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अ. ३ सूत्र ७-८ ] [ २४प नारकीनुं क्षेत्र संयोगरूपे होय छे; कर्म तेने नरकमां लई जतुं नथी. कर्मना कारणे जीव नरकमां जाय छे एम कहेवुं ते तो मात्र उपचारकथन छे, जीवनो कर्मनी साथेनो निमित्त-नैमित्तिकसंबंध बताववा माटे शास्त्रोमां ते कथन जणाव्युं छे, परंतु खरेखर जडकर्म जीवने नरकमां लई जाय छे एम बताववा माटे ते कह्युं नथी. खरेखर कर्म जीवने नरकमां लई जाय छे एम मानवुं ते मिथ्या छे. (११) सागर काळनुं माप– १ सागर = दस × क्रोड × क्रोड अद्धापल्य. १ अद्धापल्य = एक गोळ खाडो जेनो व्यास (Diameter) १ योजन (=२०००
घेटाना कूणा वाळथी ठांसीठांसीने भर्यो, तेमांथी दर सो वर्षे एक वाळ काढवो. ए
प्रमाणे करतां खाडो खाली थतां जे वखत लागे ते एक व्यवहारकल्प छे, एवा
असंख्यात व्यवहार कल्प=एक उद्धारकल्प. असंख्यात उद्धारकल्प=एक अद्धाकल्प.
आ रीते अधोलोकनुं वर्णन पूरुं थयुं. ।। ६।।
जम्बुद्वीपलवणोदादयः शुभनामानो द्वीपसमुद्राः ।। ७।।
अर्थः– आ मध्यलोकमां सारा सारा नामवाळा जंबुद्वीप वगेरे द्वीपो अने लवणसमुद्र वगेरे समुद्रो छे.
सर्वथी वचमां थाळीना आकारे जंबुद्वीप छे-जेमां आपणे अने श्री सीमंधरप्रभु वगेरे रहीए छीए. त्यारपछी लवणसमुद्र छे. तेनी चारे बाजु धातकीखंड द्वीप छे. तेनी चारे बाजु काळोदधिसमुद्र छे. तेनी चारे बाजु पुष्करवर द्वीप छे अने तेनी चारे बाजु पुष्करवरसमुद्र छे; आवी रीते एकबीजाथी घेरायेला असंख्यात द्वीपसमुद्रो छे, सौथी छेल्लो द्वीप स्वयंभूरमण द्वीप छे अने छेल्लो समुद्र स्वयंभूरमण समुद्र छे. ।। ७।।
अर्थः– प्रत्येक द्वीप-समुद्र बमणा बमणा विस्तारवाळा अने पहेला पहेलाना द्वीप-समुद्रने घेरता, चूडी समान आकारवाळा होय छे. ।। ८।।
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२४६ ] [ मोक्षशास्त्र
अर्थः– ते बधा द्वीप-समुद्रोनी वचमां जंबुद्वीप छे, तेनी नाभि समान सुदर्शन मेरु छे; तथा जंबुद्वीप थाळी समान गोळ छे अने एक लाख योजन तेनो विस्तार छे.
(१) सुदर्शनमेरुनी ऊंचाई एक लाख योजननी छे, तेमांथी ते एक हजार योजन नीचे जमीनमां अने नवाणुं हजार योजन जमीननी उपर छे. ते सिवाय ४० योजननी चूलिका छे. [बधी अकृत्रिम चीजोना मापमां २००० कोसनो योजन लेवामां आवे छे, ते मुजब अहीं लेवो.]
(र) कोई पण गोळ चीजनो परिधि तेना व्यास करतां त्रणगणाथी सहेज वधारे (रर/७) होय छे. जंबुद्वीपनो परिधि ३१६२२७ योजन ३ कोस, १२८ धनुष अने १३।। अंगुलथी कांईक अधिक थाय छे.
(३) आ द्वीपना विदेहक्षेत्रमां आवेल उत्तरकुरु भोगभूमिमां अनादिनिधन पृथ्वीकायरूप अकृत्रिम परिवार सहित जंबुवृक्ष छे तेथी द्वीपनुं नाम जंबुद्वीप छे. ।। ९।।
अर्थः– आ जंबुद्वीपमां भरत, हैमवत, हरि, विदेह, रम्यक, हैरण्यवत अने ऐरावत ए सात क्षेत्र छे.
भरतक्षेत्रमां आपणे रहीए छीए, विदेहक्षेत्रमां श्री सीमंधरादिक वीस विहरमान तीर्थंकर भगवानो विचरे छे. ।। १०।।
अर्थः– ते सात क्षेत्रोना विभाग करनारा पूर्वथी पश्चिम सुधी लांबा १- हिमवत्,
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अ. ३ सूत्र १२ थी १६ ] [ २४७ र-महाहिमवत्, ३-निषध, ४-नील, प-रुकिम अने ६-शिखरिन ए छ वर्षधर- कुलाचल-पर्वत छे. [वर्ष = क्षेत्र]।। ११।।
अर्थः– उपर कहेला पर्वतो क्रमथी १-सुवर्ण, र-चांदी, ३-तावेलुं सोनुं, ४- वैडूर्य (नील) मणि, प-चांदी अने ६-सुवर्ण जेवा रंगना छे. ।। १२।।
अर्थः– आ पर्वतोना तट चित्र-विचित्र मणिओना छे अने उपर, नीचे तथा मध्यमां एकसरखा विस्तारवाळा छे. ।। १३।।
पद्ममहापद्मतिगिञ्छकेशरिमहापुण्डरीकपुण्डरीका ह्रदाम्तेषामुपरि।। १४।।
अर्थः– ए पर्वतोनी उपर क्रमथी १-पद्म, -महापद्म, ३-तिगिञ्छ, ४-केशरि, प-महापुंडरीक अने ६-पुंडरीक नामना सरोवरो छे. ।। १४।।
अर्थः– पहेलुं पद्मसरोवर एक हजार योजन लांबु अने लंबाईथी अर्धुं अर्थात् पांचसो योजन विस्तारवाळुं छे. ।। १प।।
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२४८ ] [ मोक्षशास्त्र
अर्थः– आगळनां सरोवरो तथा तेमांनां कमळ, पहेला सरोवर तथा कमळथी,क्रमे बमणा बमणा विस्तारवाळां छे.
आ बमणा बमणानो क्रम तिगिंच्छ नामना त्रीजा सरोवर सुधी छे. पछी तेनी आगळनां त्रण सरोवरो तथा तेमांनां कमळ दक्षिणनां सरोवर अने कमळो समान विस्तारवाळां छे. ।। १८।।
अर्थः– एक पल्योपमना आयुष्यवाळी अने सामानिक तथा पारिषद जातना देवो सहित श्री, ह्री धृति, कीर्ति, बुद्धि अने लक्ष्मी नामनी देवीओ क्रमथी ए कमळो पर निवास करे छे.
उपर कहेलां कमळोनी कर्णिकाना मध्यभागमां एक कोस लांबुं, अर्धो कोस पहोळुं अने एक कोसथी कांईक ओछुं ऊंचुं सफेद रंगनुं भवन छे तेमां ते देवीओ रहे छे अने ते तळावोमां जे अन्य परिवार कमळ छे ते उपर सामानिक तथा पारिषद देवो रहे छे. ।। १९।।
अर्थः– (भरतमां) गंगा-सिंधु, (हैमवतमां) रोहित-रोहितास्या, (हरिक्षेत्रमां) हरित्-हरिकान्ता, (विदेहमां) सीता-सीतोदा, (रम्यकमां) नारी- नरकान्ता, (हैरण्यवतमां) सुवर्णकूला-रूप्यकूला अने (ऐरावतमां) रक्ता-रक्तोदा ए प्रमाणे जंबुद्वीपनां उपर कहेलां सात क्षेत्रोमां चौद नदीओ वचमां वहे छे.
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अ. ३ सूत्र २९-३०-३१ ] [ २प३
एकद्वित्रिपल्योपमस्थितयो हैमवतकहारिवर्षकदेवकुरवकाः।। २९।।
अर्थः– हैमवतक, हारिवर्षक अने विदेहक्षेत्रमां आवेल देवकुरुना मनुष्यो, तिर्यंचो क्रमथी एक पल्य, बे पल्य अने त्रण पल्यना आयुष्यवाळा होय छे.
ए त्रण क्षेत्रोना मनुष्योनी ऊंचाई अनुक्रमे एक, बे अने त्रण कोसनी होय छे. रंग नील, शुक्ल अने पीत होय छे. ।। र९।।
अर्थः– उत्तरनां क्षेत्रोमां वसता मनुष्यो हैमवतकादिना मनुष्योनी समान आयुष्यवाळा होय छे.
(१) हैरण्यवतक क्षेत्रनी रचना हैमवतकनी समान रम्यक् क्षेत्रनी रचना हरिक्षेत्रनी समान अने विदेहक्षेत्रमां आवेल उत्तरकुरुनी रचना देवकुरु समान छे.
(र) भोगभूमि - एवी रीते उत्तम, मध्यम अने जघन्यरूप त्रण भोगभूमिनां बब्बे क्षेत्रो छे. जंबुद्वीपमां छ भोगभूमिओ अने अढी द्वीपमां कुल त्रीस भोगभूमिओ छे. जेमां सर्व प्रकारनी सामग्री कल्पवृक्षोमांथी प्राप्त थाय छे तेने भोगभूमि कहेवाय छ. ।। ३।।
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२प४ ] [ मोक्षशास्त्र
भरतस्य विष्कंमो जम्बूदीपस्य नवतिशतभागः।। ३२।।
र४ मा सूत्रमां भरतक्षेत्रनो विस्तार बताव्यो छे, तेमां अने आमां कांई फेर नथी, मात्र कथननो प्रकार जुदो छे. जो एक लाखना एकसो नेवुं हिस्सा करीए तो दरेक हिस्सानुं प्रमाण पर६_6-!-(योजन थाय छे. [ जुओ, सूत्र ९ ]. ।। ३र।।
अर्थः– धातकीखंड नामना बीजा द्वीपमां क्षेत्र, कुलाचल, मेरु, नदी वगेरे बधा पदार्थोनी रचना जंबुद्वीपथी बमणी बमणी छे.
धातकीखंड लवण समुद्रने धेरे छे अर्थात् लवण समुद्रने फरतो छे, तेनो विस्तार चार लाख योजन छे. तेना उत्तरकुरु प्रांतमां धातकी (आंबळा) नां वृक्षो छे, तेथी तेने धातकीखंड कहेवाय छे. ।। ३३।।
पुष्करद्वीपना विस्तार १६ लाख योजन छे, तेनी वचमां चूडीना आकारे मानुषोत्तर पर्वत पडेलो छे, जेथी ते द्वीपना बे हिस्सा थई जाय छे. पूर्वार्धमां बधी रचना धातकीखंड समान छे अने जंबुद्वीपथी बमणी छे. आ द्वीपनो उत्तरकुरु प्रांतमां एक पुष्कर (कमळ) छे, तेथी तेने पुष्करद्वीप कहेवाय छे. ।। ३४।।
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अ. ३ सूत्र ३प-३६ ] [ २पप
अर्थः– मानुषोत्तर पर्वत सुधी एटले के अढीद्वीपमां ज मनुष्यो होय छे - मानुषोत्तर पर्वतथी आगळ ऋद्धिधारी मुनीश्वर के विधाधरो पण जई शकता नथी.
(१) जंबुद्वीप, लवणसमुद्र, धातकीखंड, कालोदधि अने पुष्करार्द्ध - ए क्षेत्र अढी द्वीप छे, तेनो विस्तार ४प लाख योजन छे.
(र) केवळ समुद्घात अने मारणांतिक समुद्घातना प्रसंग सिवाय मनुष्यना आत्मप्रदेशो अढी द्वीप बहार जई शके नहि.
(३) आगळ चालतां आठमो नंदीश्वरद्वीप छे, तेमां चार दिशामां चार अंजनगिरि पर्वत, सोळ दधिमुख पर्वत अने बत्रीस रतिकर पर्वत छे. ते उपर मध्यभागमां जिनमंदिरो छे. नंदीश्वरद्वीपमां एवां बावन जिनमंदिरो छे. बारमो कुंडलवरद्वीप छे. तेमां चार दिशानां मळीने चार जिनमंदिरो छे. तेरमो रुचकवर नामनो द्वीप छे. तेनी वचमां रुचक नामनो पर्वत छे, ते पर्वत उपर चारे दिशामां थईने चार जिनमंदिरो छे; त्यां देवो जिनपूजन माटे जाय छे; ए पर्वत उपर अनेक कूट छे. तेमां अनेक देवीना निवास छे; ते देवीओ तीर्थंकरप्रभुना गर्भ अने जन्मकल्याणकमां प्रभुना मातानी अनेक प्रकारनी सेवा करे छे. ।। ३प।।
ऋद्धिप्राप्तआर्य = जे आर्यजीवोने विशेष शक्ति प्राप्त होय ते.
अनृद्धिप्राप्तआर्य = जे आर्यजीवोने विशेष शक्ति प्राप्त न होय ते.
(र) ऋद्धिप्राप्तआर्यना आठ प्रकार छे - १ - बुद्धि, र-क्रिया, ३-विक्रिया, ४-तप, प-बळ, ६-औषध, ७-रस, अने ८-क्षेत्र. आ आठ ऋद्धिओनुं स्वरूप कहेवाय छे.
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२प६ ] [ मोक्षशास्त्र
(३) बुद्धिऋद्धि– बुद्धिऋद्धिना अढार प्रकार छे -१-केवळज्ञान, र-अवधिज्ञान, ३-मनःपर्ययज्ञान, ४-बीजबुद्धि, प-कोष्टबुद्धि, ६-पदानुसारिणी, ७-संभिन्नश्रोतृत्व, ८-दूरास्वादनसमर्थनता, ९-दूरदर्शनसमर्थता, १०-दूरस्पर्शनसमर्थता, ११- दूरध्राणसमर्थता, १२-दूरश्रोतृसमर्थता, १र-दशपूर्वित्व, १४-चतुर्दशपूर्वित्व, १प- अष्टांगनिमित्तता, १६-प्रज्ञाश्रमणत्व १७-प्रत्येकबुद्धता अने १८- वादित्व. तेमनुं स्वरूप नीचे मुजब छेः-
१–३. केवळज्ञान–अवधिज्ञान–मनःपर्ययज्ञान–आ त्रणेनुं स्वरूप अध्याय १, सूत्र र१ थी रप तथा र७ थी ३० सुधीमां आवी गयुं छे.
४. बीजबुद्धि– एक बीजपदने (मूळपदने) ग्रहण करवाथी अनेक पद अने अनेक अर्थनुं जाणवुं ते बीजबुद्धि छे.
प. कोष्टबुद्धि– जेम कोठारमां नाखेल धान्य, बीज वगेरे घणा काळ सुधी जेमनां तेम रहे, वधे घटे नहि, परस्पर मळे नहि तेम परना उपदेशथी ग्रहण करेल घणा शब्दो, अर्थ, बीज जे बुद्धिमां जेम ने तेम रहे - एक अक्षर तथा अर्थ घटे वधे नहि, आगळ-पाछळ अक्षर थाय नहि ते कोष्टबुद्धि छे.
६. पदानुसारिणीबुद्धि–ग्रंथनी शरूआत, मध्य अगर अंतनुं एक पदनुं श्रवण करी समस्त ग्रंथ तथा तेना अर्थनो निश्चय करवो ते पदानुसारिणीबुद्धि छे.
७. संभिन्नश्रोतृत्वबुद्धि– चक्रवर्तीनी छावणी बार योजन लांबी अने नव योजन पहोळी पडी होय छे, तेमां हाथी, घोडा, ऊंट, मनुष्यादिना जुदाजुदा प्रकारना अक्षर- अनक्षरात्मक शब्दो एक वखते युगपत् ऊपजे छे; तेने तपविशेषना कारणे (आत्माना बधा प्रदेशोए श्रोत्रेन्द्रियावरणकर्मनो क्षयोमशम थतां) एक काळे जुदा जुदा श्रवण करे (सांभळे) ते संभिन्नश्रोतृत्वबुद्धि छे.
८. दूरास्वादनसमर्थताबुद्धि – तपविशेषता कारणे (प्रगट थता असाधारण रसनेन्द्रिय श्रुतज्ञानावरण, वीर्यांतरायना क्षयोपशम अने अंगोपांगनामकर्मना उदयथी) मुनिने रसनो जे विषय नव योजन प्रमाण होय, तेना रसास्वादनुं (रसने जाणवानुं) सामर्थ्य होय ते दूरास्वादनसमर्थता-बुद्धि छे.
९–१र. दूरदर्शन–स्पर्शन–घ्राण–श्रोतृसमर्थताबुद्धिः– उपर मुजब चक्षुरिन्द्रिय, स्पर्शनेन्द्रिय, घ्राणेन्द्रिय अने श्रोत्रेन्द्रियना विषयना क्षेत्रथी बहार घणां क्षेत्रनां रूप, स्पर्श, गंध अने शब्दने जाणवानुं सामर्थ्य होवुं ते. ते ते नामनी चार प्रकारनी बुद्धि छे.
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अ. ३ सूत्र ३६ ] [ २प७
१३. दशपूर्वित्वबुद्धि– महारोहिणी वगेरे विद्यादेवता त्रण वार आवे अने दरेक पोतपोतानुं, स्वरूपसामर्थ्य प्रगट करे एवी वेगवान विद्यादेवताना लोभादिथी जेनुं चारित्र चलायमान न थाय ते दशपूर्वित्वबुद्धि छे.
१४. चतुर्दशपूर्वीत्वबुद्धि– संपूर्ण श्रुतकेवळीपणुं होवुं ते चतुर्दशपूर्वित्वबुद्धि छे. १प. अष्टांगनिमित्तताबुद्धि– अंतरिक्ष, भोम, अंग, स्वर, व्यंजन, लक्षण, छिन्न अने स्वप्न ए आठ प्रकारनुं निमित्तज्ञान छे, तेनुं स्वरूप नीचे मुजब छे.
सूर्य चंद्र नक्षत्रना उदय-अस्तादिक देखी अतीत-अनागत फळनुं जाणवुं ते अंतरिक्षनिमित्तज्ञान छे-१. पृथ्वीनी कठोरता, कोमळता, चीकाश के लूखाश देखी, विचार करी अगर पूर्वादिक दिशामां सूत्र पडतां देखी हानि-वृद्धि, जय-पराजय वगेरे जाणवुं तथा भूमिमां रहेलां सुवर्ण, रूपुं वगेरेनुं प्रगट जाणवुं ते भोमनिमित्तज्ञान छे-र. अंग उपांगादिना दर्शन-स्पर्शनादिथी त्रिकाळभावी सुख- दुःखादि जाणवुं ते अंगनिमित्तज्ञान छे-३. अक्षर-अनक्षररूप तथा शुभ-अशुभने सांभळी ईष्टानिष्ट फळनुं जाणवुं ते स्वरनिमित्तज्ञान छे-४. मस्तक, मुख, डोक वगेरे ठेकाणे तल, मुसल, लाख ईत्यादि लक्षण देखीने त्रिकाळ संबंधी हित-अहितनुं जाणवुं ते व्यंजन निमित्तज्ञान छे. -प. शरीर उपर श्रीवृक्ष, स्वस्तिक, कलश वगेरे चिह्न देखीने त्रिकाळ संबंधी पुरुषनां स्थान, मान, ऐश्वर्यादिक विषयोनुं जाणवुं ते लक्षणनिमित्तज्ञान छे-६. वस्त्र-शस्त्र-आसन-शयनादिकथी, देव-मनुष्य-राक्षसादिथी तथा शस्त्र-कंटकादिथी छेदाय तेने देखीने त्रिकालसंबंधी लाभ-अलाभ, सुख-दुःखनुं जाणवुं ते छिन्ननिमित्त ज्ञान छे-७. वात, पित्त, श्लेष्म रहित पुरुषने मुखमां पाछली रात्रे चंद्रमां, सूर्य पृथ्वी, पर्वत के समुद्रनुं प्रवेशादि थवुं - एवुं स्वप्न ते शुभस्वप्न छे, घी-तेलथी पोतानो देह लेपायेल अने गधेडा-ऊंट उपर चढी दक्षिण दिशामां गमन ईत्यादि करे-एवुं स्वप्न ते अशुभ स्वप्न छे, तेना दर्शनथी आगामी काळमां जीवन-मरण, सुख-दुःखादिनुं ज्ञान थवुं ते स्वप्ननिमित्तज्ञान छे. आ आठ प्रकारना निमित्त-ज्ञानना जे ज्ञाता होय तेने अष्टांगनिमित्तबुद्धिऋद्धि छे.
१६. प्रज्ञाश्रमणत्वबुद्धि– कोई अति सूक्ष्म अर्थना स्वरूपनो विचार जेवो होय तेवो चौद पूर्वधर ज निरूपण करी शके, अन्य न करी शके; एवा सूक्ष्म अर्थने जे संदेह रहित निरूपण करे एवी प्रकृष्ट श्रुतज्ञानावरण अने वीर्यांतरायना क्षयोपशमथी प्रगट थयेली प्रज्ञाशक्ति ते प्रज्ञाश्रमणत्वबुद्धि छे.
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२प८ ] [ मोक्षशास्त्र
१७. प्रत्येकबुद्धिताबुद्धि–परना उपदेश विना जे पोतानी शक्तिविशेषथी ज्ञान-संयमना विधानमां निपुण होय ते प्रत्येकबुद्धताबुद्धि छे.
१८. वादित्वबुद्धि–इन्द्र वगेरे आवीने वाद करे तेने निरुत्तर करी दे, पोते रोकाय नहि अने सामा वादीना छिद्रने जाणी ले एवी शक्ति ते वादित्वबुद्धि छे.
ए प्रमाणे आठ ऋद्धिओमांथी पहेली बुद्धिऋद्धिना अढार प्रकार छे. आ बुद्धिऋद्धि सम्यग्ज्ञाननो महान महिमा जणावे छे.
कियाऋद्धि बे प्रकारनी छे- १. आकाशगामित्व अने र. चारण. १. चारणऋद्धि अनेक प्रकारनी छे. जळ उपर पग मूकतां उपाडतां जळकायिक जीवोने बाधा न ऊपजे ते जलचारणऋद्धि छे. भूमिथी चार आंगळ ऊंचा आकाशमां शीध्रताथी सेंकडो योजन गमन करवामां समर्थता ते जंघाचरणऋद्धि छे. तेम ज तंतु-चारण, पुष्पचारण, पत्रचारण, श्रेणीचारण, अग्निशिखाचारण ईत्यादि चारणऋद्धि छे. पुष्प, फळ वगेरे उपर गमन करवाथी ते पुष्प, फळ वगेरेना जीवोने बाधा न थाय ते समस्त चारणऋद्धि छे.
२. आकाशगामित्वविक्रियाऋद्धि– पर्यंकआसने बेसी वा कायोत्सर्ग आसन करी, पगने उपाडया-मेल्या वगर आकाशमां गमन करवामां कुशळ होय ते आकाश- गामित्वक्रियाऋद्धिना धारक छे.
विक्रियाऋद्धिना अनेक प्रकारो छे. १. अणिमा, २. महिमा, ३. लघिमा, ४. गरिमा, प. प्राप्ति, ६. प्राकाम्य, ७. इशित्व, ८. वशित्व, ९. अप्रतिघात, १०. अंतर्धान, ११. कामरूपित्व वगेरे अनेक छे. तेनुं स्वरूप नीचे प्रमाणे छे. -
अणुमात्र शरीर करवानुं सामर्थ्य ते अणिमाऋद्धि छे, ते कमळना छिद्रमां प्रवेश करी त्यां बेसी चक्रवर्तीनी विभूति रचे-१. मेरुथी पण महान शरीर करवानुं सामर्थ्य ते महिमाऋद्धि -२. पवनथी पण हलकुं शरीर करवानुं सामर्थ्य ते लघिमाऋद्धि-३. वज्रथी पण अति भारे शरीर करवानुं सामर्थ्य ते गरिमाऋद्धि-४. भूमिमां बेसी आंगळीने अग्र करी मेरुपर्वतना शिखर तथा सूर्य-विमानादिने स्पर्शन करवानुं सामर्थ्य ते प्राप्तिऋद्धि-प. जळमां जमीनने उन्मज्जन (उपर लाववी) तेम ज निमज्जन (बुडाडवी) एवुं सामर्थ्य ते प्राकाम्यऋद्धि-६. त्रिलोकनुं प्रभुपणुं रचवानुं सामर्थ्य ते इशित्वऋद्धि-७. देव, दानव, मनुष्य वगेरेने वशीकरण करवानुं सामर्थ्य ते वशित्वऋद्धि.
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अ. ३ सूत्र ३६ ] [ २प९ ८. पर्वतादिकनी अंदर आकाशनी जेम गमन-आगमननुं सामर्थ्य ते तिघातऋद्धि- ९. अद्रश्य होवानुं सामर्थ्य ते अंतर्धानऋद्धि-१०. युगपत् अनेक आकाररूप शरीर करवानुं सामर्थ्य ते कामरूपित्वऋद्धि-११. आ वगेरे अनेक प्रकारनी विक्रियाऋद्धि छे.
नोंधः– अहीं निमित्त-नैमित्तिकसंबंध समजाव्यो छे, परंतु जीव शरीरनुं के बीजा कोई द्रव्यनुं कांई करे छे एम न समजवुं. एक द्रव्य बीजा द्रव्यने कांई करी शके नहि. शरीरादि परद्रव्यनी ज्यारे तेवा प्रकारनी अवस्था थवा लायक होय त्यारे जीवना भाव तेने अनुकूळ जीवना कारणे होय - एटलो निमित्त-नैमित्तिकसंबंध अहीं बताव्यो छे -एम समजवुं.
तपऋद्धि सात प्रकारनी छे-१. उग्रतप, र. दीप्तितप, ३. निहारतप, ४. महानतप, प. धोरतप, ६. धोरपराक्रमतप अने ७. धोर ब्रद्मचर्यतप. तेनुं स्वरूप नीचे मुजब छे-
एक उपवास, बे-त्रण-चार-पांच वगेरे उपवास निमित्ते कोई योगनो आरंभ थयो तो मरणपर्यंत ते उपवासथी ओछा दिवसे पारणुं न करे, कोई कारणथी अधिक उपवास थई जाय तो मरणपर्यंत तेनाथी ओछा उपवास करी पारणुं न करे-आवुं सामर्थ्य प्रगट होवुं ते उग्रतपऋद्धि-१. महान उपवासादिक करतां मन-वचन-कायनुं बळ वधतुं ज रहे, मुख दुर्गंधरहित रहे, कमळादिकनी सुगंध जेवो सुगंधी श्वास नीकळे अने शरीरनी महान दीप्ति प्रगट थाय ते दीप्तितपऋद्धि-र. तपेली लोढानी कडाईमां पडतां पाणीनां टीपां जेम सुकाई जाय तेम आहार पची जाय, सुकाई जाय अने मळ, रुधिरादिरूप न परिणमे, तेथी निहार न थाय आवुं होवुं ते निहारतपऋद्धि ३. सिंहक्रीडितादि महान तप करवामां तत्पर होवुं ते महानतपऋद्धि ४. वात, पित्त, श्लेष्म वगेरेथी ऊपजेल ज्वर, उधरस, श्वास, शूळ, कोढ, प्रमेहादिक अनेक प्रकारना रोगवाळुं शरीर होवा छतां पण अनशन, कायकलेशादि छूटे नहि अने भयानक स्मशान, पर्वतनुं शिखर, गुफा, खंडियेर, उज्जड गाम वगेरेमां दुष्ट राक्षस, पिशाचादि प्रवर्ते अने माठा विकार धारण करे तथा शियाळनां कठोर रुदन, सिंह-वाघ वगेरे दुष्ट जीवोना भयानक शब्द ज्यां निरंतर प्रवर्ते एवा भयंकर स्थानमां पण निर्भय थई वसे ते धोरतपऋद्धि-प. पूर्वे कह्युं तेवुं रोगसहित शरीर होवा छतां अति भयंकर स्थानमां वसीने योग (स्वरूपनी एकाग्रता) वधारवानी तत्परता होवी ते धोरपराक्रमतपऋद्धि-६. घणा काळथी ब्रह्यचर्यना धारक मुनिने अतिशय चारित्रना जोरथी (मोहनीयकर्मनो क्षयोपशम थतां) खोटां स्वप्नांओनो नाश थवो ते धोरब्रह्यचर्यतपऋद्धि छे-७. आ प्रमाणे सात प्रकारनी तपऋद्धि छे.
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२६० ] [ मोक्षशास्त्र
नोंधः– सम्यग्दर्शन-ज्ञानपूर्वक चारित्रधारी जीवनो केवो उग्र पुरुषार्थ होय छे ते अहीं बताव्युं छे. तपऋद्धिना पांचमा अने छठ्ठा भेदोमां अनेक प्रकारना रोगवाळुं शरीर कह्युं छे ते उपरथी एम सिद्ध थाय छे के-शरीर परवस्तु छे, ते गमे तेवुं खराब होय तोपण आत्माने सत्य पुरुषार्थ करवामां ते बाधक थतुं नथी.‘शरीर सारुं होय अने बहारनी सगवडता होय तो धर्म थई शके’ ए मान्यता खोटी छे एम सिद्ध थाय छे.
बळऋद्धिना त्रण प्रकार छे-१. मनोबळऋद्धि, र. वचनबळऋद्धि अने ३. कायबळऋद्धि. तेनुं स्वरूप नीचे प्रमाणे छे -प्रकर्ष पुरुषार्थथी मनःश्रुतज्ञानावरण अने वीर्यांतरायनो क्षयोपशम थतां अंतर्मुहूर्तमां संपूर्ण श्रुत अर्थना चिंतवननुं सामर्थ्य ते मनोबळऋद्धि-१. अतिशय पुरुषार्थथी मन-इंद्रियश्रुतावरण तथा जिव्हाश्रुतज्ञानावरण अने वीर्यांतरायनो क्षयोपशम थतां अंतर्मुहूर्तमां सकळश्रुतनुं उच्चारण करवानुं सामर्थ्य होवुं तथा निरंतर उच्चस्वरथी बोलतां खेद ऊपजे नहि, कंठ के स्वरभंग थाय नही ते वचनबळऋद्धि-र. वीर्यांतरायना क्षयोपशमथी असाधारण कायबळ प्रगटे अने एक मास, चार मास के बार मास प्रतिमायोग धारण करतां खेदरूप न थाय ते कायबळऋद्धि -३.
ओषध ऋद्धि आठ प्रकारनी छेः– १. आमर्ष, र. क्षेल, ३. जळ, ४. मळ, प. विट, ६. सर्व, ७. आस्याविष अने ८. द्रष्टिविष. तेनुं स्वरूप नीचे प्रमाणे छे. -
असाध्य रोग होय तोपण जेना हाथ-चरणादिनो स्पर्श थतां ज सर्व रोग जाय ते आमर्षऔषधऋद्धि-१. जेनां थूंक, लाळ, कफादिनो स्पर्श थतां ज रोग मटी जाय ते क्षेल औषधऋद्धि-र. जेना देहना परसेवानो स्पर्श थतां ज रोग मटी जाय ते जळऔषधऋद्धि छे-३. जेनां कान, दांत नाक अने नेत्रनो मळ ज सर्वरोगनुं निराकरण करवामां समर्थ होय ते मळऔषधिऋद्धि-४. जेनो वीट-झाडो तथा मूत्र ज औषधरूप होय ते वीटऔषधऋद्धि-प. जेना अंग-उपांग, नख, दांत, केशादिकनो स्पर्श थतां ज समस्त रोगने हरे ते सर्वौषधऋद्धि-६. तीव्र झेरमां मळेलो आहार पण जेना मुखमां जतां झेर रहित थई जाय तथा विषथी व्याप्त जीवनुं झेर जेना वचनथी ज उतरी जाय ते आस्यविषऔषधऋद्धि. ७-जेने देखवाथी महान विषधारी जीवनुं विष जतुं रहे तथा कोईने झेर चडयुं होय तो ते उतरी जाय-एवी ऋद्धि ते द्रष्टिविषऋद्धि छे- ८. आ प्रमाणे आठ प्रकारनी ओषधऋद्धि छे.
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अ. ३ सूत्र ३६ ] [ २६१
रसऋद्धिना छ प्रकार छे-१. आस्यविष, र. द्रष्टिविष, ३. क्षीर, ४. मधुस्रावी, प.घृतस्रावी अने ६. अमृतस्रावी. तेनुं स्वरूप नीचे प्रमाणे छे-
प्रकृष्ट तपवाळा योगी कदाचित् क्रोधी थई कहे के ‘तुं मरी जा,’ तो तत्काळ विष चडीने मरी जाय ते आस्यविषरसऋद्धि-१. कदाचित् क्रोधरूपी द्रष्टि देखी मरी जाय ते द्रष्टिविषरसऋद्धि-र. वीतरागी मुनिने एवुं सामर्थ्य होय के तेओ क्रोधादिकने प्राप्तन थाय अने तेमना हाथमां आवेल विरसभोजन क्षीररसरूपे थई जाय तथा जेनुं वचन दुर्बलने क्षीरनी जेम पुष्ट करे ते क्षीररसऋद्धि-३. उपरना प्रसंगमां ते भोजन मिष्टरसरूपे परिणमी जाय ते मधुस्रावीरसऋद्धि-४. तेम ज ते भोजनघृतरसरूपे परिणमी जाय ते ऋद्धि घृतस्त्रावीरसऋद्धि-प. तेम ज ते भोजन अमृतरसरूपे परिणमी जाय ते अमृतस्रावीरसऋद्धि-६. आ प्रमाणे छ प्रकारनी रसऋद्धि छे.
क्षेत्रऋद्धि बे प्रकारनी छे-१. अक्षीणमहान अने र. अक्षीणमहालय. तेनुं स्वरूप नीचे प्रमाणे छेः-
लाभांतरायना प्रकृष्ट क्षयोपशमथी अति संयमवान मुनिने जे भोजनमांथी भोजन आपे ते भोजनमांथी चक्रवर्तीनुं समस्त सैन्य भोजन करे तोपण ते दिवसे भोजनसामग्री न घटे ते अक्षीणमहानक्षेत्रऋद्धि-१. ऋद्धिसहित मुनि जे स्थानमां बेसे त्यां देव, राजा, मनुष्यादिक घणा आवीने बेसे तो पण क्षेत्र सांकडुं न पडे, परस्पर बाधा न थाय ते अक्षीणमहालयक्षेत्रऋद्धि छे. आ प्रमाणे बे प्रकारनी क्षेत्रऋद्धिछे.
आ रीते, पहेलां आर्य अने म्लेच्छ एवा मनुष्यना बे भेद पाडया हता, तेमांथी आर्यना ऋद्धिप्राप्त अने अनृद्धिप्राप्त एवा बे भेद पाडया हता. तेमांथी ऋद्धिप्राप्तआर्योनी ऋद्धिनाःभेदोनुं स्वरूप कह्युं; हवे अनृद्धिप्राप्त आर्योना भेद कहेवामां आवे छे.
अनृद्धिप्राप्त आर्यना पांच प्रकार छे-१. क्षेत्रआर्य, र. जातिआर्य, ३. कर्मआर्य, ४. चारित्रआर्य अने प. दर्शनआर्य. तेनुं स्वरूप नीचे प्रमाणे छे-
र. जातिआर्यः– जे मनुष्यो ईक्ष्वाकुवंश, भोजवंशादिकमां जन्मे ते जातिआर्य छे.
३. कर्मआर्यः– तेना त्रण प्रकार छे-सावद्यकर्म आर्य, अल्पसावद्यकर्मआर्य
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२६२ ] [ मोक्षशास्त्र अने असावद्यकर्मआर्य. तेमांथी सावद्यकर्मआर्यना छ प्रकार छे- असि, मसि, कृषि, विद्या, शिल्प अने वाणिजय.
जे तरवार वगेरे आयुध धारण करी आजीविका करे ते असिकर्मआर्य. जे द्रव्यनी आवक तथा खर्च लखवामां निपुण होय ते मसिकर्मआर्य. जे हळ, दांतला वगेरे खेतीनां साधनो वडे खेती करी आजीविकामां प्रवीण होय ते कृषिकर्मआर्य. आलेख्य. गणितादि बोंतेर कळामां प्रवीण होय ते विद्याकर्म आर्य. धोबी, हजाम, कुंभार, लुहार, सोनी वगेरे कार्यमां प्रवीण होय ते शिल्पकर्म आर्य छे. चंदनादि गंध, घी वगेरे रस. धान्य, कपास, वस्त्र, मोती-माणेक वगेरे अनेक प्रकारनी वस्तुओनो संग्रह करी वेपार करे ते वाणिज्यकर्म आर्य.
आ छए प्रकारनां कर्म जीवने अविरतदशामां (पहेलेथी चोथा गुणस्थान सुधी) होय छे तेथी ते सावद्यकर्म आर्य छे.
विरताविरत परिणत जे श्रावक (पांचमा गुणस्थानवर्ती) ते अल्पसावद्यकर्मआर्य छे.
जे सकलसंयमी साधु ते असावद्यकर्म आर्य छे. (असावद्यकर्मआर्य अने चारित्रआर्य वच्चे शुं भेद छे ते बताववामां आवशे.)
४. चारित्रआर्य–तेना बे प्रकार छे - अभिगतचारित्रआर्य अने अनभिगतचारित्रआर्य.
उपदेश वगर ज चारित्रमोहना उपशम के क्षयथी, आत्मानी उज्ज्वळतारूप चारित्रपरिणामने धारण करे एवा उपशांतकषाय अने क्षीणकषाय गुणस्थानधारक मुनि ते अभिगतचारित्रआर्य छे. अने अंतरंगमां चारित्रमोहना क्षयोपशमथी तथा बाह्यथी उपदेशना निमित्तथी संयमरूप परिणाम धारे ते अनभिगतचारित्रआर्य छे.
असावद्यआर्य अने चारित्रआर्य ए बन्ने साधुओ ज होय, पण ते साधु ज्यारे पुण्यकर्मनो बंध करे छे त्यारे (-छठ्ठा गुणस्थाने) तेमने असावद्यआर्य कहेवाय छे अने ज्यारे कर्मनी निर्जरा करे छे त्यारे (-छठ्ठा गुणस्थाननी उपर) तेमने चारित्रआर्य कहेवाय छे.
प. दर्शनआर्यः– तेना दश प्रकार छे-आज्ञा, मार्ग, उपदेश, सूत्र, बीज, संक्षेप, विस्तार, अर्थ, अवगाढ अने परमावगाढ. [आ दस भेदो संबंधी विशेष खुलासो मोक्षमार्ग प्रकाशक - गुजराती पानुं ३३३ मांथी जाणी लेवो.]
आ प्रमाणे अनृद्धिप्राप्त आर्यना भेदोनुं स्वरूप कह्युं. ए रीते आर्य मनुष्योनुं वर्णन पूरुं थयुं. हवे म्लेच्छ मनुष्योनुं वर्णन करवामां आवे छे.
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अ. ३ सूत्र ३७ ] [ २६३
म्लेच्छ मनुष्यो बे प्रकारना छे-कर्मभूमिज अने अन्तर्द्वीपज. (१) पांच भरतना पांच खंड, पांच ऐरावतना पांच खंड अने विदेहना आठसो खंड एम (रप + रप + ८००) आठसो पचास म्लेच्छ क्षेत्रो छे; तेमां जन्मेला मनुष्यो कर्मभूमिज छे; (र) लवणसमुद्रमां अडतालीस द्वीप तथा काळोदधिसमुद्रमां अडतालीस द्वीप ए बन्ने मळी छन्नुं द्वीपमां कुभोगभूमिया मनुष्यो छे तेने अन्तर्द्वीपज म्लेच्छ कहेवाय छे. ते अंतर्द्वीपज म्लेच्छ मनुष्योना चहेरा विचित्र प्रकारना होय छे; तेमने माणसनुं शरीर (धड) अने ते उपर हाथी, रींछ, माछलां, वगेरेना माथां, घणां लांबा कान, एक पग, पूछडुं वगेरे होय छे; तेमनुं आयुष्य एक पल्यनुं होय छे अने झाडनां फळ, माटी वगेरे तेमनो खोराक छे. ।। ३६।।
अर्थः– पांच मेरु संबंधी पांच भरत, पांच ऐरावत, देवकुरु तथा उत्तरकुरु ए बेने छोडीने पांच विदेह ए रीते अढीद्वीपमां कुल पंदर कर्मभूमिओ छे.
(१) ज्यां असि, मसि, कृषि, वाणिज्य, विद्या अने शिल्प ए छ कर्मनी प्रवृत्ति होय तेने कर्मभूमि कहे छे. विदेहना एक मेरु संबंधी बत्रीस भेद छे; अने पांच विदेह छे तेथी ३र × प =१६० क्षेत्र पांच विदेहनां थया, अने पांच भरत अने पांच ऐरावत ए दस मळीने कुल पंदर कर्मभूमिओना १७० क्षेत्रो छे. आ पवित्रतानां -धर्मनां क्षेत्रो छे अने मुक्ति प्राप्त करनारा मनुष्यो त्यां ज जन्मे छे.
एक मेरुसंबंधी हिमवत्, हरिक्षेत्र, रम्यक्, हिरण्यवत्, देवकुरु अने उत्तरकुरु एवी छ भोगभूमि छे. ए प्रमाणे पांच मेरु संबंधी त्रीस भोगभूमि छे. तेमां दस जघन्य, दस मध्यम अने दस उत्कृष्ट छे. तेमां दस प्रकारनां कल्पवृक्ष छे. तेना भोग भोगवी जीव संकलेशरहित-शातारूप रहे छे.
(र) प्रश्नः– कर्मनो आश्रय तो त्रणे लोकनां क्षेत्र छे तो कर्मभूमिनां एकसो सित्तेर क्षेत्र ज केम कहो छो, त्रणे लोकने कर्मभूमि केम कहेता नथी?
उत्तरः– सर्वार्थसिद्धि पहोंचवानुं शुभकर्म अने सातमी नरके पहोंचवानुं पापकर्म