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अ. ४ उपसंहार ] [ ३०प
४. अनेकान्त वस्तुने एक-अनेकस्वरूप बतावे छे. ‘एक’ कहेतां ज‘अनेक’नी अपेक्षा आवी जाय छे. तुं तारामां एक छो अने तारामां ज अनेक छो. तारा गुण-पर्यायथी अनेक छो, वस्तुथी एक छो.
प. अनेकान्त वस्तुने नित्य-अनित्यस्वरूप बतावे छे. पोते नित्य छे अने पोते ज पर्याये अनित्य छे; तेमां जे तरफनी रुचि ते तरफनो पलटो (परिणाम) थाय. नित्यवस्तुनी रुचि करे तो नित्य टकनारी एवी वीतरागता थाय अने अनित्य एवा पर्यायनी रुचि थाय तो क्षणिक एवा राग-द्वेष थाय.
६. अनेकांत दरेक वस्तुनी स्वतंत्रता जाहेर करे छे. वस्तु परथी नथी अने स्वथी छे एम कह्युं तेमां ‘स्व अपेक्षाए दरेक वस्तु परिपूर्ण ज छे’ ए आवी जाय छे. वस्तुने परनी जरूर नथी, पोताथी ज पोते स्वाधीन-परिपूर्ण छे.
७. अनेकान्त एकेक वस्तुमां अस्ति-नास्ति आदि बे विरुद्ध शक्तिओ बतावे छे. एक वस्तुमां वस्तुपणानी निपजावनारी बे विरुद्ध शक्तिओ थईने ज तत्त्वनी पूर्णता छे, एवी बे विरुद्ध शक्तिओनुं होवुं ते वस्तुनो स्वभाव छे.
व्यवहारनय स्वद्रव्य-परद्रव्यने वा तेना भावोने वा कारण-कार्यादिकने कोईना कोईमां मेळवी निरूपण करे छे माटे एवा ज श्रद्धानथी मिथ्यात्व छे तेथी तेनो त्याग करवो. वळी निश्चयनय तेने ज यथावत् निरूपण करे छे तथा कोईने कोईमां मेळवतो नथी तेथी एवा ज श्रद्धानथी सम्यक्त्व थाय छे माटे तेनुं श्रद्धान करवुं.
प्रश्नः– जो एम छे तो जिनमार्ग मां बन्ने नयोनुं ग्रहण करवुं कह्युं छे, तेनुं शुं कारण?
उत्तरः– जिनमार्गमां कोई ठेकाणे तो निश्चयनयनी मुख्यता सहित व्याख्यान छे तेने तो ‘सत्यार्थ एम ज छे’ एम जाणवुं, तथा कोई ठेकाणे व्यवहारनयनी मुख्यता सहित व्याख्यान छे तेने “ एम नथी पण निमित्तादिनी, अपेक्षाए आ उपचार कर्यो छे” एम जाणवुं; अने ए प्रमाणे जाणवानुं नाम ज बन्ने नयोनुं ग्रहण छे. पण बन्ने नयोना व्याख्यानने समान सत्यार्थ जाणी “ आ प्रमाणे पण छे तथा आ प्रमाणे पण छे” एवा भ्रमरूप प्रवर्तवाथी तो बन्ने नयो ग्रहण करवा कह्या नथी.
प्रश्नः– जो व्यवहारनय असत्यार्थ छे तो जिनमार्गमां तेनो उपदेश शा माटे आप्यो? एक निश्चयनयनुं ज निरूपण करवुं हतुं?
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३०६ ] [ मोक्षशास्त्र
उत्तरः– एवो ज तर्क श्री समयसारमां कर्यो छे त्यां आ उत्तर आप्यो छे के- जेम कोई अनार्य-मलेच्छने मलेच्छभाषा विना अर्थ ग्रहण कराववा कोई समर्थ, नथी, तेम व्यवहार विना परमार्थनो उपदेश अशक्य छे तेथी व्यवहारनो उपदेश छे. वळी ए ज सूत्रनी व्याख्यामां एम कह्युं छे के-ए प्रमाणे निश्चयने अंगीकार कराववा माटे व्यवहार वडे उपदेश आपीए छीए पण व्यवहारनय छे ते अंगीकार करवा योग्य नथी. [–श्री मोक्षमार्ग प्रकाशक]
अत्यारे आ पंचमकाळमां आ कथनीने समजनार सम्यग्ज्ञानी गुरुनुं निमित्त सुलभ नथी, पण ज्यां मळी शके त्यां तेमनी पासेथी मुमुक्षुओए आ स्वरूप समजवुं; अने ज्यां न मळी शके त्यां शास्त्र समजवानो निरंतर उद्यम राखीने आ समजवुं. आना आश्रये सम्यग्दर्शननी प्राप्ति थाय छे माटे आ यथार्थ समजवुं सत्शास्त्रनुं श्रवण करवुं, पठन करवुं, चिंतन करवुं-भावना करवी, धारवुं, हेतु- युक्ति वडे नयविवक्षा समजवी, उपादान-निमित्तनुं स्वरूप समजवुं अने वस्तुना अनेकान्त स्वरूपनो निश्चय करवो. ते सम्यग्दर्शन प्राप्तिनुं मुख्य कारण छे तेथी मुमुक्षु जीवोए तेनो उपाय निरंतर करवायोग्य छे.
आ प्रमाणे जीवनो अधिकार पूरो थयो; हवे परज्ञेयनुं एटले के अजीव तत्त्वनुं स्वरूप पांचमा अध्यायमां वर्णवशे, तेमां बधां द्रव्योने लागु पडता नियमो तथा तेमांथी जीवने लागु पडती बाबतो आचार्य भगवान बतावशे.
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अ. ४ ] [ ३०७
भाग”२प धनुष१ सागरदस हजार
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३०८ ] [ मोक्षशास्त्र
जघन्य पीत
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अ. ४] [ ३०९
मिंद्रशुक्ल२।। हाथ२३ सागर२२ सागर१६ स्वर्गथी
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३१०] [मोक्षशास्त्र
मिंद्रपरम शुक्ल १।। हाथ३२ सागर ३१ सागर
आयुष्य
नोंधः– १. वेमानिक देवोनां स्वर्ग १६ छे, परंतु तेमना इंद्र छे. अहीं इंद्रोनी अपेक्षाए १२ भेद
कह्या छे. पहेलां चार तथा छेल्लां चार स्वर्ग मां दरेकनो एक ईंद्र छे अने वचलां आठ स्वर्गोमां बब्बे स्वर्गनो एक इंद्र छे.
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भूमिका
आ शास्त्र शरू करतां आचार्य भगवाने पहेला अध्यायना पहेला ज सूत्रमां जणाव्युं के, साचा सुखनो एक ज मार्ग छे, अने ते मार्ग सम्यग्दर्शन-ज्ञान- चारित्रनी एकता छे. त्यार पछी तत्त्वार्थश्रद्धान ते सम्यग्दर्शन छे एम जणाव्युं; पछी सात तत्त्वो जणाव्यां; ते तत्त्वोमां पहेलुं जीवतत्त्व छे तेनी समजण बीजा त्रीजा अने चोथा अध्यायोमां आपी.
बीजुं अजीवतत्त्व छे, तेनुं ज्ञान आ पांचमा अध्यायमां कराववामां आव्युं छे. पुद्गल, धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाश अने काळ ए पांच ‘अजीव’ द्रव्यो’ छे एम जणाव्या पछी तेने ओळखवा माटे तेमनां खास लक्षणो तथा तेमनां क्षेत्रो बताव्यां छे. जीव सहित छ द्रव्यो छे एम जणावीने द्रव्य, गुण, पर्याय, नित्य, अवस्थित तथा अनेकांत वगेरेनुं स्वरूप बताव्युं छे.
ईश्वर आ जगतनो कर्ता छे एवी मान्यता भ्रम भरेली छे; जगतनां बधां द्रव्यो पोताथी सत् छे, कोईए तेमने बनाव्यां नथी; आम बताववा माटे ‘सत् द्रव्य लक्षणं’ ‘द्रव्यनुं लक्षण सत् छे’ एम २९ मा सूत्रमां कह्युं. जगतना बधा पदार्थो टकीने क्षणे क्षणे पोतामां ज पोतानी अवस्था पोते पोताथी बदल्या करे छे; आम सत्नुं स्वरूप बताववा माटे ३० मुं सूत्र कह्युं. दरेक वस्तु द्रव्यपणे नित्य अने पर्यायपणे अनित्य छे; एम बताववा माटे, ‘गुण-पर्यायवाळुं द्रव्य छे’ एवुं द्रव्यनुं बीजुं लक्षण ३८ मा सूत्रमां कह्युं छे. दरेक द्रव्य पोते पोताथी परिणमे छे, तेथी एक द्रव्य बीजा द्रव्यनुं कांई करी शके नहि; आम बताववा माटे ४२ मुं सूत्र कह्युं छे. वस्तुनुं स्वरूप अनेकांतमय छे, पण ते एक साथे कही शकातुं नथी तेथी कथनमां मुख्य-गौणपणुं आवे छे; आम ३२ मा सूत्र मां बताव्युं. आ रीते घणा उपयोगी सिद्धांतो आ अध्यायमां लेवामां आव्या छे.
द्रव्यंः अर्पितानर्पित सिद्धेः अने तद्भावः परिणामः ए पांच (२९, ३०, ३८, ३२, अने ४२) सूत्रो वस्तुस्वरूपना पायारूप छे-विश्वधर्मना पायारूप छे. आ अध्याय सिद्ध करे छे के, सर्वज्ञ सिवाय बीजुं कोई जीव अने अजीवनुं सत्यस्वरूप कही शके नही. जीव
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३१२ ] [ मोक्षशास्त्र अने बीजा पांच अजीव (-पुद्गल, धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाश तथा काळ) द्रव्योनुं स्वरूप जे आ शास्त्रमां तेमज बीजां जैनशास्त्रोमां आप्युं छे ते अद्वितीय छे, तेनाथी विरुद्ध मान्यता जगतना कोई पण जीवोनी होय तो ते असत्य छे. माटे जिज्ञासुओए साचुं समजीने सत्यस्वरूप ग्रहण करवुं अने असत्य मान्यता तथा अज्ञान छोडवां.
धर्मना नामे जगतमां जैन सिवायनी बीजी पण अनेक मान्यताओ चाले छे, पण तेमनामां वस्तुस्वरूपनुं यथार्थ कथन मळी आवतुं नथी; जीव, अजीव वगेरे तत्त्वोनुं स्वरूप तेओ अन्यथा कहे छे; आकाश अने काळनुं जे स्वरूप तेओ कहे छे ते स्थूळ अने अन्यथा छे; अने धर्मास्तिकाय तथा अधर्मास्तिकायना स्वरूपथी तो तेओ तद्दन अज्ञात छे. आ उपरथी सिद्ध थाय छे के, वस्तुना साचा स्वरूपथी विरुद्ध चालती ते बधी मान्यताओ असत्य छे, तत्त्वथी विरुद्ध छे.
पुद्गल ए चार [अजीव] अजीव तथा [कायाः] बहुप्रदेशी छे.
(१) सम्यग्दर्शननी व्याख्या करतां तत्त्वार्थश्रद्धान सम्यक्त्व छे एम पहेला अध्यायना बीजा सूत्रमां कह्युं छे; पछी त्रीजा सूत्रमां तत्त्वोनां नाम जणाव्यां छे, तेमांथी जीवनो अधिकार पूरा थतां अजीवतत्त्व कहेवुं जोईए, तेथी आ अध्यायमां मुख्यपणे अजीवनुं स्वरूप कह्युं छे.
(र) जीव अनादिथी पोतानुं स्वरूप जाणतो नथी अने तेथी सात तत्त्वो संबंधी तेने अज्ञान वर्ते छे. शरीर जे पुद्गलपिंड छे तेने ते पोतानुं गणे छे; तेथी अहीं ते पुद्गलतत्त्व जीवथी तद्दन भिन्न छे अने जीव वगरनुं छे, एटले के अजीव छे एम जणाव्युं छे.
(३) शरीर जन्मतां हुं जन्म्यो अने शरीरनो वियोग थतां मारो नाश थयो- एम अनादिथी जीव माने छे, ए तेनी ‘अजीवतत्त्व’ संबंधी मुख्यपणे विपरीत श्रद्धा छे. आकाशना स्वरूपनी पण तेने भ्रमणा छे अने पोते तेनो मालिक छे एम पण जीव माने छे, ए ऊंधी श्रद्धा टाळवा आ सूत्रमां ‘ते द्रव्यो अजीव छे’ एम कह्युं छे. धर्म अने अधर्मने पण जाणतो नथी तेथी छती वस्तुनो नकार छे ते दोष पण आ
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अ. प सूत्र ४-प ] [ ३१३ सूत्र टाळे छे. आकाशनुं स्वरूप सूत्र ४-६-७-९-१८ मां आप्युं छे, धर्मद्रव्य अने अधर्मद्रव्यनुं स्वरूप सूत्र ४-६-७-८-१२ अने १७ मां आप्युं छे. दिशा ते आकाशनो भाग छे.
(४) प्रश्नः– ‘कार्य’नो अर्थ तो शरीर थाय छे छतां अहीं धर्मादि द्रव्यने काय केम कह्यां?
उत्तरः– अहीं उपचारथी तेमने काय कह्यां छे. जेम शरीर पुद्गलद्रव्यना समूहरूप छे तेम धर्मादि द्रव्योने पण प्रदेशोना समूहरूप काय सरीखो व्यवहार छे. अहीं कायनो अर्थ बहुप्रदेश करवो.
(प) प्रश्नः– पुद्गलद्रव्य तो एकप्रदेशी छे तेने ‘काय’ शब्द केम लागु पडे छे? उत्तरः– तेमां बीजां पुद्गलो साथे भळवानी अने तेथी बहुप्रदेशी थवानी शक्ति छे ते अपेक्षाए तेने ‘काय’ कहेवामां आवे छे.
(६) धर्म अने अधर्म ए बे द्रव्यो सर्वज्ञप्रणीत शास्त्रोमां छे. ए नाम शास्त्ररूढिथी आपवामां आव्यां छे. ।। १।।
मां आवशे.)
(१) त्रिकाळ पोताना गुण-पर्यायने द्रवे-प्राप्त थाय छे तेने द्रव्य कहेवामां आवे छे.
(२) पोताना गुण-पर्यायने द्रव्य प्राप्त थाय छे एटले के परना गुण- पर्यायने कोई प्राप्त न थाय एम (अस्ति-नास्तिरूप) अनेकांतद्रष्टिए अर्थ थाय छे. पुद्गल पोताना पर्यायरूप शरीरने प्राप्त थाय पण जीव के बीजुं कोई द्रव्य शरीरने प्राप्त न थाय. जो जीव शरीरने प्राप्त थाय तो शरीर जीवनो पर्याय थई जाय; तेथी ए सिद्ध थयुं के जीव अने शरीर अत्यंत भिन्न पदार्थ छे अने तेथी जीव शरीरने प्राप्त थतो नहि होवाथी शरीरनुं कांई पण त्रणे काळमां करी शके नहि. ।। २।।
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३१४ ] [ मोक्षशास्त्र
छे. जीवनुं व्याख्यान पूर्वे (पहेली चार अध्यायोमां) थई गयुं छे; ए सिवाय ३९ मा सूत्रमां ‘काळ’ द्रव्य बताव्युं छे; तेथी बधां मळी छ द्रव्यो थयां.
(र) जीवो घणा छे अने दरेक जीव ‘द्रव्य’ छे एम आ सूत्रमां प्रतिपादन कर्युं; तेनो अर्थ शुं छे तेनी विचारणा करीए. जीव पोताना ज गुण-पर्यायने प्राप्त थाय छे तेथी तेने पण द्रव्य कहेवामां आवे छे. शरीर तो जीवद्रव्यनो पर्याय नथी, पण ते पुद्गलद्रव्यनो पर्याय छे, केम के तेमां स्पर्श, रस, गंध अने वर्ण छे अने चेतन नथी. कोई द्रव्य बीजा द्रव्यना गुण-पर्यायने प्राप्त थाय ज नहि, तेथी पुद्गलद्रव्य के तेना शरीरादि पर्याय चेतनपणाने-जीवपणाने के जीवना कोई गुण- पर्यायने प्राप्त कदी पण थाय नहि. ए नियम प्रमाणे जीव शरीरने खरेखर प्राप्त थाय एम बने ज नहि. जीव दरेक समये पोताना पर्यायने प्राप्त थाय अने शरीरने प्राप्त थाय नहि; तेथी जीव शरीरनुं कांई करी शके नहि. ए त्रिकाळी अबाधित सिद्धांत छे. आ सिद्धांत समज्या विना जीव-अजीव तत्त्वनी अनादिनी चाली आवती भूल कदी टळे नहि.
(३) शरीर साथे जीवनो जे संबंध अध्याय २, ३ अने ४ मां बताव्यो छे ते एकक्षेत्रावगाहसंबंध मात्र बताव्यो छे, तादात्म्य संबंध बताव्यो नथी; तेथी ए व्यवहारकथन छे. व्यवहारनां वचनोने खरेखरां (-निश्चयनां) वचनो जेओ माने छे तेओ ‘घीनो घडो’ एम कहेतां घडाने खरेखर घीनो बनेलो माने छे, माटी के धातुनो बनेलो मानता नथी माटे तेओ मिथ्याद्रष्टि छे. शास्त्रमां तेवा जीवोने ‘व्यवहारविमूढता’ कह्या छे. जिज्ञासु सिवायना जीवो आ व्यवहारविमूढ छोडशे नहि अने व्यवहार विमूढ जीवोनी महामोटी संख्या (majority) त्रणे काळ रहेशे. माटे धर्मप्रेमी जीवोए (-दुःखने टाळवाना साचा उमेदवारोए) आ अध्यायना सूत्र १- र-३ नी टीकामां जे स्वरूप बताव्युं छे ते लक्षमां लई, आ स्वरूप बराबर समजीने जीव अने अजीवतत्त्व स्वरूपनी अनादिथी चाली आवती भ्रमणा टाळवी. ।। ३।।
अने [अवस्थितानि] अवस्थित छे.
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अ. प सूत्र ४ ] [ ३१प
(१) नित्य-कदी नष्ट न थाय ते नित्य (जुओ, सूत्र ३१ तथा तेनी टीका.) अवस्थित–पोतानी संख्याने उल्लंघन न करे ते अवस्थित. अरूपी–स्पर्श-रस-गंध-वर्ण रहित ते अरूपी. (र) पहेला बे स्वभाव बधां द्रव्योमां होय छे. ऊंचे आसमानी रंग देखाय छे तेने लोको आकाश कहे छे पण ते तो पुद्गलनो रंग छे; आकाश तो सर्वव्यापक अरूपी, अजीव एक द्रव्य छे.
(३) ‘अवस्थित’ शब्द एम सूचवे छे के-दरेक द्रव्य पोतपोताना परिणामने करे छे. परिणाम अने परिणामीपणुं बीजी कोई रीते बनी शकतुं नथी. जो एक द्रव्य, तेना गुण के पर्याय बीजा द्रव्यनुं कांई पण करे के करावे तो ते तन्मय (परद्रव्यमय) थई जाय. परंतु कोई द्रव्य परद्रव्यमय तो थतुं नथी. जो कोई द्रव्य अन्य द्रव्यमय थई जाय तो ते द्रव्यना नाशनी आपत्ति आवे अने द्रव्यनुं ‘अवस्थितपणुं’ रहे नहि. वळी द्रव्योनो नाश थतां तेनुं ‘नित्यपणुं’ पण रहे नहि.
(४) दरेक द्रव्य अनंत गुणोनो पिंड छे. द्रव्य नित्य होवाथी तेनो दरेक गुण नित्य रहे छे. वळी एक गुण ते ज गुणरूप रहे छे, बीजा गुणरूप थई जतो नथी. आ रीते दरेक गुणनुं अवस्थितपणुं छे; जो तेम न होय तो गुणनो नाश थाय, अने गुणनो नाश थतां आखा द्रव्यनो नाश थाय अने तेम थतां द्रव्यनुं ‘नित्यपणुं’ रहे नहि.
(प) जे द्रव्यो अनेकप्रदेशी छे तेनो दरेक प्रदेश पण नित्य अने अवस्थित रहे छे. तेमांथी एक पण प्रदेश बीजा प्रदेशरूप थतो नथी. जो एक प्रदेशनुं स्थान बीजा प्रदेशरूप थाय तो प्रदेशोनुं अवस्थितपणुं रहे नहि. एक पण प्रदेशनो नाश थाय तो आखा द्रव्यनो नाश थाय अने तेम थाय तो तेनुं नित्यपणुं रहे नहि.
(६) दरेक द्रव्यनो पर्याय पोतपोताना अवसरे प्रगटे छे अने पछी पछीना अवसरोए पछी पछीनो पर्याय प्रगटे छे अने पहेलां पहेलांनो पर्याय प्रगटतो नथी -ए रीते पर्यायोनुं अवस्थितपणुं सिद्ध थाय छे. जो पर्याय पोतपोताना अवसरे प्रगट न थाय अने बीजा पर्यायना अवसरे प्रगट थाय तो पर्यायनो प्रवाह अवस्थित रहे नहि अने तेम थतां द्रव्यनुं अवस्थितपणुं पण रहे नहि. ।। ४।।
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३१६ ] [ मोक्षशास्त्र
(१) ‘रूपी’नो अर्थ स्पर्श, रस, गंध अने वर्ण सहित एम थाय छे (जुओ सूत्र २३). पुद् + गल ए बे पद वडे पुद्गल शब्द बन्यो छे. पुद् एटले भेगुं थवुं-मळी जवुं, अने गल एटले छूटा पडी जवुं. स्पर्शगुणना पर्यायनी विचित्रताना कारणे मळी जवुं अने छूटा पडवुं पुद्गलमां ज बने छे. ए कारणे ज्यारे तेमां स्थूळता आवे छे त्यारे पुद्गलद्रव्य इन्द्रियोनो विषय बने छे. रूप-रस- गंध-स्पर्शनुं गोळ, त्रिकोण, चोरस, लांबो वगेरे आकारे परिणमन ते मूर्ति छे.
(२) पृथ्वी, जळ, अग्नि, वायु अने द्रव्यमन ते वर्ण, गंध, रस अने स्पर्शवाळां छे, तेथी ते पांचेय पुद्गलद्रव्य छे. द्रव्यमन सूक्ष्म पुद्गलना प्रचयरूप आठ पांखडीना खीलेला कमळना आकारे हृदयस्थानमां रहेलुं छे. ते रूपी एटले के स्पर्श, रस, गंध अने वर्णवाळुं होवाथी पुद्गलद्रव्य छे. (जुओ, आ अध्यायना सूत्र १९ नी टीका)
(३) नेत्रादि इन्द्रिय समान मन स्पर्श, रस, गंध अने वर्णवाळुं होवाथी रूपी छे, मूर्तिक छे; ज्ञानोपयोगमां ते निमित्त छे.
शंकाः– शब्द मूर्तिकशून्य होवा छतां ज्ञानोपयोग वखते निमित्त छे माटे जे ज्ञानोपयोगने निमित्त होय ते पुद्गल होय तेम कहेवामां व्यभिचारी हेतु आवे छे. (अर्थात् शब्द अमूर्तिक होवा छतां ज्ञानोपयोगने निमित्त जोवामां आवे छे माटे ते हेतु पक्ष, सपक्ष, अने विपक्षमां रहेतो होवाथी व्यभिचारी थयो) तो मन मूर्तिक छे एम क्या कारणे मानवुं?
समाधानः– शब्द अमूर्तिक नथी. शब्द पुद्गलजन्य होवाथी तेमां मूर्तिकपणुं छे, माटे उपर आपेल हेतु व्यभिचारी नथी, पण सपक्षमां ज रहेनारो छे तेथी द्रव्यमन पुद्गल छे एम सिद्ध थयुं.
(४) आ उपरथी एम समजवानुं नथी के इन्द्रियोथी ज्ञान थाय छे. इन्द्रियो तो पुद्गल छे तेथी ज्ञान रहित छे; जो तेनाथी ज्ञान थाय तो जीव चेतन मटी जड-पुद्गल थई जाय; पण तेम बने नहि. जीवना ज्ञानोपयोगनी जे प्रकारनी लायकात होय ते प्रमाणे पुद्गल-इन्द्रियोनो संयोग होय, एवो तेमनो निमित्त-नैमित्तिक संबंध छे; पण
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अ. प सूत्र ६-७ ] [ ३१७ तेथी निमित्त-के जे पर छे अने आत्मामां नथी ते-आत्मामां कांई करी शके के मदद-सहाय करी शके एम मानवुं ते विपरीतता छे.
संख्या घणी छे तथा पुद्गलना अणु, स्कंधादि भेदना कारणे प्रकारो घणा छे.
(६) मन तथा सूक्ष्म पुद्गलो तो इन्द्रियो द्वारा जाणी शकातां नथी. पण ते सूक्ष्मता छोडीने ज्यारे स्थूळता धारण करे त्यारे इंद्रियो द्वारा जाणी शकाय छे, अने त्यारे तेमां स्पर्श, रस, गंध अने वर्णनी अवस्था प्रत्यक्ष देखाय छे; माटे सूक्ष्म अवस्थामां पण ते स्पर्श, रस, गंध अने वर्णवाळां छे एम नक्की थाय छे.
(७) पुद्गल परमाणुओनुं एक दशामांथी बीजी दशामां पलटवुं थया करे छे. जेम माटीना परमाणुओमांथी जळ थाय छे, जळमांथी पृथ्वी थाय छे. पृथ्वी- काष्ठादिथी अग्नि थाय छे, पाणीमांथी वीजळी-अग्नि थाय छे, वायुना संमेलनथी जळ थाय छे. माटे पृथ्वी, जळ, अग्नि, वायु, मन वगेरेना परमाणुओ जुदी जुदी जातना होय छे ए मान्यता यथार्थ नथी, केम के पृथ्वी आदि समस्त पुद्गलना ज विकार छे. ।। प।।
अर्थात् धर्मद्रव्य, अधर्मद्रव्य अने आकाशद्रव्य एक एक छे.
जीवद्रव्य अनंत छे, पुद्गलद्रव्य अनंतानंत छे; अने कालद्रव्य असंख्यात अणुरूप छे. पुद्गलद्रव्य एक नथी एम बताववा ‘आ’ शब्द आ सूत्रमां पहेला सूत्रनी संधि करीने वापर्यो छे. ।। ६।।
क्रियारहित छे, अर्थात् तेओ एक स्थानथी बीजा स्थानने प्राप्त थतां नथी.
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३१८ ] [ मोक्षशास्त्र क्षेत्रथी बीजा क्षेत्रे गमन. आ अर्थमांथी छेल्लो अर्थ अहीं लागु पडे छे. कालद्रव्य पण क्षेत्रगमनागमनरहित छे, पण अहीं ते जणावेल नथी केम के पहेला सूत्रमां कहेलां चार द्रव्यो पूरतो विषय चाले छे, जीव अने काळनो विषय चालतो नथी. अणु अने स्कंध बन्ने दशाओ वखते पुद्गलद्रव्य गमन करे छे अर्थात् एक क्षेत्रथी बीजा क्षेत्रे गमन करे छे तेथी तेने अहीं बातल करेल छे. आ सूत्रमां त्रण द्रव्योमां क्रियानी नास्ति जणावी अने बाकी रहेल पुद्गलद्रव्यमां क्रिया-हलनचलननी अस्ति जणावीने अनेकांत सिद्धांत प्रमाणे क्रियानुं स्वरूप सिद्ध कर्युं.
(र) उत्पाद-व्ययरूप क्रिया दरेक द्रव्यमां समये समये होय छे, ते आ द्रव्योमां पण छे एम समजवुं.
(३) द्रव्योमां भाववती तथा क्रियावती एम बे प्रकारनी शक्तिओ छे; तेमां भाववती शक्ति बधां द्रव्योमां छे अने तेथी ते शक्तिनुं परिणमन-उत्पाद-व्यय दरेक द्रव्यमां द्रव्यपणुं टकीने थाय छे. क्रियावती शक्ति जीव अने पुद्गल ए बे ज द्रव्योमां छे; ते बन्ने एक क्षेत्रथी बीजा क्षेत्रे जाय छे; पण तेमां विशिष्टता एटली छे के जीव विकारी होय त्यारे अने सिद्धगतिमां जती वखते क्रियावान बने छे अने सिद्धगतिमां ते स्थिरपणे रहे छे. (सिद्धगतिमां जती वखते जीव एक समयमां सात राजु जाय छे). सूक्ष्म पुद्गलो पण शीघ्र गतिए एक समयमां चौद राजलोक जाय छे एटले पुद्गलमां मुख्यपणे हलन-चलनरूप क्रिया छे, ज्यारे जीवद्रव्यमां संसारी अवस्थामां कोई कोई वखते हलन-चलनरूप क्रिया थाय छे.
असंख्येयाः प्रदेशाः धर्माधर्मैकजीवानाम्।। ८।।
[असंख्येया] असंख्यात [प्रदेशाः] प्रदेशो छे.
(१) प्रदेश-एक पुद्गल परमाणु जेटला आकाशना क्षेत्रने रोके तेटला क्षेत्रने एक प्रदेश कहे छे.
(२) आ दरेक द्रव्यो द्रव्यार्थिकनये अखंड, एक, निरंश छे. पर्यायार्थिकद्रष्टिए असंख्यातप्रदेशी छे. तेने असंख्यात प्रदेशो छे, तेथी कांई तेना असंख्य खंड के टुकडा पडी जता नथी तेम ज जुदा जुदा एकेक प्रदेश जेवडा टुकडाना मिलनथी थयेलुं ते द्रव्य नथी.
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अ. प सूत्र ९-१० ] [ ३१९
(३) आकाश पण द्रव्यअपेक्षाए (द्रव्यार्थिकनये) अखंड, निरंश, सर्वगत, एक अने भिन्नता रहित छे. पर्यायार्थिकनयनी अपेक्षाए परमाणु रोके तेटला विभागने प्रदेश कहे छे; आकाशमां कांई टुकडा नथी के तेना खंड थई जता नथी. टुकडा तो संयोगी पदार्थना थाय; पुद्गलनो स्कंध संयोगी छे, तेथी टुकडा लायक थाय त्यारे टुकडारूपे ते परिणमे छे.
(४) आकाशने आ सूत्रमां लीधुं नथी केमके तेना प्रदेशो अनंत छे तेथी ते नवमां सूत्रमां कहेशे.
(प) धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय अने जीवना प्रदेशो असंख्यात छे अने ते संख्याए लोकप्रमाण असंख्यात छे, छतां ते प्रदेशोनी व्यापक अवस्थामां फेर छे. धर्म अने अधर्म द्रव्यो आखा लोकमां व्यापेल छे (ते बारमा अने तेरमा सूत्रमां कह्युं छे), अने जीवना प्रदेशो ते ते वखतना जीवना शरीर प्रमाणे पहोळा-टूंका थाय छे (ए सोळमा सूत्रमां कह्युं छे.) जीव केवळसमुद्घात अवस्था धारण करे त्यारे संपूर्ण लोकाकाशमां तेना प्रदेशो व्याप्त थाय छे, तथा बीजा समुद्घातो वखते ते ते शरीरमां प्रदेशो रही केटलाक प्रदेशो बहार नीकळे छे.
(१) आकाशना बे विभाग छे-अलोकाकाश अने लोकाकाश. तेमां लोकाकाशना प्रदेशो असंख्यात छे. जेटला धर्मास्तिकाय अने अधर्मास्तिकायना प्रदेशो छे तेटला ज लोकाकाशना छे. वळी तेओनो विस्तार एक सरखो छे. लोकाकाश छए द्रव्योनुं स्थान छे. आ बाबत बारमा सूत्रमां कही छे.
असंख्यात अने अनंत प्रदेश छे.
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३२० ] [ मोक्षशास्त्र
(१) आमां पुद्गलना संयोगी पर्याय (स्कंध) ना प्रदेशो जणाव्या छे. एक एक अणु स्वतंत्र पुद्गलद्रव्य छे. तेने एक ज प्रदेश होय छे, एम सूत्र ११मां कह्युं छे.
(२) स्कंध बे परमाणुओथी शरू करी अनंत परमाणुओना थाय छे, तेनुं कारण सूत्र ३३ मां आप्युं छे.
(३) शंकाः– ज्यारे लोकाकाशना असंख्यात ज प्रदेशो छे तो तेमां अनंत प्रदेशवाळा पुद्गलद्रव्य तथा बीजां द्रव्यो पण शी रीते रही शके?
समाधानः– पुद्गलद्रव्यमां बे प्रकारनुं परिणमन थाय छे; एक सूक्ष्म, बीजुं स्थूळ. ज्यारे तेनुं सूक्ष्म परिणमन थाय छे त्यारे लोकाकाशना एक प्रदेशमां पण अनंत प्रदेशवाळो पुद्गलस्कंध रही शके छे. वळी बधां द्रव्योमां एकबीजाने अवगाहन देवानुं सामर्थ्य छे, तेथी अल्प क्षेत्रमां ज समस्त द्रव्योने रहेवामां कांई बाधा थती नथी. आकाशमां बधां द्रव्योने एकी साथे स्थान देवानुं सामर्थ्य छे, तेथी एक प्रदेशमां अनंतानंत परमाणु रही शके छे; जेम ओरडामां एक दीवानो प्रकाश रही शके छे अने ते ज ओरडामां तेटला ज विस्तारमां पचास दीवानो प्रकाश रही शके छे तेम. ।। १०।।
एकप्रदेशी छे.
(१) अणु एक द्रव्य छे, तेने एक ज प्रदेश छे, केम के परमाणुओमां खंडनो अभाव छे.
२. अमूर्त द्रव्यो चेतन अने जड एम बे प्रकारे छे.
३. मूर्त द्रव्यो अणु अने स्कंध एम बे प्रकारे छे.
४. मूर्त द्रव्यो सूक्ष्म अने बादर एम बे प्रकारे छे.
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अ. प सूत्र ११ ] [ ३२१
प. सूक्ष्म मूर्त द्रव्य सूक्ष्मसूक्ष्म अने सूक्ष्म एम बे प्रकारे छे. ६. स्कंध सूक्ष्म अने बादर एम बे प्रकारे छे. ७. सूक्ष्म अणु बे प्रकारे छे-पुद्गलअणु अने कालाणु. ८. द्रव्यो बे प्रकारे छे-अक्रिय (गमनागमन रहित-चार द्रव्यो). अने सक्रिय (गमनागमन सहित-जीव अने पुद्गल).
९. द्रव्यो एकप्रदेशी अने बहुप्रदेशी एम बे प्रकारे छे. १०. बहुप्रदेशी द्रव्यो बे प्रकारे छे-संख्यात प्रदेशवाळा अने संख्याथी पर प्रदेशवाळा.
११. संख्याथी पर बहुप्रदेशी द्रव्यो बे प्रकारे छे-असंख्यातप्रदेशी अने अनंतप्रदेशी.
१२. अनंतप्रदेशी द्रव्यो बे प्रकारे छे-अखंड आकाश अने अनंतप्रदेशी पुद्गलस्कंध.
१३. असंख्यात लोकप्रदेश रोकतां द्रव्यो बे प्रकारे छे-अखंड द्रव्यो (धर्म, अधर्म तथा केवळसमुद्घात करतो जीव) अने पुद्गल महास्कंध ते संयोगी द्रव्य छे.
१४. अखंड लोकप्रमाण असंख्यातप्रदेशी द्रव्यो बे प्रकारे छेः १. धर्म तथा अधर्म (लोकव्यापक), अने र. जीव (लोकप्रमाण), संख्याए असंख्यात प्रदेशी, अने विस्तारमां शरीर प्रमाणे व्यापक.
१प. अमूर्त बहुप्रदेशी द्रव्यो बे प्रकारे छे-संकोच-विस्तार रहित (आकाश, धर्मद्रव्य, अधर्मद्रव्य तथा सिद्धजीव) अने संकोच-विस्तार सहित (संसारी जीवना प्रदेशो संकोच-विस्तार सहित छे). [सिद्धजीव चरमशरीरथी किंचित् न्यून होय छे].
१६. द्रव्यो बे प्रकारे छे-सर्वगत (आकाश) अने देशगत (बाकीनां पांच द्रव्यो).
१७. सर्वगत बे प्रकारे छे-क्षेत्रे सर्वगत (आकाश) अने भावे सर्वगत (ज्ञानशक्ति).
१८. देशगत बे प्रकारे छे-एकप्रदेशगत (परमाणु, कालाणु तथा एकप्रदेशस्थित सूक्ष्म पुद्गलस्कंध), अने अनेकदेशगत (धर्म, अधर्म, जीव अने पुद्गलस्कंध).
१९. द्रव्योमां अस्ति बे प्रकारे छे-अस्तिकाय (आकाश, धर्म, अधर्म, जीव तथा पुद्गल), अने कायरहित अस्ति (कालाणु).
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३२२ ] [ मोक्षशास्त्र
२०. अतिकाय बे प्रकारे छे-अखंड अस्तिकाय (आकाश, धर्म, अधर्म तथा जीव), अने उपचरित अस्तिकाय (संयोगी पुद्गलस्कंधो, पुद्गलमां समूहरूप थवानी शक्ति).
२१. दरेक द्रव्यनुं गुण तथा पर्यायमां अस्तिपणुं बे प्रकारे छे-पोताथी अस्तिपणुं, अने परथी नास्तिपणानुं अस्तिपणुं.
२२. दरेक द्रव्यमां अस्तिपणुं बे प्रकारे छे-ध्रुव अने उत्पाद-व्यय. २३. द्रव्योमां शक्ति भाववती तथा क्रियावती एम बे प्रकारे छे. २४. द्रव्योमां विभाव संबंधी बे प्रकार छे-विभाग सहित (जीव, पुद्गल; तेमने अशुद्ध दशामां विभाव होय छे), अने विभाव रहित (बीजां द्रव्यो त्रिकाळ विभावरहित छे).
२प. द्रव्योमां विभाव बे प्रकारे छे-(१) जीवने विजातीय पुद्गल साथे, (२) पुद्गलने सजातीय एकबीजा साथे तथा सजातीय पुद्गल अने विजातीय जीव, बन्ने साथे.
नोंधः– स्याद्वाद समस्त वस्तुओना स्वरूपने साधनारुं, अर्हंत सर्वज्ञनुं एक अस्खलित शासन छे. ते ‘बधुं अनेकांतात्मक छे’ एम उपदेशे छे. ते वस्तुना स्वरूपनो यथार्थ निर्णय करावे छे. ते संशयवाद नथी. केटलाक कहे छे के स्याद्वाद वस्तुने नित्य अने अनित्य वगेरे बे प्रकारे बन्ने पक्षथी कहे छे, माटे संशयनुं कारण छे; पण ते खोटुं छे. अनेकांतमां तो बन्ने पक्ष निश्चित छे तेथी ते संशयनुं कारण नथी. (३) द्रव्यपरमाणु तथा भावपरमाणुनो बीजो अर्थ–जे अहीं लागु नथी.
प्रश्नः– ‘चारित्रसार’ वगेरे शास्त्रोमां कह्युं छे के जे द्रव्यपरमाणु अने भावपरमाणुनुं ध्यान करे तेने केवळज्ञान थाय. तेनो शुं अर्थ छे?
उत्तरः– त्यां द्रव्यपरमाणुथी आत्मद्रव्यनी सूक्ष्मता अने भावपरमाणुथी भावनी सूक्ष्मता कही छे. त्यां पुद्गलपरमाणुनुं कथन नथी. रागादि विकल्पनी उपाधिरहित आत्मद्रव्यने सूक्ष्म कहेवामां आवे छे, कारण के निर्विकल्प समाधिनो विषय आत्मद्रव्य, मन अने इन्द्रियोथी अगोचर छे. भाव शब्दनो अर्थ स्वसंवेदन परिणाम थाय छे. परमाणु शब्दथी भावनी सूक्ष्म अवस्था समजवी, केम के वीतराग, निर्विकल्प, समरसीभाव पांच इन्द्रियो अने मननां विषयथी अतीत छे.
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अ. प सूत्र १२ ] [ ३२३
प्रश्नः– द्रव्यपरमाणुनो आ अर्थ अहीं केम लागु नथी? उत्तरः– आ सूत्रमां जे परमाणु लीधो छे ते पुद्गलपरमाणु छे तेथी द्रव्यपरमाणुनो उपरनो अर्थ अहीं लागु पडतो नथी. ।। ११।।
[लोकाकाशे] लोकाकाशमां छे.
(१) आकाशना जेटला भागमां जीव वगेरे छए द्रव्यो छे ते भागने लोकाकाश कहे छे. बाकीना आकाशने अलोकाकाश कहे छे.
(र) आकाश एक अखंड द्रव्य छे. तेमां कंई भागला पडता नथी, पण परद्रव्यना अवगाहनी अपेक्षाए आ भेद पडे छे; एटले के निश्चये आकाश एक अखंड द्रव्य छे, व्यवहारे-परद्रव्यना निमित्तनी अपेक्षाए तेना बे भाग ज्ञानमां पडे छे. (लोकाकाश, अलोकाकाश).
(३) दरेक द्रव्य खरेखर पोतपोताना क्षेत्रमां रहे छे; लोकाकाशमां रहे छे ते परद्रव्यअपेक्षाए निमित्तनुं कथन छे; तेमां परक्षेत्रनी अपेक्षा आवे छे तेथी ते व्यवहार छे. आकाश पहेलुं थयुं, तथा बीजां द्रव्यो तेमां पछी उत्पन्न थयां एम नथी, केम के बधां द्रव्यो अनादि-अनंत छे.
(४) आकाश पोते पोताने अवगाहे छे, ते पोताने निश्चयअवगाहरूप छे. आकाशथी बीजुं द्रव्य मोटुं छे नहि अने होई पण न शके. तेथी तेमां व्यवहार- अवगाहनी कल्पना आवी शके नहि.
(प) बधां द्रव्योने अनादि पारिणामिक युगपदता छे, पहेला-पछीनो भेद नथी. जेम युतसिद्धने व्यवहारथी आधार-आधेयपणुं होय छे तेम अयुतसिद्धने पण व्यवहारथी आधार-आधेयपणुं होय छे.
युतसिद्ध=पाछळथी जोडायेलां; अयुतसिद्ध=मूळथी भेगां. द्रष्टांत-१. कुंडामां बोर ए पाछळथी जोडायेलानुं द्रष्टांत छे. २. थांभलामां सार ते मूळथी भेगानुं द्रष्टांत छे.
(६) एवंभूतनयनी अपेक्षाए अर्थात् जे स्वरूपे पदार्थ छे ते स्वरूप वडे निश्चय करनारा नयनी अपेक्षाए बधां द्रव्यने पोतपोतानो आधार छे. द्रष्टांतः- कोईने
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३२४ ] [ मोक्षशास्त्र एवो प्रश्न पूछीए के तमे क्यां छो? तो ते कहे छे के हुं मारामां छुं. ए रीते दरेक द्रव्यने निश्चयनये पोतपोतानो आधार छे. आकाशथी बीजुं कोई द्रव्य मोटुं नथी. आकाश बधी बाजु अनंत छे तेथी ते धर्मादिनो आधार छे एम व्यवहारनये कही शकाय छे. धर्मादिक लोकाकाशनी बहार नथी एटलुं सिद्ध करवा माटे आ आधार- आधेयसंबंध मानवामां आवे छे.
(७) धर्मादिक द्रव्यो ज्यां देखाय ते आकाशनो भाग लोक छे अने ज्यां न देखाय ते भाग अलोक छे. आ भेद धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, जीव, पुद्गल अने काळना कारणे पडे छे, केम के धर्मद्रव्य अने अधर्मद्रव्य आखा लोकाकाशव्यापी छे. आखा लोकाकाशमां एवो एक पण प्रदेश नथी के ज्यां जीव न होय. वळी, जीव ज्यारे केवळसमुद्घात करे छे त्यारे आखा लोकाकाशमां व्यापे छे. पुद्गलनो अनादिअनंत एक महास्कंध छे, जे लोकाकाशव्यापी छे अने आखो लोक जुदां जुदां पुद्गलोथी पण व्यापेल छे. वळी, कालाणु एक एक छूटां हीराना ढगलानी माफक आखा लोकाकाशमां व्यापेल छे. ।। १२।।
तेलनी माफक समस्त लोकाकाशमां छे.
(१) लोकाकाशमां द्रव्यना अवगाहना प्रकार जुदाजुदा छे एम आ सूत्र बतावे छे. धर्म अने अधर्मना अवगाहनो प्रकार आ सूत्रमां जणाव्यो छे. पुद्गलना अवगाहनो प्रकार १४मा सूत्रमां अने जीवना अवगाहनो प्रकार १प मा तथा १६ मा सूत्रमां आपेल छे. काळद्रव्य असंख्यात छूटां छूटां छे तेथी तेनो प्रकार स्पष्ट छे, एटले कहेवामां आव्यो नथी, पण आ सूत्रो उपरथी तेनुं गर्भित कथन समजी लेवुं.
(र) आ सूत्र एम पण सूचवे छे के धर्मद्रव्यना एकेक प्रदेशने अधर्मद्रव्यना एकेक प्रदेशमां व्याघात रहित प्रवेश छे, अने अधर्मद्रव्यना एकेक प्रदेशनो धर्मद्रव्यना एकेक प्रदेशमां व्याघात रहित प्रवेश छे. आ परस्पर प्रवेशपणुं धर्म-अधर्मनी अवगाहनशक्तिना निमित्ते छे.