Page 288 of 655
PDF/HTML Page 343 of 710
single page version
अ. ४ सूत्र २१ ] [ २८७ देव-गुरु-शास्त्रनो व्यवहारथी (रागमिश्रित विचारथी) साचो निर्णय कर्यो छे परंतु निश्चयथी एटले के रागथी पर थईने साचो निर्णय कर्यो नथी, तेमज ‘शुभभावथी धर्म थाय’ एवी सूक्ष्म मिथ्यामान्यता तेने रही जाय छे तेथी ते मिथ्याद्रष्टि रहे छे.
३. साचां देव-गुरु-शास्त्रनी व्यवहारश्रद्धा वगर ऊंचा शुभभाव पण थई शकता नथी, माटे जे जीवोने साचां देव-गुरु-शास्त्रनो संयोग मळ्यो होवा छतां जो ते तेनो रागमिश्रित व्यवहारनो साचो निर्णय न करे तो गृहितमिथ्यात्व रहे छे, अने जेने कुदेव-कुगुरु-कुशास्त्रनी मान्यता होय तेने पण गृहीतमिथ्यात्व होय ज छे, अने ज्यां गृहीतमिथ्यात्व होय त्यां अगृहीतमिथ्यात्व पण होय ज; तेथी एवा जीवने सम्यग्दर्शनादि धर्म तो न ज थाय परंतु मिथ्याद्रष्टिने थतो उत्कृष्ट शुभभाव पण तेने न थाय तेवा जीवोने जैनधर्मनी श्रद्धा व्यवहारे पण गणी शकाय नहि.
४. आ ज कारणे अन्य धर्मनी मान्यतावाळाओने साचा धर्मनी शरूआत अर्थात् सम्यग्दर्शन तो थाय ज नही, अने मिथ्याद्रष्टिने लायकनो उत्कृष्ट शुभभाव पण तेओ करी शके नहि; तेओ वधारेमां वधारे बारमा देवलोकनी प्राप्तिनो शुभभाव करी शके.
प. ‘देवगतिमां सुख छे’ एम घणा अज्ञानी लोकोनी मान्यता रहे छे, पण ते भूल छे. घणा देवो तो मिथ्यात्व वडे अतत्त्वश्रद्धान युक्त ज थई रह्या छे. भवनवासी व्यंतर अने जयोतिषी देवोने कषाय घणो मंद नथी, उपयोग बहु चंचळ छे तथा कंईक शक्ति छे तेथी कुतूहल तथा विषयादि कार्योमां ज तेओ लागी रह्या छे अने तेथी तेनी व्याकुळताथी तेओ दुःखी ज छे. त्यां माया-लोभ-कषायनां कारणो होवाथी तेवां कार्योनी मुख्यता छे; छळ करवो, विषयसामग्रीनी ईच्छा करवी ईत्यादि कार्य त्यां विशेष होय छे; पण वैमानिक देवोमां उपर उपरना देवोने ते कार्यो थोडां होय छे. त्यां हास्य अने रतिकषायनां कारणो होवाथी तेवां कार्योनी मुख्यता होय छे. ए प्रमाणे देवोने कषायभाव होय छे अने कषायभाव ए दुःख ज छे. ऊंचा देवोने उत्कृष्ट पुण्यनो उदय छे अने कषाय घणा मंद छे तथापि तेमने पण इच्छानो अभाव नथी तेथी वस्तुताए तेओ दुःखी ज छे. जे देवो सम्यग्दर्शनरूपी मोक्षमार्ग पाम्या होय तेओ ज, जेटले दरज्जे वीतरागता वधारे तेटले दरज्जे साचा सुखी छे. सम्यग्दर्शन वगर क्यांय पण सुखना अंशनी शरूआत थती नथी, अने तेथी ज आ शास्त्रना पहेलाज सूत्रमां मोक्षनो उपाय दर्शावतां तेमां सम्यग्दर्शन पहेलुं जणाव्युं छे; माटे जीवोए प्रथम ज सम्यग्दर्शननी प्राप्तिनो उपाय करवो जरूरी छे.
Page 289 of 655
PDF/HTML Page 344 of 710
single page version
२८८ ] [ मोक्षशास्त्र
६. उत्कृष्ट देवपणाने लायकना सर्वोत्कृष्ट शुभभाव सम्यग्द्रष्टिने ज थाय छे एटले के शुभभावना स्वामित्वना नकारनी भूमिकामां ज तेवा उत्कृष्ट शुभभाव थाय छे, मिथ्याद्रष्टिने तेवा ऊंचा शुभभाव थता नथी. ।। र१।।
अर्थः– बे युगलोमां पीत; त्रण युगलोमां पद्म अने बाकीना समस्त विमानोमां शुक्ललेश्या होय छे.
(१) पहेला अने बीजा स्वर्गमां पीत्त लेश्या, त्रीजा अने चोथामां पीत तथा पद्मलेश्या, पांचमाथी आठमा सुधीमां पद्मलेश्या, नवमाथी बारमा सुधीमां पद्म अने शुक्ललेश्या अने बाकीना समस्त वैमानिक देवोने शुक्ललेश्या होय छे, नव अनुदिश अने पांच अनुत्तर ए चौद विमानोना देवोने परमशुक्ललेश्या होय छे. भवनत्रिक देवोनी लेश्यानुं वर्णन आ अध्यायना बीजा सूत्रमां आवी गयुं छे. अहीं भावलेश्या समजवी.
प्रश्नः– सूत्रमां मिश्रलेश्यानुं वर्णन केम नथी? उत्तरः– जे मुख्य लेश्या छे ते सूत्रमां जणावी छे, जे गौण लेश्या छे ते कही नथी; गौण लेश्यानुं कथन तेमां गर्भित राख्युं छे, तेथी तेमां अविवक्षितपणे छे. आ शास्त्रमां टुंका सूत्रोरूपे मुख्य कथन कर्युं छे, बीजुं तेमां गर्भित राख्युं छे; माटे ए गर्भित कथन परंपरा अनुसार समजी लेवुं. [जुओ अ. १ सू. ११ टीका]. ।। २२।।
अर्थः– ग्रैवेयकोनी पहेलानां सोळ स्वर्गोने कल्प कहेवाय छे, तेनी आगळनां विमानो कल्पातीत छे.
सोळ स्वर्ग पछी नव ग्रैवेयक वगेरेना देवो एक सरखा वैभवना धारक होय छे तेथी तेओ अहमिन्द्र कहेवाय छे, त्यां इंद्र वगेरे भेद नथी, बधा समान छे. ।। र३।।
Page 290 of 655
PDF/HTML Page 345 of 710
single page version
अ. ४ सूत्र २४-२प-२६ ] [ २८९
आ देवो ब्रह्मलोकना अंतमां रहे छे, तथा एक भावावतारी (एकावतारी) छे तेथी लोकनो अंत(-संसारनो नाश) करवावाळा छे तेथी तेमने लौकांतिक कहेवाय छे; तेओ द्वादशांगना पाठी होय छे. चौदपूर्वना धारक होय छे, ब्रह्मचारी रहे छे अने तीर्थंकरप्रभुना तपकल्याणकमां आवे छे; तेमने देवर्षि पण कहेवामां आवे छे. ।। र४।।
अर्थः– लौकांतिक देवोना आठ प्रकार छे-१. सारस्वत, र. आदित्य, ३. वह्नि; ४, अरुण, प. गर्दतोय, ६. तुषित, ७. अव्याबाध अने ८. अरिष्ट. आ देवो ब्रह्मलोकनी ऐशान वगेरे आठ दिशाओमां रहे छे.
आ देवोना आ आठ मूळ भेदो छे अने ते आठना रहेवानां स्थाननी वच्चेना भागमां रहेनारा देवोनां बीजा सोळ प्रकार छे; आ रीते कुल चोवीस भेदो छे. आ देवोनां स्वर्गना नाम तेमनां नाम अनुसार ज छे, तेओ बधा सरखा छे, तेमनामां कोई नानुं-मोटुं नथी, सौ स्वतंत्र छे, तेमनी कुल संख्या ४०७८र० छे. सूत्रमां आठ नामो आपीने छेडे ‘च’ शब्द मूक्यो छे ते एम सूचवे छे के आ आठ सिवायना बीजा भेदो पण छे. ।। रप।।
अर्थः– विजय, वैजयन्त, जयन्त, अपराजित अने अनुदिश विमानोना अहमिन्द्रो द्विचरमी होय छे अर्थात् मनुष्यना बे जन्म (भव) करी अवश्य मोक्ष जाय छे. (आ बधा जीवो सम्यग्द्रष्टि ज होय छे.)
Page 291 of 655
PDF/HTML Page 346 of 710
single page version
२९० ] [ मोक्षशास्त्र
(१) सर्वार्थसिद्धिना देवो तेमनां नाम अनुसार एकावतारी ज होय छे. विजयादिकमां आवेला जीव एक मनुष्यभव करे अथवा बे भव पण करे.
(र) सर्वार्थसिद्धिना देवो. दक्षिण इंद्रो. सौधर्मना लोकपाळ, सौधर्मनी ‘शचि’ नामनी इन्द्राणी अने लौकांतिक देवो-ए बधा एक मनुष्यजन्म करी निर्वाण पामे छे. ।। र६।।
चोथा अध्यायमां अहीं सुधी देवोनुं वर्णन कर्युं. हवे एक सूत्र द्वारा तिर्यंचोनी व्याख्या बतावीने पछी देवोनुं उत्कृष्ट तेम ज जघन्य आयुष्य केटलुं छे ते बतावशे. तेम ज नारकीओनुं जघन्य आयुष्य केटलुं छे ते बतावशे. मनुष्यो तथा तिर्यंचोनां आयुष्यनी स्थितिनुं वर्णन त्रीजा अध्यायना सूत्र ३८-३९ मां कहेवाई गयुं छे.
आ रीते, बीजा अध्यायना दसमा सूत्रमां जीवोना संसारी अने मुक्त एवा जे बे भेद कह्या हता तेमांथी संसारी जीवोनुं वर्णन चोथा अध्याय सुधीमां पुरुं थाय छे. त्यार पछी पांचमा अध्यायमां अजीव तत्त्वोनुं वर्णन करशे. छठ्ठा तथा सातमा अध्यायमां आस्रव तथा आठमा अध्यायमां बंध तत्त्वनुं वर्णन करशे, तथा नवमा अध्यायमां संवर तथा निर्जरा तत्त्वनुं वर्णन करशे अने मुक्तजीवोनुं(मोक्षतत्त्वनुं) वर्णन दशमा अध्यायमां जणावीने ग्रंथ पूर्ण करशे.]
औपपादिकमनुष्येभ्यः शेषास्तिर्यग्योनयः।। २७।।
अर्थः– उपपाद जन्मवाळा(-देव तथा नारकी) अने मनुष्यो सिवायना बाकी रहेला जीवो तिर्यंच योनिवाळा ज छे.
देव, नारकी अने मनुष्य सिवायना जीवो तिर्यंच छे. तेमां सूक्ष्म एकेन्द्रिय जीवो तो समस्त लोकमां व्याप्त छे. लोकनो एक पण प्रदेश सूक्ष्म एकेन्द्रिय जीवो विना नथी. बादर एकेन्द्रिय जीवोने पृथ्वि वगेरेनो आधार होय छे. त्रण जीवो अर्थात् विकलत्रय (बे, त्रण अने चार ईन्द्रिय) अने संज्ञी-असंज्ञी पंचेन्द्रिय जीवो त्रस नाडीमां क्यांक क्यांक होय छे. त्रसनाडीनी बहार त्रस जीवो होता नथी. तिर्यंच जीवो सर्व लोकमां होवाथी तेनो क्षेत्र विभाग नथी. ।। र७।।
Page 292 of 655
PDF/HTML Page 347 of 710
single page version
अ. ४ सूत्र २८-२९ ] [ २९१
स्थितिरसुरनागसुपर्णद्वीपशेषाणां सागरोपमत्रिपल्यो–
अर्थः– भवनवासी देवोमां असुरकुमार, नागकुमार, सुपर्णकुमार, द्वीपकुमार अने बाकीना छ कुमारोनुं आयुष्य क्रमथी एक सागर. त्रण पल्य, अढी पल्य, अने दोढ पल्य छे. ।। र८।।
(१) भवनवासी देवो पछी व्यंतर अने ज्योतिषी देवोनुं आयुष्य बताववाने बदले वैमानिकनुं आयुष्य बताववानुं कारण ए छे के तेम करवाथी पछीनां सूत्रोमां लधुता (-टूंकापणुं) आवी शके छे.
के-कोई सम्यग्द्रष्टि मनुष्ये शुभ परिणामथी दस सागर प्रमाण ब्रह्म-ब्रह्मोतर स्वर्गनुं आयुष्य बांध्युं, पछी ते ज मनुष्यभवमां संकलेश परिणाम वडे ते आयुनी स्थितिनो घात कर्यो अने सौधर्म-ऐशानमां ऊपज्यो, ते जीव घातायुष्क कहेवाय छे; सौधर्म- ऐशानना बीजा देवो करतां तेने अर्धासागरमां एक अंतर्मूहूर्त न्यून एटलुं आयुष्य वधारे होय छे. आवुं घातायुष्कपणुं पूर्वना मनुष्य तथा तिर्यंच भवमां थाय छे.
(४) आयुष्यनो घात बे प्रकारे छे-एक अपवर्तनघात अने बीजो कदलीघात. बध्यमान आयुष्यनुं घटवुं ते अपवर्तनघात छे अने भूज्यमान [भोगववामां आवतां] आयुष्यनुं घटवुं ते कदलीघात छे. देवोमां कदलीघात आयुष्य होतुं नथी.
Page 293 of 655
PDF/HTML Page 348 of 710
single page version
२९२ ] [ मोक्षशास्त्र
अर्थः– सानत्कुमार अने माहेन्द्र स्वर्गना देवोनुं आयुष्य सात सागरथी कंईक अधिक छे.
अर्थः– पूर्व सूत्रमां कहेल युगलोनां आयुष्य (सातसागर) थी क्रमपूर्वक त्रण, सात, नव, अगियार, तेर अने पंदर सागर अधिक आयुष्य (त्यार पछीनां स्वर्गोमां) छे.
(१) ब्रह्म अने ब्रह्मोत्तर स्वर्गमां दस सागरथी कंईक अधिक लान्तव अने कापिष्ट स्वर्गमां चौद सागरथी कंईक अधिक, शुक्र अने महाशुक्र स्वर्गमां सोळ सागरथी कंइक अधिक, सतार अने सहस्त्रार स्वर्गमां अढार सागरथी कंईक अधिक, आनत अने प्राणत स्वर्गमां वीस सागर तथा आरण अने अच्युत स्वर्गमां बावीस सागर उत्कृष्ट आयुष्य छे.
ज थाय छे केमके घातायुष्क जीवोनी उत्पत्ति त्यां सुधी ज होय छे.।। ३१।।
अर्थः– आरण अने अच्युत स्वर्गथी उपर नव ग्रैवेयकोमां, नव अनुद्रिशमां, विजय वगेरे विमानोमां अने सर्वार्थसिद्धि विमानमां देवोनुं आयुष्य एकेक सागर वधारे छे.
(१) पहेली ग्रैवेयकमां र३, बीजीमां र४, त्रीजीमां रप, चोथीमां र६, पांचमीमां र७, छठ्ठीमां र८, सातमीमां र९, आठमीमां ३०, नवमीमां ३१, नव अनुदिशमां
Page 294 of 655
PDF/HTML Page 349 of 710
single page version
अ. ४ सूत्र ३३-३४-३प ] [ २९३ ३र, विजय आदिमां ३३ सागरोपमनुं उत्कृष्ट आयुष्य छे. सर्वार्थसिद्धिना बधा देवोने ३३ सागरनी ज स्थिति होय छे, तेथी ओछी कोईने होती नथी.
पण ग्रहण थाय छे. ।। ३र।।
अर्थः– सौधर्म अने ऐशान स्वर्गमां जघन्य आयुष्य एक पल्यथी कंईक अधिक छे.
सागर अने पल्यनुं माप त्रीजा अध्यायना छठ्ठा सूत्रनी टीकामां आप्युं छे, त्यां अद्धापल्य लख्युं छे ते ज पल्य समजवुं. ।। ३३।।
अर्थः– जे पहेलां पहेलांना युगलोनुं उत्कृष्ट आयुष्य छे ते पछी पछीनां युगलोनुं जघन्य आयुष्य छे.
सौधर्म अने ऐशान स्वर्गनुं उत्कृष्ट आयुष्य बे सागरथी कंईक अधिक छे; तेटलुं ज सानत्कुमार अने माहेन्द्रनुं जघन्य आयुष्य छे. आ क्रम मुजब आगळना देवोनुं जघन्य आयुष्य जाणी लेवुं. सर्वार्थसिद्धिमां जघन्य आयुष्य होतुं नथी. ।। ३४।।
अर्थः– बीजी वगेरे नरकना नारकीओनुं जघन्य आयुष्य पण देवोना जघन्य आयुष्यनी जेम छे-अर्थात् जे पहेली नरकनुं उत्कृष्ट आयुष्य छे ते ज बीजी नरकनुं जघन्य आयुष्य छे. आ प्रमाणे आगळनी नरकोमां पण जघन्य आयुष्य जाणी लेवुं.।। ३प।।
Page 295 of 655
PDF/HTML Page 350 of 710
single page version
२९४ ] [ मोक्षशास्त्र
अर्थः– पहेली नरकना नारकीओनुं जघन्य आयुष्य दस हजार वर्षनुं छे. (नारकीओना उत्कृष्ट आयुष्यनुं वर्णन त्रीजा अध्यायना छठ्ठा सूत्रमां कर्युं छे.)।। ३६।।
अर्थः– ज्योतिषी देवोनुं पण उत्कृष्ट आयुष्य एक पल्योपमथी कंईक अधिक छे.।। ४०।।
अर्थः– ज्योतिषी देवोनुं जघन्य आयुष्य एक पल्योपमना आठमा भागनुं छे.।। ४१।।
लौकांतिकानामष्टौ सागरोपमाणी सर्वेषाम्।। ४२।।
अर्थः– समस्त लौकांतिक देवोनुं जघन्य तेम ज उत्कृष्ट आयुष्य आठ सागर प्रमाण छे. ।। ४र।।
Page 296 of 655
PDF/HTML Page 351 of 710
single page version
अ. ४ उपसंहार ] [ २९प उपसंहार
आ चोथा अध्याय सुधीमां सात तत्त्वोमांथी जीवतत्त्वनो अधिकार पूरो थाय छे.
पहेला अध्यायना पहेला सूत्रमां मोक्षमार्गनी व्याख्या करतां सम्यग्दर्शनथी ज धर्मनी शरूआत थाय छे एम जणाव्युं. बीजा ज सूत्रमां सम्यग्दर्शननी व्याख्या करी, तेमां जणाव्युं के तत्त्वार्थश्रद्धा ते सम्यग्दर्शन छे. पछी चोथा सूत्रमां तत्त्वोनां नाम आप्यां अने सात तत्त्वो छे ते जणाव्युं. सात नामो होवा छतां बहुवचन नहि वापरतां ‘तत्त्वं’ एवुं एकवचन वापर्युं छे-ते एम बतावे छे के ते साते तत्त्वोनुं रागमिश्रित विचार वडे ज्ञान कर्या पछी ते ज्ञान रागरहित करवुं जोईए, त्यारे सम्यग्दर्शन प्रगटे छे.
सूत्र प तथा ६ मां ए तत्त्वोने निक्षेप, प्रमाण तथा नयो वडे जाणवानुं बताव्युं छे; तेमां सप्तभंगी पण समाई जाय छे. ए बधाने टूंकामां सामान्यपणे कहेवुं होय तो तत्त्वोनुं स्वरूप जे अनेकांतरूप छे तेनो धोतक (कथनपद्धति) स्याद्वाद छे. तेनुं स्वरूप बराबर जाणवुं जोईए.
जीवनुं यथार्थ ज्ञान थवा माटे, स्याद्वाद पद्धतिथी एटले के निक्षेप, प्रमाण, नय अने सप्तभंगीथी जीवनुं स्वरूप टूंकामां कहेवामां आवे छे; तेमां प्रथम सप्तभंगी वडे जीवनुं स्वरूप कहेवामां आवे छे-सप्तभंगीनुं स्वरूप जीवमां लागु पाडवामां आवे छेः-
जडस्वरूपे(अजीवस्वरूपे) नथी-एम जो समजी शकाय तो ज जीवने जाण्यो कहेवाय; एटले के ‘जीव छे’ एम कहेतां ज ‘जीव जीवस्वरूपे छे’ एम नक्की थयुं अने तेमां ‘जीव परस्वरूपे नथी’ एम गर्भित रह्युं. वस्तुना आ धर्मने ‘स्यात् अस्ति’ कहेवामां आवे छे; तेमां ‘स्यात्’ नो अर्थ ‘एक अपेक्षाए’ एवो छे, अने ‘अस्ति’ नो अर्थ ‘छे’ एम थाय छे; आ रीते स्यात् अस्तिनो अर्थ ‘पोतानी अपेक्षाए छे’ एम थाय छे, तेमां ‘स्यात् नास्ति’ एटले के ‘परनी अपेक्षाए नथी’ एम गर्भितपणे आव्युं छे; आम जे जाणे तेणे ज जीवनो ‘स्यात् अस्ति’ भंग एटले के ‘जीव छे’ एम साचुं जाण्युं छे, पण जो ‘परनी अपेक्षाए नथी’ एवुं तेना लक्षमां गर्भितपणे न आवे तो जीवनुं
Page 297 of 655
PDF/HTML Page 352 of 710
single page version
२९६ ] [ मोक्षशास्त्र ‘स्यात अस्ति’ स्वरूप पण ते जीव बराबर समज्यो नथी अने तेथी बीजा छ भंग पण ते समज्यो नथी; तेणे जीवनुं साचुं स्वरूप जाण्युं नथी. ए ध्यान राखवुं के दरेक वखते बोलवामां ‘स्यात्’ शब्द बोलवो ज जोईए’- एवी जरूर नथी; परंतु ‘जीव छे’ एम बोलनारने ‘स्यात्’पदना भावनो यथार्थ ख्याल होवो जोईए; जो ते ख्याल न होय तो ‘जीव छे’ ए पदनुं यथार्थ ज्ञान ते जीवने छे ज नहि.
‘जीवनुं होवापणुं पर स्वरूपे नथी’एम पहेला स्यात् अस्ति भंगमां गर्भित हतुं; ते बीजा ‘स्यात् नास्ति’ भंगमां प्रगटपणे जणाववामां आवे छे. ‘स्यात् नास्ति’ नो अर्थ एवो थाय छे के परअपेक्षाए जीव नथी. ‘स्यात्’ एटले कोई अपेक्षाए अने ‘नास्ति’ एटले ‘न होवुं ते.’ जीवनुं परअपेक्षाए नहि होवापणुं छे अर्थात् जीव परना स्वरूपे नथी तेथी परअपेक्षाए जीवनुं नास्तिपणुं छे एटले के जीव अने पर एकबीजा प्रत्ये अवस्तु छे-एम‘स्यात् नास्ति’ पदनो अर्थ समजवो.
आथी एम समजवुं के-जेम ‘जीव’ शब्द बोलतां जीवनुं जे अस्तिपणुं (जीवनी सत्ता) भासे छे ते जीवनुं स्वरूप छे तेम ते ज वखते ते जीव सिवाय बीजानो निषेध भासे छे ते पण जीवनुं स्वरूप छे. आ उपरथी सिद्ध थयुं के स्वपणे जीवनुं स्वरूप छे अने परपणे न होवुं ते पण जीवनुं स्वरूप छे. आ जीवमां स्यात् अस्ति तथा स्यात् नास्तिनुं स्वरूप बताव्युं. ते प्रमाणे परवस्तुओनुं स्वरूप ते वस्तुओपणे छे अने परवस्तुओनुं स्वरूप जीवपणे नथी-एम बधी ज वस्तुओमां अस्ति-नास्ति स्वरूप समजवुं.
आ रीते सप्तभंगीना पहेला बे भंग-स्यात् अस्ति तथा स्यात् नास्तिनुं स्वरूप कह्युं. बाकीना पांच भंगो आ बन्ने भंगोनो ज विस्तार छे. तेनुं स्वरूप र९७ मा पाने कहेवाशे.
“आप्तमीमांसानी १११मी कारिकाना व्याख्यानमां अकलंकदेव कहे छे के- वचननो एवो स्वभाव छे के स्वविषयनुं अस्तित्व देखाडतां ते तेनाथी ईतरनुं (परवस्तुनुं) निराकरण करे छे; तेथी अस्तित्व अने नास्तित्व ए बे मूळ धर्मोना आश्रयथी सप्तभंगीरूप स्याद्वादनी सिद्धि थाय छे.”[तत्त्वार्थसार पा. १रप नी फुटनोट]
जीव अनादि अविद्याना कारणे शरीरने पोतानुं माने छे अने तेथी शरीर ऊपजतां पोते ऊपज्यो तथा शरीरनो नाश थतां पोतानो नाश थाय छे एम माने छे; पहेली
Page 298 of 655
PDF/HTML Page 353 of 710
single page version
अ. ४ उपसंहार ] [ २९७ भूल ते ‘जीवतत्त्व’ नी विपरीत श्रद्धा छे अने बीजी भूल ते ‘अजीवतत्त्व’नी विपरीत श्रद्धा छे. (ज्यां एक तत्त्वनी ऊंधी श्रद्धा होय त्यां बीजां तत्त्वोनी पण ऊंधी श्रद्धा होय ज]
आ विपरीत श्रद्धाने कारणे जीव शरीरनुं करी शके-हलावी-चलावी उठाडी- बेसाडी-सुवडावी शके, शरीरनी संभाळ करी शके एम मान्या करे छे; जीवतत्त्व संबंधी आ ऊंधी श्रद्धा अस्ति-नास्ति भंगना यथार्थ ज्ञान वडे टळे छे.
शरीर सारुं होय तो जीवने लाभ थाय, खराब होय तो नुकसान थाय; शरीर सारुं होय तो जीव धर्म करी शके, खराब होय तो धर्म न करी शके ए वगेरे प्रकारे अजीवतत्त्वसंबंधी ऊंधी श्रद्धा कर्या करे छे, ते भूल पण अस्ति-नास्ति भंगना यथार्थ ज्ञान वडे टळे छे.
जीव जीवथी अस्तिरूपे अने परथी अस्तिरूपे नथी-पण नास्तिरूपे छे एम ज्यारे यथार्थपणे ज्ञानमां नक्की करे छे त्यारे दरेक तत्त्व यथार्थपणे भासे छे; तेमज जीव परद्रव्योने संपूर्णपणे अकिंचित्कर छे तथा परद्रव्यो जीवने संपूर्णपणे अकिंचित्कर छे केम के एक द्रव्य बीजा द्रव्यरूपे नास्ति छे, आम खातरी थाय छे अने तेथी जीव पराश्रयी- परावलंबीपणुं मटाडी स्वाश्रयी-स्वावलंबी थाय छे, ते ज धर्मनी शरूआत छे.
जीवनो पर साथे निमित्त-नैमित्तिकसंबंध केवो छे तेनुं ज्ञान आ बे भंगो वडे करी शकाय छे. निमित्त परद्रव्य होवाथी नैमित्तिक-जीवने ते कांई करी शके नहि, मात्र आकाशप्रदेशे एक क्षेत्रावगाहरूपे के संयोग-अवस्थारूपे हाजर होय; पण नैमित्तिक ते निमित्तथी पर छे अने निमित्त ते नैमित्तिकथी पर छे तेथी एकबीजाने कांई करी शके नहि. नैमित्तिकना ज्ञानमां निमित्त परज्ञेयरूपे जणाय छे.
अ. र. सू. १ थी ७. जीवना पांच भावो पोताथी अस्तिरूपे छे अने परथी नास्तिरूपे छे एम जणावे छे.
अध्याय र. सूत्र ८–९. जीवनुं लक्षण अस्तिरूपे शुं छे ते जणावे छे; उपयोग जीवनुं लक्षण छे एम कहेतां बीजुं कोई लक्षण जीवनुं नथी एम प्रतिपादन थयुं. जीव पोताना लक्षणथी अस्तिरूपे छे अने तेथी ज परनी तेमां नास्ति आवी -एम जणावे छे.
अ. र. सूत्र. १०. जीवना विकारी तेमज शुद्ध पर्याय जीवथी अस्तिरूपे छे अने परथी नास्तिरूपे अर्थात् परथी थता नथी एम जणावे छे.
Page 299 of 655
PDF/HTML Page 354 of 710
single page version
२९८ ] [ मोक्षशास्त्र
अ. र. सूत्र १४ थी १७. जीवना विकारी भावोने पर साथे-कर्म, मन, शरीर, इंद्रियो, परक्षेत्र वगेरे साथे-केवो निमित्त-नैमित्तिकभाव छे ते जणावी एम बताव्युं के जीवना विकारी भाव परलक्षे जीव करे छे पण परनिमित्तथी विकारीभाव थता नथी अर्थात् परनिमित्त विकारीभाव करावतुं नथी; एम अस्ति -नास्तिपणुं जणावे छे.
अ. र. सू. १८. जीवनो क्षयोपशमरूप पर्याय पोताथी अस्तिरूपे छे, परथी नथी (-नास्तिरूपे छे) एटले के परथी -कर्मथी जीवनो पर्याय थतो नथी एम बतावे छे.
अ. र. सू. २७. जीवने सिद्धक्षेत्र साथे केवो निमित्त-नैमित्तिकसंबंध छे ते बतावे छे.
अ. र. सू. प० थी पर. जीवनो वेदरूप (भाववेदरूप) विकारी पर्याय पोतानी लायकातथी अस्तिरूपे छे, परथी नथी एम बतावे छे.
अ. र. सू प३ जीवनो आयुष्यकर्म साथेनो निमित्त-नैमित्तिकभाव बताव्यो; तेमां जीवनो नैमित्तिकभाव जीवनी पोतानी लायकातथी छे अने आयुष्यकर्मथी के परथी ते नथी एम बताव्युं; तेमज निमित्त आयुष्यकर्मनो संबंध जीव के बीजा कोई पर साथे नथी एम अस्ति-नास्ति भंगो बतावे छे.
अ. ३. सू. १ थी ६. नारकीभावने भोगववालायक थता जीवने केवा प्रकारनां क्षेत्रोनो संबंध निमित्तपणे होय छे तथा उत्कृष्ट आयुष्यनुं निमित्तपणुं केवा प्रकारे होय छे ते बतावीने, निमित्तरूप क्षेत्र के आयुष्य ते जीव नथी पण जीवथी पर छे एम बतावे छे.
अ. ३. सू. ७ थी ३९. मनुष्यभाव के तिर्यंचभाव भोगववा लायक थता जीवने केवा प्रकारनां क्षेत्रोनो तथा आयुष्यनो संबंध निमित्तरूपे होय छे ए बतावीने जीव स्व छे अने निमित्त पर छे एम अस्ति-नास्ति स्वरूप बतावे छे.
अध्याय ४. सू. १ थी ४र. देवभाव अने तिर्यंचभाव थतां तेम ज सम्यग्द्रष्टि अने मिथ्याद्रष्टिपणानी अवस्थामां जीवने केवां परक्षेत्रनो तथा आयुष्यनो निमित्तनैमित्तिकसंबंध होय ते बतावीने अस्ति-नास्ति स्वरूप बतावे छे.
१-र. अस्ति अने नास्ति ए बे, जीवना स्वभाव थई गया छे. ३. जीवना अस्ति अने नास्ति ए बन्ने स्वभावने क्रमथी कहेवा होय तो ‘जीव अस्ति-नास्ति बन्ने धर्ममय छे’ एम बोलाय छे तेथी जीव ‘स्यात् अस्ति- नास्ति’ छे; ए त्रीजो भंग थयो.
Page 300 of 655
PDF/HTML Page 355 of 710
single page version
अ. ४ उपसंहार ] [ २९९
४. अस्ति अने नास्ति ए बन्ने, जीवना स्वभाव छे तोपण ते बन्ने एक साथे कहेवा अशक्य छे, ए अपेक्षाए जीव ‘स्यात् अवक्तव्य’ छे; ए चोथो भंग थयो.
प. जीवनुं स्वरूप जे वखते अस्तिथी कही शकाय छे ते वखते नास्ति तथा बीजा गुणो वगेरे कही शकता नथी-अवक्तव्य छे; तेथी जीव ‘स्यात् अस्ति- अवक्तव्य’ छे; ए पांचमो भंग थयो.
६. जीवनुं स्वरूप जे वखते नास्तिथी कही शकाय छे ते वखते अस्ति तथा बीजा गुणो वगेरे कही शकता नथी- अवक्तव्य छे; तेथी जीव ‘स्यात् नास्ति- अवक्तव्य’ छे; ए छठ्ठो भंग थयो.
७. स्यात् अस्ति अने स्यात् नास्ति ए बन्ने भंग क्रमथी वक्तव्य छे पण युगपत् वक्तव्य नथी, तेथी जीव ‘स्यात् अस्ति-नास्तिवक्तव्य’ छे; ए सातमो भंग थयो.
जीव स्यात् अस्ति छे. १. जीव स्यात् नास्ति छे. र. जीव स्यात् अस्ति - नास्ति छे. ३. जीव स्यात् अवक्तव्य छे. ४. जीव स्यात् अस्ति-अवक्तव्य छे. प. जीव स्यात् नास्ति-अवक्तव्य छे. ६. जीव स्यात् अस्ति-नास्ति-अवक्तव्य छे. ७.
‘स्यात्’नो अर्थ केटलाक ‘संशय करे छे, परंतु ते तद्न भूल छे; ‘कथंचित् कोई अपेक्षाए’ एवो तेनो अर्थ थाय छे, स्यात् कथनथी (स्याद्वादथी) वस्तुस्वरूपना ज्ञाननी विशेष द्रढता थाय छे.
‘अस्ति’ ते स्वाश्रय छे, तेथी निश्चयनये अस्ति छे, अने नास्ति ते पराश्रय छे माटे व्यवहारनये नास्ति छे. बाकीना पांचे भंगो व्यवहारनये छे केमके तेओ ओछे के वधारे अंशे परनी अपेक्षा राखे छे.
‘अस्ति’ना निश्चय अस्ति अने व्यवहार अस्ति एम बे भेद पडी शके छे. जीवनो शुद्ध पर्याय ते निश्चयनये अस्ति छे केम के ते जीवनुं स्वरूप छे. अने विकारी पर्याय ते व्यवहारनये अस्तिरूप छे केम के ते जीवनुं स्वरूप नथी. विकारी पर्याय अस्तिरूप छे खरो, परंतु ते टाळवायोग्य छे; व्यवहारनये ते जीवनो छे अने निश्चयनये जीवनो नथी.
Page 301 of 655
PDF/HTML Page 356 of 710
single page version
३०० ] [ मोक्षशास्त्र
‘अस्ति’नो अर्थ ‘सत्’ थाय छे, सत् उत्पादव्ययध्रौव्ययुक्त होय छे; तेमां ध्रौव्य ते निश्चयनये अस्ति छे अने उत्पाद-व्यय ते व्यवहारनये अस्ति छे. जीवनुं ध्रौव्य स्वरूप त्रिकाळी अखंड शुद्ध चैतन्यचमत्कार मात्र छे, ते कदी विकार पामतुं नथी; मात्र उत्पादरूप पर्यायमां परलक्षे क्षणिक विकार थाय छे. जीव पोतानुं स्वरूप समजीने ज्यारे पोताना ध्रौव्यस्वरूप तरफ वळे छे त्यारे शुद्ध पर्याय प्रगटे छे.
श्रुतप्रमाणनो एक अंश ते नय छे. ज्यां श्रुतप्रमाण न होय त्यां नय होय नहि; ज्यां नय होय त्यां श्रुतप्रमाण होय ज. प्रमाण ते बन्ने नयोना विषयनुं यथार्थ ज्ञान करे छे; तेथी अस्ति-नास्तिनुं एक साथे ज्ञान ते प्रमाणज्ञान छे.
अहीं जीव ज्ञेय छे; ज्ञेयनो अंश ते निक्षेप छे. अस्ति, नास्ति वगेरे भंगो ते जीवना अंशो छे. जीव स्वज्ञेय छे अने अस्ति, नास्ति वगेरे स्वज्ञेयना अंशरूप निक्षेप छे; आ भावनिक्षेप छे. तेनुं यथार्थ ज्ञान ते नय छे. निक्षेप ते विषय छे अने नय ते तेनो विषय करनार (विषयी) छे.
जीव स्वज्ञेय छे तेम ज पोते ज्ञानस्वरूप छे. द्रव्य-गुण-पर्याय ज्ञेय छे अने तेनो त्रिकाळी जाणवानो स्वभाव ते गुण छे; तथा ज्ञाननो वर्तमान पर्याय ते स्वज्ञेयने जाणे छे. स्वज्ञेयने जाणवामां जो स्वपरनुं भेदविज्ञान होय तो ज ज्ञाननो साचो पर्याय छे.
१. वस्तुनुं स्वरूप अनेकान्त छे. जेमां अनेक अंत एटले के धर्म होय ते अनेकांत कहेवाय छे. ते धर्मोमां अस्तित्व, नास्तित्व, एकत्व, अनेकत्व, नित्यत्व, अनित्यत्व, भेदत्व, अभेदत्व, अपेक्षात्व, अनपेक्षात्व, दैवसाध्यत्व, पौरुषसाध्यत्व, हेतुसाध्यत्व, आगमसाध्यत्व, अंतरंगत्व, बहिरंगत्व, द्रव्यत्व, पर्यायत्व, इत्यादि धर्मो तो सामान्य छे; अने जीवत्व, अजीवत्व, स्पर्शत्व-रसत्व-गंधत्व-वर्णत्व, शब्दत्व, शुद्धत्व, अशुद्धत्व, मूर्तत्व, अमूर्तत्व, संसारित्व, सिद्धत्व, अवगाहहेतुत्व, गतिहेतुत्व, स्थितिहेतुत्व, वर्तनाहेतुत्व
Page 302 of 655
PDF/HTML Page 357 of 710
single page version
अ. ४ उपसंहार ] [ ३०१ इत्यादि विशेष धर्मो छे. वस्तु समजवाने माटे प्रश्न ऊठतां प्रश्न वशथी ते धर्मोना संबंधमां विधि-निषेधरूप वचनना सात भंग थाय छे. ते सात भंगोमां ‘स्यात्’ एवुं पद लगाडवुं. ‘कथंचित्’-‘कोई प्रकारे’ एवा अर्थमां ‘स्यात्’ शब्द छे; तेना वडे वस्तुने अनेकान्त स्वरूपे साधवी.
(१) वस्तु स्यात् अस्तित्वरूप छे एम कोई प्रकारे-पोताना द्रव्य-क्षेत्र-काळ- भावपणे अस्तित्वरूप कहेवाय छे. १. वस्तु स्यात् नास्तित्वरूप छे- एम परवस्तुनां द्रव्य-क्षेत्र-काळ-भावपणे नास्तित्वरूप कहेवाय छे. २. वळी वस्तु स्यात् अस्तित्वनास्तित्वरूप छे-एम वस्तुमां अस्ति-नास्ति बन्ने धर्मो रहेला छे; ते वचन वडे क्रमथी कही शकाय छे. ३. वळी वस्तु स्यात् अवक्तव्य छे; जोके वस्तुमां अस्ति, नास्ति बन्ने धर्मो एक ज वखते रहेला छे तोपण वचन वडे एक साथे बन्ने धर्मो कही शकाता नथी; तेथी कोई प्रकारे वस्तु अवक्तव्य छे. ४. अस्तित्वपणे वस्तुस्वरूप कही शकाय छे, पण अस्ति-नास्ति बन्ने धर्मो वस्तुमां एक साथे रहेला छे, तेथी वस्तु कही शकाती नथी. आ रीते वस्तु वक्तव्य पण छे अने अवक्तव्य पण छे; तेथी स्यात् अस्तित्व अवक्तव्य छे. प. एज प्रमाणे (-अस्तित्वनी जेम) वस्तुने स्यात् नास्तित्व अवक्तव्य कहेवी. ६. वळी बन्ने धर्म क्रमे कही शकाय पण एक साथे कही शकाय नहि तेथी वस्तुने स्यात् अस्तित्व -नास्तित्व अवक्तव्य कहेवी. ७. उपर प्रमाणे सात भंग वस्तुमां संभवे छे.
(२) ए प्रमाणे एकत्व, अनेकत्व वगेरे सामान्य धर्मो पर ते सात भंग विधिनिषेधथी लगाडवा. ज्यां जे अपेक्षा संभवे ते लगाडवी. वळी ते ज प्रमाणे जीवत्व, अजीवत्व आदि विशेषधर्मोमां ते भंगो लगाडवा. जेम के-जीव नामनी वस्तु छे ते स्यात् जीवत्व छे, स्यात् अजीवत्व छे, इत्यादि प्रकारे लगाडवा. त्यां आ प्रमाणे अपेक्षा समजवी के-जीवनो पोतानो जीवत्व धर्म जीवमां छे तेथी जीवत्व छे, पर-अजीवनो अजीवत्वधर्म जीवमां नथी तोपण जीवना बीजा (-ज्ञान सिवायना) धर्मोने मुख्य करीने कहीए त्यारे ते धर्मोनी अपेक्षाए अजीवत्व छे; इत्यादि सात भंग लगाडवा. तथा अनंत जीवो छे तेनी अपेक्षाए एटले के पोतानुं जीवत्व पोतामां छे अने परनुं जीवत्व पोतामां नथी तेथी पर जीवोनी अपेक्षाए अजीवत्व छे; ए प्रमाणे पण अजीवत्व धर्म साधी शकाय छे-कही शकाय छे. आ प्रमाणे अनादिनिधन अनंत जीव, अजीव वस्तुओ छे. ते दरेकमां पोतपोताना द्रव्यत्व, पर्यायत्व वगेरे अनंत धर्मो छे. ते धर्मो सहित सात भंगथी वस्तुने साधवी-सिद्ध करवी.
Page 303 of 655
PDF/HTML Page 358 of 710
single page version
३०२ ] [ मोक्षशास्त्र
(३) वस्तुना स्थूळ पर्यायो छे ते पण चिरकालस्थायी अनेक धर्मरूप होय छे. जेम के-जीवमां संसारीपर्याय अने सिद्धपर्याय. वळी संसारीमां त्रस, स्थावर; तेमां मनुष्य, तिर्यंच इत्यादि. पुद्गलमां अणु, स्कन्ध तथा घट, पट वगेरे. ते पर्यायोने पण कथंचित् वस्तुपणुं संभवे छे. ते पण उपर प्रमाणे ज सात भंगथी साधवुं; तेमज जीव अने पुद्गलना संयोगथी थयेला आस्रव, बंध, संवर, निर्जरा पुण्य, पाप, मोक्ष वगेरे भावोमां पण, घणा धर्मपणानी अपेक्षाए तथा परस्पर विधि-निषेध वडे, अनेक-धर्मरूप कथंचित् वस्तुपणुं संभवे छे; ते सप्तभंग वडे साधवुं.
(४) ए नियमपूर्वक जाणवुं के दरेक वस्तु अनेक धर्मस्वरूप छे, ते सर्वने अनेकान्तस्वरूप जाणीने जे श्रद्धा करे अने ते प्रमाणे ज लोकने विषे व्यवहार प्रवर्तावे ते सम्यग्द्रष्टि छे. जीव, अजीव, आस्रव, बंध, पुण्य, पाप, संवर, निर्जरा अने मोक्ष ए नव पदार्थो छे तेमने ते ज प्रमाणे सप्तभंग वडे साधवा. तेनुं साधन श्रुतज्ञानप्रमाण छे.
(१) श्रुतज्ञानना बे भेद छे- द्रव्यार्थिक अने पर्यायार्थिक; वळी तेना (द्रव्यार्थिक अने पर्यायार्थिकना) नैगम, संग्रह, व्यवहार, ऋजुसूत्र, शब्द, समभिरूढ अने एवंभूतनय ए सात भेद छे; तेमांना पहेला त्रण भेद द्रव्यार्थिकना छे अने बाकीना चार भेद पर्यायार्थिकना छे. अने तेना पण उतरोत्तर भेद, जेटला वचनना प्रकार छे तेटला छे. तेने प्रमाणसप्तभंगी अने नयसप्तभंगीना विधान वडे साधवामां आवे छे. आ प्रमाणे प्रमाण अने नयद्वारा जीवादि पदार्थोने जाणीने श्रद्धान करे ते शुद्ध सम्यग्द्रष्टि होय छे.
(र) वळी अहीं एटलुं विशेष जाणवुं के, नय छे ते वस्तुना एक एक धर्मनो ग्राहक छे. ते दरेक नय पोतपोताना विषयरूप धर्मने ग्रहण करवामां समान छे, तोपण वक्ता पोताना प्रयोजनवश तेमने मुख्य-गौण करीने कहे छेः जेम के जीव नामनी वस्तु छे, तेमां अनेक धर्मो छे तोपण चेतनपणुं, प्राणधारणपणुं वगेरे धर्मो अजीवथी असाधारण देखीने, जीवने अजीवथी जुदो दर्शाववाना प्रयोजनवश, ते धर्मोने मुख्य करीने वस्तुनुं नाम ‘जीव’ राख्युं. एज प्रमाणे वस्तुना सर्व धर्मोमां प्रयोजनवश मुख्य-गौण करवानुं जाणवुं.
Page 304 of 655
PDF/HTML Page 359 of 710
single page version
अ. ४ उपसंहार ] [ ३०३ छे अने गौणने व्यवहार कह्यो छे. तेमां अभेदधर्मने तो मुख्य करीने तेने निश्चयनो विषय कह्यो अने भेदनयने गौण करीने तेने व्यवहार कह्यो. द्रव्य तो अभेद छे, तेथी निश्चयनो आश्रय द्रव्य छे; अने पर्याय भेदरूप छे, तेथी व्यवहारनो आश्रय पर्याय छे. तेमां प्रयोजन आ प्रमाणे छे के, भेदरूप वस्तुने सर्व लोक जाणे छे, तेमने भेदरूप वस्तु ज प्रसिद्ध छे, तेथी करीने लोक पर्यायबुद्धि छे. जीवना नर, नारकादि पर्यायो छे, तथा राग-द्वेष, क्रोध-मान-माया-लोभ आदि पर्यायो छे तेम ज ज्ञानना भेदरूप मतिज्ञानादिक पर्यायो छे. ते पर्यायोने ज लोको जीव समजे छे; तेथी (- अर्थात् ते पर्यायबुद्धि छोडाववाना प्रयोजनथी) ते पर्यायमां अभेदरूप अनादि-अनंत एक भाव जे चेतनाधर्म छे तेने ग्रहण करी निश्चयनयनो विषय कहीने जीवद्रव्यनुं ज्ञान कराव्युं, अने पर्यायाश्रित जे भेदनय तेने गौण कर्यो; तथा अभेदद्रष्टिमां ते भेद देखाता नथी तेथी अभेदनयनी द्रढ श्रद्धा कराववा माटे कह्युं के-जे पर्यायनय छे ते व्यवहार छे, अभूतार्थ छे, असत्यार्थ छे. भेदबुद्धिता एकांतनुं निराकरण करवा माटे आ कथन जाणवुं.
(र) अहीं एम न समजवुं के जे भेद छे तेने असत्यार्थ कह्या छे. तेथी भेद ते वस्तुनुं स्वरूप ज नथी. ‘भेद नथी’ एम जो सर्वथा माने तो ते अनेकान्तने समज्या नथी, सर्वथा एकांत श्रद्धाथी ते मिथ्याद्रष्टि छे. अध्यात्मशास्त्रो विषे ज्यां निश्चय-व्यवहारनय कह्या छे त्यां पण ते बन्ने ना परस्पर विधि-निधेष वडे सप्तभंगीथी वस्तु साधवी. एक नयने सर्वथा सत्यार्थ माने अने एकने सर्वथा असत्यार्थ माने तो मिथ्या श्रद्धा थाय छे, माटे त्यां पण ‘कथंचित्’ जाणवुं.
(१) एक वस्तुनुं बीजी वस्तुमां आरोपण करीने प्रयोजन साधवामां आवे त्यां उपचार नय कहेवाय छे; ते पण व्यवहारमां ज गर्भित छे ए कह्युं छे. ज्यां प्रयोजन के निमित्त होय त्यां ते उपचार प्रवर्ते छे. धीनो घडो एम कहीए त्यारे, माटीना घडाना आश्रये धी भरेलुं छे तेमां व्यवहारीजनोने आधार-आधेय भाव भासे छे; तेने प्रधान करीने (धीनो घडो) कहेवामां आवे छे. जो ‘धीनो घडो छे’ एम ज कहीए तो लोक समजे अने ‘धीनो घडो’ मंगावे त्यारे लई आवे; माटे उपचार विषे पण प्रयोजन संभवे छे. तथा ज्यां अभेदनयने मुख्य करवामां आवे त्यां अभेदद्रष्टिमां भेद देखाता नथी, छतां ते वखते तेमां (अभेदनयनी मुख्यतामां) ज भेद कहे छे ते असत्यार्थ छे. त्यां पण उपचारनी सिद्धि गौणपणे होय छे.
Page 305 of 655
PDF/HTML Page 360 of 710
single page version
३०४ ] [ मोक्षशास्त्र
(१) आ मुख्य-गौणना भेदने सम्यग्द्रष्टि जाणे छे; मिथ्याद्रष्टि अनेकान्त वस्तुने जाणतो नथी अने सर्वथा एक धर्म उपर द्रष्टि पडे त्यारे ते एक धर्मने ज सर्वथा वस्तु मानीने वस्तुना अन्य धर्मोने तो सर्वथा गौण करीने असत्यार्थ माने अथवा तो अन्य धर्मोनो सर्वथा अभाव ज माने छे. एम मानवाथी मिथ्यात्व द्रढ थाय छे. ज्यां सुधी जीव यथार्थ वस्तुस्वरूप जाणवानो पुरुषार्थ करतो नथी त्यां सुधी यथार्थ श्रद्धा थती नथी. आ अनेकान्त वस्तुने प्रमाण-नय वडे सातभंगथी साधवी ते सम्यक्त्वनुं कार्य छे, तेथी तेने पण सम्यक्त्व ज कहीए छीए-एम जाणवुं. जिनमतनी कथनी अनेक प्रकारे छे ते अनेकान्तरूपे समजवी.
(र) आ सप्तभंगीना अस्ति अने नास्ति ए बे प्रथम भेदो खासलक्षमां लेवा जेवा छे; ते बे भेदो एम बतावे छे के जीव पोतामां सवळा के अवळा भाव करी शके पण परनुं कांई करी शके नहि, तेमज परद्रव्यरूप अन्य जीवो के जड कर्म वगेरे सौ पोतपोतामां कार्य करी शके पण ते कोई आ जीवनुं भलुं, बूरुं कांई करी शके नहि; माटे परवस्तुओ तरफथी लक्ष उठावी अने पोतामां पडता भेदोने गौण करवा माटे ते भेदो उपरथी पण लक्ष उठावी लईने पोताना त्रिकाळी अभेद शुद्ध चैतन्यस्वरूप उपर द्रष्टि आपवी; तेने आश्रये निश्चयसम्यग्दर्शन प्रगटे छे. तेनुं फळ अज्ञाननो नाश थईने उपादेयनी बुद्धि अने वीतरागतानी प्राप्ति छे.
१. अनेकान्त वस्तुने परथी असंग बतावे छे. असंगपणानी स्वतंत्र श्रद्धा ते असंगपणानी खीलवटनो उपाय छे; परथी जुदापणुं ते वस्तुनो स्वभाव छे.
र. अनेकांत वस्तुने ‘स्वपणे छे अने परपणे नथी’ एम बतावे छे. परपणे आत्मा नथी तेथी परवस्तुनुं कांई पण करवा आत्मा समर्थ नथी; अने परवस्तु न होय तेथी आत्मा दुःखी पण नथी.
‘तुं तारापणे छो’ तो परपणे नथी अने परवस्तु अनुकूळ होय के प्रतिकूळ होय तेने फेरववा तुं समर्थ नथी. बस! आटलुं नक्की कर तो श्रद्धा, ज्ञान अने शांति तारी पासे ज छे.
३. अनेकान्त वस्तुने स्वपणे सत् बतावे छे. सत्ने सामग्रीनी जरूर नथी, संयोगनी जरूर नथी; पण सत्ने सत्ना निर्णयनी जरूर छे के ‘सत्पणे छुं, परपणे नथी.’