थतां जे कर्मो एकक्षेत्रावगाहपणे बंधाय छे तेना उदयनो निमित्त-नैमित्तिकसंबंध जीवना क्षायोपशमिक तथा औदयिकभावनी साथे तेम ज मन, इन्द्रियो, शरीर कर्म, नवा भव माटेना क्षेत्रांतर, आकाशनी श्रेणी, गति, नोकर्मनुं समये समये ग्रहण तेम ज तेनो अभाव, जन्म, योनि तथा आयु साथे केवो होय छे ते बतावेल छे. [सूत्र २१ थी २६ तथा २८ थी प३].

सिद्धदशा थतां जीवने आकाशनी कई श्रेणीनी साथे निमित्त-नैमित्तिकसंबंध छे ते २७ मा सूत्रमां बताव्युं छे. [सूत्र-२७]

आ उपरथी समजी लेवुं के जीवने विकारी अवस्थामां के अविकारी अवस्थामां जे जे पर वस्तुओनी साथे संबंध थाय छे ते ते परवस्तुओने जगतनी बीजी परवस्तुओथी छूटी ओळखवा माटे ते ते समय पूरती तेमने ‘निमित्त’ नाम आपीने संबोधवामां आवे छे; पण तेथी निमित्तनी मुख्यताए कोई पण वखते कार्य थाय छे एम समजवुं नहि. आ अध्यायनुं २७ मुं सूत्र आ सिद्धांत स्पष्टपणे साबित करे छे. मुक्त जीव स्वयं लोकाकाशना अग्रे जवानी लायकात धरावे छे अने त्यारे आकाशनी जे श्रेणीमांथी ते जीव पसार थाय ते श्रेणीने आकाशना बीजा भागोथी तथा जगतना बीजा बधा पदार्थोथी जुदी पाडीने ओळखाववा माटे ‘निमित्त’ एवुं नाम (-आरोप) आपवामां आवे छे.


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२३४ ] [ मोक्षशास्त्र

(७) निमित्त–नैमित्तिकसंबंध

आ संबंध २६-२७ सूत्रमां घणी चमत्कारिक रीते टूंकामां टूंका शब्दोथी कहेवामां आव्यो छे. ते अहीं बताववामां आवे छे-

१. जीवनी सिद्धावस्थाना प्रथम समये ते लोकाग्रे सीधी आकाशश्रेणीए मोडा लीधा सिवाय जाय छे एम सूत्र २६-२७ प्रतिपादन करे छे. जीव जे वखते लोकाग्रे जाय छे ते वखते जे आकाशश्रेणीमांथी जाय छे ते ज क्षेत्रे धर्मास्तिकायना अने अधर्मास्तिकायना प्रदेशो छे, अनेक प्रकारनी पुद्गलवर्गणाओ छे, छूटा परमाणुओ छे, सूक्ष्म स्कंधो छे, कालाणुद्रव्यो छे, महास्कंधना प्रदेशो छे, निगोदना जीवोना तथा तेमनां शरीरना प्रदेशो छे तथा छेवटे (सिद्धशिलाथी उपर) पूर्वे मुक्त थयेला जीवोना केटलाक प्रदेशो छे; ए तमाममांथी पसार थई ते जीव लोकाग्रे जाय छे. तो हवे तेमां ते आकाशश्रेणीने निमित्तपणानो आरोप आव्यो अने बीजाओने न आव्यो तेनुं कारण तपासवुं जोईए; ते तपासमां मालूम पडे छे के ते मुक्त थनार जीव कई आकाशश्रेणीमांथी थईने जाय छे तेनुं ज्ञान कराववा माटे ते आकाशश्रेणीने ‘निमित्त’ संज्ञा आपी, केमके पहेला समयनी सिद्धदशाने आकाश साथेनो संबंध बताववा माटे ते श्रेणीनो भाग ज अनुकूळ छे, पण बीजुं द्रव्य, गुण के पर्याय ते माटे अनुकूळ नथी.

र. सिद्ध भगवानना ते समयना ज्ञानना व्यापारमां आखुं आकाश तथा बीजां तमाम द्रव्यो, तेना गुणो तथा तेना त्रणे काळना पर्यायो ज्ञेय छे तेथी ते ज समये ज्ञान पूरतां ते बधां ज्ञेयो ‘निमित्त’ संज्ञा पामे छे.

३. सिद्ध भगवानना ते समये परिणमनगुणने काळनो ते ज (ते समये वर्ततो) समय ‘निमित्त’ संज्ञा पामे छे, केमके परिणमनमां ते अनुकूळ छे, बीजा अनुकूळ नथी.

४. सिद्ध भगवाननी ते समयनी क्रियावतीशक्तिना गतिपरिणामने तथा ऊर्ध्वगमनस्वभावने धर्मास्तिकायना ते ज आकाशक्षेत्रे रहेला प्रदेशो ते ज समये ‘निमित्त’ संज्ञा पामे छे, केमके गतिमां ते ज अनुकूळ छे, बीजा अनुकूळ नथी.

प. सिद्ध भगवानना ऊर्ध्वगमन समये बीजां द्रव्यो (जे ते आकाशक्षेत्रे छे ते तथा बाकीनां द्रव्यो) पण ‘निमित्त’ संज्ञा पामे छे, केम के ते बधां द्रव्योने जोके सिद्धावस्था साथेनो कांई संबंध नथी तोपण विश्वने सदा टकावी राखे छे एटलुं बताववा माटे ते अनुकूळ निमित्त छे.

६. सिद्ध भगवानने तेमनी संपूर्ण शुद्धता साथे कर्मनो अभाव संबंध छे-एटलुं अनुकूळपणुं बताववा माटे कर्मनो अभाव पण ‘निमित्त’ संज्ञा पामे छे; आ रीते


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अ. २. उपसंहार] [ २३प अस्ति अने नास्ति बन्ने प्रकारे निमित्तपणानो आरोप करवामां आवे छे. पण निमित्तने कोई पण रीते मुख्यपणे के गौणपणे कार्यसाधक मानवुं ते गंभीर भूल छे, शास्त्रनी परिभाषामां तेने मिथ्यात्व अने अज्ञान कहेवामां आवे छे.

७. निमित्त जनक अने नैमित्तिक जन्य छे एम जीव अज्ञानदशामां माने छे, तेथी अज्ञानीओनी केवी मान्यता होय छे ते बताववा माटे निमित्तने जनक अने नैमित्तिकने जन्य व्यवहारे कहेवामां आवे छे पण सम्यग्ज्ञानी जीवो तेम मानता नथी; एमनुं ते ज्ञान साचुं छे एम उपरना पांच पारा बतावे छे, केम के तेमां जणावेलां अनंत निमित्तो के तेमांनुं कोई अंशे पण सिद्धदशानुं जनक थयुं नथी. अने ते निमित्तो के तेमांना कोईना अनंतमा अंशथी पण नैमित्तिक सिद्धदशा जन्य थई नथी.

८. संसारी जीवो जुदी-जुदी गतिना क्षेत्रोए जाय छे ते पण जीवोनी क्रियावती शक्तिना ते ते समयना परिणमनने कारणे जाय छे; तेमां पण उपरना पारा १ थी प मां जणाव्या मुजब निमित्तो होय छे, पण क्षेत्रांतरमां तो धर्मास्तिकायना प्रदेशोना ते समयना पर्याय सिवाय बीजुं कोई द्रव्य, गुण के पर्याय ‘निमित्त’ संज्ञा पामतुं नथी; ते वखते अनेक कर्मोनो उदय होवा छतां एक विहायोगति कर्मनो उदय ज ‘निमित्त’ नाम पामे छे. गत्यानुपूर्वी कर्मना उदयने तो जीवना प्रदेशोना ते समयना आकारनी साथे क्षेत्रांतर वखते निमित्तपणुं छे, अने ज्यारे जीव जे क्षेत्रे स्थिर थई जाय छे ते समये अधर्मास्तिकायना ते क्षेत्रना प्रदेशोनो ते समयनो पर्याय ‘निमित्त’ नाम पामे छे.

सूत्र २प जणावे छे के क्रियावती शक्तिना ते समयना परिणमन वखते योगगुणनो जे पर्याय वर्ते छे तेने कार्मणशरीर निमित्त छे, केम के कार्मणशरीरनो उदय तेने अनुकूळ छे. कार्मणशरीर अने तैजसशरीर पोतानी क्रियावती शक्तिना ते समयना परिणमनना कारणे जाय छे, तेमां धर्मास्तिकाय निमित्त छे.

९. आ शास्त्रमां निमित्तने कोई जग्याए ‘निमित्त’ नामथी ज कहेल छे [जुओ अध्याय १ सूत्र १४] अने कोई जग्याए उपकार, उपग्रह वगेरे नामथी कहेल छे, [जुओ, अध्याय प सूत्र १७-२०]; शास्त्रनी परिभाषामां तेनो एक ज अर्थ थाय छे; पण अज्ञानी जीवो एक वस्तुथी बीजी वस्तुनुं भलुं-भूंडुं थाय छे एम माने छे ते बताववा माटे तेने ‘उपकार, सहायक, बलाधान, बहिरंगसाधन, बहिरंगकारण, निमित्त, निमित्तकारण, ए आदि नामथी संबोधे छे; पण तेथी तेओ खरेखरां कारण के साधन छे एम मानवुं नहि. एक द्रव्यने, तेना गुणने के तेना


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२३६ ] [ मोक्षशास्त्र पर्यायने बीजाथी जुदा पाडी बीजा साथेनो तेनो संबंध बताववा माटे उपर कहेलां नामोथी संबोधवामां आवे छे. इंद्रियोने, धर्मास्तिकायने, अधर्मास्तिकायने वगेरेने बलाधानकारणना नामथी पण ओळखवामां आवे छे, परंतु ते कोई पण खरुं कारण नथी; छतां ‘कोई पण समये तेमनी मुख्यताए कोई कार्य थाय छे’ एम मानवुं ते निमित्तने ज उपादान मानवा बराबर अथवा तो व्यवहारने ज निश्चय मानवा बराबर छे.

१०. उपादानकारणने लायक निमित्त संयोगरूपे ते ते समये अवश्य होय छे, एवो संबंध उपादानकारणनी (अर्थात् उपादाननी) ते समयनी परिणमनशक्तिने, जेना उपर निमित्तपणानो आरोप आवे छे तेनी साथे छे. उपादानने पोताना परिणमन वखते ते ते निमित्तो आववा माटे राह जोवी पडे अने ते न आवे त्यांसुधी उपादान परिणमे नहि-एवी मान्यता उपादान अने निमित्त ए बे द्रव्योने एकरूप मानवा बराबर छे.

११. आ ज प्रमाणे घडानो कुंभार साथेनो अने रोटलीनो अग्नि, रसोया वगेरे साथेनो निमित्त-नैमित्तिकसंबंध जाणी लेवो. सम्यग्ज्ञान प्रगट करवा माटे जीवे पोते पोताना पुरुषार्थथी पात्रता मेळवी होय छतां तेने सम्यग्ज्ञान प्रगटवा माटे सद्गुरुनी राह जोवी पडे-एम बने नहि, पण ते संयोगरूपे होय ज; अने तेथी ज, ज्यारे घणा जीवो धर्म पामवाने तैयार होय त्यारे तीर्थंकर भगवाननो जन्म थाय छे अने तेओ योग्य समये केवळज्ञान पामे छे, तथा तेमनो दिव्यध्वनि स्वयं प्रगटे छे-एम समजी लेवुं.

(८) तात्पर्य

तात्पर्य ए छे के-आ अध्यायमां कहेला पांच भावो अने तेमना बीजां द्रव्योनी साथेना निमित्त-नैमित्तिकसंबंधनुं ज्ञान करीने, बीजा बधा उपरथी लक्ष खेंचीने परमपारिणामिकभाव तरफ पोतानो पर्याय वाळतां सम्यग्दर्शन थाय छे अने पछी तेनुं बळ वधतां सम्यक्चारित्र थाय छे, ते ज धर्ममार्ग (-मोक्षमार्ग) छे.

ए प्रमाणे श्री उमास्वामीविरचित मोक्षशास्त्रना
बीजा अध्यायनी गुजराती टीका पूरी थई.

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मोक्षशास्त्र–गुजराती टीका
अध्याय त्रीजो

भूमिका

आ शास्त्रना पहेला अध्यायना पहेला सूत्रमां ‘सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्रनी एकता ते मोक्षमार्ग छे’ एम कहीने बीजो कोई मोक्षमार्ग नथी एम जणाव्युं; तेथी एमां एम पण जणाव्युं के पुण्यथी-शुभभावथी के परवस्तु अनुकूळ होय तो धर्म थई शके एम मानवुं ते भूल छे. सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र ते आत्माना शुद्ध पर्याय छे. तेने एक शब्दमां कहीए तो ‘सत्य पुरुषार्थ’ ते मोक्षमार्ग छे. आथी सिद्ध थयुं के आत्मानी पोतानी शुद्ध परिणति ते ज धर्म छे; आम जणावीने अनेकांतस्वरूप बताव्युं. ते सूत्रमां पहेलो शब्द ‘सम्यग्दर्शन’ कह्यो छे ते एम सूचवे छे के धर्मनी शरूआत सम्यग्दर्शनथी ज थाय छे. ते अध्यायमां सम्यग्दर्शननुं लक्षण तत्त्वार्थश्रद्धान कह्युं. त्यार पछी ‘तत्त्वार्थ’नुं स्वरूप समजाव्युं अने सम्यग्ज्ञानना अनेक प्रकार कह्या तथा मिथ्याज्ञाननुं स्वरूप पण समजाव्युं. सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्रनी एकता ते एक ज मोक्षमार्ग छे एम पहेला सूत्रमां स्पष्टपणे जणावीने जाहेर कर्युं के-कोई वखते उपादाननी परिणतिनी मुख्यताथी कार्य थाय अने कोईवखते संयोगरूप बाह्य अनुकूळ निमित्तनी (के जेने उपचारकारण कहेवामां आवे छे तेनी) मुख्यताथी कार्य थाय-एवुं अनेकांतनुं स्वरूप नथी.

बीजा अध्यायथी जीवतत्त्वनो अधिकार शरू कर्यो; तेमां जीवना स्वतत्त्वरूप - निजतत्त्वरूप पांच पांच भावो जणाव्या; ते पांच भावोमांथी सकळ निरावरण, अखंड, एक, प्रत्यक्ष प्रतिभासमय, अविनश्वर, शुद्ध पारिणामिक परमभाव (- ज्ञायकभाव) ना आश्रये धर्म थाय छे एम जणाववा माटे, औपशमिक भाव-के जे धर्मनी शरूआत छे तेने पहेला भाव तरीके वर्णव्यो. त्यार पछी जीवनुं लक्षण उपयोग छे एम जणावीने तेना भेदो बताव्या, अने पांच भावोनी साथे परद्रव्यो इन्द्रिय वगेरे-नो केवो संबंध होय छे ते जणाव्युं.

जीवनो औदयिकभाव ते ज संसार छे. अज्ञानदशामां औदयिकभाव होय त्यारे जीवने शुभ अने अशुभ भावो होय छे. शुभभावनुं फळ देवपणुं छे, अशुभ भावनी तीव्रतानुं फळ नारकीपणुं छे, शुभाशुभभावना मिश्रपणानुं फळ मनुष्यपणुं छे अने मायानुं फळ तिर्यंचपणुं छे. जीव अनादिथी अज्ञानी छे तेथी अशुद्धभावोना कारणे


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२३८ ] [ मोक्षशास्त्र तेनुं भ्रमण थया करे छे; ते भ्रमण केवुं होय छे ते त्रीजा अने चोथा अध्यायमां बताव्युं छे; ते भ्रमणमां (-भवोमां) शरीर साथे तेम ज क्षेत्र साथे जीवनो केवा प्रकारनो संयोग होय छे ते अहीं बताववामां आवे छे. मांस, दारू वगेरे भक्षणनो भाव, आकरुं जूठुं, चोरी, कुशील तथा लोभ वगेरेना तीव्र अशुभभावने कारणे जीव नरकगति पामे छे; तेनुं आ अध्यायमां प्रथम वर्णन कर्युं छे अने पछी मनुष्य तथा तिर्यंचना क्षेत्रोनुं वर्णन कर्युं छे.

चोथा अध्यायमां देवगतिने लगती विगतो आपवामां आवी छे. आ बे अध्यायनो सार एवो छे के-जीवना शुभाशुभ विकारी भावोना कारणे जीवने अनादिथी आ परिभ्रमण चाली रह्युं छे, अने तेनुं मूळ कारण मिथ्यादर्शन छे; माटे भव्य जीवोए मिथ्यादर्शन टाळीने सम्यग्दर्शन प्रगट करवुं. सम्यग्दर्शननुं बळ एवुं छे के तेना जोरे क्रमे क्रमे सम्यक्चारित्र वधतुं जाय छे अने चारित्रनी पूर्णता करी आयुष्यना अंते जीव सिद्धगति प्राप्त करे छे. पोतानी भूलना कारणे जीवनी केवी केवी गति थई; ते केवां केवां दुःखो पाम्यो अने बहारना संयोगो केवा तथा केटला काळ सुधी रह्या ते बताववा माटे अध्याय र-३-४ कह्या छे, अने ते भूल टाळवानो उपाय पहेला अध्यायना पहेला सूत्रमां जणाव्यो छे.

–अधोलोकनुं वर्णन–
सात नरक–पृथिवीओ
रत्नशर्करावालुकापङ्कधूमतमोमहातमःप्रभा भूमयो घनाम्बुवाता
काशप्रतिष्ठाः सप्ताऽधोऽधः।। १।।
*
अर्थः– अधोलोकमां रत्नप्रभा, शर्कराप्रभा, वालुकाप्रभा, पंकप्रभा,
धूमप्रभा, तमप्रभा अने महातमप्रभा ए सात भूमिओ छे अने क्रमथी नीचे नीचे
घनोदधिवातवलय, घनवातवलय, तनुवातवलय तथा आकाशनो आधार छे.
टीका

(१) रत्नप्रभा पृथ्वीना त्रण भाग छे-खरभाग, पंकभाग अने अब्बहुलभाग. तेमांथी उपरना पहेला बे भागमां व्यंतर तथा भवनवासीदेव रहे छे अने नीचेना _________________________________________________________________

* आ अध्यायमां भूगोळ संबंधी वर्णन होवाथी, पहेला बे अध्यायोनी माफक सूत्रना शब्दो

छूटा पाडीने अर्थ आपवामां आव्यो नथी पण आखा सूत्रनो सीधो अर्थ आपवामां आव्यो छे.


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अ. ३ सूत्र २ ] [ २३९ अब्बहुलभागमां नारकीओ रहे छे. आ पृथ्वीनो कुल विस्तार एक लाख एंसी हजार योजन छे. [२००० कोसनो एक जोजन गणवो.]

(र) आ पृथ्वीओनां रूढिगत नाम-१. धम्मा, र. वंशा, ३. मेघा, ४.

अंजना, प. अरिष्टा, ६. मघवी अने ७. माघवी छे.

(३) अम्बु (घनोदधि) वातवलय = वराळनुं घट वातावरण.
घनवातवलय = घट हवानुं वातावरण.
तनुवातवलय = पातळी हवानुं वातावरण.
वातवलय = वातावरण.
‘आकाश’ कहेतां अहीं अलोकाकाश समजवुं.
।। ।।
सात पृथिवीओमां बिलोनी संख्या
तासु त्रिंशत्पंचविंशतिपंचदशदशत्रिपंचोनैकनरकशतसहस्त्राणि
पंच चैव यथाक्रमम्।। २।।

अर्थः– ते पृथ्वीओमां क्रमथी पहेलीमां त्रीस लाख, बीजीमां पचीस लाख, त्रीजीमां पंदर लाख, चोथीमां दस लाख, पांचमीमां त्रण लाख, छठ्ठीमां एक लाखमां पांच ओछा (९९९९प) अने सातमीमां पांच ज नरक-बिलो छे. [आ बिलो जमीनमां खाडा करेला ढोलनी पोल समान छे; कुल ८४ लाख नरकवासा (बीलो) छे.]

केटलाक जीवो मनुष्यगति अने तिर्यंचगति ए बे ज गति माने छे केम के तेओ ते प्रकारना ज जीवोने देखे छे; तेमनुं ज्ञान संकुचित होवाथी तेओ एम माने छे के-मनुष्य के तिर्यंचगतिमां तीव्रदुःख ते ज नरकगति छे; बीजी कोई नरकगति तेओ मानता नथी. परंतु तेमनी ते मान्यता खोटी छे केमके मनुष्य अने तिर्यंचगतिथी जुदी एवी नरकगति ते जीवना अशुभभावनुं फळ छे. तेना होवापणानी साबिती नीचे मुजब छे-

नरकगतिनी साबिती

जे जीव महा आकरां भूंडां दुष्कृत्यो करे छे अने पापकार्यो करती वखते सामा जीवोने शुं दुःख थाय छे ते जोवानी पोते धीरज राखतो नथी तथा पोताने सगवड थाय तेवी एक पक्षनी दुष्ट बुद्धिमां एकाग्र थाय छे; ते जीवने तेवा क्रूर परिणामोना फळरूप आंतरा विनाना अनंत अगवडता भोगववानां स्थान अधोलोकमां छे, तेने नरकगति कहेवाय छे.


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२४० ] [ मोक्षशास्त्र

देव, मनुष्य, तिर्यंच अने नरक ए चारे गति सदाय छे; ते कल्पित नथी पण जीवोना परिणामनुं फळ छे. जेणे बीजाने मारी नाखवाना क्रूर भाव कर्या तेना भावमां, पोतानी सगवडता साधवामां वच्चे अगवडता करनार केटला जीवो मारी नाखवा ते संख्यानी हद नथी, तथा केटलो काळ मारवा ते काळनी हद नथी, तेथी तेनुं फळ पण हद विनानुं अनंत दुःख भोगववानुं ज होय, एवुं स्थान ते नरक छे; मनुष्यलोकमां एवुं कोई स्थान नथी.

जे कोई बीजाने मारीने अगवडता टाळवा मागे छे ते जेटला विरोधी जणाय ते बधाने मारवा ईच्छे छे, पछी अगवडता करनारा बे-पांच होय के घणा होय ते बधायनो नाश करवानी भावना सेवे छे; तेना अभिप्रायमां अनंत काळ सुधी अनंत भव करवाना भाव पडया छे; ते भवनी अनंत संख्याना कारणमां अनंत जीव मारवानो-संहार करवानो भाव छे. जे जीवे कारणमां अनंतकाळ सुधी अनंत जीवने मारवाना, अगवडता देवाना भाव सेव्या छे तेना फळमां ते जीवने तीव्र दुःखना संयोगमां जवुं पडे छे अने ते नरकगति छे. लाखो खून करनारने लाखवार फांसी मळे तेवुं आ लोकमां बनतुं नथी तेथी तेने क्रूर भाव प्रमाणे पूरुं फळ मळतुं नथी, तेने तेना भावनुं पूरुं फळ मळवानुं स्थान-घणो काळ अनंत दुःख भोगववानुं क्षेत्र-नरक छे; ते नीचे शाश्वत छे. ।। ।।

नारकीओनां दुःखनुं वर्णन
नारका नित्याशुभतरलेश्यापरिणामदेहवेदनाविक्रियाः।। ३।।

अर्थः– नारकी जीवो हंमेशा ज अत्यंत अशुभ लेश्या, परिणाम, शरीर, वेदना अने विक्रियाने धारण करे छे.

टीका

(१) लेश्या–आ द्रव्यलेश्यानुं स्वरूप छे के जे आयु सुधी रहे छे. शरीरना रंगने अहीं द्रव्यलेश्या कही छे. भावलेश्या अंतर्मुहूर्तमां बदलाय छे तेनुं वर्णन अहीं नथी. अशुभलेश्याना त्रण प्रकार छे. -कापोत, नील अने कृष्ण. पहेली तथा बीजी पृथ्वीमां कोपोत लेश्या, त्रीजी पृथ्वीमां उपरना भागमां कापोत अने नीचेना भागमां नील, चोथीमां नील, पांचमीमां उपरना भागमां नील अने नीचेना भागमां कृष्ण अने छठ्ठी तथा सातमी पृथ्वीमां कृष्णलेश्या होय छे.


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अ. ३ सूत्र ४-प ] [ २४१

(र) परिणाम–अहीं स्पर्श, रस, गंध, वर्ण अने शब्दने ‘परिणाम’ कहेल छे. (३) शरीर–पहेली पृथ्वीमां शरीरनी ऊंचाई ७ धनुष, ३ हाथ अने ६ अंगुल छे. ते हुंडक आकारे छे; त्यारपछी नीचे नीचेनी पृथ्वीना नारकीओनां शरीरनी ऊंचाई क्रमथी बमणी बमणी छे.

(४) वेदना–पहेलेथी चोथी नरक सुधीमां उष्ण वेदना छे; पांचमीमां उपला भागमां उष्ण अने नीचला भागमां शीत छे, तथा छठ्ठी अने सातमी पृथ्वीमां महाशीत वेदन होय छे. नारकीओनुं शरीर वैक्रियिक होवा छतां तेनां शरीरनां वैक्रियिक पुद्गलो मळ, मूत्र, कफ, वमन, सडेल मांस, हाड अने चामडीवाळां औदारिक शरीर करतां पण अत्यंत अशुभ होय छे.

(प) विक्रिया–ते नारकीओने क्रूर सिंह-व्याघ्रादिरूप अनेक प्रकारना रूपो धारण करवारूप विक्रिया होय छे. ।। ।।

नारकीओ एकबीजाने दुःख आपे छे.
परस्परोदीरितदुखाः।। ४।।

अर्थः– नारकी जीवो परस्पर एकबीजाने दुःख उत्पन्न करे छे. (-तेओ कूतरानी माफक परस्पर लडे छे). ।। ।।

विशेष दुःख
संक्लिष्टाऽसुरोदीरितदुःखाश्च प्राक् चतुर्थ्याः।। ५।।
टीका

अर्थः– अने ते नारकीओ चोथी पृथ्वी पहेलां पहेलां (एटले के त्रीजी पृथ्वी पर्यंत), अत्यंत संकिलष्ट परिणामना धारक एवा अंब-अंबरिष आदि जातिना असुरकुमार देवो द्वारा दुःख पामे छे अर्थात् अंब-अंबरिष असुरकुमार देवो त्रीजी नरक सुधी जईने नारकी जीवोने दुःख आपे छे तथा तेमने पूर्वनुं वेर स्मरण करावीने अंदरोअंदर लडावे छे अने दुःखी देखी राजी थाय छे.

सूत्र ३-४-प मां नारकीनां दुःखोनुं वर्णन करतां तेनां शरीर, तेना रंग, स्पर्श वगेरेने तथा बीजा नारकीओ अने देवोने दुःखनां कारणो कह्यां छे, ते उपचारकथन छे; खरेखर ते कोई परपदार्थो दुःखनां कारणो नथी तेम ज तेनो संयोग ते दुःख नथी.


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२४२ ] [ मोक्षशास्त्र परपदार्थो प्रत्येनी जीवनी एकत्वबुद्धि ते ज खरुं दुःख छे. ते दुःख वखते नरक गतिमां निमित्त तरीके बाह्य संयोगो केवा होय तेनुं ज्ञान कराववा माटे आ त्रण सूत्रो कह्यां छे; पण ते शरीरादि दुःखनां खरेखर कारण छे एम समजवुं नहि. ।। ।।

नरकना उत्कृष्ट आयुनुं प्रमाण

तेष्वेकत्रिसप्तदशसप्तदशद्वाविंशतित्रयस्त्रिंशत्सागरोपमा

सत्त्वानां परा स्थितिः।। ६।।

अर्थः– ते नरकोमां नारकी जीवोनी उत्कृष्ट आयुस्थिति क्रमथी पहेलीमां एक सागर, बीजीमां त्रण सागर, त्रीजीमां सात सागर, चोथीमां दस सागर, पांचमीमां सत्तर सागर, छठ्ठीमां बावीस सागर अने सातमीमां तेत्रीस सागर छे.

टीका

(१) नारकीमां भयानक दुःख होवा छतां नारकीओनुं आयुष्य निरुपक्रम होय छे-तेनुं अकाळमृत्यु थतुं नथी.

(र) आयुष्यनो आ काळ वर्तमान मनुष्यना आयुष्यनी अपेक्षाए लांबो लागे, पण जीव अनादिथी छे अने मिथ्याद्रष्टिपणाना कारणे आवुं नारकीपणुं जीवे अनंतवार भोगव्युं छे. अध्याय र, सूत्र १० नी टीकामां द्रव्य, क्षेत्र काळ, भव अने भाव परिभ्रमण (परावर्तन) नुं जे स्वरूप आप्युं छे ते जोतां मालूम पडशे के आ काळ तो महासागरना एक बिंदुमात्र पाणी करतां पण घणो ओछो छे.

(३) नारकीना जीवोने जे भयानक दुःख छे ते खरी रीते जोतां माठां शरीर, वेदना, मारपीट, तीव्रउष्णता, तीव्रशीतता वगेरेना कारणे नथी; पण मिथ्याद्रष्टिपणे ते संयोगो प्रत्ये अनिष्टपणानी खोटी कल्पना करी जीव तीव्र आकुळता करे छे तेनुं दुःख छे. पर संयोगो अनुकूळ-प्रतिकूळ छे ज नहि, पण ते खरी रीते तो जीवना ज्ञानना क्षयोपशमना उपयोग अनुसार ज्ञेय (ज्ञानमां जणावा लायक) पदार्थो छे; ते पदार्थो देखीने ज्यारे अज्ञानी जीव दुःखनी कल्पना करे छे त्यारे परद्रव्यो उपर ‘दुःखमां निमित्त थयां’ एवो आरोप आवे छे.

(४) शरीर गमे तेटलुं खराब होय, खावानुं पण मळतुं न होय, पाणी पीवा मळतुं न होय, तीव्र गरमी के तीव्र ठंडी होय अने बहारना संयोगो (अज्ञानद्रष्टिए) गमे तेवा प्रतिकूळ गणे परंतु ते संयोगो जीवोने सम्यग्दर्शन (धर्म) करवामां बाधक नीवडता नथी, केम के एक द्रव्य बीजा द्रव्यने कदी बाधक नथी. नरकगतिमां पण


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अ. ३ सूत्र ६ ] [ २४३ पहेलेथी सातमी नरक सुधीमां ज्ञानी पुरुषना सत्समागमे पूर्वभवे सांभळेल आत्मस्वरूपना संस्कार ताजा करीने नारकी जीवो सम्यग्दर्शन प्रगट करे छे. त्रीजी नरक सुधीना नारकी जीवोने पूर्व भवनो कोई सम्यग्ज्ञानी मित्र आत्मानुं स्वरूप समजावतां, तेनो उपदेश सांभळी, यथार्थ निर्णय करी, ते जीवो सम्यग्दर्शन प्रगट करे छे.

(प) ए उपरथी सिद्ध थाय छे के, “जीवोने शरीर सारुं होय, खावापीवानुं बराबर मळतुं होय अने बहारना संयोग अनुकूळ होय तो धर्म थई शके अने ते प्रतिकूळ होय तो जीव धर्म न करी शके”- ए मान्यता साची नथी. परने अनुकूळ करवामां प्रथम लक्ष रोकवुं अने ते अनुकूळ थया पछी धर्म समजवो जोईए एवी मान्यता भूलभरेली छे, केम के धर्म पराधीन नथी पण स्वाधीन छे अने स्वाधीनपणे प्रगट करी शकाय छे.

(६) प्रश्नः– जो बाह्यसंयोगो अने कर्मोनो उदय धर्ममां बाधक नथी तो नारकी जीवो चोथा गुणस्थानथी उपर केम जता नथी?

उत्तरः– पूर्वे ते जीवोए पोताना पुरुषार्थनी घणी ऊंधाई करी छे अने वर्तमानमां पोतानी भूमिका अनुसार मंद पुरुषार्थ करे छे तेथी उपर चडतां वार लागे छे.

(७) प्रश्नः– सम्यग्द्रष्टिने नरकमां केवुं दुःख हशे? उत्तरः– नरक के कोई क्षेत्रना कारणे कोई पण जीवने सुख-दुःख थतुं नथी, पोतानी अणसमजणना कारणे दुःख अने पोतानी साची समजणना कारणे सुख थाय छे. परवस्तुना कारणे सुख-दुख के लाभ-नुकशान कोई जीवने छे ज नहि. अज्ञानी नारकी जीवने जे दुःख थाय छे ते पोतानी ऊंधी मान्यतारूप दोषना कारणे थाय छे, बहारना संयोगना कारणे दुःख थतुं नथी. अज्ञानी जीवो परवस्तुने क्यारेक प्रतिकूळ माने छे अने तेथी ते पोतानी अज्ञानताने कारणे दुःखी थाय छे; अने क्य ारेक परवस्तुओ अनुकूळ छे एम मानी सुखनी कल्पना करे छे; तेथी अज्ञानी जीव परद्रव्यो प्रत्ये इष्ट-अनिष्टपणुं सेवे छे.

सम्यग्द्रष्टि नारकी जीवोने अनंत संसारनुं बंधन थाय तेवो कषाय टळ्‌यो छे अने तेथी तेटलुं साचुं सुख तेमने नरकमां पण छे. जेटलो कषाय रह्यो छे तेनुं अल्प दुःख होय छे. पण थोडाक भवमां ते अल्प दुःखनो पण ते नाश करशे. तेओ परने दुःखदायक मानता नथी पण पोतानी असावधानीने दुःखनुं कारण माने छे, तेथी पोतानी असावधानी टाळता जाय छे. असावधानी बे प्रकारनी छे-स्वस्वरूपनी मान्यतानी असावधानी अने स्वस्वरूपना आचरणनी असावधानी. तेमांथी पहेला


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२४४ ] [ मोक्षशास्त्र प्रकारनी असावधानी तो सम्यग्दर्शन थतां टळी छे, अने बीजा प्रकारनी असावधानी छे तेने ते टाळता जाय छे.

(८) सम्यग्दर्शन प्रगट करीने-सम्यग्द्रष्टि थया पछी जीव नरक-आयुष्यनो बंध करतो नथी, पण सम्यग्दर्शन प्रगट कर्या पहेलां ते जीवे नरकनुं आयुष्य बांध्युं होय तो ते पहेली नरकमां जाय छे पण त्यां तेनी अवस्था पारा (७) मां जणाव्या मुजबनी होय छे.

(९) पहेलीथी चोथी नरक सुधीथी नीकळीने मनुष्य थयेला जीवोमांथी लायक जीवो ते भवे मोक्ष प्राप्त करे छे, पांचमी नरकथी नीकळीने मनुष्य थयेला पात्र जीवो साचुं मुनिपणुं धारण करी शके छे, छठ्ठा नरकथी नीकळीने मनुष्य थयेला पात्र जीवो पांचमा गुणस्थान सुधी जई शके छे अने सातमी नरकथी नीकळेला जीवो क्रूर तिर्यंच गतिमां ज जाय छे. आ भेदो जीवोना पुरुषार्थनी तारतम्यताना कारणे पडे छे.

(१०) प्रश्नः– सम्यद्रष्टि जीवोनो अभिप्राय नरकमां जवानो होतो नथी, छतां कोईक सम्यग्द्रष्टि नरकमां जाय छे, तो त्यां तो जडकर्मनुं जोर छे अने जडकर्म जीवने नरकमां लई जाय छे तेथी जवुं पडे छे-आ वात खरी छे के नहि?

उत्तरः– ए वात खरी नथी; एक द्रव्य बीजा द्रव्यने कांई करी शके नहि माटे जडकर्म जीवने नरकमां लई जाय एम बनतुं नथी. सम्यग्द्रष्टि के मिथ्याद्रष्टि कोई जीव नरकमां जवा मागता नथी छतां जे जे जीवो नरकक्षेत्रे जवा लायक होय ते ते जीवो पोतानी क्रियावती शक्तिना परिणमनना कारणे त्यां जाय छे, ते वखते कार्मण अने तैजसशरीर पण तेमनी पोतानी (-पुद्गल परमाणुओनी) क्रियावतीशक्तिना परिणमनना कारणे ते क्षेत्रे जीवनी साथे जाय छे.

वळी अभिप्राय तो श्रद्धागुणनो पर्याय छे अने ईच्छा ते चारित्रगुणनो विकारी पर्याय छे. द्रव्यना दरेक गुणो स्वतंत्र अने असहाय छे, तेथी जीवनी ईच्छा के अभिप्राय गमे ते जातना होवा छतां जीवनी क्रियावतीशक्तिनुं परिणमन तेनाथी (-अभिप्राय अने ईच्छाथी) स्वतंत्रपणे, ते वखतना ते पर्यायना धर्म अनुसार थाय छे. ते क्रियावतीशक्ति एवी छे के जीवने क्या क्षेत्रे लई जवो तेनुं ज्ञान होवानी तेने जरूर नथी. नरकादिमां जनारा ते ते जीवो तेमना आयुष्यपर्यंत ते क्षेत्रना संयोगने लायक होय छे, अने त्यारे ते जीवोना ज्ञाननो उघाड पण ते ते क्षेत्रमां रहेला जीवो तथा पदार्थोने जाणवा लायक होय छे. नरकगतिनो भव पोताना पुरुषार्थना दोषथी बंधायो हतो तेथी योग्य समये तेना फळपणे जीवनी पोतानी लायकातना कारणे